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कल यहीं प्रकाशित " हिन्दी पर सरकारी हमले का आखिरी हथौड़ा" पर वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव जी ने अपनी जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, उसका अविकल पाठ यहाँ दे रही हूँ।
हिन्दी का ताबूत
- राहुल देव
हिन्दी के ताबूत में हिन्दी के ही लोगों ने हिन्दी के ही नाम पर अब तक की सबसे बड़ी सरकारी कील ठोंक दी है। हिन्दी पखवाड़े के अंत में, 26 सितंबर 2011 को तत्कालीन राजभाषा सचिव वीणा ने अपनी सेवानिवृत्ति से चार दिन पहले एक परिपत्र (सर्कुलर) जारी कर के हिन्दी की हत्या की मुहिम की आधिकारिक घोषणा कर दी है। यह हिन्दी को सहज और सुगम बनाने के नाम पर किया गया है। परिपत्र कहता है कि सरकारी कामकाज की हिन्दी बहुत कठिन और दुरूह हो गई है। इसलिए उसमें अंग्रेजी के प्रचलित और लोकप्रिय शब्दों को डाल कर सरल करना बहुत जरूरी है। इस महान फैसले के समर्थन में वीणा जी ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली केन्द्रीय हिन्दी समिति से लेकर गृहराज्य मंत्री की मंत्रालयी बैठकों और राजभाषा विभाग द्वारा समय समय पर जारी निर्देशों का सहारा लिया है। यह परिपत्र केन्द्र सरकार के सारे कार्यालयों, निगमों को भेजा गया है इसे अमल में लाने के लिए। यानी कुछ दिनों में हम सरकारी दफ्तरों, कामकाज, पत्राचार की भाषा में इसका प्रभाव देखना शुरु कर देंगे। शायद केन्द्रीय मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों के उनके सहायकों और राजभाषा अधिकारियों द्वारा लिखे जाने वाले सरकारी भाषणों में भी हमें यह नई सहज, सरल हिन्दी सुनाई पड़ने लगेगी। फिर यह पाठ्यपुस्तकों में, दूसरी पुस्तकों में, अखबारों, पत्रिकाओं में और कुछ साहित्यिक रचनाओं में भी दिखने लगेगी।
सारे अंग्रेजी अखबारों ने इस हिन्दी को हिन्ग्लिश कहा है। वीणा उपाध्याय के पत्र में इस शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। उसमें इसे हिन्दी को सुबोध और सुगम बनाना कहा गया है। अंग्रेजी और कई हिन्दी अखबारों ने इस ऐतिहासिक पहल का बड़ा स्वागत किया है। इसे शुद्ध, संस्कृतनिष्ठ, कठिन शब्दों की कैद से हिन्दी की मुक्ति कहा है। तो कैसी है यह नई आजाद सरकारी हिन्दी ? यह ऐसी हिन्दी है जिसमें छात्र, विद्यार्थी, प्रधानाचार्य, विद्यालय, विश्वविद्यालय, यंत्र, अनुच्छेद, मध्यान्ह भोजन, व्यंजन, भंडार, प्रकल्प, चेतना, नियमित, परिसर, छात्रवृत्ति, उच्च शिक्षा जैसे शब्द सरकारी कामकाज की हिन्दी से बाहर कर दिए गए हैं क्योंकि ये राजभाषा विभाग को कठिन और अगम लगते हैं। यह केवल उदाहरण है। परिपत्र में हिन्दी और भारतीय भाषाओं में प्रचलित हो गए अंग्रेजी, अरबी, फारसी और तुर्की शब्दों की बाकायदा सूची दी गई है जैसे टिकट, सिग्नल, स्टेशन, रेल, अदालत, कानून, फौज वगैरह।
परिपत्र ने अपनी नई समझ के आधार के रूप में किन्ही अनाम हिन्दी पत्रिकाओं में आज कल प्रचलित हिन्दी व्यवहार के कई नमूने भी उद्धृत किए हैं। उन्हें कहा है - हिंदी भाषा की आधुनिक शैली के कुछ उदाहरण। इनमें शामिल हैं प्रोजेक्ट, अवेयरनेस, कैम्पस, एरिया, कालेज, रेगुलर, स्टूडेन्ट, प्रोफेशनल सिंगिंग, इंटरनेशनल बिजनेस, स्ट्रीम, कोर्स, एप्लाई, हायर एजूकेशन, प्रतिभाशाली भारतीय स्टूडेन्ट्स वगैरह। तो ये हैं नई सरकारी हिन्दी की आदर्श आधुनिक शैली।
परिपत्र अपनी वैचारिक भूमिका भी साफ करता है। वह कहता है कि “किसी भी भाषा के दो रूप होते हैं – साहित्यिक और कामकाज की भाषा। कामकाज की भाषा में साहित्यिक शब्दों के इस्तेमाल से उस भाषा की ओर आम आदमी का रुझान कम हो जाता है और उसके प्रति मानसिक विरोध बढ़ता है। इसलिए हिन्दी की शालीनता और मर्यादा को सुरक्षित रखते हुए उसे सुबोध और सुगम बनाना आज के समय की माँग है।“
हमारे कई हिन्दी प्रेमी मित्रों को इसमें वैश्वीकरण और अंग्रेजी की पोषक शक्तियों का एक सुविचारित षडयंत्र दिखता है। कई पश्चिमी विद्वानों ने वैश्वीकरण के नाम पर अमेरिका के सांस्कृतिक नवउपनिवेशवाद को बढ़ाने वाली शक्तियों के उन षडयंत्रों के बारे में सविस्तार लिखा है जिसमें प्राचीन और समृद्ध समाजों से धीरे धीरे उनकी भाषाएँ छीन कर उसकी जगह अंग्रेजी को स्थापित किया जाता है। और यों उन समाजों को एक स्मृतिहीन, संस्कारहीन, सांस्कृतिक अनाथ और पराई संस्कृति पर आश्रित समाज बना कर अपना उपनिवेश बना लिया जाता है। अफ्रीकी देशों में यह व्यापक स्तर पर हो चुका है।
मुझे इसमें यह वैश्विक षडयंत्र नहीं सरकार और प्रशासन में बैठे लोगों का मानसिक दिवालियापन, निर्बुद्धिपन और भाषा की समझ और अपनी हिन्दी से लगाव दोनों का भयानक अभाव दिखता है। यह भी साफ दिखता है कि राजभाषा विभाग के मंत्री और शीर्षस्थ अधिकारी भी न तो देश की राजभाषा की अहमियत और व्यवहार की बारीकियाँ समझते हैं न ही भाषा जैसे बेहद गंभीर, जटिल और महत्वपूर्ण विषय की कोई गहरी और सटीक समझ उनमें है। भाषा और राजभाषा, साहित्यिक और कामकाजी भाषा के बीच एक नकली और मूर्खतापूर्ण विभाजन भी उन्होंने कर दिया है। अभी हम यह नहीं जानते कि किसके आदेश से, किन महान हिन्दी भाषाविदों और विद्वानों से चर्चा करके, किस वैचारिक प्रक्रिया के बाद यह परिपत्र जारी किया गया। अभी तो हम इतना ही जानते हैं कि इस सरकारी मूर्खता का तत्काल व्यापक विरोध करके इसे वापस कराया जाना जरूरी है। यह सारे हिन्दी जगत और देश की हर भाषा के समाज के लिए एक चुनौती है।
परिपत्र में सबसे मूर्खतापूर्ण वे पत्रिकाओं से दिये गये उदाहरण हैं जो जागरुकता की बजाय अवेयरनेस, विद्यार्थी की बजाय स्टूडेंट की सलाह देते हैं।
जवाब देंहटाएंहैरानी की बात है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण आदेश के प्रति बहुत से लोग उत्साहित दिख रहे हैं।
Vinod Sharma wrote
जवाब देंहटाएंभाई राहुल देव की अवश्य ही सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने अपनी बेबाक राय रख कर राजभाषा के शिखर पर बैठे आज्ञानियों की समझ पर सीधा निशाना ताना है।
उन्होंने जिस अमेरिकी औपनिवेशवादी खतरे का अप्रत्यक्ष जिक्र किया है वह काल्पनिक नहीं है। निरंतर इसके सबूत मिलते रहे हैं और यह तो अंधे को भी नजर आने वाला खुल्लमखुल्ला औपनिवेशिक दासता को आमंत्रण है। इन अंग्रेजों के मानस पुत्रों को एक दिन इस देश की जनता इस तरह से निकाल फेंकेगी जैसे दूध में से मक्खी। नेहरू से चला यह अंग्रेजी प्रेम उस कुनबे के किसी भी शख्स के सत्ता के शीर्ष पर रहते इस देश की फ़िजां में ज़हर घोलता ही रहेगा। काश! गांधी ने पटेल का साथ दिया होता तो अंग्रेजों की इन औलादों को इस देश को न झेलना पड़ता। गांधीजी के अंतिम दिनों के संस्मरणों में एक-एक शब्द से उनकी लाचारी और व्यथा टपकती है। राष्ट्रभाषा के उस सबसे बड़े हिमायती को अलग-थलग करके नेहरू ने विकास के नाम पर इस देश को जिस अंधे कुएँ में धकेला था उससे यह देश आज तक नहीं उबर पाया है। अगर देश बापू की राह पर चला होता तो आज देश का हर गाँव उन्नत और आत्मनिर्भर होता, स्वदेशी, स्वराज, रामराज्य, स्वभाषा, सब कुछ अपना होता। चीन इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है। दुनिया के किसी भी उन्नत देश में जाकर देखिए, साफ दिखाई देगा स्वदेशी का चमत्कार। है दुनिया में कोई ऐसा देश जिसमें यह कहना संभव हो कि भाषा तो सरल बनाने के लिए उसमें अंग्रेजी शब्दों की भरमार कर देनी चाहिए। यह सिर्फ भारत में ही संभव है क्योंकि यहाँ की संस्कृति सहिष्णु है, हमारी सहनशीलता की कोई पराकाष्ठा नहीं है। हमें कितना ही कोई प्रताड़ित करे, कितना ही हमारा या हमारी थातियों का अपमान करे, हम सब कुछ सहन कर सकते हैं। सरकारी मठाधीशों के हाथों यह अपमान भी हम चुपचाप सह जाएँगे, लेकिन मुँह नहीं खोलेंगे।
अजित वडनेरकर (भाई भोपाली)लिखते हैं -
जवाब देंहटाएं"यह सिर्फ भारत में ही संभव है क्योंकि यहाँ की संस्कृति सहिष्णु है, हमारी सहनशीलता की कोई पराकाष्ठा नहीं है। हमें कितना ही कोई प्रताड़ित करे, कितना ही हमारा या हमारी थातियों का अपमान करे, हम सब कुछ सहन कर सकते हैं।"
अच्छी बात है।
क्या यही हमारी विशेषता नहीं है, क्या यही शक्ति नहीं है?
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बिलकुल ! अजित वडनेरकर जी,
जवाब देंहटाएंघर लुट जाए, संपदा स्वाहा हो जाए, परिवार नष्ट हो जाए, लुटेरे सर्वस्व तहस नहस कर रहे हों भीतर घर में घुसकर, माँ की अस्मत हमारी आँखों के सामने नंगा कर लूटी जा रही हो और हम माला जपते अपनी महानता का पुराख्यान कहते - सुनाते रहें ; सब कुछ लुटने पर भी लूट के पक्ष में तर्क दे देकर उसका समर्थन करना, विरोध करना तो दूर ऊपर से यह कह कर प्रोत्साहित करना कि अपनी माँ, परिवार व घर को लुटने देने की छूट देना ही तो हमारी महानता है, हमारी शक्ति है, हमारी विशेषता है। कायर जातियों की सहिष्णुता का रहस्य उनकी नपुंसकता में निहित होता है। कैसी है यह हिन्दी जाति ! एक बार तो हिन्दीजाति की महानता उसकी आत्मरक्षा का कवच बन कर दिखाए न ! आत्मरक्षा तक के लिए जो न चेते उसकी प्रतिक्रियाहीनता को विशेषता नहीं, उसका मृतप्रायत्व कहते हैं।
- कविता वाचक्नवी
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मुझे तो यह ऐसी गलत बात भी नहीं लगती है।
जवाब देंहटाएंट्रेन को लौहपथगामिनी कहना कहां तक उचित है। मेरे विचार में, लोगों को, कम्यूटर शब्द सङ्गणकयन्त्र शब्द से ज्यादा आसानी में समझ में आता है।
अंग्रेजी ही के क्या, किसी भी भाषा के प्रचलित शब्दों को हिन्दी में ले लेना ठीक ही कदम होगा।
उर्दू के बहुत से शब्द, उनके संस्कृत युक्त हिन्दी शब्दों से, ज्यादा अच्छे हैं। वे हिन्दी में प्रयोग होते आ रहे हैं हमने उन्हें स्वीकार कर लिया है। फिर, अन्य भाषाओं से ऐसा दुराग्रह क्यों।
हरिराम जी ने लिखते हैं -
जवाब देंहटाएंजो सरकारी कर्मचारी/अधिकारी अनेक वर्षों से अंग्रेजी का ही प्रयोग करते आए हों, जिनकी सम्पूर्ण शिक्षा दीक्षा अंग्रेजी या हिन्दीतर भाषा में ही हुई हो, जिनको हिन्दी में दो-चार शब्द लिखना भी कठिन लगता हो, जो किसी सन्दर्भ पुस्तिका को देखकर या कार्यालय टिप्पणियों की पुस्तिका को देखकर किसी फाइल पर जैसे-तैसे एकाध टिप्पणी हिन्दी में लिखकर फाइल को रोके रखने की वजाए आगे बढ़ा देते हैं, उनके लिए उपर्युक्त "सरल हिन्दी" के प्रयोग का तरीका प्रोत्साहनजनक तथा सुविधाजनक होगा। हिन्दी का प्रयोग सरकारी क्षेत्र में बढ़ेगा ही। हिन्दी न जाननेवालों के पास फाइल जाने पर कामकाज रुकेगा तो नहीं। इस दृष्टि से ऐसी "सरल हिन्दी" सरकारी क्षेत्र में हिन्दी का प्रयोग बढ़ाने में सहायक होगी।
किन्तु यदि ऐसी "सरल हिन्दी" का प्रयोग हिन्दी भाषी, हिन्दी जाननेवाले, हिन्दी अधिकारी, हिन्दी अनुवादक या हिन्दी कर्मचारी भी करने लगें तोक्या हिन्दी भाषा एकदम खिचड़ी बन कर नहीं रह जाएगी।
वैसे देखें तो हिन्दी के विद्वान भी हिन्दी में अंग्रेजी, उर्दू आदि के शब्दों का व्यवहार करते ही रहते हैं। किन्तु एक सीमा तक।
सभी जानते हैं कि संस्कृत से ही सभी भारतीय भाषाएँ सृजित हुई हैं। अतः संस्कृतनिष्ठ शब्दावलियाँ काफी सोच समझकर और विद्वानों के द्वारा अनेक बैठकें करके बनाईं गईं हैं ताकि सभी भारतीय भाषाओं के उपयोगकर्ताओं से सुबोध हो। शब्द गठन के तर्क व आधार भी स्पष्ट किए गए हैं।
यदि हिन्दी में कुछ लोग ओड़िआ के शब्दों को मिलाकर व्यवहार करने लगेंगे, कुछ लोग तेलगु के, कुछ लोग तमिल के.... 22 भाषाओं के शब्द प्रयोग करने लगेंगे तो क्या हाल होगा? उदाहरण के लिए हिन्दी में पुस्तक की जगह कोई ओड़िआ/बंगला शब्द 'बहि', कोई तमिल शब्द 'पोथी', तो कोई उर्दू शब्द "किताब" ..... लिखने लगेंगे तो क्या होगा। शायद वह "सरल हिन्दी" इतनी "कठिन हिन्दी" बन जाएगी कि कोई समझ ही नहीं पाएगा। फिर उन सभी शब्दों के मानकीकरण की समस्या आ जाएगी। पारिभाषिक शब्दावली फिर निर्धारित करनी पड़ेगी। वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा इतने वर्षों के परिश्रम से जितनी शब्दावलियाँ प्रस्तुत की गईं हैं, क्या उन्हें फिर से सुधारना नहीं पड़ेगा?
अतः सम्यक विचार करते हुए उपर्युक्त आदेश के अनुपालन की सीमा -- "जिनको हिन्दी नहीं आती हो सिर्फ उनके लिए", "जिस शब्द का हिन्दी पर्याय तत्काल उपलब्ध न हो, वैसी स्थिति में" जैसी शर्तों के साथ निर्धारित की जाए तो बेहतर होगा।
-- हरिराम
मित्रो
जवाब देंहटाएंविषय बहुत गंभीर है इसे किसी भी रुप में अपनी धारणा के विपरीत मत व्यक्त करने वालों के विरुद्ध कटु वचन अथवा कटाक्षों से दूषित न करें । सभी लोगो से निवेदन हैं कि डॉ गुप्ता की वरिष्टता एवं विद्धता निर्विवाद है इसलिए उन पर कोई व्यक्तिगत टिप्पणई न करें- सब को अपना मत व्यक्त करने का अधिकार है । विचार विमर्श से ही सही राह निकलेगी ।
डॉ वीणा उपाध्याय जी द्वारा जारी परिपत्र के संदर्भ में एक अच्छी बहस चली है- इस विषय में बात को दूर तक जाने दीजिए । सभी लोग अपनी टिप्पणी में ध्यान दें कि श्रीमती वीणा उपाध्याय हैं न कि श्रीवास्तव ?
सादर
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डॉ. राजीव कुमार रावत Dr. R. K. Rawat
हिन्दी अधिकारी Hindi Officer
राजभाषा विभाग Rajbhasha Vibhag
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर 721302
अनुनाद जी ने लिखा -
जवाब देंहटाएंआइये ज़रा इस परिपत्र की और चीरफाड़ करें-
१) इसमें 'प्रधानमंत्री' का नाम आया है। प्रधानमंत्री कब से हिन्दी के शुभचिन्तक या भाषा के विद्वान हो गये? मूझे तो यह 'चमचागिरी' का नमूना लगता है.
२) इसमे भाषा के स्वरूप में परिवर्तन की बात कही गयी है और उसके लिए अंग्रेजी और और उसके साहित्यकारों (शेक्सपीयर आदि) का नाम लिया गया है. क्या उनको यह पता है कि हिन्दी भी चंदबरदाई के काल से चलाकर भारतेंदु युग होते हुए आधुनिक युग में भी सहज रूप से बदल रही है? क्या हिन्दी कम बदली है?
३) यह परिपत्र इतना सतही है कि अभी से इसके मनमाने अर्थ लगाए जा रहे हैं. कोई समझ रहा है कि हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों के उपयोग की 'खुली छूट' है (हिंग्लिश); कोई समझ रहा है कि केवल 'अत्यंत अप्रचलित' हिन्दी शब्दों के प्रयोग के स्थान पर अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की छूट दी गयी है.
४) इस परिपत्र में अंग्रेजी का गुणगान है. अंग्रेजी को 'लोकप्रिय' होने का प्रमाणपत्र दिया गया है. उनका नहीं पता कि पूरे दक्षिण एशिया में यह गुलामी के समय थोपी गयी थी. नहीं पता कि अमेरिका और आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों को 'ख़त्म' करके वहां इसे कायम किया गया है? किस स्वतंत्र और स्वाभिमानी देश में इसे लोकप्रिय कहा और माना जा रहा है?
विनोद शर्मा लिखते हैं -
जवाब देंहटाएंयहाँ यह भी जोड़ना समीचीन होगा कि अंग्रेजी दुनिया की सबसे ज्यादा अव्यवस्थित/अनियमित भाषा है।
इसके व्याकरण में अपवादों की भरमार है, या कहें कि सैंकड़ों शब्द ऐसे हैं जिनका अपना अलग व्याकरण है।
कोई एक नियम सब पर लागू नहीं होता। जो स्वर और शब्द माधुर्य, हिंदी में है उसका अंग्रेजी मे कतई अभाव है।
उछ्चारण या शब्द ध्वनि के इतने बेतुके नियम हैं कि सीखने वाला एक बार तो पागल ही हो जाता है।
इंग्लैंड के बाहर यह सिर्फ गुलामों की भाषा है। हमारी सरकार और हमारे नेता अपनी मानसिक गुलामी से आजाद नहीं होना चाहते इस लिए आक्रांताओं की इस भाषा को निरंतर प्रश्रय दिए जा रहे हैं। आज इस हिंगलिश के इतने हिमायती तैयार हो गए हैं कि कविश्रेष्ठ रहीम की पंक्तियाँ बरबस याद आती हैं-
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन;
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन।
जब चारों ओर से सरल हिंदी के नाम पर हिंगलिश को स्थापित करने का प्रयास हो रहा है, तो हिंदी और भारतीय भाषा-प्रेमियों को अपने स्तर पर अपने प्रयास जारी रखने चाहिएँ। सरकार की ये कुत्सित
चालें धीरे-धीरे अपने आप नाकाम हो जाएँगी।
विनोद जी लिखते हैं -
जवाब देंहटाएंजिनकी नजर में हॉवर्ड की डिग्रियाँ विद्वत्ता का पैमाना हो ऐसे हिंदी के इन तथाकथित स्वघोषित विद्वान की अंग्रेजपरस्ती के बारे में कुछ न कहना ही बेहतर है। इनके नजरिए से तो संविधान सभा में शामिल लोग मूर्ख थे जिन्होंने अंग्रेजी को राज-काज से पूरी तरह बाहर करने के लिए 15 वर्ष की लंबी अवधि निर्धारित की थी। किंतु सरकार की अंग्रेजीपरस्ती के चलते 64 वर्षों में हमने अंग्रेजी पर निर्भरता को कम करने की बजाय बढ़ाया ही है। अब तो इसे सौ वर्षों में भी नहीं हटाया जा सकता। सरकारी प्रश्रय में पलने बढ़ने वाले इन अंग्रेजीदां विद्वानों के रहते और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है। इस हिंगलिश के समर्थकों की भी कमी नहीं है। अतः सरकार के इस निर्णय को बदलवाना कतई संभव नहीं होगा। यही इस देश का दुर्भाग्य है।
मेरी टिप्पणी (कुछ ऊपर) पर अजित वडनेरकर जी ने लिखा -
जवाब देंहटाएंकविता जी,
भाषा के संदर्भ में वैसा कुछ भी नहीं हो रहा है जिसके लिए भारीभरकम शब्द आपने प्रयोग किए हैं। आपकी इस भावुक शब्दावली को अगर जस का तस उस प्रवृत्ति पर लागू कर दिया जाए जिसके तहत हम सब आचार, व्यवहार, संस्कृति के पाश्चात्य तौर-तरीकों को अपनाते हैं तो क्या उसे सभी स्वीकार करेंगे? वेषभूषा से लेकर उपकरणों के प्रयोग तक में यह पाश्चात्य अथवा विदेशी प्रेम स्वीकार है। हमें नए से नए मोबाइल, लैपटॉप चाहिए। चरखा, खादी, हिन्दी को सरकार बढ़ाए। जब हमने चरखा छोड़ा तब कोई दिक्कत नहीं। जब हमने खादी छोड़ी तो दिक्कत नहीं। अब सरकार खुद “सरकारी हिन्दी” की जड़ता तोड़ने की पहल करती है तो हमें ऐसा लग रहा है मानो आसमान टूट पड़ा है। ऐसी ही भावुक शब्दावली का प्रयोग कर और आसान भाषा लिखने के विरुद्ध मैं भी अगर चंद अल्फ़ाज़ कह दूँ तो क्या उससे वह सरकारी हिन्दी आसान बन जाएगी जिसे पारिभाषिक शब्दों के आधिक्य ने आम आदमी के लिए दुरूह बना दिया है? पहले से दुरूह “सरकारी हिन्दी” अगर कुछ सुधरती है तो देखिए तो सही। वरना विरोध करना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है ही। सरकारी निर्णय सिर्फ “सरकारी हिन्दी” हिन्दी के लिए है। बोल चाल की हिन्दी या साहित्य की हिन्दी किन्हीं सरकारों, समूहों के फैसलों से नहीं चलती हैं। शब्दों की आवाजाही से ही भाषा को खुराक मिलती है। सरकार नहीं, समाज में अपने आप भाषा का स्वरूप विकसित होता रहता है।
शेष भाग अगली टिप्पणी के रूप में
गत टिप्पणी का शेष भाग
जवाब देंहटाएंइसका ये अर्थ भी नहीं कि मौजूदा सरकारी निर्देश से भी स्थिति सुधर जाए, मगर यह बदलाव तो है ही। इसकी ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमारी कथनी करनी में अन्तर है। खाने के दांत और, दिखाने के और। हमारे घरों में यह सब बरसों से हो रहा है। माता-पिता माँग कर भी किताबें नहीं पढ़ते, टीवी देखते हैं, टीवी की हिन्दी सुनते हैं। किस हिन्दी की उम्मीद, हम किससे कर रहे हैं? हिन्दीवालों के घरों में यह हो रहा है। बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते हैं। पास पड़ोस और घर में मम्मी, डैडी, अंकल, आंटी, स्कूल, कॉन्वैन्ट, बस, स्टेशन, लॉन, गार्डन, प्लान, प्रोजेक्ट, प्रोग्राम, मिनट, सैकन्ड, वेरी मच, थैक्यू, समथिंग, एडवांस, लाइव, वेकेन्सी, वेकेन्ट, डोर, बेल, कॉल, प्रेजेन्ट, यस, नो सुनते हुए बड़ी हुई दो पीढ़ियों और अब पिज्जा, बर्गर पर पलती और आईपैड पर खेलती पीढ़ी को पालते-पोसते हम लोगों ने उन्हें कौन सा भाषा संस्कार दिया है क्या इस पर भी हमारा ध्यान है। ऐसे में हम लोगों का यह भाषा-चिन्तन भी चिन्ताजनक है क्योंकि हमारे पास करने के लिए कुछ नहीं है, कहने के लिए घिसीपीटी बातें। हम किससे बातें कर रहे हैं और सुना किसे रहे हैं। हम चाहते हैं कि सिर्फ हमारी बात सुनी जाए, दूसरे की नहीं। असली हिन्दी भक्त हम हैं, दूसरा कोई हिन्दी प्रेमी हो नहीं सकता। घुमाफिरा कर हिंग्लिश का वही उदाहरण। मैं हिंग्लिश का समर्थक नहीं, सरकारी हिन्दी के कठिनतर होते जाने के खिलाफ हूँ और इसी रूप में उक्त निर्देश पर अपनी प्रतिक्रिया देता रहा हूँ कि चलो, अब सरकारी लोगों को भी यह बात तो माननी पड़ी कि बदलाव होना चाहिए। अब तक तो सरकारी हिन्दी थोपी जा रही थी। राजभाषाकर्म करने वाले सभा, संगोष्ठियों, कमेटियों और विदेश दौरों में मस्त थे।
सवाल उठता है भाषा के सवाल पर समाम में आते बदलाव रोक दिए जाएँ ( अव्वल तो यह मुमकिन नहीं ) यानी व्यवहार, संस्कृति, रहन-सहन के स्तर पर समाज बदलेगा तो भाषा भी बदलेगी ही। हमें दीगर बदलाव स्वीकार हैं, मगर हिन्दी में नहीं।(क्योंकि हम समाज में हिन्दी प्रेमी के तौर पर ख्यात हैं। अन्य किसी को हम हिन्दी प्रेमी नहीं मानते, क्योंकि वह सरकारी हिन्दी नहीं बोलता है) यह दोमुँहापन क्यों?
बदलाव तो हर युग में होते रहे हैं क्या वे सब “बलात्कार, ज्यादती, नंगा” करने की कोशिशें थीं? तब ये जो कोट-पेंट, गाऊन, स्कर्ट हमने पहनें हैं ये ये तन ढकने का, उसे अधिक सज्ज करने प्रयास है या नंगा करने / होने का? किसने बाध्य किया है इसके लिए? हर उस प्रतीक को उतार फेंकिए अपनी शख्सियत से, जीवन से जो विदेशी है या जिसका मूल भारतीय नहीं है। धोती-कुर्ता के आसान विकल्प हमारे पास हैं, सिर्फ़ उन्हें पहना जाए। इससे हट कर देखें तो हमने इन दोनों के बीच समन्वय रखा है। हम भारतीय पद्धति के साथ भी हैं और पाश्चात्य विदेशी पद्धति के साथ भी। समन्वय की यह लोचदार, लचकदार जीवन शैली भारतीयता की पहचान है। इसी मुकाम पर मैने श्री विनोद शर्माजी की इन पंक्तियों का समर्थन किया था- क्योंकि यहाँ की संस्कृति सहिष्णु है, हमारी सहनशीलता की कोई पराकाष्ठा नहीं है। विनोद जी के पत्र की इन पंक्तियों में ही उनकी अपनी बात का जवाब है। यही मैने कहा। जो हमारा स्वभाव है, क्योंकि हम बहुभाषी, बहुजातीय समूह हैं, इसलिए हमारे समाज का विशिष्ट स्वभाव भी है। मीठा, खारा, सादा कैसा भी हो, पानी तो पानी ही कहलाएगा। विनोदजी और आपकी बातों से ऐसा लग रहा है कि अब हमें अपनी सहिष्णुता छोड़ देनी चाहिए या वह मौलिक स्वभाव जो हजारों सालों में विकसित हुआ, उसे अब बदलना चाहिए।
गत टिप्पणी का शेष भाग
जवाब देंहटाएंसभ्यता-संस्कृति से जुड़े वैश्विक बदलाव चुपचाप हो जाते हैं। अगर हम यह मान कर चलें कि सभी भारतीय भाषाएँ संस्कृत से जन्मी हैं तब सोचना होगा कि ऐसा हुआ ही क्यों? संस्कृत में किसी मिलावट के तहत ही संस्कृतेतर रूप जन्में होंगे। कुछ जोड़-घटाव किए बिना नया पैदा नहीं हो सकता। उस दौर में इस मिलावट पर बवाल क्यों नहीं हुआ? ज्यादातर इन्ही संस्कृतेतर रूपों का विकास हुआ जिन्हें आज अवधी, ब्रज, मालवी, बुन्देली, भोजपुरी, मैथिली, मराठी, गुजराती, बांगड़ू और दर्जनों अन्य नामों से जाना जाता है। क्या इन रूपों का चलन किसी विद्वत समूह के अनुमोदन के आधार पर हुआ? भाषा अभिव्यक्ति का सशक्त उपकरण है और अन्य तमाम उपकरणों की तरह ही इसमें भी सुविधा तत्व के आधार पर बदलाव होते चलते हैं। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि बहुभाषी समाज में भाषायी बदलाव का तरीका अनघड़ और अराजक ही होता है।
इन भाषाओं में संस्कृत शब्दों के तद्भव रूप भी है, कम संख्या में तत्सम शब्द भी हैं और देशज भी। संस्कृत जब अभिव्यक्तिपूर्ण भाषा थी तब संस्कृत ही क्यों न चल पायी? महाकवि तुलसीदास संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे मगर रामचरित मानस संस्कृत में न लिख कर अवधी में क्यों लिखी? ज़ाहिर है आम जन की भाषा में इसे लिखना उन्होंने उचित समझा। पण्डितों के लिए तो वह भाषा भदेस ही रही होगी। तत्कालीन समाज की बुराइयों पर मध्यकालीन कवि-सुधारकों ने बहुत कुछ कहा है। भाषायी भ्रष्टता, अपमिश्रण को उन्होंने सामाजिक बुराई के तौर पर ज्यादा रेखांकित नहीं किया है। उलट भाषा के स्थानीय, मिश्रित और प्रचलित रूपों को ही उन्होंने अभिव्यक्ति का जरिया बनाया। गौर करें, जो स्थिति आज अंग्रेजी की है, तब अरबी-फ़ारसी की थी। मुट्ठी भर लोग ही ये भाषाएं तब जानते थे मगर अभिव्यक्ति को समृद्ध बनाने के लिए हजारों नए शब्द क्षेत्रीय भाषाओं में आए और इसके नमूने साहित्य में खूब हैं।
कबीर की भाषा पर विचार करते हुए हम उनकी खिचड़ी भाषा को उनका सबसे बड़ा गुण मानते हैं। तर्क दिया जा सकता है कि कबीर समाज सुधारक थे, उनके लिए साहित्यिक भाषा की बजाय संदेश ज्यादा महत्वपूर्ण था। अगर ऐसा है तो कबीर को उच्चकोटि का कवि न माना जाए क्योंकि काव्य परीक्षण का आधार भाषा भी है। अगर कबीर की भाषा भ्रष्ट थी और तब भी उन्होंने उसे इसलिए चुना क्योंकि वह सहज ग्राह्य थी, इसका अर्थ यह हुआ कि हर काल में खिचड़ी भाषा सहज ग्राह्य रही है। अक़सर कहा जाता है कि बोलने की भाषा अलग और साहित्य की अलग। मगर कबीर मिसाल हैं कि बोलीभाषा में भी साहित्य रचा जा सकता है। बोली भाषा मिलावट से ही बनती है। यह मिलावट सायास नहीं, अनायास होती है।
हिन्दी का जातीय स्वरूप सुरक्षित रहना ही चाहिए। इसमें अन्धाधुन्ध अंग्रेजी शब्दों की भरती ( न कि प्रवेश ) नहीं होना चाहिए। जो शब्द सहज गति से प्रवेश करते हैं, उन पर ऐतराज भी नहीं होना चाहिए। क्या हम यह मान कर चल रहे हैं कि स्कूल, कुकर, प्लेट, पेन, पैन, स्टूल, टेबल जैसे शब्दों और अब माऊस, कीबोर्ड, स्विच, गियर, स्टेयरिंग, व्हील जैसे शब्दों के अलावा अब अंग्रेजी के शब्दों की आमद रुक जाएगी? “ये स्वीकार हैं, अब और नहीं” जैसी कोई नीति तो नहीं है
हमारी।
शेष अगली टिप्पणी के रूप में
गत टिप्पणी का शेष भाग
जवाब देंहटाएंचंद चैनलों और अखबारों ने बीते डेढ़ दशक में हिंग्लिश को बढ़ावा दिया है। यह प्रवृत्ति सराहनीय नहीं थी। हम सबने वक्तनफवक्तन इसकी मुख़ाल्फ़त की। मगर भरोसा था कि किसी न किसी दौर में भाषायी स्वरूप बदलने की ऐसी कोशिशें होती रही हैं। मगर ये बदलाव सीमित समूहों में भी नहीं चल पाए। वही बदलाव मंजूर होते हैं जो अभिव्यक्ति को सशक्त और सहज बनाते हैं। भाषा की टकसाल में खरे खोटे की पहचान के लिए सिर्फ़ व्याकरण या वर्तनी को शालीग्राम नहीं माना जा सकता। अर्थ की अभिव्यक्ति महत्वपूर्ण है। लोकबोलियों के अनेक शब्द इसी श्रेणी में आते हैं। इसके विपरीत संस्कृतिकरण की मुहीमें भी हिन्दी, बांग्ला, मराठी, उड़िया में होती रही हैं। वे भी नहीं चल पायीं। बांग्ला में “गणन” से “गाणनिक” और फिर “महागाणनिक” जैसे शब्द चलाने के प्रयास हुए। मराठी वाले क्रिकेट की समूची शब्दावली का मराठीकरण कर चुके हैं और अखबारों में भी इसका इस्तेमाल होता है मगर आमज़बान पर ये चढ़े नहीं। बॉल-बैट के लिए “चेंडु-फळी” शब्द है मगर आमतौर पर “चेंडू” नहीं, “बॉल” ही बोला जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
चमकदार संस्कृति, मशीनों पर निर्भरता की पाश्चात्य जीवनशैली हमने पसंद की। रहन-सहन के बदलाव देर से आते हैं, भाषायी बदलाव भी तुरत फुरत नहीं, मगर चुपचाप होते हैं। बाबूसाब ने पैंट छोड़ जींस कब धारण की, बुश्शर्ट के साथ ही टीशर्ट कब से धारण करना शुरू किया, उसकी तारीख और संस्मरण उन्हें याद रहेगा मगर कम्प्यूटर, हार्डडिस्क, अण्डरवर्ल्ड, वेबसाइट, इन्टरनेट, बिन्दास, पाण्डु हवलदार, टपोरी जैसे शब्द कब पहली बार उच्चारे होंगे, कोई नहीं बता सकता।
बाज़ार ही सबसे ज्यादा भाषा को बदलता है। भाषा का यह बदलाव सीधे सीधे उत्पाद संबंधी हो सकता है अर्थात नए उत्पाद से जुड़ी शब्दावली। जैसे कम्युटर से जुड़े तमाम शब्द जो अब प्रचलित हैं। अंग्रेजी के थ्रीपिन या सॉकेट के लिए हो सकता है विद्वानों ने दर्जनों शब्द बना रखे हों, मगर ये पंक्तियाँ लिखते वक्त मुझे उनमें से एक भी ध्यान नहीं आ रहा है। यक़ीन है कि डिक्शनरी देख कर ही कोई सुझाएगा। अब यहाँ खतरा यह भी है कि मुझे बाज़ार का समर्थक बता दिया जाए। बाज़ारी गतिवधियों के जरिये ही नए शब्द भाषाओं में प्रवेश करते हैं।
अलग अलग कई मुद्दे हैं। बात लम्बी हो गई है। मेरी बातों को हिंग्लिश का समर्थन नहीं, बदलाव का समर्थन माना जाए। मैं तो हिंग्लिश शब्द का इस्तेमाल भी नहीं करता। विभिन्न मंचों पर तथाकथित हिंग्लिश का विरोध कर चुका हूँ पर साठ साल से लिखी जा रही सरकारी हिन्दी से भी दुखी हूँ। वीणा उपाध्याय के जिस परिपत्र के हवाले से यह सारी चर्चा चल रही है, उसमें इन्हीं बिन्दुओं के साथ मेरी शिरकत समझी जाए। आप लोगों से मेरी राय नहीं मिलती, कोई बात नहीं मगर मेरी प्रतिक्रिया को एजेंडा, षडयंत्र, नपुंसक जैसे शब्दों के साथ न तौलें। इतना निवेदन है, अनुरोध है।
सादर, साभार
अजित वडनेरकर
विनोद शर्मा जी ने प्रतिक्रिया में लिखा -
जवाब देंहटाएंहम सब दिल से मानते रहे हैं कि भाषा का नदी के समान सहज प्रवाह होता है। नदी के मार्ग में अनेक अशुद्धियाँ उसमें मिलती हैं, लेकिन प्रवाहित नदी का जल निर्मल ही बना रहता यदि वर्तमान में नदीजलों में प्रकृति के अलावा मानव ने अपदूषण करना आरंभ नहीं किया होता। अमृत तुल्य गंगा का इलाहाबाद से पटना और फिर गंगासागर पहुँचने तक तो एक गंदे पानी के नाले में परिवर्तित होना यही संकेत देता है। यदि भाषा सहज रूप में अन्य भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करती चलती है तो वहाँ चिंता का कोई कारण नहीं होता है। यहाँ शंका वीणा उपाध्याय द्वारा सुझाए गए भारी भरकम अंग्रेजी वाक्यांशों को लेकर उत्पन्न हुई, जबकि उनके लिए सरल हिंदी शब्द आसानी से सुझाए जा सकते थे। यही एक दृष्टांत नहीं है, मैं आज विभिन्न हिंदी ब्लॉग पढ़ रहा था तो संयोग से मुद्राराक्षस का एक आलेख पढ़ने को मिला जिसमें उन्होंने बीते हिंदी पखवाड़े में हुए एक परिसंवाद का जिक्र किया है। आप भी बानगी देखिए, बात अपमिश्रण तक ही सीमित नहीं लोग तो लिपि भी बदलने को उतारू हैं-
परिसंवाद में एक खासा ही बहस तलब मुद्दा पत्रकार जगत के एक बड़े अधिकारी डीके श्रीवास्तव ने उठा दिया. यह मुद्दा था हिंदी की लिपि, नागरी लिपि का. डीके श्रीवास्तव ने ब्लागिंग पर बहस करते हुए कहा कि अब समय आ गया है कि हिंदी की लिपि में परिवर्तन किया जाना चाहिए. नागरी लिपि के बजाय हिंदी भाषा अब रोमन लिपि में लिखी जानी चाहिए.
सादर,
विनोद शर्मा
अजित वडनेरकर जी ने लिखा -
जवाब देंहटाएंविनोदजी,
मैं खुद भी इस का विरोध पहले कर चुका हूँ। हिन्दी के लिए रोमन का सुझाव दिवालियापन की निशानी है। रोमन लिपि टीवी-फिल्म इंडस्ट्री में चलती रहे, हमें फ़र्क नहीं पड़ता। देवनागरी महत्वपूर्ण है इसलिए तमाम प्लेटफार्म्स पर ट्रान्सलिट्रेशन की सुविधा मिली है। उन्हें पता है कि लम्बी और विस्तारित बात रोमन में पढ़ना आमोखास के लिए कितना मुश्किल है। सहज परिवर्तनों के संदर्भ में ही आपके द्वारा लिखित सहिष्णुता वाली बात को मैने हमारी पहचान के तौर पर कोट किया था।
साभार,
अजित
मधुसूदन झवेरी जी ने लिखा -
जवाब देंहटाएंमित्रों --इस विषय का चिन्तन सर्वांगीण होना चाहिए और फिर उसकी छोटी छोटी इकाइयां कैसे प्राप्त की जाएगी, इसकी जानकारी दी जानी चाहिए थी।
(मेरी जानकारी में ऐसा हुआ नहीं है)।
अंग्रेज़ी में इसे Thinking From Whole to part कहा जाता है।
समग्र विषयक ---विचार-चिन्तन---सभीके सामने रखते हुए, फिर हरेक अंगका विचार, उसका क्रमवार (Critical path Method )निर्णायक पथ पद्धति के आधार पर "क्रियान्वयन"ऐसा होता, तो असंतोष के लिए अवसर ही ना होता।
यहां एक part का विचार सभी पे अकस्मात थोपा जा रहा है।
और बादमें उसे वैचारिक बैठक दी जा रही है।
कारण दिए जा रहे हैं।
मुझे तो यह निर्णय एक बालक बिना दूर की सोचे,खिलोने की दुकान में कोई खिलोना लेने जैसा, (बिना किसी योजना) के अकस्मात जैसा लगता है।
आपने ऐसे अकस्मात निर्णय की अपेक्षा की थी क्या?
इसे क्या प्रजातंत्र कहा जाएगा?
मधुसूदन
अजित वडनेरकर जी की लंबी प्रतिक्रिया पर अनुनाद जी की टिप्पणी -
जवाब देंहटाएंअजित वडनेरकर जी,
आपके भारी भारकर्म लेख को मैं पूरा नहीं पढ़ पाया . किन्तु एक चौथाई पढ़ने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा की आप '२+२ = ४, इसलिए ३+३ = ९ ' जैसा तर्क कर रहे हैं.
सारा विश्व कोरियाई, जापानी, जर्मन, माल प्रयोग कर रहा है. भारतीय सोफ्टवेयर उअपयोग कर रहा है. किन्तु वह इस कारण वे देश कोरियाई, जापानी, जर्मन या भारतीय भाषाएँ क्यों प्रयोग नहीं करते? पूरा संसार अरब का तेल प्रयोग कर रहा है; क्यों अरबी नहीं बोलते?
पूरे 'लेख' में आप 'सहज परिवर्तन' की बात करते हैं किन्तु यह नही समझ पा रहे हैं कि इसे 'सहज परिवर्तन' नहीं कह सकते. यह 'सर्कुलर' द्वारा थोपा गया परिवर्तन है और योजनाबद्ध है.
-- अनुनाद
अजित जी की टिप्पणी पर नवनीत जी की प्रतिटिप्पणी
जवाब देंहटाएंअजित वडनेरकर जी, सादर प्रणाम
मैं भी अनुनाद जी की बात से सहमत हूँ । बात यह नहीं कि सहजता नहीं होनी चाहिए वह तो होनी ही चाहिए । पर क्या सहजता अव्यवस्था से उत्पन्न हो सकती है। आप ही बताइए कि अंग्रेजी वाले सहजता के लिए अन्य भाषाओं के शब्दों को आत्मसात् क्यों नहीं करते । बात यह है कि भारत को एकसूत्र में पिरोने के लिए जो हिंदी भाषा समर्थ है यदि उसे नहीं बर्बाद किया गया तो ये धूर्त शासक शासन करने में सक्षम नहीं हो सकेंगे । हर बदलाव के पीछे सदिच्छा नहीं होती । यह बदलाव भी असदिच्छा से किया गया है । यदि इस में सदिच्छा
होती तो ग्रामीण जनता के लिए सरल अंग्रेजी टूटी फूटी अंग्रेजी की बात
पहले की जाती ।
-नवनीत
अनुराधा आर. जी लिखती हैं -
जवाब देंहटाएंफिर से कहना चाहूंगी कि यहां उन लोगों के हिंदी इस्तेमाल की बात नहीं हो रही है, जो पहले ही हिंदी जानते हैं और दिखावे के लिए अंग्रेजी अपनाना चाहते हैं। बल्कि उनकी बात है, जो हिंदी कम जानते हैं और इसी संकोच में हिंदी का इस्तेमाल official कामों के लिए नहीं करना चाहते। उनकी हिचक तोड़ने को यह एक ढ़ाढ़स है, जिसके कई अर्थ बन गए। इसकी राजनीति मैं नहीं जानती-समझती, लेकिन, उन उदाहरणों से लटक कर तर्क न करते रहें, तो कहूंगी कि यह आदेश मुद्दे को सुलझाने का एक तरीका हो सकता है। सरकार में अंग्रेजी की बाध्यता नहीं है, ऐसा एक सरकारी ऐलान भी काफी राहत देने वाला है, यह इसमें काम कर रहे लोग ही शायद बेहतर समझ पाएंगे।
एक और विनम्र submission है-
" हाँ उनकी महिमा पुन: पुन: कन्फ़र्म अवश्य हो रही है। "-
यह वाक्य इसी चेन मेल में जोर-शोर से 'हिंदी' की तरफदारी कर रहे लोगों में से एक मेल का हिस्सा है। तेनालीरामन की एक कहानी बताती है कि गुस्से में व्यक्ति अपनी भाषा बोलता है। उक्त वाक्य के बीच में जो अंग्रेजी का शब्द आया, तो वह जरूर प्रवाह में आया है, जानबूझ कर लाया गया नहीं है। यानी वह शब्द 'अपना' लिया गया है, उक्त मेल के लेखक द्वारा। फिर ऐसे शब्द अगर गैर-हिंदीभाषी अपने कागज़ों पर लिखना चाहें तो गलत क्या है? कम से कम उन लोगों की तरफ से हिंदी लिखने की शुरुआत तो होगी, जो कभी हिंदी का इस्तेमाल नहीं करते।
विनम्र submission>
सादर,
-अनुराधा
उपर्युक्त संवाद के क्रम में अनुनाद जी ने लिखा -
जवाब देंहटाएं'अंग्रेजी और अंग्रेज बदलना जानते हैं' , सत्य से बहुत दूर है-
१) जार्ज बर्नार्ड शा जैसे विद्वानों ने सुझाया था कि अंग्रेजी वर्णमाला को बदल देना चाहिए,
२) अंग्रेजी (ब्रिटिश अंग्रेजी) अपनी 'स्पेलिंग व्यवस्था' को क्यों सरल नहीं कर रही है? अमेरिका में इस दिशा में कुछ हुआ है वह 'नहीं के बराबर' है.
३) अंग्रेजी की शब्दावली बढ़ते-बढ़ते पांच-छः लाख जा पहुंची है. वे क्यों नही पचास हजार शब्दों से काम चला लेते? 'सिंपल इंग्लिश' वाले विद्वानों का तो दावा है कि केवल एक हजार शब्दों के सहारे ही 'सब कुछ' अभिव्यक्त किया जा सकता है.
-- अनुनाद
उपर्युक्त संवाद के क्रम में अनुराधा जी ने लिखा
जवाब देंहटाएंअनुनाद जी,
आपके इन बिंदुओं के पीछे का कारण मैं सचमुच नहीं समझ पा रही हूं। कृपया थोड़ा खुलासा करें। वैसे, जो बात मैंने कही वही तो आप दोहरा रहे हैं कि अंग्रेजी में शब्दों की संख्या बढ़ रही है। फिर उन्हें कम से क्यों काम चलाना चाहिए? विकल्प हों तो बेहतर है। नहीं क्या?
और आपका पहला वाक्य-
"'अंग्रेजी और अंग्रेज बदलना जानते हैं' , सत्य से बहुत दूर है-" तीसरे बिंदु के विरोध में है, ऐसा मुझे समझ में आता है। कोई गूढ़ बात है, जो मैं समझ नहीं पाई।
सादर,
-अनुराधा
॥
उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंमैंने जो तीन बिंदु दिए हैं वे सिद्ध करते हैं कि अंग्रेज केवल दूसरे को बदलते हैं , स्वयं नहीं बदलते (कोई भी शक्तिशाली समाज यही करता है).
तीसरे बिंदु को और बढ़ा कर यह समझा जा सकता है कि एक सीमित शब्दावली में सब कुछ अभिव्यक्त कर पाना अत्यंत कठिन है. यदि किसी मनोवैज्ञानिक लेख में 'कठिन मनोवैज्ञानिक' शब्दावली के कारण कोई वकील उसे समझ नहीं पाए तो उसमे आश्चर्य कैसा? वह लेख कोई 'जन सामान्य' के लिए तो लिखा नही गया है.
-- अनुनाद
उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअजित जी,
आपका उत्तर पा अच्छा लगा।
भाषा पर आए प्रत्येक तर्क/ वितर्क/ सतर्क/ कुतर्क और अतर्क का हम सब को खुले मन से स्वागत करना चाहिए। कम से कम इस बहाने भाषा पर बहस तो प्रारम्भ होगी।
शीघ्र ही आपके उठाए मुद्दों पर लिखूँगी। मत-भेद भले हो बस मन-भेद न हो। यह आशा बनी रहेगी।
शुभकामनाओं सहित।
कविता वाचक्नवी
....
उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअनुनादजी,
"टूटी-फूटी अंग्रेजी को मान्यता" वाली प्रतिक्रिया जितनी सहज, तार्किक लगी थी मगर उक्त प्रतिक्रिया कुतर्क है। लगता है आप मेर कथन का मूल भाव भी नहीं समझे। आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिखे को ही पुष्ट कर रही है कि हम घिसी पिटी बातें ही कर रहे हैं। कहाँ अरब का तेल और कहाँ विदेशी वस्त्र? तेल एक ऐसा उत्पाद है जिसका कोई विकल्प नहीं है। विदेशी वस्त्रों का विकल्प तो देशी वस्त्र हैं ही। मामला सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों की स्वीकार्यता का है। अरे भाई, विदेशी शब्दों का विकल्प अगर देशी शब्द हैं तो विदेशी कपड़ों का विकल्प देशी कपड़े हैं। आप सिर्फ़ परिपत्र की बात कर रहे हैं, मैंने इस समूह पर अक्सर घनघोर हिन्दूवादी भारतीयता के उभार के सन्दर्भों पर भी अपनी बात कही है। भारतीयता के तमाम चिह्नों को अपनाइये ना? सिर्फ भाषा पर क्यों ज़ोर हैं?
परिपत्र के सम्बन्ध में अपनी राय ज़ाहिर कर चुका हूँ। सब पिष्टपेषण है।
फ़िलहाल इस चर्चा से अलग हो रहा हूँ।
शुभकामनाएँ।
अजित वडनेरकर
.....
उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअजित जी
आपका 'तर्क' यह कहता है कि हम समय के साथ किन्ही कारणों से गंधार छोड़ दिए, फिर रावलपिंडी छोड़ दिए, लाहौर छोड़ दिए, तो अब हमें कश्मीर छोड़ने में ना- नुकर नहीं करना चाहिए!
रही आधा-अधूरा पढ़ने की बात तो मेरा मानना है कि जिनके पास तर्क नहीं होता वे एक छोटी सी बात को घुमा-फिराकर 'बड़ा सा घूरा' बना देते हैं और सोचते हैं कि 'तर्क का किला' बना दिया है.
-- अनुनाद
....
उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंवल्लाह...क्या खुराफ़ाती दिमाग़ पाया है! कोई आपकी बात न माने तो येन केन प्रकारेण मनमानी व्याख्या करो, उसे फँसा दो। प्रशान्त भूषण को पिटवाने के बाद अब लगता है मेरी बारी है...इस मामले का कश्मीर से लेना देना नहीं, मगर अनुनाद सिंह की कृपा से यह भी हो जाएगा कि फलाँ फलाँ मंच पर अजित वडनेरकर कश्मीर पाकिस्तान को सौपने की हिमायत कर रहा है। आपके जैसे ही कुतर्की हिन्दूवादियों-राष्ट्रवादियों के कानों में यह तथाकथित आधी-अधूरी सूचना पहुँचने की देर है और फिर मारे गए गुलफ़ाम...
बड़े भाई...कृपा रखें
अजित
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंआपके 'घूरे' में यही तो है कि हमने विदेशी कपड़े अपना लिए तो विदेशी शब्द अपनाने में क्या हर्ज है?
अनुनाद
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंशाँति-शाँति मित्रों। यह परिचर्चा का अरिचर्चा कैसे हो गया।
अजित जी ज्यादा पहले की तो मेल मैंने पढ़ी नहीं पर पिछली मेल में अनुनाद जी ने कश्मीर का केवल उदाहरण ही दिया था भाषा के सन्दर्भ में कि यदि इतनी अंग्रेजी, अरबी के शब्द घुस आये हैं तो हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि आगे भी जितने मर्जी आने दें। आप इस उदाहरण को व्यक्तिगत क्यों ले रहे हैं।
यहाँ समूह पर तूतू-मैंमैं में जीतने से सरकार जीतने वाले की पॉलिसी को लागू नहीं कर देगी। :-) इसलिये कृपया सभी सदस्य शाँति बनाये रखें, यहाँ तो बस इस सरकारी आदेश के नतीजों पर चर्चा हो रही है, इस बारे में लड़ने से क्या फायदा, सरकार कौन सा हमारी सुनने वाली है।
ePandit | ई-पण्डित
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअजित जी
आपके 'तर्क के घूरे' में एक और 'दिग्विजयी तर्क' है उसका शारांश यह है कि "पूरा देश तो भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है, किस मुंह से भ्रष्टाचार के विरुद्ध कठोर कानून लाने की बात कर रहे हैं?" भैया यही तो दुष्चक्र है। पहले आपके उपर अंग्रेजी लादी, आपको सिखाया कि आप धोती-कुर्ता छोड़ दो तो आप भी विकसित हो जाओगे। फिर बोले कि आपके पास अपनी भाषा तो है नहीं, क्यों नही आप हमारी लिपि भी अपना लेते? फिर कहेंगे कि आपकी न अपनी भाषा है, न लिपि, न पहनावा, ........... क्यों आप हमारे देश में ही नहीं मिल जाते?
-- अनुनाद
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंकविता जी,
खाने के दांत और, दिखाने के और। हमारे घरों में यह सब बरसों से हो रहा है। माता-पिता माँग कर भी किताबें नहीं पढ़ते, टीवी देखते हैं, टीवी की हिन्दी सुनते हैं। किस हिन्दी की उम्मीद, हम किससे कर रहे हैं? हिन्दीवालों के घरों में यह हो रहा है। बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते हैं। पास पड़ोस और घर में मम्मी, डैडी, अंकल, आंटी, स्कूल, कॉन्वैन्ट, बस, स्टेशन, लॉन, गार्डन, प्लान, प्रोजेक्ट, प्रोग्राम, मिनट, सैकन्ड, वेरी मच, थैक्यू, समथिंग, एडवांस, लाइव, वेकेन्सी, वेकेन्ट, डोर, बेल, कॉल, प्रेजेन्ट, यस, नो सुनते हुए बड़ी हुई दो पीढ़ियों और अब पिज्जा, बर्गर पर पलती और आईपैड पर खेलती पीढ़ी को पालते-पोसते हम लोगों ने उन्हें कौन सा भाषा संस्कार दिया है क्या इस पर भी हमारा ध्यान है।
- अजित वडनेरकर
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअनुनाद जी
समूचे हिन्दी वाङमय में सदियों से यह "विदेशी घूरा" मौजूद है। परम्पराओं में भी यह नज़र आता है। इसी घूरे को गंगो-जमन जैसी उपमाएँ हमारे वरिष्ठों ने दी है।
इसकी सफाई में भी सदियाँ लग जाएँगी।
- अजित वडनेरकर
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअजित जी
आप गलत समझे. मैं तो आपके चार पेज वाले सन्देश को 'तर्क का घूरा' कह रहा हूँ जिसे मैं पूरा न पढ़ पाने का अपराध कर बैठा था.
-- अनुनाद
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंश्रीश भाई,
इधर तो शान्ति ही है। उधर वाले पता नहीं क्या सोच रहे हैं। जब भी सामंजस्य की बात करो, कट्टरवाद उभरता है। खोज-खोज कर व्यक्तिगत बनाया जाता है। किसी अन्य प्रतिक्रिया को घूरा न बता कर मेरे कहे "घूरा" बताया जाना व्यक्तिगत नहीं मानूँ?
क्यों न मानें कि यहाँ दूसरे विचारों का सम्मान नहीं है। खुद कह रहे हैं कि अधूरा पढ़ा। यह कैसा दम्भ?
फिर घूरा कहते हैं।
मैं तो पहले ही चर्चा से हटने की बात कह चुका हूँ।
- अजित
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंआदरणीया अनुराधा जी,
नमस्कार,
उक्त वाक्य ("आप एक तरफ हिंदी की तरफदारी करते दीख रहे हैं, दूसरी तरफ अंग्रेजी (टूटी-फूटी ही सही) की अनिवार्यता को भी समझ रहे हैं। यह दोहराव कैसे?") सरकार की सदिच्छा के विषय में कहा गया है न कि अंग्रेजी की अनिवार्यता की तरफदारी हेतु। मेरा कहना था कि सरकार हिंदी के बढ़ावे के लिए यह कार्य नहीं कर रही अपितु किसी न किसी तरह हिंदी में भी अंग्रजी को भर देने के लिए यह कार्य कर रही है। यदि अंग्रेजी जो कि भारत की भाषा ही नहीं है को बहुत सी परीक्षाओं में अनिवार्य कर रखा है तो क्यों ? जब अधिकांश भारतीय जनता हिंदी जानती है तो अंग्रेजी को शिक्षा से धीरे धीरे हटा क्यों नहीं दिया जाता । क्योंकि जो हम पढ़ते हैं वैसे ही हमारे विचार बनते हैं। हम विदेशी भाषा को पढ़कर ही उसकी तरफदारी करते हैं । हमारी राष्ट्रभक्ति अंग्रेजियत ने खराब कर रखी है।
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय को शूल।
- नवनीत कुमार
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअजित जी
ज़रा पाने सन्देश को ध्यान से पढ़िए. आपने 'विदेशी वस्त्रों' के साथ लैपटॉप, मोबाइल और न जाने क्या-क्या भर दिया है ताकि आपका तर्क भारी हो जाय. क्या इन सबके भारतीय विकल्प उपलब्ध हैं? यदि नहीं, तो जिनके विकल्प उपलब्ध हैं और जिनके नहीं हैं उनको एक ही साथ क्यों घसीट दिया?
- अनुनाद
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंकहाँ अरब का तेल और कहाँ विदेशी वस्त्र? तेल एक ऐसा उत्पाद है जिसका कोई विकल्प नहीं है। विदेशी वस्त्रों का विकल्प तो देशी वस्त्र हैं ही। मामला सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों की स्वीकार्यता का है। अरे भाई, विदेशी शब्दों का विकल्प अगर देशी शब्द हैं तो विदेशी कपड़ों का विकल्प देशी कपड़े हैं।
- अजित
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअजित जी,
ज़रा अपने इस सन्देश -
[ "टूटी-फूटी अंग्रेजी को मान्यता" वाली प्रतिक्रिया जितनी सहज, तार्किक लगी थी मगर उक्त प्रतिक्रिया कुतर्क है। लगता है आप मेर कथन का मूल भाव भी नहीं समझे। आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिखे को ही पुष्ट कर रही है कि हम घिसी पिटी बातें ही कर रहे हैं। कहाँ अरब का तेल और कहाँ विदेशी वस्त्र? तेल एक ऐसा उत्पाद है जिसका कोई विकल्प नहीं है। विदेशी वस्त्रों का विकल्प तो देशी वस्त्र हैं ही। मामला सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों की स्वीकार्यता का है। अरे भाई, विदेशी शब्दों का विकल्प अगर देशी शब्द हैं तो विदेशी कपड़ों का विकल्प देशी कपड़े हैं। आप सिर्फ़ परिपत्र की बात कर रहे हैं, मैंने इस समूह पर अक्सर घनघोर हिन्दूवादी भारतीयता के उभार के सन्दर्भों पर भी अपनी बात कही है। भारतीयता के तमाम चिह्नों को अपनाइये ना? सिर्फ भाषा पर क्यों ज़ोर हैं? ]
में देखिये कि आपने कितने आपत्तिजनक शब्द प्रयोग किये हैं और विषयांतर करने वाली बातें कह रहे हैं. आप 'कुतर्क' का प्रयोग कर सकते हैं तो 'तर्क का घूरा' सुनकर बुरा क्यों लग रहा है?
-- अनुनाद
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअनुनाद जी
1. मुझे यह समझ नहीं आता कि आप लेख की गलतियों पर चर्चा करना चाहते हैं या मूल विषय पर। मेरा तर्क भारी तो पड़ा है इसीलिए अन्य बिन्दुओँ पर बात न कर बाल की खाल निकाली जा रही है। उसमें और भी बहुत से विचारणीय बिन्दु हैं जो आपको नज़र नहीं आ रहे क्योंकि आपने अधूरा पढ़ा। अब किस्तों में उसे पढ़ रहे हैं। उद्धेश्य सिर्फ़ आलोचना है। ऐसे में भी कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा। यह स्वस्थ दृष्टिकोण नहीं।
2.यहाँ किसी पत्रिका में छपवाने के लिए नहीं लिखा है कि सम्पादन से जुड़े तथ्यों का ध्यान दिया जाए। ये मंच है और इसी तरीके से संवाद होता है मानों हम एक दूसरे को सम्बोधित कर रहे हैं।
3.आप का बर्ताव यही जाहिर कर रहा है कि यहाँ क्या लिखना है, क्या नहीं इसका परीक्षण पहले आप से करा लिया जाए।
4.अपनी राय से हट कर और किसी की बात आपको कबूल नहीं।
5.हाईलाईट की गई बातों में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है।
6."कुतर्क" या "पूर्वाग्रही" जैसे शब्दों की तुलना में "घूरा" शब्द पर फिर विचार करें।
7.निवेदन है कि मेरे उस पंक्ति को पढ़ें जिसमें मैने चर्चा से अलग होने की सूचना दी है।
- अजित
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअनुनाद जी
लेख और उसका भाव पूरी तरह आपकी समझ में आ गया है।
अब सिर्फ़ बाल की खाल निकाल रहे हैं।
जैसी चाहे शब्दावली का इस्तेमाल करें।
शुभकामनाएँ
- अजित
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअनुनाद जी
आपको यूँ "घूरे" से चिपटा देख कष्ट हो रहा है।
इससे उबर क्यों नहीं जाते?
- अजित
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअजित जी
आप साहित्यकार हैं. जो बात चार वाक्यों में लिखी जा सकती थी उसे चार पेज में लिख दिया और उसमें तर्क वे डाले जो 'गोबर' जैसे हैं. 'गोबरमय बड़ा आकार' ही तो 'घूरा' कहलाता है.
वैसे आप पर शेक्सपीयर की उक्ति लागू नहीं होती-
'Brevity is the Soul of Wits.'
-- अनुनाद
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंबंधुओ जरा बाबा नागार्जुन की इन पंक्तियों पर भी गौर करें और थोड़ा मन हल्का करें-
ॐ सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ
ॐ कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं
ॐ पत्थर पर की दूब, खरगोश के सींग
ॐ नमक-तेल-हल्दी-जीरा-हींग
ॐ मूस की लेड़ी, कनेर के पात
ॐ डायन की चीख, औघड़ की अटपट बात
ॐ कोयला-इस्पात-पेट्रोल
ॐ हमी हम ठोस, बाकी सब फूटे ढोल
ॐ इदमान्नं, इमा आपः इदमज्यं, इदं हविः
ॐ यजमान, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ कविः
ॐ क्रांतिः क्रांतिः सर्वग्वंक्रांतिः
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः सर्वग्यं शांतिः
ॐ भ्रांतिः भ्रांतिः भ्रांतिः सर्वग्वं भ्रांतिः
ॐ बचाओ बचाओ बचाओ बचाओ
ॐ हटाओ हटाओ हटाओ हटाओ
ॐ घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
ॐ निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ
- विनोद शर्मा
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंBrevity is the Soul of Wits
यह आप पर भी लागू नहीं होती।
एक शब्द क्या मिल गया अब उसी का निबंध बनाए जा रहे हैं किस्तों में।
बच्चे की तरह मंच पर "घरा-गोबर" उछाल रहे हैं, खुश हो रहे हैं....
- अजित
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंशान्तिः शान्तिः शान्तिः !!!
(वैसे इमर्शन ने कहा है कि जब सब लोग एक ही बात कह रहे होते हैं तो कोई नहीं सोच रहा होता है. इस चर्चा से सिद्ध होता है कि वह स्थिति यहाँ नहीं है.)
-- अनुनाद
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में अगली टिप्पणी
जवाब देंहटाएंदेश का रक्षा मंत्री यदि एक परिपत्र जारी कर यह सन्देश दे
कि आम तौर पर यह देखा गया है कि बम निरोधक दस्ते में खोजी कुत्ते कम है इसलिए कुछ आवारा कुत्तो को पकड़कर बम निरोधक दस्ते में शामिल किया जाये . इससे राष्ट की सुरक्षा सुनिश्चित हो सकेगी!
- राजकुमार झा
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क्या बात है!…यहाँ तर्क-वितर्क चल रहा है। कुछ सूचनाएँ और प्रश्न हैं, बाकी आप सब बोल लें, फिर इच्छा हुई और आपकी आज्ञा हो तो धीरे-धीरे सभी बिन्दुओं पर अपना पक्ष रखेंगे। लेकिन यहाँ किसी की बात की नकल(अब देखिए हिन्दी इंटरफ़ेस के साफ्टवेयर में प्रतिलिपि भी लिखा है, कापी) लेने में समस्या आती है, इसे कुछ दिनों के लिए ठीक कर लिया जाय तो अच्छा होगा।
जवाब देंहटाएंसूचनाएँ और प्रश्न:
1) 2015 तक दावा है कि अन्तर्जाल पर अंग्रेजी पहली नहीं दूसरी सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली भाषा हो जाएगी।
2) क्या आप सबों ने सोचा है कि जब आप किसी साफ्टवेयर को स्थापित करते हैं तब उसकी भाषा स्पेनी, पुर्तगाली, जर्मन, अंग्रेजी, फ्रांसीसी आदि तो होती है हिन्दी नहीं, अन्य भारतीय भाषाएँ नहीं। आखिर क्यों?
3) मुझे उस सरकारी पत्र से अधिक समस्या नहीं है। क्योंकि हमने कभी उम्मीद रखा भी नहीं था कि सरकार भला करने वाली है।
4) हिन्दी में भारत सरकार के तकनीकी शब्दावली आयोग के अनुसार साढ़े आठ लाख शब्द बनाए जा चुके हैं। और आज से पंद्रह साल पहले ही यह संख्या कई लाख थी।
जारी…
5) संगणक या अभिकलित्र का झंझट बाद में। मैं कहना चाहूंगा कि कम्प्यूटर के कितने प्रतिशत बहुप्रचलित शब्द दुनिया की सर्वाधिक प्रयुक्त भाषाओं पुर्तगाली, रूसी, जर्मन, फ्रांसीसी, स्पेनी, जापानी, कोरियाई, सरल चीनी, बंगाली, इतालवी, (अरबी नहीं क्योंकि इसका रास्ता एकदम अलग है)में अंग्रेजी से ज्यों-के-त्यों लिए गए हैं। इन दिनों मैं इसी चीज पर थोड़ा काम कर रहा हूँ। डाउनलोड, रीलोड, रीसेट, स्क्रीनसेवर, हाइपरलिंक, इनपुट, डेस्कटाप, फाइल आदि शब्द भी कई भाषाओं में अंग्रेजी वाले इस्तेमाल नहीं हो रहे। कम्प्यूटर शब्द भी स्वयं सब भाषाओं में कम्प्यूटर नहीं कहा जा रहा है।
जवाब देंहटाएं6) हम बार-बार अपनी ठोकाई को सहिष्णुता नहीं कह सकते। सरकार तो दोषी है लेकिन हमारे पूर्वज भी कम नहीं, हम भी कम नहीं।
7) वस्त्र से भाषा कितनी महत्वपूर्ण है, यह सोचने वाली बात है। भाषा मानव की सबसे बड़ी खोज है। ज्ञान-विज्ञान का वाहक है। चौबीस घंटे किसी व्यक्ति को भाषा से वास्ता कितनी देर है? और वस्त्रों से कितनी देर? अन्तर खुद देख लिया जाय।
जारी…
8) एक बार कुछ लोगों के लिए पंद्रह साल का समय देकर गलती हुई थी क्योंकि पंद्रह साल में हिन्दी सीखने की बात से हँसी आती है। इतने में तो हम भारत की सभी भाषाएँ सीख सकते हैं। अब फिर कुछ लोगों के चलते हम दवा पी रहे हैं। हम सिर्फ़ हिन्दी नहीं, भारत की सभी भाषाओं का भविष्य अच्छा देखना चाहते हैं।
जवाब देंहटाएंआदरणीय अजित जी से,
विदेशी होने से किसी चीज को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। और अगर यह बात है ही तो हम एक प्रस्ताव रख सकते हैं कि सारा संसार भारत द्वारा आविष्कृत शून्य का प्रयोग बन्द कर दे। बस एक यही काफी है। और आदमी आज से हजार साल पीछे चला जाएगा। कहने का उद्देश्य इतना ही है कि विदेशी होने में और साम्राज्यवादी होने में बहुत फर्क है।
आपने कहा है कि कुछ शब्द नहीं चल सके। शब्द का प्रयोग कोई न कोई तो शुरू करता है लेकिन चलाने का काम जनता कम, विश्वविद्यालय और सत्ता अधिक करते हैं। जैसे मान लीजिए मोबाइल आया। भारत में आने के पहले अगर इसका नाम कुछ और होता तब? भारत में मोबाइल नहीं दूसरा शब्द प्रचलित होता। जनता उच्च स्तरीय शब्द यानी उच्च शिक्षा के शब्द नहीं चलाती। लिखे जाने वाले शब्द तो किताबों, सरकारों, विश्वविद्यालयो, वैज्ञानिकों द्वारा चलाए और फैलाए जाते हैं। जैसे भारत में ही आइसोटोप या आइसोबार या सिस्मोग्राफ के लिए समभारिक, समस्थानिक या भूकम्पमापी शब्द अपने आप नहीं आए, उन्हें विज्ञान में चलाया गया और आज इन शब्दों से हरेक हिन्दी माध्यम का विद्यार्थी जो साधारण पढ़ा-लिखा है, वह परिचित है।
आपने थ्रीपीन या साकेट शब्द उदाहरण के लिए रखे हैं। क्या परमाणु संरचना जैसा एकदम आसान शब्द ही विद्वान का नहीं बनाया है? मंत्रालय और सचिवालय शब्द सहाय जी के नहीं बनाए हैं? अगर हम किसी शब्द के पर्याय नहीं याद कर पा रहे तो इसमें दोष किसका है? अपनी भाषा मे जब शब्द प्रचलित होने ही नहीं दिए जाएँ तब दोष किसका है? मैं एक बात खासतौर पर कहना चाहूंगा कि कुछ दिन पहले गलती से मनमोहन सिंह हिन्दी बोलते दिखे थे। उन्होंने हिन्दी भाषण में 'साइंस' शब्द कहा, शायद 'तकनीक' शब्द भी कहा था, 'टेकनीक' नहीं…क्या अब 'विज्ञान' शब्द भी इतना कठिन हो गया?
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जारी…
9) 'कम हिन्दी जानने वालों के लिए' पर:- कम हिन्दी जानने वाले अंग्रेजी जानते होंगे, यह तय है क्या? हिन्दी जानने का आधार या मानक ही अंग्रेजी जानना तय हो गया? और वैसे भी कोई दस हजार शब्द तो प्रयोग में नहीं आते, तो कुछ सौ शब्द हिन्दी के सीख लेने चाहिए कम हिन्दी वालों के लिए, वरना उन्हें जरूरत क्या हिन्दी में काम करने की। यह तो कुछ ऐसी ही बात हुई कि एक चीनी के रोगी के लिए पूरे शहर को बिना चीनी की चाय पिलाई जाय और इसे प्रगतिवादी कदम कहा जाय।
जवाब देंहटाएं10) 'सरल अंग्रेजी' और एक हजार शब्द…हा हा हा, साधारण काम के लिए याद रखी जाने वाली क्रियाएँ ही सभी रूपों में हजार पार कर जाएंगी। यह मजाक किस महान व्यक्ति ने किया है?
11) एक चुनौती तो हम अभी दे ही डालते हैं। प्रोजेक्ट, अवेयरनेस, एरिया, री-फारेस्टेशन, रेगुलर, स्टूडेंट, रेन, वाटर, हार्वेस्टिंग, मैनेजमेंट, कैम्पस, रिटेल, इंटरनेशनल, एंड, इंटरटेनमेंट, प्रोफ़ेशनल, सिंगिंग, स्ट्रीम, बेस्ट, फाइव, हायर, एजुकेशन, कैरियर, एप्लाई स्कालशिप---मात्र इन सभी 25 शब्दों के मतलब अगर भारत में 40-50 करोड़ लोग भी समझ जाएँ या इनके अर्थ बता सकें तो मैं शर्त जीतने वाले की हर बात मानने को तैयार हूँ। जीतने वाले के यहाँ नौकर बन कर रहने को तैयार हूँ।
12)कुछ लोग इस भुलावे में हैं कि अंग्रेजी अन्तरराष्ट्रीय बन रही है। कुछ भी नहीं होता ऐसा। बांग्लादेश + भारत + पाकिस्तान= 160 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं इन देशों में, और दो-चार अंग्रेजी भक्त देश लेकर यह संख्या 200 करोड़ तक पहुँचा देंगे, तो जब तक ऐसे गुलाम लोग रहेंगे, बड़ा बाजार रहेगा तब तक और जब तक हम अपनी भाषा में काम ही नहीं करते तब तक, अंग्रेजी का यह स्तुति-गान जारी रहेगा। जब किसी शहर की तीस प्रतिशत आबादी एक ही अखबार खरीदे तो कुछ परिवार उस अखबार को बेचेंगे ही…
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जारी…
संस्कृत में कम्प्यूटर के शब्दकोश में एक क्रिया जोड़ी गई है- क्लिक। क्लिक करोति। यह प्रयोग हुआ न कि प्रिंट के लिए प्रिंट करोति। तो हम अंग्रेजी के उसी शब्द को लेने के पक्ष में हैं जिसे दुनिया की दस सर्वाधिक प्रयुक्त भाषाओं में कम से कम पाँच भाषाएँ इस्तेमाल कर रही हैं। ऐसा इसलिए कि हिन्दी में हम तकनीक और विज्ञान तो ठीक से पढ़ाते नहीं हैं। …हाँ, यह सही है कि सरकारी हिन्दी ने एक से एक घटिया उदाहरण दिए हैं। जैसे भारतीय दंड संहिता के हिन्दी संस्करण में 'मारने' के लिए 'मृत्यु कारित करना' एकदम घटिया प्रयोग हुआ।
जवाब देंहटाएंलेकिन वैज्ञानिक तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा बनाए शब्द अधिकतर बेहद सुन्दर हैं, थोड़े जटिल लगें तब भी। वरना मनोविज्ञान में निद्राभ्रमण या स्वप्नचारिता( अंग्रेजी में सोम्नाम्बुलिज्म), शवलैंगिकता (अंग्रेजी में नेक्रोफिलिया) पढ़ाते समय सबसे पहले हमें ग्रीक और लैटिन ही पढ़ना पड़ जाएगा, पढ़ना पड़ता है जब अंग्रेजी में हम पढ़ते हैं।
बहस की सीमा नहीं है। इस विषय पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। बहुत कुछ कह भी गया, लम्बी टिप्पणी के लिए क्षमा चाहेंगे।
--लिखने में कुछ गलतियाँ हो ही गई होंगी, इसके लिए भी क्षमाप्रार्थी हूँ।
---एक जगह से दूसरे देश में संस्कृति, सभ्यता, भाषा, कला, संगीत, ज्ञान-विज्ञान का प्रचार होता है, अधिकार नहीं।--
जवाब देंहटाएंबहुत ही कटाक्ष से लिखा गया यह आलेख और इस पर की गई टिप्पणियां एक धारा के लोगों की मनसिक सोच को दर्शाती है।
जवाब देंहटाएंआप हिन्दी वाले विश्वाविद्यालय विद्यालय की हिन्दी ठीक कीजिए सरकारी काम काज वालों को करने दीजिए उनका काम।
अगर हम अधिशासी अभियंता की जगह ए़ग्ज़िक्यूटिव इंजीनियर लिख रहे हैं तो वह एक आम नागरिक को समझ में आए इसलिए लिख रहे हैं।
आप इसे अंतरजाल कहें हम इंटरनेट ही कहेंगे।
आप मिछिल कहें हम फ़ाइल कहेंगे।
बहुत उदाहरण है।
सबसे दुख तो यह है कि केन्द्र सरकार की राजभाषा हिन्दी को सहायता करने के बदले विद्वान (हिन्दी) डंडा भाजने लग जाते हैं।
उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंमैं अजितजी के तर्कों से सहमत हूं।
एक महत्वपूर्ण बात यह कि हम किसी भी सरकारी सर्कुलर या आदेश को पूरे भारत देश के लिए बाध्यताकारी क्यों समझ लेते हैं। इस सर्कुलर में जो कहा गया है, वह सुझाव है सरकारी कर्मचारियों के लिए न कि विदेशी शासन के समय का सरकारी अध्यादेश जो सबको मानना होगा। साथ ही, इस आदेश का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हिंदी जानने वाले भी हिंदी नहीं बल्कि अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करेंगे। बल्कि यह कि जिन्हें हिचक होती है कि वे हिंदी ठीक से नहीं जानते, वे बजाए पूरी की पूरी शुद्ध अंग्रेजी लिखने के इस तरह हिंदी में नोट लिखने की शुरुआत कर सकते हैं।
मेरी समझ इतनी ही है साथियो, इससे आगे आप सब विद्वतजन उस सर्कुलर में जो कुछ पढ़ पा रहे हैं, मुझे उस तफसील से बाहर बाहर रखें तो भी चलेगा।
सादर,
-अनुराधा
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअनुराधा जी,
उस परिपत्र के किस वाक्य या वाक्य-समूहों के आधार पर आपने यह निष्कर्ष निकाल लिया कि यह उनके लिए लागू है जो हिन्दी ठीक से नहीं जानते.
मैं तो इसके ठीक उल्टा समझा हूँ. वह यह कि अनुवाद करते समय किसी को सही हिन्दी शब्द की जानकारी भी है तो उस शब्द का प्रयोग करने के पहले दो बार सोचना चाहिये और सप्रयास 'सरल अंग्रेजी, उर्दू' आदि का 'खुलकर' प्रयोग करना चाहिए (ताकि 'आम जनता' आसानी से समझ सके). अर्थात यह परिपत्र 'ज्ञानी' लोगों पर लगाम कसने के लिए लाया गया है.
-- अनुनाद
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंऐसे दस्तावेजों के साथ समस्या यह हो जाती है कि उनका अंग्रेजी पक्षपाती बॉस अपने हिंदी जानने वाले कनिष्ठों को लताड़ने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगते हैं। मुश्किल यह है कि आज से ५० साल बाद हिंदी भाषी क्या चाहते हैं इसके संबंध में निषकर्ष भी ऐसे ही दस्तावेजों से निकाला जाएगा।
बहुत पहले भाषा के संबंध में एक संकल्पना पढ़ी थी कि भाषा परिचित या अपरिचित होती है सरल या कठिन नहीं। मसलन चीनी लोगों को संसार की सरलतम भाषाओं की अपेक्षा चीनी पढ़ना, लिखना और टंकित करना सरल लगता है।
अपरिचित से परिचय करने की कोशिश करने वाले सुझावों के बजाय उसे धकियाकर खदेड़ने और किसी परिचित को उसका स्थानापन्न के रूप में थोपने वाले सुझाव स्वीकार करने में आपत्ति होना स्वाभाविक है।
गाँव के चौपाल से निकलकर महानगरों के बसों और मैट्रो की भागदौड़ वाली सभ्यता में पैंट और जींस ज्यादा सुविधाजनक हैं। किंतु मेरे गांव के कई बुजुर्ग लगातार दिल्ली आते रहे और धोती ही पहनते रहे। हमने ऐसी पीढ़ी को इतिहास में दफन करने का निर्णय ले लिया है और मानते हैं कि हमने कुछ असुविधाजनक को छोड़कर कतिपय अंधविश्वासों से मुक्त हो गए हैं। मगर यह स्वीकार्यता कितनी उथली है इसका अंदाज इसी से हो जाता है कि हम अपने देवियों और देवताओं को आज भी अपने कपड़े (जो हम आज पहनते हैं) पहनाना नहीं सीख पाए। अवचेतन में हजारों वर्षों से संचित संस्कार हमें ऐसा विद्यालय को स्कूल में बदलने जितनी सहजता से करने नहीं देंगें।
कभी कभी लगता है कि दिल्ली में अंग्रेजी को दैनिक कार्य व्यापार की भाषा बना चुके लोगों के बीच बैठे राजभाषा अधिकारी को साल-दो-साल गाँव में अंतरजाल से दूर रखा जाय। तो भी क्या साल भर बाद वे अंग्रेजी को हीं मानवता का प्राण मात्र मानने की अपनी अवधारणा पर दृढ़ रह पाएंगें।
हम परिधानओं और प्रौद्योगिकी की तरह भाषा के क्षेत्र में हुए परिवर्तन को क्यों पचा नहीं पाते? इसका सरल समाधान इस उदाहरण में निहित है कि परिधान और प्रौद्योगिकी जिस सहजता से पहने और उतारे जा सकते हैं उसी तरह से भाषा को नहीं बदला और अपनाया जा सकता है। निर्माण तो असंभव ही है। और उसके सांस्कृतिक अर्थ रखने वाले शब्दों को तो उसी भाषा के साथ मिट जाना पड़ता है।
एक ही भाषा ने जब भारतीय बाङमय को सांस्कृतिक संदर्भ बनाया तो वह हिंदी हो गई और अरबी-तुर्की-फारसी बांङमय को अपनाया तो उर्दू। युनानी-रोमणी बाङमय को अपनाकर निश्चित रूप से यह चाहे जो हो जाय हिंदी तो नहीं रहेगी। इसलिए भी राजभाषा सचिव का सुझाव हिंदी या हिंदी जाति या भारत में हिंदी के प्रसार के हित में तो नहीं है वह भले हीं किसी और का या कुछ और का हित कर रही हो।
अनिरुद्ध कुमार
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअनिरुद्ध जी ने अपनी बात अच्छे ढंग से रखी हैं।
हिन्दी से आंचलिक तत्व धीरे धीरे कम होते जाने से यह कठिन नज़र आने लगी। मीडिया से जुड़े लोग देश के अलग अलग हिस्सों से होते हैं। बिना लोगों की नब्ज पकड़े कई बार यह तय हो जाता है कि लोग क्य चाहते हैं। रजत शर्मा ने ज़ीन्यूज पर जो हिंग्लिश रची वह एक मिश्रित भाषा बनाने की नाकाम कोशिश थी। इतना भर हुआ कि इसे हिंग्लिश नाम मिल गया। हाँ, अंग्रेजी माध्यम वाले कैम्पस में, जहाँ उच्चवर्ग के बच्चे पढ़ते हैं, वहाँ ज़रूर बतौर फैशन ऐसी भाषा सुनने को मिलती है।
अंग्रेजी माध्यम और माहौल में पले बढ़े लोग भी हिन्दी बोलना लोग पसंद करते हैं। पर जबर्दस्ती उनसे वैसी हिन्दी बुलवाई या लिखवाई नहीं जा सकती जैसी हम हिन्दी परिवेश में पले बढ़े लोग बोलते हैं। ये ठीक वैसा ही है जैसे एक मराठी भाषी की हिन्दी, तमिल भाषी की हिन्दी या उड़िया भाषी की हिन्दी सुन कर हमें नहीं लगता कि यह साफ हिन्दी क्यों नहीं बोल रहा है।
जहाँ तक आम भारतीय या आम हिन्दीभाषी के हिंग्लिश से प्रभावित हो जाने की बात है, मैं इसे ज्यादा महत्व नहीं देता। हिग्लिश वाले के लिए साफ हिन्दी बोलना जितना कठिन है उससे भी ज्यादा कठिन आम हिन्दी वाले के लिए हिंग्लिश बोलना है। परिहास के दो-चार वाक्य अंग्रेजी शब्द ठूंस कर बोले जा सकते हैं, मगर लगातार नहीं। आज जो अच्छी हिन्दी लिख बोल रहा है, कल उसके हिंग्लिश में तब्दील होने की आशंका नहीं है। हम अपने घर में हिन्दी का वातावरण रखेंगे तो हमारी नयी पीढ़ी भी साफ हिन्दी ही बोलेगी।
- अजित वडनेरकर
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंयहाँ यह भी जोड़ना समीचीन होगा कि अंग्रेजी दुनिया की सबसे ज्यादा अव्यवस्थित/अनियमित भाषा है।
इसके व्याकरण में अपवादों की भरमार है, या कहें कि सैंकड़ों शब्द ऐसे हैं जिनका अपना अलग व्याकरण है।
कोई एक नियम सब पर लागू नहीं होता। जो स्वर और शब्द माधुर्य, हिंदी में है उसका अंग्रेजी मे कतई अभाव है।
उछ्चारण या शब्द ध्वनि के इतने बेतुके नियम हैं कि सीखने वाला एक बार तो पागल ही हो जाता है।
इंग्लैंड के बाहर यह सिर्फ गुलामों की भाषा है। हमारी सरकार और हमारे नेता अपनी मानसिक गुलामी से आजाद नहीं होना चाहते इस लिए आक्रांताओं की इस भाषा को निरंतर प्रश्रय दिए जा रहे हैं। आज इस हिंगलिश के इतने हिमायती तैयार हो गए हैं कि कविश्रेष्ठ रहीम की पंक्तियाँ बरबस याद आती हैं-
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन;
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन।
जब चारों ओर से सरल हिंदी के नाम पर हिंगलिश को स्थापित करने का प्रयास हो रहा है, तो हिंदी और भारतीय भाषा-प्रेमियों को अपने स्तर पर अपने प्रयास जारी रखने चाहिएँ। सरकार की ये कुत्सित चालें धीरे-धीरे अपने आप नाकाम हो जाएँगी।
- विनोद शर्मा
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंमैं पूछना चाहता हूँ उन लोगों से जो हिंग्लिश के पक्षधर हैं -
हिंग्लिश की तरह हिउर्दू हिपंजाबी, हितुर्की, हिफारसी से हिंदी सरल क्यों नहीं हो सकती । जबकि इन सभी भाषाओं के शब्द भी तो हम प्रयोग करते हैं।
अरे.. क्या-क्या हि से जोड़ोगे । हिन्दी, हिन्दी के रूप में ही अच्छी है। इसे सरल करने के नाम पर अव्यवस्थित व बर्बाद न किया जाए तो अच्छा । नहीं तो इस नई हिंग्लिश का व्याकरण बनाना पाणिनि के बस का भी नहीं होगा। क्योंकि किस भाषा में कौन-सा प्रत्यय लगाया जाएगा यह निर्धारित करना ही कठिन हो जाएगा। भाषा का विकास सीमाओं में हो तो व्याकरण साथ देता है , अन्यथा व्याकरण के समीकरण समीरण की तरह निकल जाएँगे और हाथ कुछ नहीं लगेगा । ज़रा सोचिए जिस प्रकार हम विद्या+अर्थी समझाते हुए कहते हैं कि विद्या की प्राप्ति का इच्छुक । इसी को स्टुडेन्ट से समझाना पड़े तो हम कैसे समझाएंगे ?
- नवनीत
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंचूँकि चर्चा का मूल विषय हिन्दी में अन्य भाषाओं के शब्दों के बहुतायत से प्रयोग का विरोध करना है,
"ताबूत" शब्द उर्दू /फारसी का है, यदि इसका हिन्दी पर्याय प्रयोग किया जा सके तो अच्छा होगा।
-हरिराम
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंमेरे जैसे कई लोग होंगे जिन्हें "ताबूत" का अर्थ पता नहीं होगा । उर्दू-हिन्दी शब्दकोश उलटकर देखा तोः-
ताबूत - वह संदूक जिसमें शव को बन्द करके गाड़ते हैं; एक प्रकार का ताज़िया जो शीआ उठाते हैं ।
- नारायण प्रसाद
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंसभी मित्रो से निवेदन है कि इस मंच को विचार विमर्श का स्वस्थ सशक्त माध्यम ही बना रहने दें, भावावेश में इसे विधान मंडल अथवा संसद ना बनाएं ।
कुछ सार्थक पहल करने के लिए एक ज्ञापन या पत्र तैयार किया जा सकता है और उसे माननीय राष्ट्रपति से लेकर संसदीय समिति तक सभी पदाधिकारियों तक प्रेषित किया जा सकता है।
कविता जी से निवेदन है कि इस विषय में नामचीन लोगों को लेकर एक पत्र तैयार करें- आग आग चिल्लाते रहने से नहीं बुझती-ऐसा मेरा मानना है ।
सब एक दूसरे से क्षमा याचना करते हुए एक दूसरे को क्षमादान देकर इस चर्चा को विराम दें ।
हिंदी को सरकार न मिटा सकती है न ला सकती है - यह एक प्रवाह प्रक्रिया है जो अपना मार्ग स्वयं खोजती हुई ही चली है और चलती रहेगी-इसकी ठेकेदारी कोई मत लीजिए ।
सादर
विनोद कुमार
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंवीणा उपाध्याय जी का यह परिपत्र देखा...
1. यह विमर्श बहुत पुराना है कि हिंदी में किस हद तक लचीलापन स्वीकार्य होना चाहिए। इस पर आए दिन बहसें दिखाई पड़ती हैं। इसलिए इसे शुरू करने का यश श्रीमती वीणा जी को देना ठीक नहीं है।
2. हिंदी में कार्य करने वाले अधिकारी और विशेषकर अनुवाद कार्य करने वाले लोग अपठनीय उत्पाद परोसते हैं। यही चिंता इस पत्र में भी है। दरअसल इस बिजनेस में लगे लोग पाठ को समझने की जहमत नहीं उठाना चाहते, शब्दकोश से सीधे देखकर शब्दों को साट देते हैं। इतना करके अपने कार्य की इतिश्री समझते हैं। इस निकम्मेपन का खामियाजा हिंदी को भुगतना पड़ता है, वह बदनाम होती है कि उसमें शब्द नहीं हैं, शब्द हैं भी तो ऊबड़-खाबड़ और इससे भली तो अंग्रेजी है आदि। असली दुख यह है। अनुवादक होने की पहली शर्त यही है कि उससे होकर निकलने वाला पाठ प्रवाहपूर्ण और पठनीय हो। यह परिपत्र ऐसे कामचोर अनुवादकों को संबोधित करता है, कि हे निकम्मों, कम से कम इतना तो कर सकते हो कि अंग्रेजी के शब्द को देवनागरी में लिख दो।
3. इससे व्यापक तौर पर हिंदी भाषा का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। यह सरकारी तंत्र में हिंदी भाषा ज्यादा देखने को मिले, उसके लिए सिफारिशें दी गई हैं। यह कोई नियम नहीं है, कि इसका पालन करना जरूरी हो। वैसे भी नियम बने साठ साल से ज्यादा हो गए हैं, उनका पालन कहां हो सका है?
4. हमारा स्वविवेक और अनुभव हमें बताएगा कि कहाँ अर्थ का अनर्थ हो सकता है इसलिए पारिभाषिक शब्दों पर अडिग रहना है, और कहाँ कितना सरलीकरण करना है। दिमाग में जटिल प्रक्रिया चलती है जो पूरी प्रक्रिया में उपयोगकर्ताओं को ध्यान में रखते हुए शब्दों को फिल्टर करते रहती है, बशर्ते हमें इतना कष्ट उठाना गवारा हो।
5. यदि कल इसे कोई नियम कहकर संदर्भित भी करता है, तो हम बेतुके नियमों को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं। कोई मुझसे कहे कि तुम "द्वितीय" नहीं बल्कि "द् वितीय" लिखो तो मैं तो इसे हरगिज नहीं मानने वाला।
- आनंद
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क्या जिस तरह देश में 65 साल गुजार लिए गए, वैसे नहीं गुजर सकता? (नहीं गुजरे तो बेहतर ही होगा)…हम अनुराधा जी से एक सवाल करना चाहते हैं कि क्या हमारी इच्छा मात्र से या सिर्फ़ इसलिए कि हमें खून करना अच्छा लगता है, सरकार हमें सब का कत्ल करने की आज्ञा दे देगी? यहाँ हम टें टें करते रहे, कर रहे हैं और वहाँ राजभाषा वालों का काम सरकारी आदेश से चल रहा है…और वैसे भी क्या जो कर्मचारी नए हैं या होंगे उनके लिए यह नियम बनाया गया है? अगर हाँ तो 1949 से 2011 तक जैसे सारे कर्मचारी प्रयोग करते रहे, उसी तरह कर सकते हैं, सीख सकते हैं। और अगर यह पुराने कर्मचारियों के लिए बनाया गया है तो इसकी जरूरत अब है कहाँ, जब कर्मचारी सालों से काम करता आ रहा है…?
जवाब देंहटाएंउपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअनुराधा जी के पत्र के इस क्षेपक पर किसी महापण्डित ने गौर किया कि नहीं?
कैसे करते, सब कुछ तो अधूरा-अधूरा पढ़ने की आदत है। फिर
मिसालों के लिए अंग्रेजी साहित्य में गोते लगाए जाते हैं। अंग्रेजी की बैसाखी और विदेशी उपकरणों के
बिना एक पल न बिता पाने वाले हमारे अनेक महानुभाव भावुकता की छिछली परत को ही राष्ट्रप्रेम, देशप्रेम समझ बैठे हैं।
भाषणबाजी में क्या जाता है। गाँधी ने जो जीवन बताया, वही जी कर बताइया होता। यक़ीनन बीते साठ सालों में कई धड़ों, वर्गों, समूहों ने
अपनी विशिष्ट सोच के चलते पहचान बनाई है। शुद्ध हिन्दी बोलने वालों का भी एक वर्ग बन जाता। कम से कम उनकी पहचान तो बनती।
एक महत्वपूर्ण परिपत्र पर आई गंभीर प्रतिक्रिया का मखौल उड़ता देखते हिन्दी प्रेमी। मज़ा यह कि यह मखौल भी उर्दू, फ़ारसी, अरबी, अंग्रेजी, एमर्सन, शेक्सपियर की मदद से ही अभिव्यक्त हो पाया। भाषा अपने आप बढ़ेगी, विकसित होगी। किसी परिपत्र के निर्देशों, कट्टर समूहों के नियमों और महापण्डितों की दादागीरी से नहीं।
इतनी मामूली बात कई बार सुनी, कही जा चुकने के बाद भी अगर हम भयभीत हैं तो क्या किया जा सकता है।
हद है...
- अजित वडनेरकर
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअजित जी,
आपके महातर्कसंग्रह में यदि कोई तर्क 'अखंडित' रह गया हो तो कृपया बताएं. हाँ, साहित्यकार होने के विशेषाधिकार के कारण आपने कुछ 'निरर्थक' वाक्य बीच-बीच में घुसाए हैं वे मेरी दृष्टि में हैं. आप इस चर्चा को बहुत सीमा तक विषयान्तरित करने में सफल रहे हैं, इसको ध्यान में रखते हुए उनकी चर्चा करना 'अति' होगी .
-- अनुनाद
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंहिन्दीप्रेमी मित्रों।
लिखता कम हूँ, पर मैंने इस समूह से बहुत कुछ पाया है।
(१)इस लिए, कुछ अन्य (चर्चा में मध्यस्थी के) अनुभव के आधार पर, आपके विचार,
और संभवतः चर्चा के लिए, निम्न प्रस्तुति कर रहा हूं।
(२)मान कर चलें कि सारे सदस्य हिन्दी के पुरस्कर्ता हैं।
(३)मेरे विचार से किसी भी चर्चा में अनेक बिन्दु होते हैं।
(४)तो पहले उस "विषय" (जैसे अब जो परिपत्र चर्चा जा रहा है ) के बिन्दुओं को क्रमवार प्रस्तुत किया जाए।
(५) फिर जिन बिन्दुओं पर सहमति हो उन्हें स्पष्ट रूप से स्वीकार किया जाए।--उन पर चर्चा ना हो।
(६)अनावश्यक(जो मूल प्रति में छेडे गए नहीं है, और असंबद्ध है ऐसे ) बिन्दु ओं को चर्चा से बाहर रखें।{आवश्यक होने पर मध्यस्थ हस्तक्षेप करे।}
(७)इस लिए परिच्छेदों को बिन्दुवार लिखना और उन्हें,अनुक्रम देना भी आवश्यक होगा।
(८) मूल प्रति को भी,उस के भागो में लिखा जाना आवश्यक होगा।
(९)फिर आप जिन बिन्दुओं से सहमत नहीं है,उन्हीं के विषय में तर्क दे।
(१०)चर्चा संवाद हो, विवाद नहीं। विवाद एक वकालत होती है। वकालत में जीतना-हारना होता है।
संवाद में सच्चाई को ढूंढने का प्रयास होता है।
(११)संवादे संवादे जायते सत्य बोधः।
{जान बुझकर शब्दांतर किया है }
(१२)अपने मत को सौम्यता से रखने पर सौहार्द बना रहेगा। केवल तर्क ही आधार हो।
विचारार्थ सुझाया है।
- डॉ. मधुसूदन झवेरी
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंएक और विनम्र submission है-
" हाँ उनकी महिमा पुन: पुन: कन्फ़र्म अवश्य हो रही है। "-
यह वाक्य इसी चेन मेल में जोर-शोर से 'हिंदी' की तरफदारी कर रहे लोगों में से एक मेल का हिस्सा है। तेनालीरामन की एक कहानी बताती है कि गुस्से में व्यक्ति अपनी भाषा बोलता है। उक्त वाक्य के बीच में जो अंग्रेजी का शब्द आया, तो वह जरूर प्रवाह में आया है, जानबूझ कर लाया गया नहीं है। यानी वह शब्द 'अपना' लिया गया है, उक्त मेल के लेखक द्वारा। फिर ऐसे शब्द अगर गैर-हिंदीभाषी अपने कागज़ों पर लिखना चाहें तो गलत क्या है? कम से कम उन लोगों की तरफ से हिंदी लिखने की शुरुआत तो होगी, जो कभी हिंदी का इस्तेमाल नहीं करते।
विनम्र submission.
सादर,
-अनुराधा
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअनुनादजी,
भाषायी समूहों की प्रवृत्ति स्वरूप एक महत्वपूर्ण बात अनुराधाजी ने पकड़ी थी, उस पर ध्यानाकर्षित करने के लिए मैने उक्त सूत्र लिखा। आपको मित्र मानता हूँ मगर पता नहीं किस उन्माद में आप अपने गोबरवाद के निशाने पर मुझे ले आए, अब तक नहीं समझ पाया हूँ। चूँकि आप ने काफी परपीड़ानंद ले लिया था सो उस आनंद के कुछ अंश पर मेरा भी हिस्सा है, यह मानते हुए मैने यह प्रतिक्रिया दी थी जिसमें आपको तथाकथित कुछ निरर्थक वाक्य भी घुसाए। सब कुछ आपको ही तय करना है। किसकी प्रतिक्रिया गोबर है, किसमें क्या निरर्थक है वगैरा वगैरा।
बहरहाल मैं भी मनुष्य ही हूँ, साहित्यकार नहीं, जैसा भूल से पता नहीं क्यों आप मान रहे हैं और लगातार दोहराए जा रहे हैं।
आखिरी बात, इसके बाद इस शृंखला पर मेरी प्रतिक्रियाओँ का समापन समझें। अगर इसके बाद फिर कुछ ऐसा घटिन न हो जिसकी वजह से मुझे जवाब देना ज़रूरी लगे।
आपकी प्रतिक्रियाएँ अति सांकेतिकता और अरब, तेल, कोरिया जैसे उदाहरणों की वजह से दुरूह हो जाती हैं। कृपया इन्हें भी थोड़ा आसान बनाएँ। सीधे विषय पर आ जाएँ। वर्ना क्या फायदा हुआ गोबर पर लिखा और वो भी गोबर जैसा।
बीती ताहि बिसार दे....
राम राम
- अजित वडनेरकर
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंअजित जी,
आप मेरे मित्र ही नहीं हैं, मैं आपको एक नामी साहित्यकार के रूप में भी देखता हूँ. किन्तु मैं आपकी स्थिति उस बच्चे के समान पा रहा हूँ जो पहले मारकर जोर-जोर से रोना शुरू कर देता है.
मैंने बहुत साफ़ कर दिया था कि मेरी प्रतिक्रया में कुछ व्यंगात्मक शब्द आये वे आपके सन्देश में आये हुए 'कुतर्क' , 'चश्मा', 'पूर्वाग्रह', 'घनघोर हिंदूवादी' आदि शब्दों के जबाब में आये हैं. आप स्वयं खुद शब्दों को 'सौम्य' मान सकते हैं लेकिन मैं मानता हूँ कि मेरे द्वारा प्रयुक्त 'तर्क का घूरा' इससे अधिक सौम्य और साहित्यिक शब्द है. उसे भी मूझे इसलिए प्रयोग करना पड़ा क्योंकि मेरे साफ़-साफ़ कहने के बावजूद कि 'आपका सन्देश इतना बड़ा है कि उसका एक चौथाई ही पढ़ सका', आपने स्टेलिन की शैली में पूछा, 'आधा ही क्यों पढ़ा?'
अपने आपत्तिजनक शब्दों का पहले प्रयोग किया; गोबर, महापंडित आदि अनावश्यक शब्दों का प्रयोग करते जा रहे हैं और अपना रोना भी जारी रखे हुए हैं.
चलिए इस 'झगड़े' को समाप्त करते हैं.
-- अनुनाद
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उपर्युक्त संवाद के क्रम में एक अन्य टिप्पणी
जवाब देंहटाएंमंच पर कुछ सद्स्यों ने लिखा है कि सरकार द्वारा हिंगलिश लिखने की यह खुली छूट गैर हिंदी भाषियों के लिए लाभकारी होगी।
पर अगर आप हिंदी भाषा के प्रचार और प्रसार में अपना जीवना न्योछावर करने वाली लोगों को देखें तो पाएंगे कि
यदि हिंदी का सबसे अधिक भला किसी ने किया है तो वह गैरहिंदी भाषा भाषियों खासकर दक्षिण भारतीय लोगों ने ही किया है। स्मरण के लिए:
केंद्रीय हिंदी संस्थान के संस्थापक श्री मोटुरी सत्यनारायण
प्रसिद्ध साहित्यकार रांगेय राघव
प्रसिद्ध बाल पत्रिका चंदा मामा के संपादक श्री बाल शौरी रेड्डी
प्रसिद्ध हिंदी भाषाविज्ञानी विजय राघव रेड्डी, श्री वी.रा. जग्गनाथन, श्री कूष्णास्वामी अयंगार, श्री राजमल बोरा आदि कई लोगों
इन सभी उसी हिंदी का इस्तेमाल जैसा कि कोई अन्य हिंदी क्षेत्र का व्यक्ति करेगा।
दूसरी बात
द्वितीय भाषा / विदेशी भाषा के रूप में हिंदी का अध्यापन करने वालों से भी राय लीजिए......नागालैंड, आंध्रप्रदेश, उड़िसा, बंगाल हिंदी शिक्षकों आदि से...
किसी हिंदी शब्द का अर्थ बताने के लिए उसी रंगरूप वाले अंग्रेजी शब्द का सहारा लिया कि विद्यार्थी बगले झांकने लगते है। उन्हें हिंदी में माने चाहिए या उनकी अपनी मातृभाषा में।
पूरे परिपत्र में इस बात का कहीं जिक्र नहीं है हिंदी केवल हिंदी केवल हिंदी क्षेत्र के लोगों की प्रथम भाषा नहीं है...बल्कि पूरे भारत में संपर्क भाषा / द्वितीय भाषा / तृतीय भाषा भी है।
कई विदेशी विद्यार्थी पूछते हैं...कि हिंदी में आप कक्षा में और किताब में कुछ और बोलते हैं और...बाहर बाज़ार में लोग और ही बोलते हैं..इसका जवाब में इस तरह से देता हूँ...भाषा की अलग-अलग प्रयुक्तियाँ होती हैं...अब क्या हर देशीय अंग्रेजी बोलने वाले को procrastination का मतलब पता होगा? नहीं...उसी को पता होगा जो इसे इस्तेमाल करता है।
शब्दों की दुरहता को कम करना अलग बात है और सिर्फ अंग्रेजी घुसेड़ना अलग। (क्यों ना हिंदी में सभी भारतीय भाषाओं के शब्द शामिल किए जाएँ)
और एक बात संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की माता नहीं है।
सादर
अभिषेक अवतंस
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मेहंदी हसन पाकिस्तान के हैं या नोम चोम्स्की अमेरिका के इसलिए जापान पर बम गिराने को महान कदम मान लिया जाय। क्या रद्दी तर्क है?
जवाब देंहटाएंये क्या…साहित्यकार मनुष्य नहीं है…
जवाब देंहटाएंमित्रों,
जवाब देंहटाएंपहले तो आभार इतनी विचारोत्तेजक, अर्थवान और रोचक चर्चा के लिए जो मेरे लेख के बहाने हो गई। इसका मुझे कतई अंदाज नहीं था। बातचीत में थोड़ी बहुत तेजी, तीखापन आ ही जाता है, अनुरोध करूंगा कि उसे क्षणिक मानकर भुला दिया जाए। जैसा किसी ने ऊपर कहा भी, सभी हिन्दी के प्रति खूब गंभीर लोग हैं, अपने अपने तरीके और समझ से। सभी की बात में बहुत मूल्यवान चीजें हैं। फिर आभार इस बात को कई कोणों से देखना मेरे लिए संभव बनाने के लिए।
कुछ बातों पर संक्षिप्त प्रतिक्रिया करना चाहता हूं।
- वीणा जी का परिपत्र अहिन्दीभाषी सरकारी कर्मचारियों के लिए नहीं, सभी के लिए है। पूरे देश के केन्द्रीय कार्यालयों को भेजा गया है। यानी सारे केन्द्रीय कर्मचारियों के लिए सरकारी कामकाज के लिए सरलता के नाम पर हिन्दी का एक नया मानक, नया नमूना, स्वीकृत शैली का नया रूप प्रस्तुत किया गया है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं वे हिंग्लिश वाक्य जो किन्हीं हिन्दी पत्रिकाओं के नाम पर कहीं से उठाकर हिन्दी मीडिया में स्वीकृत और प्रचलित हिन्दी की आधुनिक शैली के नमूने के रूप में दिए गए हैं। यानी नवभारत टाइम्स और जागरण के हिंग्लिश अखबार आईनेक्स्ट की हिन्दी को बाकी के लिए स्वीकृत और सरकारी हिन्दी के लिए सरलता के नाम पर अनुकरणीय बना दी गई है। यह इसलिए है कि सालों से ऐसी हिन्दी चला रहे इन बड़े अखबारों का किसी ने संगठित विरोध नहीं किया। हिन्दी के मूर्धन्य मठाधीश इस पर चुप रहे। और यूं विकृति स्वास्थ्य का नया मानक बन गई।
इसलिए इस परिपत्र के दूरगामी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव पर विचार करना चाहिए।
-मुझसे परिचित मित्र जानते हैं कि मैं जितना हिन्दी वाला हूं लगभग उतना ही अंग्रेजी वाला हूं। अंग्रेजी से बाकायदा और घोषित रूप से प्रेम करता हूं। उसके सौन्दर्य और क्षमताओं का कायल हूं। इसलिए अंग्रेजी विरोधी होने का सवाल ही नहीं होता। -----
----शेष थोड़ी देर में।