स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते


स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते
- डॉबुद्धिनाथ मिश्र


बंगाल का शारदीय नवरात्र और पूरे देश का दशहरा वर्षा ऋतु के कष्टकर दिनों के बाद एक अनिर्वचनीय उल्लास का उत्सव होता है।वर्षा से ही वर्ष का उद्भव हुआ है,यानी जैसी वर्षा होगी, वैसा वर्ष बीतेगा।पावस में धरती मेघों की कृपा-दृष्टि से नर्म होती है,बीजों को अंकुरित करने में समर्थ होती है और समस्त प्राणि-जगत अन्न की आशा में मुखरित हो उठता है।संसार भर में अधिकतर लोकगीत पावस ऋतु में ही गाये जाते हैं। कास के सफेद फूल शरद के आकाश में मँडराते रुई के फाहे की तरह उड़ते सफेद बादलों का  हाथ हिला-हिलाकर अभिनंदन करने लगते हैं।ढोल के मंद्र रव से क्या नगर,क्या गाँव सभी गुंजायमान हो उठते हैं।

बंगाल का पर्याय हो गया है शारदीय नवरात्र। नवरात्र यानी भगवती दुर्गा की पूजा-आराधना की नौ रातें। इन्हीं रातों में तांत्रिक सिद्धि प्राप्त की जाती है।इन्हीं रातों में साधक लोग मध्य रात्रि में जागकर मन्त्र सिद्ध करते हैं,आज भी।भूमंडलीकरण,भ्रष्टाचार और भीषण मँहगाई एक तरफ और आध्यात्मिक पथ पर चलनेवालों की उपासना एक तरफ।बंगाल तो इन दिनों लगभग पगला ही जाता है।नये वस्त्र,नये आभूषण,नया खान-पान,पत्रिकाओं के नये शारदीय विशेषांक और नये पर्यटन स्थलों की यात्रा। सार्क देशों के पिछले साहित्यकार सम्मेलन में  बंगलादेश की विदुषी श्रीमती जैकी कबीर बता रही थी कि पूरे बंगलादेश में दुर्गापूजा,रवीन्द्र-नजरुल और पद्मा नदी लोक संस्कृति के प्रतीक हैं,जिनके आगे धर्म-जाति-समुदाय सब झुककर प्रणाम करते हैं।पद्मा नदी में जब नाविक नाव खेते हुए भटियाली गाता है,तब यह पहचानना मुश्किल होता है कि वह हिन्दू है या मुस्लिम।दुर्गापूजा और रवीन्द्र के सन्दर्भ में भी यही बात है। मैने स्वयं अण्डमान-निकोबार में दुर्गापूजा के पंडालों में मुस्लिम युवक-युवतियों को नाचते-गाते देखा और सुना है।

     मेरा जन्म मिथिला के गाँव में हुआ ,जहाँ ब्राह्मण नवरात्र के दिनों में सर्वाधिक व्यस्त होते हैं।उनका काम है, ब्राह्म मुहूर्त में नदी-पोखरे में नहाकर और शिवालय में भोलेबाबा पर जल चढ़ाकर, यजमानों के घरों में जाकर नवो दिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करना। प्रतिदिन पाठ की शुरुआत कवच के यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्‌से होती है और यजमान के आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार एक अध्याय, दो अध्याय का पाठ किया जाता है। बचपन में मैने भी कई यजमानों के घर जाकर चण्डीपाठ किया है।मेरी संस्कृत की नींव कुछ ज्यादा मजबूत थी,क्योंकि पिताजी ज्योतिष के विद्वान थे और मुझे भी विद्वान बनाना चाहते थे।इसलिए जिस उमर में मेरे चचेरे भाई गुल्ली-डंडा और कबड्डी खेलते थे,उस उमर में मैं अमरकोशके श्लोक,  ‘लघुकौमुदीके सूत्र-वार्तिक और तर्कसंग्रहकी परिभाषाएँ रटने के लिए बाध्य था।संस्कृत के श्लोक धड़ल्ले से पढ़ लेने की क्षमता के कारण मैं अन्य चचेरे भाइयों की तुलना में  एक अध्याय जल्दी  पूराकर उठ जाता था। यजमान सभी भूमिहार किसान थे। उन्हें लगता था कि मैं अधूरा अध्याय छोड़कर ही उठ जाता हूँ।इस अफवाह को मेरे कुछ दुष्ट स्वभाव के परिजनों ने भी तूल दिया।बात पिताजी तक पहुँची,जिसे सुनकर वे खूब जोर से हँसे और दुष्ट शुम्भ-निशुम्भों को खुली चुनौती दे डाली कि गाँव में कोई भी पंडित बुद्धिनाथ से कम समय में पाठ कर दिखाए।कोई सामने नहीं आया।पिताजी बड़े ही क्रोधी,स्वाभिमानी और अनुशासनप्रिय थे।वे जिस किसी यजमान के यहाँ न जाकर एक बड़ी ड्यौढ़ी में सम्पुट पाठ किया करते थे। सम्पुट पाठ यानी एक निर्वाचित श्लोक को सप्तशती के हर श्लोक के आगे भी और पीछे भी पढ़ना होता है। इसमें पाँच-छह घंटे लग जाते हैं,वह भी जो पाठ में शूर-वीर माने जाते हैं,उनको।यह मेरे जैसे बछेड़ों के वश का काम नहीं था।इसलिए यह दुष्कर काम हमें नहीं दिया जाता था।हमें फुटकर पाठ का काम दिया जाता था।

      पूजा के समय प्रसाद के रूप में चढ़ाये गये खीरा के कतरे की खुशबू और हरसिंगार (शेफाली) फूल की भीनी-भीनी सुगन्ध बहुत सुखद लगती थी।इस मादक सुगन्ध के सहारे ही हम विप्रबटु नौ दिन चण्डीपाठ का नीरस काम  किया करते थे।दशमी के दिन कलश के नीचे उगे जौ के अंकुर जयन्तीको उखाड़कर यजमानों के सिर पर शिखा  में बाँधते थे,जिसके बदले में हमें ताम्बे के एक पैसे से चाँदी की छोटी चौअन्नी तक मिल जाती थी। इसके अलावा नौ दिन पाठ की दक्षिणा में दो रुपये और सिदहा’(भोजन के बदले अनाज) के रूप में आटा-चावल-दाल-आलू मिल जाते थे। उस दिन मेरी माँ अपने छोटे-से कमाऊ पूत की कमाई के पैसे अपने आँचल में बटोर कर निहाल हो जाया करती थी और उसमें से चार आने दशहरे के मेले में जाकर झिल्ली-कचरी (नमकीन) खाने के लिए हम भाई-बहनों को दे देती थी।

मेले की झिल्ली-कचरी का स्वाद तो भूल गया, मगरजयन्ती’(जौ का बिरवा)यजमानों की  शिखा में बाँधने का मंत्र आज भी याद है:
जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥

इस श्लोक में आद्याशक्ति के प्रचण्ड रूप काली को भद्रकाली के रूप में वन्दित किया गया है।मिथिला क्षेत्र मुख्यतः शक्ति का उपासक रहा है।वहाँ के लोगों के लिए यह उक्ति पंडितों में प्रसिद्ध है:‘अन्तः शाक्ताः बहिः शैवाः सभा मध्ये तु वैष्णवाः।यानी भीतर से वे शक्ति के उपासक हैं,व्यावहारिक रूप में शिव के भक्त हैं और सभा-गोष्ठियों में वैष्णव धर्म के अहिंसा-व्रत के प्रचारक हैं।बंगाल जब संयुक्त था,यानी असम,बिहार,उड़ीसा आदि भी उसीके अन्तर्गत आता था,तब शास्त्रों को बनाने का काम मिथिला के अयाची और कणाद जैसे प्रकाण्ड शास्त्रज्ञों ने किया और उनका संरक्षण-परिवर्धन शेष क्षेत्र अर्थात्‌ बंगाल,असम,उड़ीसा ने किया।भारत के जिन क्षेत्रों में शाक्त सम्प्रदाय का आधिपत्य था,वहाँ आज भी दुर्गापूजा की परम्परा जीवित है।शेष भाग में रामायण की कथा का वर्चस्व था,अतः वहाँ दशहरा धूमधाम से मनाया जाता रहा है,जिसमें रामलीला मंचित होती है और दशमी के दिन दशानन रावण का पुतला जलाया जाता है।

   देश में हुए अंधाधुंध औद्योगिक विकास ने रावण के कद को बहुत बढ़ा दिया।तुलसीदास जी ने जब अपने रामचरित मानसको लोकजीवन में उतारने के लिए काशी में रामलीला शुरू करायी थी , तब सोचा भी नहीं होगा कि रघुपति राघव राजा राम की तुलना में राक्षसराज रावण का कद इतना बड़ा हो जाएगा कि उसका वध करने के लिए रॉकेट का सहारा लिया जाएगा।मगर  तुलसी की मंगल कामनाओं के विपरीत देश में राक्षसी प्रवृत्ति बढ़ी  और उसी के अनुपात में रावण का ग्लैमर भी बढ़ा ।आज बनारस में तुलसी द्वारा परिकल्पित परम्परा के अनुसार नाटी इमली का भरत मिलाप और चेतगंज का नक्कटैया का मेला देखने  भारी भीड़ जुटती है,मगर आजादी के बाद दिल्ली पूरी तरह आजाद हो गयी है,भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं से भी और भारतीय जीवन-दर्शन से भी। अब वह वह बेलगाम साँड़नी की तरह दौड़ रही है,दिशाहीन,लक्ष्यविहीन।उसने अपनी अलग विरासत बना ली है जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम के लिए बहुत थोड़ी-सी जगह बच गयी है,अंग्रेज़ी निब से लिखे भारतीय  संविधान के पन्नों में। वहाँ रामलीला का मुख्य आकर्षण ही है रावण के विराट पुतले को जलाना,जिसके लिए माननीय लोग मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किये जाते हैं।

    हमारे देश ने ईश्वर को माँ का रूप देकर पूरे अध्यात्म को स्नेहिल और वत्सल बना दिया है।मेरा एक दोहा है:
माँ ममता की छाँह है,भिनसारे की धूप।
धन्य हुआ ईश्वर स्वयं धरकर माँ का रूप॥
ईश्वर को माँ के रूप में देखने के जो लाभ हैं,वे अन्य रूपं में नहीं मिल सकते। कबीरदास कहते हैं:
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे,दुख काहे को होय॥


अब इसी प्रसंग को दूसरे नजरिये से यानी ईश्वर को माँ मानकर देखिये और आद्य शंकराचार्य के देव्यपराधक्षमा स्तोत्रका यह श्लोक सुनिये:
आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथाः
क्षुधातृषार्ताः जननीं स्मरन्ति॥

भक्त यहाँ परब्रह्म परमात्मा को माँ मानकर उसके पुत्र के रूप में साधिकार कहता है: हे करुणा की सिन्धु माँ,मैं विपत्तियों से घिरकर तुम्हें स्मरण कर रहा हूँ। इसे तुम मेरा शठत्व मत समझना,क्योंकि बच्चे को जब भूख-प्यास लगती है,तभी वह माँ को स्मरण करता है।

इस तर्क से कितनी आश्वस्ति मिलती है! कबीर की डाँट से त्रस्त लोगों को आचार्य शंकर कितनी बड़ी राहत देते हैं! संस्कृत का एक श्लोक बचपन में मुझे याद कराया गया था,जिसे प्रतिदिन सुबह उठकर पढ़ना पड़ता था,वह भी कुछ इसी तरह के ईश्वर के वात्सल्य का प्रतिपादन करता है:
अपराधो भवत्येव
तनयस्य पदे-पदे।
कोऽपरः सहते लोके
केवलं मातरं विना॥

पुत्र से कदम-कदम पर गलतियाँ होती रहती हैं।उन गलतियों को माँ के सिवा और कौन सह सकता है? इसी सन्दर्भ में स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि एकमात्र हिन्दू धर्म है,जिसमें ईश्वर वत्सल माँ के रूप में है।यही एक धर्म है जिसमें गलती करने पर भी क्षमा की पूरी गुंजाइश है,क्योंकिकुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।इसीलिए भारत में समुद्र तट की कन्या कुमारी से लेकर हिमालय की गोद में स्थित वैष्णो देवी तक महाशक्ति के विभिन्न रूप विराजमान हैं। उत्तराखंड सामान्यतः अपने चार धाम गंगोत्री,यमुनोत्री,बदरीनाथ,केदारनाथ के लिए जाना जाता है,लेकिन यहाँ पर हर १२ वर्ष पर निकलनेवाली नन्दा राजजात यात्रा का महत्व कुम्भ से भी ज्यादा है।यहाँ कार्बेट पार्क में एक गार्जिया देवी( गिरिजा देवी) का मन्दिर है,जिसकी बहुत मान्यता है। मैं भी उस मन्दिर में देवी के दर्शन करने सपत्नीक गया था,मगर वहाँ दर्शनार्थियों की दो मील लम्बी पिपीलिका पंक्ति को देखकर मैं हताश हो गया और केवल मन्दिर के दर्शन कर तथा उसके बगल से गुजरती पहाड़ी नदी का जल सिर पर छिड़ककर लौट आया।सबूत के तौर पर पहाड़ी पर स्थित उस विलक्षण मन्दिर का एक-दो चित्र घर ले आया,जिन्हें आप देख रहे हैं।


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सम्पर्क: buddhinathji@gmail.com

1 टिप्पणी:

  1. बहुत पसन्द आया बुद्धिनाथ जी का यह लेख। बुद्धिनाथ जी की गद्य की भाषा भी उतनी ही समृद्ध है, जितने समृद्ध उनके गीत हैं। उन्हें मेरा सादर अभिवादन और प्रणाम। अगर वे नियमित रूप से इस तरह के लेख लिखें तो हम पाठकों का भला हो।

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