यह आलेख जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है, जिसे रूपसिंह चंदेल जी ने हिन्दी-भारत वेबपत्रिका पर प्रकाशित करने की इच्छा व्यक्त की व साथ ही एक टिप्पणी भी इस संदर्भ में लिख भेजी है, जो इस प्रकार है -
" पुष्परंजन का आलेख विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजन के घपलों की ओर गंभीरता से संकेत करता है। कुछ घपलों को यह उजागर भी करता है। अफ़सरशाही और कुछ साहित्यकारों की मिलीभगत को इस आलेख से समझा जा सकता है। देश की मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई को ये लोग किस प्रकार हिंदी के नाम पर बर्बाद करते हैं, आलेख इसकी चर्चा करता है।
एक आम नागरिक के नाते मैं भारत सरकार से माँग करता हूँ कि वह समस्त विश्व हिंदी सम्मेलनों के मद्देनज़र एक निष्पक्ष जाँच कमेटी बैठाये जो इस बात कि जाँच करे कि कितने ऐसे साहित्यकार हैं जो लगातार हर सम्मेलन में जाते रहे हैं और इस बार भी जा रहे हैं। इन महान साहित्यकारों पर कितने करोड़ अब तक बहाये जा चुके हैं। कमेटी की रपट के बाद सरकार इस विषय में एक श्वेतपत्र जारी करे।"
पाठकों व हिंदी भारत याहूसमूह के सदस्यों से भी अनुरोध है कि वे नीचे पुष्परंजन के आलेख को पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया दें -
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Isme koi do rai nahin kee yeh Janta ke paise ka dur prayog hee hai, kyonki isme sarkari afsar zyada hote hai, sachey sahitkar bilkul nadarad.
जवाब देंहटाएंJAB SEVA KE NAAM PAR KUCH HOGA TO MEVA HI BAANTE JAYENGE?????????
जवाब देंहटाएंPRANAM.
आपने ठीक कहा हिन्दी के नाम पर सैर-सपाटा और औपचारिकता तक सिमित रहे है विश्व हिन्दी सम्मलेन. आपने इस विषयको इमानदारी के साथ उठाया इसके लिए धन्यवाद.
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