सिविल सेवा परीक्षा : कुछ और सुझाव
मृणालिनी शर्मा
इसे भारतीय लोकतंत्र की हालिया ऐतिहासिक उपलब्धि ही कहा जाएगा जब एक सप्ताह के अंदर सरकार ने संसद में की गई घोषणा के अनुरूप अपना फैसला वापिस ले लिया । यानि सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी आगे नहीं रहेगी, बल्कि बराबर रहेगी । अच्छा होता यदि सरकार एक कदम और आगे जाकर प्रथम चरण की प्रिलिमिनरी परीक्षा से भी अंग्रेजी का हिस्सा हटा देती । अखबारों में छनकर आ रही सूचनाओं के अनुसार संक्षेप में सिविल सेवा परीक्षा की जिन अधिसूचनाओं को रद्द किया गया है, वे हैं :-
1. अंग्रेजी के जिन सौ नंबरों को अंतिम मैरिट में शामिल किया गया था उन्हें हटा दिया गया है । उसकी जगह पहले की ही तरह अंग्रेजी और आठवीं अनुसूची की किसी भी भाषा का मैट्रिक तक का ज्ञान पर्याप्त है । यानि किसी भी नौकरशाह को एक भारतीय भाषा आनी ही चाहिए ।
2. माध्यम चुनने के लिए कम-से-कम पच्चीस अभ्यर्थियों की शर्त भी हटा दी गई है । अर्थात् गुजराती, कोंकणी, मणिपुरी, उर्दू आदि किसी भी भारतीय भाषा को परीक्षा का माध्यम चुनने वाले भले ही दो-चार हों, आयोग की तरफ से कोई रोक नहीं रहेगी ।
3. माध्मय भाषा के लिए डिग्री में पढ़ने की अनिवार्यता भी नहीं रहेगी । यानि कि वनस्पति शास्त्र अंग्रेजी माध्यम से भले ही किया हो,यदि अभ्यर्थी चाहे तो सिविल सेवा परीक्षा अंग्रेजी अथवा तमिल, हिंदी किसी भी भाषा में दे सकता है ।
4. चौथी शर्त भारतीय भाषाओं के साहित्य को वैकल्पिक विषय के रूप में चुनने से संबंधित थी । नये निर्णय के अनुसार कोई भी अभ्यर्थी किसी भी भारतीय भाषा के साहित्य को वैकल्पिक विषय के रूप में चुन सकता है । भले ही उसने उस विषय में शिक्षा पाई हो अथवा नहीं ।
5. निबंध के पेपर तो पहले की तरह शामिल हैं ।
संसद और सड़क पर आए भूचाल के बीच ये घोषणाएं अच्छी लग सकती हैं लेकिन इसमें नया कुछ भी नहीं है । बस उन्हीं सबकी वापसी है जो कोठारी समिति की अनुशंसाओं के अनुरूप सिविल सेवा परीक्षाओं में 1979 से लागू थीं । अरुण निगबेकर भी कह रहे हैं कि उन्होंने भारतीय भाषाओं के बारे में ऐसी नकारात्मक अनुशंसाएं की ही नहीं थीं । उन्होंने तो केवल संवाद, अभिव्यक्ति की क्षमता पर जोर दिया था । फिर संवाद, अभिव्यक्ति के बहाने अंग्रेजी को लाना या उस पर जोर देना और भारतीय भाषाओं को बाहर का रास्ता दिखाना किन परजीवी दिमागों की उपज थी ? इसे तंत्र ही जाने ।
आइये भाषायी भावनात्मक उन्माद, आक्रोश से ऊपर उठकर इस प्रणाली के अच्छे-बुरे पक्षों पर विचार करते हैं । बदलती भारतीय शिक्षा प्रणाली,समाज और प्रशासन की नयी जरूरतों की चुनौतियों के मद्देनजर अरुण निगबेकर समिति के अच्छे पक्ष भी कम नहीं हैं । बस गलती यह हुई कि इसमें अपनी भाषाओं, साहित्य के उस पक्ष को सिरे से खारिज कर दिया जो मशहूर कोठारी समिति की रीढ़ थी । यहां यह याद रखना जरूरी है कि कोठारी समिति की सिफारिशों के अनुरूप पहली बार देश की सभी प्रशासनिक सेवाओं आई.ए.एस., विदेश सेवा, रेलवे, रक्षा सभी के लिए एक कॉमन परीक्षा की शुरूआत हुई थी । उससे पहले पिछले तीस वर्षों 1947 से 1978 तक उम्र, विषय, साक्षात्कार और अलग-अलग सेवा के लिए अलग-अलग प्रणालियां थीं । कोठारी समिति ने ग्रामीण गरीब बच्चों को ध्यान में रखते हुए उम्र बढ़ाकार अट्ठाईस वर्ष की । देश भर में परीक्षा के केन्द्र बढ़ाए । लेकिन सबसे क्रांतिकारी बात थी आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने की छूट । उन्होंने अंग्रेजी को बाहर नहीं किया था बस भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के बराबर रखा था । सच्चे मायनों में यह था प्रशासन के एक बहुत छोटे से हिस्से में लोकतंत्र का प्रवेश । गरीबों का अपनी भाषाओं के बल पर प्रवेश । इसके परिणाम भी बहुत अच्छे निकले ।
इसका प्रमाण है इस परीक्षा के मूल्यांकन के लिए समय-समय पर बैठाई गई विभिन्न समितियां और उनकी विस्तृत रिपोर्ट । इस परीक्षा की पहली मूल्यांकन समिति के चेयरमैन थे प्रोफेसर सतीश चन्द्र । जाने-माने इतिहासकार और भूतपूर्व यू.जी.सी. के चेयरमैन । समिति ने अपनी रिपोर्ट 1990 में दी । भारतीय लोकतंत्र और नौकरशाही के लिए बड़े सुखद सत्य सामने आए । जैसे :-
(1) आजादी के बाद पहली बार पहली पीढ़ी के पढ़े हुए नौजवान सीधे इतनी ऊंची प्रशासनिक सेवाओं में शामिल हुए ।
2. पहली बार दलित, आदिवासी पचास प्रतिशत से अधिक अपनी भाषाओं के माध्यम से इन सेवाओं में आये ।
3. अनुसूचित जाति के 55 प्रतिशत, जनजाति के 48 प्रतिशत और सामान्य उम्मीदवारों के 20 प्रतिशत निम्न आय वर्ग के थे ।
4. समिति ने विशेष रूप से यह बात रेखांकित की कि भारतीय भाषाओं में उत्तर देने की पद्धति ठीक है और किसी भाषायी वर्ग के पक्ष में पक्षपात नहीं है ।
संवाद और अभिव्यक्ति की जरूरतों के हिसाब से दो सौ नंबर के निबंध का पेपर वर्ष 1993 में जोड़ा गया और कुछ मामूली फेरबदल विषयों के साथ भी किया गया ।
ठीक दस वर्ष बाद वर्ष 2000 में प्रोफेसर योगेन्द्र कुमार अलघ की अध्यक्षता में फिर एक समिति बनी । प्रोफेसर अलघ भी उतने ही बड़े अर्थशास्त्री हैं । भूतपूर्व केन्दीय मंत्री और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर भी रहे हैं । हम यहां प्रोफेसर अलघ समिति के सिर्फ भाषायी पक्ष की चर्चा करेंगे । इस समिति ने भी सतीश चन्द्र समिति की तरह ही भारतीय भाषाओं से चुने अभ्यर्थियों को लोकतंत्र का एक सुखद समावेषी पक्ष माना और इसे जारी रखने की सिफारिश की । अलघ समिति को इसके अलावा इस पक्ष पर विचार करने के लिए भी कहा गया था कि कैसे सही विभाग के लिए सही अभ्यर्थी उनकी अभिरुचिओं, क्षमताओं के अनुसार चुने जाएं । क्या विभागों का बंटवारा उनके प्रशिक्षण के दौरान सामने आई प्रवृत्तियों, अभिव्यक्तियों के अनुसार हो ? प्रोफेसर अलघ ने अपनी सिफारिशें वर्ष 2002 में दे थी ।
पिछले दिनों सतीश चन्द्र एवं अलघ समिति की सिफारिशों के बरक्स अरुण निगबेकर समिति की सिफारिशें कुछ विचित्र और बेचैन करने वाली लगती हैं । 2011 की प्रिलिमिनरी परीक्षा में अंग्रेजी के पक्ष में एक बदलाव उतना ही घातक है जितना 2013 की मुख्य परीक्षाओं में होने वाला था । 2011 में यह बदलाव प्रोफेसर एस.के.खन्ना, भूतपूर्व वाईस चेरयमैन यू.जी.सी. की सिफारिशों के आधार पर किया था । उनकी सिफारिशों में अंग्रेजी कैसे प्रवेश पा गयी और क्यों, इस पर अभी भी पर्दा पड़ा हुआ है । जब कोठारी, सतीश चन्द्र, प्रोफेसर अलघ अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं की बराबरी पर बल देते हैं तो 2011 से लागू पहले चरण की प्रिलिमिनरी परीक्षा में भी अंगेजी क्यों ? सरकार को चाहिए कि मई 2013 में आयोजित प्रिलिमिनरी परीक्षा से अंग्रेजी के हिस्से को समाप्त कर दें । वैसे भी इस मुद्दे को लेकर मामला न्यायालय में चल रहा है और सरकार और आयोग कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पा रहे । एक जिम्मेदार आयोग के नाते यह तथ्य भी आयोग को पता होंगे कि 2011 के बाद हुई परीक्षाओं में ग्रामीण और गरीब तबके के बच्चों का प्रतिनिधित्व बहुत घट गया है । इस मुद्दे पर वैसा हो-हल्ला भले ही न हुआ हो जैसा इसी हफ्ते 2013 की संसद में हुआ । लेकिन यह मामला भी उतना ही गंभीर है ।
कुछ और सुझाव 2013 से शुरू होने वाली प्रणाली पर । वैसे ऐसा कोई भी नियम, प्रणाली नहीं है जो सदैव के लिए शतप्रतिशत त्रृटिविहीन हो । पिछले तीस वर्षों की सिविल सेवा परीक्षा प्रणाली के कुछ नकारात्मक पक्ष भी रहे हैं जैसे कभी पाली, उर्दू, हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं, साहित्य के वैकल्पिक परचे के संबंध में मूल्यांकन की चुनौतियों । नंबरों के आधार पर मिला विदेश मंत्रालय लेकिन अभ्यर्थी के पास संवाद के लिए न भाषागत सामर्थ्य है, न अभिरुचि । पुलिस सेवा में ऐसा अभ्यर्थी आ गया जिसका झुकाव शिक्षा और साहित्य की ओर अधिक है, और अपने को अनफिट पा रहा है आदि-आदि । सबसे जटिल प्रश्न तो उन अभ्यर्थियों या अफसरों को लेकर है जो सामंती समाज में पले-बढ़े होने के कारण जाति-धर्म, स्त्री, भ्रष्टाचार के प्रति वैसा ही रुख पाले हुए हैं । आखिर इस पक्ष से भी मुक्ति की तलाश में या उसे ठीक करने के प्रयास में आयोग और प्रशासन सुधार आयोग लगे हुए हैं ।
भारतीय भाषाओं के पक्ष की बात तो मान ही ली गई है । मौजूदा प्रणाली में सामान्य ज्ञान के परचों पर जोर देना बहुत अच्छा कदम है । यानि कि अब पुराने दो परचों के स्थान पर चार परचे होंगे अर्थात् कुल नंबरों का लगभग पचास प्रतिशत । सभी अभ्यर्थियों के लिये समान परीक्षा । निबंध,भाषा भी ज्ञान-अंग्रेजी और भारतीय भाषा भी सभी पर समान रूप से लागू है ।
सुधार की गुंजाइस है वैकल्पिक विषय में । नयी प्रणाली में 600-600 के दो वैकल्पिक विषयों की जगह 500 का एक विषय आ गया है । अच्छा होता यह भी पूरी तरह समाप्त कर दिया जाता क्योंकि जटिलता इसी से बनी हुई है । विशेषकर साहित्य के संदर्भ में । मान लो एक अभ्यर्थी मैथिली,या डोगरी, नेपाली या बोडो जैसा वैकल्पिक चुनता है जिसके अभ्यर्थी कभी-कभी दो-चार ही होते हैं और इसीलिये उसके मूल्यांकन में पक्षपात का अंदेशा रहता है । इतिहास, राजनीति शास्त्र या विज्ञान के अभ्यर्थियों को इस मुकाबले में नुकसान रहता है । इसीलिये जब सुधार की तरफ कदम उठाये जा रहे हैं तो एक भी वैकल्पिक विषय क्यों रखा जाये ? न साहित्य के प्रति पक्षपात, न विज्ञान, या इतिहास में । भोजपुरी, ब्रज या मैथिली दूसरी बोलियों को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की जिद से भी मुक्ति ।
ज्यादातर महत्वपूर्ण पक्ष है विभागों का बंटवारा उनकी अभिरुचियों, क्षमताओं के अनुरूप कैसे हो जिससे उनकी सर्वश्रेष्ठ क्षमताओं का फायदा प्रशासन को मिल सके । इस पक्ष पर ध्यान देने की जरूरत है कि जब सभी सेवाओं की भर्ती एक सिविल परीक्षा के आधार पर होती है तो उनकी सेवा शर्तें, पदोन्नति भी आई.ए.एस., विदेश सेवा सहित पूरे कैरियर में समान हों । एकाध नम्बर के हेर फेर से उनकी हैसियत में इतना फर्क क्यों ? क्या आरक्षण के नियमों के चलते नम्बरों को कुछ हद तक दरकिनार करना एक अच्छा कदम नहीं है ? इससे सर्वश्रेष्ठता की आपसी होड़ और तनाव से तो मुक्ति मिलेगी ही, अभ्यर्थी प्रशिक्षण को नजरअंदाज करते हुए बार-बार बरसों तक परीक्षा भी नहीं देंगे । तंत्र को परीक्षा से आगे भी सोचने और गवर्नेन्स पर ध्यान देने की जरूरत है ।
पिछले दिनों भारतीय भाषा साहित्य, संस्कृति को लेकर तकरीबन सभी हल्कों में चिंता जताई जाती है । यदि ठहरकर सोचें तो इस सभी का समाधान अपनी भाषा की इसी नाव से संभव है जिसे हाल ही में संघ लोक सेवा आयोग ने खारिज कर दिया था । कई बार गलती से ही समस्या उभरकर सामने आ जाती है । अब हम सबका दायित्व है कि इस मौके को हाथ से न जाने दें और शिक्षा और रोजगार दोनों के लिए ही अपनी भाषाओं की तरफ लौटें । यू.पी.एस.सी की अन्य परीक्षाओं- वन सेवा, चिकित्सा आदि के साथ कर्मचारी चयन आयोग, बैंकों, न्यायिक सेवा आदि की प्रतियोगिताओं में भी अपनी भाषाओं को समानता मिले । यह लौटना आजादी के बाद का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक कदम होगा और सही मायनों में आजादी का अर्थ भी ।
मृणालिनी
96, कला विहार अपार्टमेन्टस,
मयूर विहार,फेज-1 एक्सटेंशन, दिल्ली-91
टेलीफोन नं.- 22744596 घर
सही समीक्षा ..
जवाब देंहटाएंअच्छे सुझाव भी ..
बहुत महत्वपूर्ण लेख !!