आज हिन्दी दिवस पर विशेष
राकेश बी. दुबे
पूर्व सांस्कृतिक अताशे,
भारतीय उच्चायोग, लन्दन
Email- rakeshbdubey@gmail.com
हिन्दी साहित्य की एक अनुषंगी इकाई के रूप में भारत से बाहर रचे जा रहे हिन्दी साहित्य की चर्चा इधर पिछले एक दशक से विभिन्न मंचों पर होने लगी है । यद्यपि, साहित्यकारों और आलोचकों के बीच इस बात पर मतभेद है कि प्रवासी हिन्दी साहित्य की संज्ञा, अनिवासी भारतीयों एवं भारतवंशियों द्वारा रचे गए साहित्य को देना उपयुक्त है भी या नहीं । मतभेद तो इस बात को लेकर भी हैं कि किसी भाषाविशेष में साहित्य को इस प्रकार निवासी एवं प्रवासी साहित्यकारों के खाँचों में बाँटना क्या अभीष्ट है भी । यद्यपि हमारा अभिप्राय इस विषय पर बहस में उलझने का नहीं है और मोटे तौर पर यह मानते हुए कि दीर्घ अवधि से भारत से बाहर रह रहे भारतवंशियों द्वारा जो रचनाएँ, प्रवासकाल में की जा रही हैं या की गई हैं उनका मूल्यांकन एवं परिगणन करने में सुविधा के लिए, इन रचनाकारों को प्रवासी हिन्दी रचनाकार और उनकी रचनाओं को प्रवासी हिन्दी साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है; तथापि, इस मुद्दे पर विद्वत्जनों में चर्चा तो होनी ही चाहिए ।
पौराणिक गाथाओं के अनुसार सृष्टि के आदि पुरुष महाराज मनु पहले प्रवासी कहे जा सकते हैं । प्रलय के समय उन्हें जम्बू द्वीप छोड़कर आधुनिक मिस्र में जाकर रहना पड़ा था । लिखित इतिहास में सम्राट अशोक के पुत्र एवं पुत्री भी बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए श्रीलंका, हिन्द चीन और चीन के प्रवास पर गए थे । ग्यारहवीं शताब्दी में मलय द्वीप पर एवं हिन्द चीन के देशों आधुनिक कम्बोडिया, इण्डोनेशिया आदि पर अपनी विजय पताका फहराने गए राजराजा चोल एवं राजेन्द्र चोल के साथ गए सैनिकों में से कुछ वहीं बस गए और उनकी संततियों के साथ वर्तमान आन्ध्र प्रदेश एवं तमिलनाडु के संबंध/सम्पर्क आज तक विद्यमान हैं । परन्तु इस लेख में सुदूर अतीत के प्रवासियों की नहीं अपितु निकट अतीत में अर्थात् पिछले दो सौ वर्षों में देश से गए भारतीयों और उनकी सन्तति द्वारा की गई हिन्दी रचनाओं को शामिल किया जाना अभिप्रेत है ।
यह भी विचारणीय है कि ‘प्रवासी भारतीय’ पद को परिभाषित किए बिना प्रवासी हिन्दी साहित्य पर चर्चा करना सुकर कैसे होगा । प्रवासी है कौन ? कितनी अवधि तक प्रवास करने पर किसी व्यक्ति को प्रवासी की श्रेणी में रखा जाएगा ? पहले पहल उन्नीसवीं सदी में अर्थात् 1834 में मॉरीशस में उतरे पहले प्रवासी भारतीय से लेकर बीसवीं शताब्दी में 1920-21 तक शर्तबन्दी प्रथा के अंतर्गत अर्थात् गिरमिटिया मजदूरों के रूप में मॉरीशस, त्रिनिदाद, दक्षिण अफ्रीका, गयाना, फिजी, सूरीनाम आदि में गए भारतीय भी प्रवासी कहे जाते हैं और वर्तमान में रोजगार, शिक्षा एवं प्रव्रजन पर जाने वाले भारतीय भी प्रवासी कहे जा रहे हैं । लगभग 177 वर्ष पहले से लेकर लगभग 90 वर्ष पूर्व तक भारत से गए लोगों की तीसरी नहीं तो चौथी पीढ़ी उन देशों में रह रही है, उनका जन्म, पालन पोषण, शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई है; ऐसे में क्या उन्हें भी प्रवासी माना जाए ? इसके विपरीत आधुनिक यूरोप, दक्षिण पूर्व एशिया और अमेरिका में पिछले 50 वर्ष के दौरान रोजगार, पढ़ाई, व्यापार आदि के लिए गए प्रवासियों को भी क्या उसी श्रेणी में रखा जाना उचित होगा ? जैसा कि ऊपर बताया गया है कि इस प्रकार के प्रश्न लगातार उठते रहे हैं और कोई सर्वमान्य समाधान इस बारे में नहीं निकला है । हमें कहीं न कहीं, कोई एक आधार तो तय करना ही होगा इसलिए मेरी अल्पबुद्धि के अनुसार, इन सभी के भारत से जुड़ाव को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि प्रवासी भारतीयों की हमारी संकल्पना उन भारतवंशियों की है जो किन्हीं कारणों से विदेश में कुछ काल के लिए या फिर सदैव के लिए बस तो गए हैं लेकिन उनका भारत से सम्पर्क समाप्त नहीं हुआ है ।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि कुछ सीमा तक भारत में और बड़ी हद तक भारत से बाहर, हिन्दी शिक्षण के लिए विदेशी विद्वानों ने जो कार्य किया है, वह भारतीय मनीषियों द्वारा की गई हिन्दी सेवा से किसी भी प्रकार कम नहीं है। कुछ मामलों में तो वह बढ़कर ही है । लेकिन इस लेख का ध्येय, विदेशी विद्वानों के योगदान से हटकर उन प्रवासियों/भारतवंशियों के योगदान को रेखांकित करने का है जो या तो भारत में जन्मे और बाद में प्रवास पर गए या फिर जिनका जन्म ही भारत से बाहर हुआ है। लेख के प्रारंभ में ही, विषय की सुविधा के लिए इन सबको एक ही श्रेणी में रखने का औचित्य दिया गया है । यद्यपि प्रवासी शब्द को अन्यथा परिभाषित करने के लिए पाठकगण स्वतंत्र हैं ।
मॉरीशस, गयाना, ट्रिनिडाड एवं टुबैगो, सूरीनाम या डच गयाना और फिजी में गए श्रमिकों की अलग पहचान है । इन देशों में गए श्रमिक अधिकांशत: हिन्दी भाषी क्षेत्र अर्थात् पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार से गए थे और उनकी मातृभाषा भोजपुरी एवं अवधी थी । मलेशिया, थाईलैण्ड, म्यांमार, रीयूनियन द्वीप, तंजानिया, उगांडा, जिम्बाम्बे, दक्षिण अफ्रीका और जमैका आदि देशों में भारतीय नागरिक, व्यापारी के रूप में गए लेकिन इनमें जाने वाले अधिकांश भारतीय हिन्दीतर प्रदेश के थे और इस लेख में उनकी चर्चा हमारा अभीष्ट नहीं है । फिर भी, इन देशों में जो हिन्दी साहित्यकार रचनारत हैं या रहे हैं, उनका उल्लेख संक्षेप में यथा स्थान किया जाएगा । यूरोपीय देशों में, साठ एवं सत्तर के दशकों में गए भारतीयों और अमेरिका गए डॉक्टरों, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों आदि में से कई विद्वान हिन्दी के उल्लेखनीय रचनाकार बने । इसलिए उनका उल्लेख यूरोप एवं अमेरिका के प्रवासी हिन्दी साहित्यकारों के अंतर्गत किया जाएगा । तीसरी धारा जो अपेक्षाकृत परवर्ती और निकट अतीत की है, वह है: खाड़ी के देशों में गए कुशल/अकुशल श्रमिकों/तकनीशियनों की ।
इस प्रकार भारत से बाहर हिन्दी लेखन को उक्त धाराओं के अनुसार मोटे तौर पर तीन समूहों में रखा जा सकता है: पुरा-प्रवास के देश, नव-प्रवास के देश और भारत के पड़ोसी देश । खाड़ी के देशों को भी भारत के पड़ोसी देशों की श्रेणी में इसलिए रखा जा रहा है कि इन देशों में हिन्दी लेखन की चुनौतियाँ और अवसर, भारत के पड़ोसी देशों - श्रीलंका, पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार आदि के लगभग समान ही हैं ।
पुरा प्रवास के देश
मॉरीशस
इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि भारत से बाहर हो रहे हिन्दी लेखन में मॉरीशस का स्थान सबसे आगे है । वर्ष 1834 से लेकर अब तक यह कार्य किसी न किसी रूप में अविकल जारी है और इसकी गुणात्मकता में ह्रास के स्थान पर वृद्धि ही हुई है । परिमाण की दृष्टि से देखें तो इस छोटे से देश में रचे गए हिन्दी साहित्य को अमेरिका में प्रवासी भारतीयों की विपुल संख्या और उस देश के विशाल भू-भाग में बसे रचनाकारों के समग्र साहित्य से टक्कर लेते देखा जा सकता है । लिखित इतिहास के अनुसार अमेरिकी हिन्दी साहित्य की तुलना में यहाँ का साहित्य बहुविध भी है ।
मॉरीशस में पं. बासदेव बिसुनदयाल से लेकर श्री हेमराज सुन्दर जैसे आधुनिक साहित्यकारों की एक लम्बी परम्परा रही है । इस विस्तृत आकाश में शुक्र तारे की तरह दैदीप्यमान अभिमन्यु अनत जैसे प्रतापी रचनाकार जहाँ बहुश्रुत हैं, वहीं ब्रजेन्द्र भगत मधुकर, डॉ मुनीश्वरलाल चिंतामणि, रामदेव धुरंधर, इन्द्रनाथ भोला बेणीमाधव रामखिलावन, महेश रामजियावन, प्रहलाद रामशरण, के. हजारीसिंह , डॉ बीरसेन जागासिंह और राजेन्द्र अरुण जैसे सितारे चमकते दिखाई देते हैं । मॉरीशस की पहली प्रकाशित रचना है पंडित लक्ष्मीनारायण चतुर्वेदी रसपुंज की ‘रसपुंज कुंडलियाँ’ जो वर्ष 1923 में प्रकाशित हुई थी । चतुर्वेदी जी की ही दूसरी कृति शताब्दी सरोज के नाम से वर्ष 1934 में आई । इस प्रकार पंडित लक्ष्मी नारायण चतुर्वेदी को मॉरीशस का आदि कवि कहा जा सकता है ।
मॉरीशस में भारतीयों का इतिहास खून को पसीना बनाने का इतिहास रहा है । कठिन जलवायु और बीमारियों से भरे इस अनजान टापू पर हिन्दी लेखन की शुरुआत तो उस पत्थर पर ही हो गई बताते हैं जहाँ गोरों से छिपकर प्रवासी मजदूर, पानी से लिखा करते थे । मॉरीशस की पहली पाठशालाएँ, उन बैठकाओं को माना जा सकता है जो रात के अंधेरे में प्रवासी मजदूरों के गुप्त मिलन के साक्षी बने और जहाँ अंधेरे में हनुमान चालीसा और रामायण के स्फुट अंशों का पाठ ही ईश्वर से सीधा संपर्क साधने का साधन बन गया था । महात्मा गांधी जी की प्रेरणा से पंडित बासदेव बिसुनदयाल ने हिन्दी और भारतीय संस्कृति को अपने स्वाधीनता आंदोलन के मूल में रखा और आजादी पाई । क्या यह कथा भारत की आजादी के आंदोलन में हिन्दी की प्रतिष्ठा से मिलती जुलती नहीं दिखाई देती ? लेकिन भारत में हिन्दी को जिस प्रकार का राजनैतिक समर्थन आज की स्थिति में प्राप्त है उसे देखते हुए मेरा मानना तो यह है कि हिन्दी की स्थिति मॉरीशस में भारत से भी अधिक प्रतिष्ठित दिखाई देती है । केवल इसलिए नहीं कि उस छोटे से देश में दो-दो विश्व हिन्दी सम्मेलन हुए, इसलिए नहीं कि हिन्दी को विश्वभाषा बनाने का सपना पूरा करने के लिए विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना वहाँ हुई, इसलिए भी नहीं कि हिन्दी में लगभग 400 ग्रन्थों/रचनाओं का प्रकाशन अकेले मॉरीशस से हो चुका है अपितु इसलिए कि मॉरीशस ही ऐसा देश है जहाँ के राष्ट्रपिता सर शिवसागर रामगुलाम से लेकर राष्ट्रपति सर अनिरुद्ध जगन्नाथ तक बड़े गर्व से हिन्दी बोलते हैं ।
मॉरीशस में न केवल सैकड़ों काव्य और कहानी संकलनों का प्रकाशन हुआ है बल्कि वह एक समृद्ध उपन्यास विधा पर भी गर्व कर सकता है । लगभग हर विधा में रचनाएँ मॉरीशस में हुई हैं । काव्य संग्रहों और कहानी संकलनों के अलावा 56 उपन्यास, 26 नाटक/एकांकी, 3 अनूदित नाटक, 13 निबंध संग्रह, 12 जीवनियाँ, 4 व्यंग्य संग्रह, 3 यात्रावृत्त, 2 बाल रचनाएँ, 8 संस्मरण, लोक साहित्य की 4 रचनाएँ, इतिहास पर 7 रचनाएँ, धर्म, दर्शन और संस्कृति पर 19 रचनाएँ, साहित्य के इतिहास पर 6 रचनाएँ, 4 शोधकार्य और 13 विविध रचनाएँ मॉरीशस में प्रकाशित हुई हैं ।
फीजी
पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से आरकाटियों (रिक्रूटरर्स) के जाल में फंसकर जब भोले भाले भारतीय वर्ष, 1879 में पहली बार ‘लेवनीदास’ जहाज से गिरमिटिया (एग्रीमेंट का अपभ्रंश रूप) मजदूर बनकर फीजी पहुँचे होंगे तो अपना देश छूटने से ज्यादा चिन्ता उन्हें नए देश में बसने की रही होगी । लेकिन सब कुछ छोड़-छाड़कर भारत से एक अनजान द्वीप की यात्रा पर निकले इन मजदूरों के साथ उनकी संस्कृति और संस्कृति वाहिनी भाषा, मृग की कुण्डली में बसी कस्तूरी के समान साथ थी। वे जा तो रहे थे ब्रिटिश साम्राज्य के एक अनजाने क्षितिज की ओर लेकिन उनकी महारानी उनके साथ थी । हाँ, हाँ उनकी अपनी महारानी जिसे वे रामायण महारानी कहते थे। अपने 132 वर्ष के प्रवास में फीजी के भारतवंशी, अलग अलग अधिपतियों/राष्ट्रपतियों के अधीन काम करते हुए भी अपनी महारानी को ही सर्वोच्च स्थान देते रहे । उनके अपने बीच ही नहीं बल्कि काईबीती (फीजी के मूल निवासी) लोगों के साथ संपर्क की भाषा भी धीरे-धीरे हिन्दी ही बन गई । कहते हैं कि – "स्वधर्मे निधनम् श्रेय: परधर्मे भयावह:" । स्वधर्म (स्व-संस्कृति) को न त्यागने वाले फीजी गिरमिटिया मजदूरों में हिन्दी शिक्षण का व्यवस्थित कार्य शुरू किया- आर्य प्रतिनिधि सभा ने । बाद में श्री सनातन धर्म महासभा ने भी इस काम को आगे बढ़ाया । श्री दिवाकर प्रसाद और श्री भास्कर मिश्र जैसे पत्रकारों ने फीजी रेडियो में हिन्दी को प्रतिष्ठित किया । डॉ. मणिलाल को भारतीय प्रवासियों का दीनबन्धु कहना अनुचित न होगा । उन्होंने न केवल मॉरीशस में बल्कि फीजी में भी पद-दलित प्रवासी भारतीयों को मान और प्रतिष्ठा दिलाने के लिए संघर्ष किया । गिरमिटिया मजदूरों को संगठित करने के लिए उनके द्वारा अंग्रेजी में पहला समाचार पत्र प्रकाशित हुआ- `द सेटलर' के नाम से वर्ष 1913 में । बाद में पंडित शिवराम शर्मा के संपादन में इसी का हिन्दी संस्करण निकलने लगा । इसे फीजी में हिन्दी का पहला समाचार पत्र कहा जाता है । बाद में फीजी समाचार (बाबू राम सिंह के संपादन में), वैदिक संदेश, शान्तिदूत आदि का प्रकाशन होने लगा । पाक्षिक समाचार पत्र शान्तिदूत को विदेश में हिन्दी पत्रकारिता का सशक्त हस्ताक्षर माना जाता है और यह अब तक प्रकाशित हो रहा है ।
हिन्दी बाल पोथी (कुल छ भागों में) में से पाँच भागों के लेखक पंडित अमीचन्द शर्मा को पहला हिन्दी लेखक कहा जा सकता है । हिन्दी बाल पोथी का प्रकाशन यद्यपि बाद में हुआ और उससे पहले पंडित रामचन्द्र शर्मा की पुस्तक फीजी दिग्दर्शन वर्ष 1936 में प्रकाशित हो चुकी थी । प्रकाशन की कठिनाइयों के कारण फीजी के हिन्दी रचनाकारों की पुस्तकें कम प्रकाशित हो पाई हैं, फिर भी पंडित कमला प्रसाद मिश्र, महावीर मित्र, काशीराम कुमुद, ज्ञानी दास, जोगिन्द्र सिंह कंवल, अनुभवानंद आनंद जैसे कवि और महेन्द्र चन्द्र शर्मा, प्रो. सुब्रमणी, गुरुदयाल शर्मा, भारत बी मौरिस जैसे गद्य लेखक फीजी में हिन्दी के प्रमुख हस्ताक्षर हैं । प्रो सुरेश ऋतुपर्ण ने पंडित कमला प्रसाद मिश्र की काव्य साधना के प्रकाशन के माध्यम से पंडित मिश्र की प्रतिभा को विश्व के सामने रखा । श्री विवेकानन्द शर्मा ने फीजी में हिन्दी को न केवल लेखक के रूप में बल्कि राजनेता के रूप में भी प्रतिष्ठित किया । उनकी कलम कई विधाओं में सक्रिय रही। प्रशान्त की लहरें नामक कहानी संग्रह से लेकर सरल हिन्दी व्याकरण तक और फीजी के प्रधानमंत्री से लेकर फीजी में सनातन धर्म-सौ साल की रचना करके वे फीजी हिन्दी साहित्य को समृद्ध कर गए हैं ।
सूरीनाम, गयाना, त्रिनीदाद
5 जून, 1873 को लालारुख ने जब सूरीनाम के तट पर लंगर डाला और गिरमिटिया मजदूरों के पहले जत्थे के चरण जब इस धरती पर पड़े तो सच मानिए कि हिन्दी ने पूर्वी गोलार्द्ध से पश्चिमी गोलार्द्ध की अपनी विश्वयात्रा का एक और पड़ाव पार कर दिया था । कुल लगभग 65 जहाजों में धीरे-धीरे करके 34,304 हिन्दुस्तानी इस देश में आए । आप जानते ही होंगे कि 1975 में नीदरलैण्ड से आजादी मिलने के बाद और प्रवासी भारतीयों की एक बड़ी आबादी के नीदरलैण्ड में जाकर बस जाने के बावजूद सूरीनाम में लगभग 40 प्रतिशत आबादी भारतवंशियों की है । कुल लगभग 36 वर्ष के आजाद सूरीनाम में लगभग 134 मंदिर व धार्मिक केन्द्र हैं, जो न केवल धार्मिक-सामाजिक आयोजनों के साक्षी रहते हैं बल्कि भाषायी जरुरतों की पूर्ति का एक बड़ा साधन भी हैं । जिस प्रकार से पं अमीचंद शर्मा ने हिन्दी शिक्षण के लिए बाल पोथी, फीजी में लिखी थी उसी प्रकार से सूरीनाम में व्यवस्थित हिन्दी शिक्षण की शुरुआत का श्रेय बाबू महातम सिंह को दिया जाना चाहिए । आज पचास से अधिक स्वयंसेवी हिन्दी शिक्षक, बाबू महातम सिंह के काम को आगे बढ़ाते हुए लगभग 600 विद्यार्थियों को हिन्दी की शिक्षा दे रहे हैं ।
मुंशी रहमान खान को सूरीनाम का आदि हिन्दी कवि कहा जाता है । उनकी रहमान दोहा शिक्षावली और पंडित रामलाल शर्मा की वेद वन्दना के रूप में हिन्दी काव्य का जो निर्झर उन्नीसवीं शताब्दी में शुरु हुआ था वह आज पंडित लक्ष्मी प्रसाद बलदेव (बग्गा), श्री मंगल प्रसाद, बाबू चंद्रमोहन, रणजीत सिंह, महादेव खुखुन, अमर सिंह रमण, डॉ जीत नराइन, सुरजन परोही, पंडित हरिदेव सहतू, रामनारायण झाव, रामदेव रघुवीर, जनसुरजनराइन सिंह सुभाग, प्रेमानन्द भोंदू के रूप में आगे बढ़कर छोटी नदी का रूप लेने लगा है । इस कार्य में अपनी तरह से सुशीला बलदेव मल्हू, संध्या भग्गू, तेजप्रसाद खेदू, सुशील सुक्खू, देवानंद शिवराज, धीरज कंधई और रामदेव महाबीर भी योगदान करते रहे हैं । इस कार्य में नए हस्ताक्षर भी शामिल हैं जैसे कि अमित अयोध्या, वीना अयोध्या, विकास समोधी, डॉ कारमेन जगलाल, कृष्णा कुमारी भिखारी, संध्या लल्कू, तारावती बद्री, लीलावती कल्लू और सुमित्रादेवी बलदेव । यहाँ की सक्रिय पत्रिकाएँ ही इन लेखकों की रचनाओं के प्रकाशन का साधन हैं और इनमें सूरीनाम साहित्य मित्र संस्था के तत्वावधान में प्रो पुष्पिता अवस्थी द्वारा स्थापित पत्रिका शब्द शक्ति, सूरीनाम हिन्दी परिषद् की सूरीनाम दर्पण और हिन्दी नामा, आर्य दिवाकर की धर्म प्रकाश और वैदिक संदेश, बाबू महातम सिंह की शान्ति दूत प्रमुख हैं । हाल ही में हिन्दी एवं संस्कृति अताशे सुश्री भावना सक्सेना के संपादन में एक कविता संग्रह ‘एक बाग के फूल’ का प्रकाशन हुआ है । यद्यपि प्रो पुष्पिता के संपादन में सूरीनाम की अन्य भाषाओं की रचनाएँ, हिन्दी में कथा सूरीनाम और कविता सूरीनाम के शीर्षक से वर्ष 2003 में प्रकाशित हो चुकी हैं । हिन्दी की प्राध्यापिका डॉ एन. कान्ता रानी के संपादन में और भारतीय दूतावास के सहयोग से मंजूषा हिन्दी पाठमाला हाल ही में 3 खंडों में प्रकाशित हुई है ।
दक्षिण अमेरिका में अवस्थित तीन पड़ोसी देश गयाना के नाम से जाने जाते हैं- डच गयाना अर्थात् सूरीनाम, ब्रिटिश गयाना अर्थात् गयाना और फ्रेंच गयाना । हमारा तात्पर्य यहाँ केवल ब्रिटिश गयाना से है । सूरीनाम की तरह ही ब्रिटिश गयाना में हिन्दुस्तानी मजदूर शर्तबन्दी प्रथा के अंतर्गत गए थे । पहला जहाज व्हिटवी, 13 जनवरी, 1838 को 249 श्रमिकों के साथ कोलकाता से रवाना हुआ था । 16 दिन बाद 165 श्रमिकों को लेकर चला हेसपरस भी व्हिटवी के साथ ही 5 मई 1838 को डेमरारा में गयाना के तट पर पहुँचे । यद्यपि महात्मा गांधी और दीनबंधु सीएफ एंड्रूज के प्रयत्नों से गयाना में हिन्दी शिक्षा की व्यवस्था, गयाना के आजाद होने से पहले ही हो गई थी लेकिन गयाना में हिन्दी की स्थिति सूरीनाम जैसी नहीं है । बाबू महातम सिंह के सद्प्रयासों से गयाना में हिन्दी का शिक्षण तो शुरु हुआ और श्रीमती रत्नमयी दीक्षित एवं श्री योगीराज जी ने इस कार्य को जी-जान से आगे बढ़ाया लेकिन प्रकाशन संस्थानों एवं खरीदारों के अभाव में कोई उल्लेखनीय पुस्तक यहाँ प्रकाशित न हो पाई । गयाना की स्वयंसेवी संस्थाओं के अलावा, भारतीय उच्चायोग, गयाना विश्वविद्यालय और भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र में भी हिन्दी शिक्षण समय समय पर होता रहा है। गयाना हिन्दी प्रचार सभा, गयाना हिन्दू धार्मिक सभा, महात्मा गांधी संगठन, आदि जैसी संस्थाओं ने इस कार्य को आगे बढ़ाया है ।
त्रिनिदाद एवं टोबैगो की स्थिति भी लगभग गयाना जैसी ही है । लगभग 158 साल पहले से लेकर अब तक इस देश में हिन्दी भाषियों ने हिन्दी के प्रति अपना प्रेम तो प्रदर्शित किया है लेकिन पश्चिमी प्रभाव में यहाँ इन भारतवंशियों की भाषा भी क्रियोल हो गई है । स्पेनी क्रियोल, फ्रेंच क्रियोल ने हिन्दी के कुछ शब्दों को अपनाया अवश्य है, लेकिन मूल भाषा यहाँ गुम होने लगी है । हिन्दी को अब 70 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में बोले जाते देखा जाता है । त्रिनिदाद में हिन्दी शिक्षण के प्रकल्प के साथ-साथ चनका सीताराम की हिन्दी निधि, रवि महाराज का हिन्दू प्रचार केन्द्र और प्रोफेसर एवं महाकवि/संगीतज्ञ हरिशंकर आदेश का भारतीय विद्या संस्थान, हिन्दी भाषा, भारतीय संगीत और लोकगीतों एवं लोककलाओं को संजोने/बढ़ाने का काम कर रहे हैं लेकिन साहित्य सृजन जैसी कोई स्थिति वहाँ नहीं बन पाई है । प्रो हरि शंकर आदेश भी अब कनाडा में रह रहे हैं, नहीं तो उन्होंने अकेले ही शताधिक पुस्तकें हिन्दी भाषा में लिखी हैं । यों तो सनातन धर्म महासभा, आर्य प्रतिनिधि सभा, हिन्दू सेवा संघ की ओर से भी हिन्दी के पठन पाठन की व्यवस्थाएँ होती रही हैं और भारतीय दूतावास एवं वैस्टइंडीज विश्वविद्यालय भी हिन्दी शिक्षण के लिए कटिबद्ध हैं लेकिन त्रिनिदाद रेडियो ने अवश्य ही हिन्दी शिक्षण के लिए समय समय पर ठोस पहल की हैं । स्थानीय एफ एम रेडियो 91.1 पर राजिन महाराज, 90.5 पर हाइदी रामभरोसे, रणधीर महाराज जैसे लोगों ने समय समय पर रेडियो पर हिन्दी सिखाने के कार्यक्रम तैयार किए और प्रसारित किए । प्रो वी आर जगन्नाथन के कार्यकाल में हिन्दी शिक्षण को अवश्य ही एक नई दिशा मिली ।
दक्षिण अफ्रीका
महात्मा गांधी की कर्मभूमि दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी की स्थिति पर बहुत चर्चा भारत में नहीं हुई है। मेरा मानना है कि दक्षिण अफ्रीका, भविष्य में गयाना और त्रिनिदाद की अपेक्षा हिन्दी भाषा का एक महत्वपूर्ण स्थान बनकर उभरेगा । हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि व्यापारिक उद्देश्य के लिए हजारों गुजराती उद्यमी अफ्रीका गए और भारत से बाहर व्यापार के माध्यम से अपनी जड़ें जमाने वालों में गुजराती भारतीयों का अग्रणी स्थान है । शर्तबन्दी प्रथा के अंतर्गत भी मॉरीशस, फीजी, गयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद के अलावा दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मजदूर गए थे । वे वर्ष 1860 में वहाँ पहुँचने लगे थे । प्रारंभ में तो अन्य साम्राज्यवादी ताकतों की भांति ही दक्षिण अफ्रीका के शासक गोरों ने हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं की पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं की और हिन्दी का पठन पाठन निजी प्रयत्नों तक सीमित रहा लेकिन बाद में भारतवंशियों की प्रगति के लिए बड़े प्रयत्नों से वर्ष 1927 में केपटाउन एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए गए यद्यपि हिन्दी शिक्षण की बात तब भी लागू नहीं हो पाई ।
जिस प्रकार से गयाना और सूरीनाम में बाबू महातम सिंह ने हिन्दी शिक्षण को व्यवस्थित किया और फीजी में पंडित अमीचंद शर्मा ने, उसी प्रकार से वर्ष 1947 में भारत से गए पंडित नरदेव वेदालंकार ने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा में अपने हिन्दी शिक्षण के अनुभव को वहाँ लागू किया और हिन्दी पाठ्यक्रम में व्यवस्था एवं शैक्षिक मूल्यों की स्थापना की । अफ्रीका में प्रवासी भारतीयों की हिन्दी की पढ़ाई के लिए और उन्हें भारतीयता से जोड़े रखने के लिए एक अन्य विभूति को भी हमें नहीं भूलना चाहिए, वे हैं स्वामी भवानीदयाल सन्यासी । हिन्दी की शिक्षा के मामले में एक नया मोड़ तब आया जब 1961 में डरबन वेस्टविल विश्वविद्यालय में बी ए से लेकर पीएच.डी तक हिन्दी पढ़ाई जाने लगी । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करके प्रो रामभजन सीताराम ने यहाँ हिन्दी की पढ़ाई को उच्च स्तर का बनाया । हालांकि 1977 में सरकारी स्कूलों में हिन्दी का प्रवेश हो गया लेकिन व्यावसायिक कारणों से और देशीय भाषाओं को बढ़ावा देने की नीति लागू होने से अब वहाँ सरकारी तौर पर हिन्दी को समर्थन मिलना बहुत कठिन है लेकिन प्रौद्योगिकी ने उम्मीद बंधाई है और हिन्दी अब फिर से भारतवंशियों की जुबान पर आने लगी है । हिन्दी शिक्षा संघ ने दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी के लिए जो कार्य किया है उसकी बराबरी विश्व में कुछ गिनी-चुनी हिन्दी संस्थाएँ ही कर सकती हैं । हिन्दी शिक्षा संघ की स्थापना 25 अप्रैल, 1948 को हुई और तुरंत ही 35 नई पाठशालाओं ने इसके अधीन हिन्दी सिखाना शुरू कर दिया । एक कदम आगे बढ़ते हुए हिन्दी शिक्षा संघ ने वर्ष 1998 में हिन्दवाणी के नाम से अपना रेडियो स्टेशन शुरू किया । विश्व में कार्यरत किसी भी हिन्दी सेवी संस्था का संभवत: यह पहला रेडियो स्टेशन है । इस रेडियो को अब डरबन के अलावा पीटरमेरित्जबर्ग सहित अनेक छोटे छोटे नगरों में भी सुना जाता है । भारतीय दूरदर्शन चैनलों के विश्वव्यापी प्रसारण ने भारतीय संस्कृति, वेश भूषा, खान-पान आदि के बारे में नई समझ पैदा की है । भारत के साथ अफ्रीका के बढ़ रहे आर्थिक-राजनैतिक संबंधों को देखते हुए अफ्रीका में हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है । ाभा
नव प्रवास के देश
अमेरिका
जिस प्रकार से पुरा प्रवास के देशों में अधिकांश भारतीय, शर्तबन्दी प्रथा के अन्तर्गत मजदूरों के रूप में गए थे और उन्होंने जी तोड़ मेहनत करके न केवल अपने लिए मान-सम्मान अर्जित किया बल्कि आने वाली पीढि़यों को भी एक ठोस आधार प्रदान किया, उसी प्रकार से नव प्रवास भी कहीं न कहीं शर्तों से जुड़ा रहा है । विश्व के नव धनाढ्य देश यह तो चाहते रहे कि मेहनत मजदूरी के लिए उन्हें दुनियाभर से लोग मिल जाएँ लेकिन उनके कल्याण के लिए किसी ने भी नहीं सोचा । यही नहीं, उनके जीवन को नियंत्रित किया गया, उनकी परम्पराओं, लोक-रीतियों, वेश-भूषा को हीन भावना से देखा गया और जब चाहा तब उनके आगमन पर भी प्रतिबंध लगाए गए । अमेरिकी महाद्वीप में भारतीयों का प्रवेश, किसी भी प्रकार से निर्बाध और सुगम नहीं रहा । कनाडा में उतरे जहाज कोमागाटामारू की कहानी से कौन परिचित नहीं है । यह उस समय की रंगभेदी और नस्लभेदी नीतियों का ज्वलंत उदाहरण है । फिर भी, उन्नीसवीं शताब्दी में जो कुछ लोग अमेरिका, कनाडा में पहुँचे, उन्होंने स्वयं को स्थापित कर लिया और वहीं से उनकी समृद्धि की तथा संभावित अवसरों की कहानियां पंजाब के गाँव गाँव पहुँचने लगीं । वर्ष 1910 तक लगभग 10 हजार भारतीय अमेरिका/कनाडा में पहुँच चुके थे जिनमें लगभग 90 प्रतिशत पंजाबी मूल थे । लेकिन भारतीयों के अमेरिका प्रवेश पर प्रतिबंध कई प्रकार से बने रहे । 1950 और 1960 के दशक में प्रतिवर्ष केवल सौ भारतीय ही कानूनन अमेरिका में आ सकते थे ।
द्वितीय विश्व युद्ध के जो भी परिणाम रहे हों, लेकिन इस युद्ध ने अमेरिका की आँखें खोल दीं और अमेरिका से बाहर की दुनिया को जानने की आवश्यकता उसे महसूस हुई । यह आवश्यकता, विश्व के अन्य देशों की संस्कृति या भाषाओं को जानने समझने की उतनी नहीं थी जितनी कि अपनी आर्थिक एवं प्रतिरक्षा आवश्यकताओं से संचालित एक जरूरत, गंभीरता से महसूस करने की थी । यही कारण है कि आज भी अमेरिका में विदेशी भाषाओं का अध्ययन इन्हीं दो कसौटियों के अनुसार घटता बढ़ता रहता है और इन्हीं दोनों आवश्यकताओं के वशीभूत भारतीयों के आगमन पर प्रतिबंधों में ढील/छूट दी गई और नई नई श्रेणियों में भारतीयों को वहाँ आकर पढ़ने, काम करने और बसने के लिए आमंत्रित भी किया गया । आज विश्वभर में सबसे अधिक प्रवासी भारतीय अमेरिका/कनाडा में ही हैं । उनकी संख्या 25 लाख से भी अधिक है । इनमें पूर्वी अफ्रीका के देशों से वहाँ की राष्ट्रवादी सरकारों द्वारा 1960 के दशक में खदेड़े गए गुजराती व्यापारी भी हैं जिन्होंने अपनी व्यावसायिक बुद्धि का लोहा तंजानिया, केन्या, उगांडा के अलावा अमेरिका में भी मनवा लिया ।
अमेरिका की इन्हीं जरूरतों ने और 11 सितम्बर, 2001 की भयावह घटनाओं की पृष्ठभूमि में उसे एशियाई भाषाओं की ओर विशेष ध्यान देने के लिए प्रेरित किया । अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने एक कदम आगे बढ़ते हुए जनवरी 2006 में अरबी, उर्दू, पश्तो आदि भाषाओं के साथ हिन्दी को विशेष प्रोत्साहन देने की घोषणा की । अमेरिका में यद्यपि हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं का आधार तैयार करने का काम लाला हरदयाल जी ने वर्ष 1913 में ही कर दिया था, लेकिन अपनी भाषा सहित अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकार, प्रवासी भारतीयों को, संविधान सम्मत रूप में मिलने का काम शुरू हुआ वर्ष 1946 से । वर्ष 1947 में यूनिवर्सिटी ऑव पेन्सिलवेनिया में दक्षिण एशियाई विभाग खोला गया जिसमें हिन्दी की पढ़ाई की भी व्यवस्था थी इसमें पादरी नारमन ब्राउन का योगदान भुलाया नहीं जा सकता । उन्नीसवीं शताब्दी के छठे दशक में प्रमुख विश्वविद्यालयों- शिकागो, मैडिसन, पेन, कोलंबिया, बर्कले आदि में, आठवें दशक में कुछ अन्य विश्वविद्यालयों के साथ प्रतिरक्षा संस्थान में और नवें दशक से लेकर इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक तक 100 से अधिक विश्वविद्यालयों/उच्च शिक्षा संस्थानों और भाषा संस्थानों में हिन्दी की पढ़ाई की व्यवस्था हो गई । स्वैच्छिक संस्थाओं जैसे कि हिन्दी यूएसए के बैनर तले संडे स्कूलों में भी हिन्दी की पढ़ाई आज अमेरिका में हो रही है ।
स्वर्गीय कुंअर चन्द्र प्रकाश सिंह की प्रेरणा से 18 अक्टूबर, 1980 को अंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति की स्थापना हुई । हिन्दी शिक्षण के अलावा अन्य आयोजनों, कवि सम्मेलनों, पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में इस संस्था ने एक नए युग का सूत्रपात किया । स्वर्गीय रामेश्वर अशांत ने वर्ष 1989 में विश्व हिन्दी समिति की स्थापना की और विश्वा नामक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया और इसके बाद सौरभ त्रैमासिक पत्रिका भी निकाली । डॉ राम चौधरी की अध्यक्षता में विश्व हिन्दी न्यास की स्थापना के बाद उसका त्रैमासिक प्रकाशन हिन्दी जगत के नाम से निकलता है और पूरी दुनिया में पढ़ा जाता है । इसी कड़ी में श्री श्याम त्रिपाठी के नेतृत्व में हिन्दी चेतना पत्रिका कनाडा से प्रकाशित की जा रही है और वर्तमान में इसका संपादन श्रीमती सुधा ओम धींगरा कर रही हैं । विश्व हिन्दी न्यास की त्रैमासिक विज्ञान प्रकाश और बाल जगत तथा डॉ वेद प्रकाश वटुक की अन्यथा पत्रिका भी प्रकाशित हो रही हैं । निश्शुल्क हिन्दी साप्ताहिक नमस्ते यूएसए का प्रकाशन सनीवेल हिन्दू मंदिर ने प्रारंभ किया है और इसका वितरण हजारों की संख्या में हो रहा है ।
परिमाण और प्रसार की दृष्टि से देखें तो नव प्रवास के देशों में अमेरिका में प्रवासी हिन्दी लेखन की परंपरा बहुत पुष्ट है । मॉरीशस को छोड़कर, भारत से बाहर इतना साहित्य सृजन और प्रकाशन कहीं भी नहीं हो रहा है । गीतकार इंदुकान्त शुक्ल से लेकर सुस्थापित कवि श्री गुलाब खंडेलवाल, डॉ विजयकुमार मेहता, श्री ओम प्रकाश गौड़ प्रवासी, रामेश्वर अशांत, डॉ वेद प्रकाश वटुक तक और नई शृंखला में सुधा ओम धींगरा, हिमांशु पाठक, धनंजय कुमार, राकेश खंडेलवाल, सुरेन्द्र कुमार तिवारी, अनंत कौर, अंजना संधीर और नरेन्द्र सेठी ने अपने लिए प्रवासी हिन्दी कवियों में जगह बनाई है। कथा साहित्य में स्वर्गीय सोमा वीरा, उषा प्रियंवदा, सुषम बेदी, उमेश अग्निहोत्री ने विश्व हिन्दी प्रेमियों का ध्यान आकर्षित किया है । लेखक के पास उपलब्ध सूचना के अनुसार अमेरिका में अब तक 132 काव्य संग्रहों और 52 कहानी संकलनों के अलावा 28 उपन्यास, 13 नाटक/एकांकी, 5 लेख संग्रह, इतिहास एवं विविध विषयों पर 13 पुस्तकें, 4 संस्मरण/यात्रावृत्त प्रकाशित हुए हैं ।
इसी के साथ कनाडा में श्रीमती मधु वार्ष्णेय, श्री नरेन्द्र भागी, आचार्य शिव शंकर द्विवेदी, राज शर्मा, श्री श्याम त्रिपाठी, श्री श्रीनाथ द्विवेदी, श्री समीर लाल, जसवीर कलरवी, डॉ भूपेन्द्र सिंह, श्री हरदेव सोढी, श्री ललित अहलूवालिया, श्री भुवनेश्वरी पांडेय, श्री अमर सिंह जैन और श्री कृष्ण कुमार सैनी ने लगभग 72 पुस्तकें प्रकाशित कराई हैं, जिनमें काव्य संग्रह, कहानी संकलन, उपन्यास, व्यंग्य संग्रह, संस्मरण आदि शामिल हैं ।
ब्रिटेन
नव प्रवास के देशों में भारत के लिए अमेरिका और ब्रिटेन का स्थान विशिष्ट है । अमेरिका में हिन्दी लेखन के बारे में चर्चा करते हुए इसी लेख में अन्यत्र यह उल्लेख किया गया है कि प्रवासी हिन्दी लेखन में ब्रिटेन का स्थान अद्वितीय है । राजनैतिक रूप से भी, शासक और शासित के बीच बहुत अच्छे संबंधों के दो मजबूत उदाहरण हैं- अमेरिका और ब्रिटेन तथा ब्रिटेन और भारत के संबंध । विश्व की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था-अमेरिका, लोकतंत्र और मैग्नाकार्टा की मातृभूमि-ब्रिटेन और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र- भारत के बीच गहराते संबंध मात्र संयोग नहीं हैं। इसमें प्रवासी भारतीयों के उस विशाल परिवार की अपनी गहरी भूमिका है जिसके सदस्यों की संख्या इन देशों में क्रमश: 25 लाख और 16 लाख है । ब्रिटेन में प्रवासी भारतीयों ने न केवल सामाजिक क्षेत्र में अपितु आर्थिक क्षेत्र में भी अपनी साख बनाई है और औसत भारतीय का योगदान, यहाँ की अर्थव्यवस्था में, सामान्य से दुगुना है । उदारीकरण के बाद भारत की आर्थिक शक्ति में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है और इसी के साथ भारत को एक नई दृष्टि से देखा जाने लगा है । ब्रिटेन के साथ भारत के आर्थिक, सैन्य, राजनयिक, व्यापारिक संबंधों में एक नई चेतना आई है और भारत के लोगों, भारत की संस्कृति, भारत की भाषाओं, यहाँ तक कि भारत के भोजन के बारे में भी ब्रिटिश समाज की रुचि बढ़ी है। मैं यह मानता हूँ कि विश्व में किसी भी प्रकार के व्यापार की तुलना में भाषा का और भाषा-आधारित उत्पादों का व्यापार सबसे बड़ा है । उत्पाद की स्वीकार्यता से पहले भाषा की स्वीकार्यता का अपना महत्व है और यह भी सत्य है कि व्यापारिक संबंध हमेशा एकतरफा नहीं रह सकते । यदि अंग्रेजी के प्रसार से भारत में अंग्रेजी-भाषी देशों को व्यापार में सुविधा होती है तो भारतीय भाषाओं को जानने से उन्हें गहरी पैठ मिलती है । वे गाँव गाँव जा कर कह सकते हैं- ये दिल माँगे मोर, फिर भी – रिन की चमकार, बार बार लगातार का मुकाबला मोर नहीं कर सकता ।
अस्तु, ब्रिटेन में हिन्दी लेखन की शुरुआत पत्रकारिता से हुई । आज से लगभग 128 वर्ष पहले वर्ष 1883 में कालाकांकर नरेश राजा रामपाल सिंह के संपादन में पहला हिन्दी अंग्रेजी त्रैमासिक समाचार पत्र हिन्दोस्थान प्रकाशित हुआ । हालांकि आगे चलकर 1884 में इंग्लैण्ड में यह केवल अंग्रेजी में निकलने लगा लेकिन भारत में 1885 से हिन्दी में प्रकाशित होने लगा । इसके बाद हिन्दी प्रचार परिषद, लन्दन के तत्वावधान में वर्ष 1964 में प्रवासिनी त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन होने लगा । इसका प्रकाशन ज्योति प्रिंटर, 40, स्टार स्ट्रीट, लन्दन से होता था और इसका कार्यालय था- 15, क्रॉच हॉल रोड, लन्दन एन 8 पर। इसके संपादक थे श्री धर्मेन्द्र गौतम और पत्रिका में श्री राधेश्याम सोनी, श्री जगदीश मित्र कौशल, श्री बैरागी, श्री मोहन गुप्त, श्री विनोद पांडे, श्री सत्यदेव प्रिंजा, अबू अब्राहम, कान्ता पटेल आदि का लेखकीय सहयोग होता था ।
इसके बाद जून, 1964 में श्री रमेश कुमार सोनी ने मिलाप वीकली पत्र का संपादन और प्रकाशन प्रारंभ किया तथा वर्ष 1966 से इसमें हिन्दी के भी दो पृष्ठ दिए जाने लगे । आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आठ पृष्ठों का यह साप्ताहिक समाचार पत्र अब भी प्रकाशित होता है और इस प्रकार ब्रिटेन में इसे उर्दू-हिन्दी का सर्वाधिक दीर्घ अवधि तक प्रकाशित होने वाला अखबार कहना उचित ही होगा । श्री जगदीश मित्र कौशल के संपादन में 23 मार्च, 1971 को लन्दन से ही अमरदीप साप्ताहिक का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और लगभग 32 वर्ष तक प्रकाशन के बाद यह वर्ष 2003 में बन्द हो गया । अमरदीप साप्ताहिक के महत्व को देखते हुए श्री जगदीश मित्र कौशल को भारतीय उच्चायोग की ओर से पहला आचार्य महावीर प्रसार द्विवेदी हिन्दी पत्रकारिता सम्मान वर्ष 2006 के लिए दिया गया । पत्रिका चेतक का प्रकाशन भी श्री नरेश भारतीय के संपादन में कुछ समय के लिए हुआ । तत्पश्चात् वर्ष 1997 में त्रैमासिक पत्रिका पुरवाई का प्रकाशन, डॉ पदमेश गुप्त के संपादन में शुरू हुआ जो अभी तक जारी है । हिन्दी के लिए पूर्णत: समर्पित इस पत्रिका ने ब्रिटेन के हिन्दी रचनाकारों को एक मंच दिया । इस बीच, भारतीय उच्चायोग की छमाही पत्रिका भारत भवन का प्रकाशन भी शुरू हुआ जो रुक-रुककर जारी है । श्रीमती शैल अग्रवाल ने लेखनी नामक एक मासिक वैब पत्रिका का प्रकाशन भी वर्ष 2008 से प्रारंभ किया है ।
साहित्यिक रचनाओं में पहली प्रकाशित रचना डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव की है – मिसेज जोन्स और उनकी वह गली । यह एक लंबी कविता है । इसके बाद डॉ निखिल कौशिक का काव्य संकलन- तुम लन्दन आना चाहते हो, वर्ष 1987 में प्रकाशित हुआ । सच तो यह है कि ब्रिटेन के प्रवासी रचनाकारों का कुल इतिहास लगभग 30 वर्ष का है जिसमें कि उनकी रचनाएँ पुस्तकाकार प्रकाशित हुई हैं । प्रकाशन की गति से देखें तो ब्रिटेन में हिन्दी साहित्य का भविष्य काफी उज्ज्वल दिखाई देता है । अभी तक ब्रिटेन में कुल 106 काव्य संग्रह, 12 उपन्यास, 06 नाटक/एकांकी, 06 निबंध/जीवनियाँ, 07 यात्रावृत्त/संस्मरण, 36 कहानी संग्रह, इतिहास/धर्म/दर्शन पर 05 ग्रन्थ, शोध/हिन्दी शिक्षण/विविध ग्रन्थों के रूप में कुल 25 पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है ।
ब्रिटेन के प्रमुख रचनाकारों में शामिल हैं- डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव, श्री प्राण शर्मा, श्रीमती उषा राजे सक्सेना, डॉ कृष्ण कुमार, श्री तेजिन्दर शर्मा, डॉ. कविता वाचक्नवी, डॉ निखिल कौशिक, श्री मोहन राणा, श्रीमती दिव्या माथुर, (स्वर्गीय) डॉ गौतम सचदेव, डॉ पद्मेश गुप्त, श्री महेन्द्र दवेसर दीपक, श्री रमेश पटेल, श्रीमती शैल अग्रवाल, श्री भारतेन्दु विमल, श्रीमती उषा वर्मा, श्रीमती कादम्बरी मेहरा, श्रीमती पुष्पा भार्गव, श्रीमती विद्या मायर, श्रीमती कीर्ति चौधरी, श्रीमती प्रियम्वदा मिश्रा, श्रीमती अरुणा सभरवाल, श्रीमती श्यामा कुमार, डॉ इन्दिरा आनंद, श्री वेद मित्र मोहला, श्रीमती नीना पॉल, श्री नरेश अरोड़ा, श्रीमती अचला शर्मा, श्रीमती चंचल जैन, श्रीमती स्वर्ण तलवाड़, डॉ कृष्ण कन्हैया, श्रीमती जय वर्मा, श्री धर्मपाल शर्मा, श्री सुरेन्द्र नाथ लाल, श्री रमेश वैश्य मुरादाबादी, श्री सोहन राही, श्रीमती रमा जोशी, डॉ श्रीपति उपाध्याय, श्री एस पी गुप्ता, श्री जगभूषण खरबन्दा, श्री यश गुप्ता, श्री जे एस नागरा, श्री मंगत भारद्वाज, श्री जगदीश मित्र, श्री रिफत शमीम, श्री इस्माइल चुनारा, श्रीमती तोषी अमृता, श्रीमती राज मोदगिल, श्रीमती उर्मिल भारद्वाज, श्रीमती निर्मल परींजा आदि ।
नव प्रवास के अन्य देश हैं- न्यूजीलैण्ड, आस्ट्रेलिया, नार्वे, डेनमार्क, सउदी अरब, शरजाह, डेनमार्क, जापान आदि देश । यूरोप के कई अन्य देशों में भी प्रवासी भारतीय अल्प संख्या में हैं और हिन्दी लेखन भी कर रहे हैं परन्तु उनका उल्लेख स्थानाभाव के कारण इस लेख में नहीं किया जा रहा है ।
निष्कर्षत: यह निर्विवाद सत्य है कि भारत से बाहर सबसे अधिक मात्रा और संभवत: सबसे अधिक गुणवत्ता वाला लेखन मॉरीशस में ही हुआ है और हो रहा है । ऐसा कहते हुए मेरे मन में अमेरिका के प्रवासी/निवासी रचनाकारों के विपुल साहित्य सृजन की उपेक्षा का भाव बिल्कुल नहीं है और न ही ब्रिटेन में हिन्दी साहित्य सृजन के विकासशील लेकिन सशक्त बिरवे को दृष्टि से ओझल करने का ही भाव है । जब भी हम मॉरीशस और ब्रिटेन में हिन्दी साहित्य की बात करें तो इन दोनों देशों के भौगोलिक क्षेत्रफल के सापेक्ष अमेरिका के क्षेत्रफल और वहाँ प्रवासी भारतीयों के संख्याबल को भी ध्यान में रखना होगा । इसी अर्थ में मैंने कहा है कि हिन्दी में सर्वाधिक साहित्य सृजन मॉरीशस में हो रहा है। इस दृष्टि से देखें तो ब्रिटेन में हिन्दी साहित्य सृजन का महत्व अपने आप सामने आ जाएगा ।
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संदर्भ ग्रन्थ सूची
1. विदेशों में हिन्दी पत्रकारिता, डॉ पवन कुमार जैन, 1993 ।
2. चेतना का आत्मसंघर्ष- हिन्दी की इक्कीसवीं सदी, संपादक- श्री कन्हैयालाल नन्दन, 2007।
3. विश्व हिन्दी रचना, भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, 2003 ।
4. स्मारिका, सातवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन, सूरीनाम, 2003 ।
5. विश्व हिन्दी पत्रिका, विश्व हिन्दी सचिवालय, 2009 ।
6. प्रवासी संसार, संपादक श्री राकेश पांडेय, विश्व हिन्दी सम्मेलन विशेषांक, 2007 ।
7. विश्व हिन्दी पत्रिका, विश्व हिन्दी सचिवालय, 2010 ।
8. ब्रिटेन में हिन्दी, श्रीमती उषा राजे सक्सेना, 2005 ।
9. प्रवासी भारतीयों की हिन्दी सेवा, श्रीमती कैलाश कुमारी सहाय ।
10. हिन्दी की विश्व यात्रा, प्रो सुरेश ऋतुपर्ण, 2005 ।
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achcha vibran hai dhanyabad
जवाब देंहटाएंॐ
जवाब देंहटाएंभाई श्री राकेश जी आपका ' प्रवासी हिन्दी साहित्य पर आलेख अच्छा लगा
इस समय अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिती की मुख पत्रिका ' विश्वा ' में
सह - सम्पादक हूँ ..
आपका यह आलेख श्रम से तैयार किया गया है यह स्पष्ट है
मेरा ब्लॉग पता : http://www.lavanyashah.com/
ई मेल सम्पर्क : Lavnis@gmail.com
- लावण्या दीपक शाह
शोधपरक लेख द्वारा विस्तृत जानकारियाँ परोसने के लिए बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंबृजेंद्र अग्निहोत्री
संपादक 'मधुराक्षर'
फतेहपुर उत्तर प्रदेश
राकेश दुबे जी का प्रस्तुत लेख विश्वपटल पर हिन्दी की व्यापक स्थिति का दि्ग्दर्शन कराता है। युवा पीढ़ी में कहां कहां हिन्दी बची है या भविष्य में बचने की आशा है यह एक दुखद कहानी है। मारीशस जैसे देश में भी नहीं बच पाई तो और कहां बचेगी। राकेश जी इस शोधपरक लेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंडा० सुरेन्द्र गंभीर
फ़िलाडेल्फ़िया
Congatulations for a well researched article.
You may at some time write an article giving reference of some of the most famous work of the pravasi writers so that some of us could try and get those.
Thanks
देर से ही सही, सराहनीय लेखन की सराहना होनी ही चाहिए। न सिर्फ सूचनात्मक, बल्कि प्रेरक भी। बहुत-बहुत बधाई। इस तरह के लेखों की बहुत आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंसूर्यनाथ सिंह
देर से ही सही, सराहनीय लेखन की सराहना होनी ही चाहिए। न सिर्फ सूचनात्मक, बल्कि प्रेरक भी। बहुत-बहुत बधाई। इस तरह के लेखों की बहुत आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंसूर्यनाथ सिंह