षडयंत्र है या अनभिज्ञता


 षडयंत्र है या अनभिज्ञता

 - प्रो. सुरेन्द्र गंभीर








मान्यवर प्रभु जोशी जी और राहुलदेव जी ने एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर हमारा ध्यान खींचा है।
भारत में हिन्दी की और न्यूनाधिक दूसरी भारतीय भाषाओं की स्थिति गिरावट के रास्ते पर है। ऐसी आशा थी कि समाज के नायक भारतीय भाषाओं को विकसित करने के लिए स्वतंत्र भारत में क्रान्तिकारी कदम उठाएँगे परंतु जो देखने में आ रहा है वह ठीक इसके विपरीत है। यह षडयंत्र है या अनभिज्ञता इसका फ़ैसला समय ही करेगा।




भाषा के सरलीकरण की प्रक्रिया स्वाभाविक है परंतु वह अपनी ही भाषा की सीमा में होनी चाहिए। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज अंग्रेज़ी और उर्दू के बहुत से शब्द ऐसे हैं जिसके बिना हिन्दी में हमारा काम सहज रूप से नहीं चल सकता। ऐसे शब्दों का हिन्दी में प्रयोग सहज और स्वाभाविक होने की सीमा तक पहच चुका है और ऐसे शब्दों के प्रयोग को प्रोत्साहित करने के लिए किसी को कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। यह भी ठीक है कि हिन्दी में भी कई बातों को अपेक्षाकृत सरल तरीके से कहा जा सकता है। परंतु यह सब व्यक्तिगत या प्रयोग-शैली का हिस्सा है। विभिन्न शैलियों का समावेश ही भाषा के कलेवर को बढ़ाता है और उसमें सर्जनात्मकता को प्रोत्साहित करता है।



भाषाओं का क्रमशः विकास कैसे होता है और इसके विपरीत भाषाओं का ह्रास कैसे होता है यह अनेकानेक भाषाओं के अध्ययन से हमारे सामने स्पष्ट होकर आया है। भारत में हिन्दी और शायद अन्य भारतीय भाषाओं के साथ जिस प्रकार का व्यवहार होता आ रहा है वह हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की ह्रास-प्रक्रिया को ही सशक्त करके बड़ी स्पष्टता से हमारे सामने ला रहा है। इस ह्रास-प्रक्रिया के बारे में विस्तार से लिखे जाने की आवश्यकता है। 


हम सबको मालूम है कि अंग्रेज़ी का प्रयोग भारत में केवल भाषागत आवश्यकता के लिए ही नहीं होता अपितु समाज में अपने आपको समाज में अपना ऊँचा स्थान स्थापित करने के लिए भी होता है। इसलिेए प्रयोग की खुली छुट्टी मिलने पर अंग्रेज़ी शब्दों का आवश्यकता से अधिक मात्रा में प्रयोग होगा। दुनिया में बहुत सी भाषाएँ लुप्त हुई हैं और अब भी हो रही हैं। उनके विश्लेषण से पता लगता है कि उनके कुछ भाषा-प्रयोग-क्षेत्रों (domians) पर कोई दूसरी भाषा आ के स्थानापन्न हो जाती है और फिर अपने शब्दों के स्थान पर दूसरी भाषा के शब्दों का प्रयोग उस भाषा के कलेवर को क्षीण बनाने लगता है। इस प्रकार विभिन्न विषयों में विचारों की अभिव्यक्ति के लिए वह भाषा धीर धीर इतनी कमज़ोर हो जाती है कि वह प्रयोग के लायक नहीं रह जाती या नहीं समझी जाती । क्षीणता के कारण उसके अध्ययन के प्रति उसके अपने ही लोग उसको अनपढ़ों की भाषा के रूप में देखने लगते हैं और उसकी उपेक्ष करने लगते हैं। यह स्थिति न्यूनाधिक मात्रा में भारत में आ चुकी है।


फिर कठिन क्या और सरल क्या इसका फ़ैसला कौन करेगा। हिन्दी के स्थान पर जिन अंग्रेज़ी शब्दों को प्रयोग होगा उसको लिखने वाला शायद समझता होगा परंतु इसकी क्या गारंटी है कि भारत के अधिकांश लोग उस अंग्रेज़ी प्रयोग को समझेंगे। भाषा-विकास की दृष्टि से यह सुझाव बुरा नहीं है कि हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिकाधिक हो और जहाँ हिन्दी के कम प्रचलित शब्द लाएँ वहाँ ब्रैकट में उसका प्रचलित अंग्रेज़ी पर्याय दे दें। जब हिन्दी का प्रयोग चल पड़े तो धीरे धीर अंग्रेज़ी के पर्याय को बाहर खींच लें। 


भाषा के समाज में विकसित करने के लिए भाषा में औपचारिक प्रशिक्षण अनिवार्य है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जो बात हम अपनी भाषा में अलग अलग ढंग से और जिस बारीकी से कह सकते हैं वह अंग्रेज़ी में अधिकांश लोग नहीं कह सकते। इसलिए शिक्षा के माध्यम से अपनी भाषा को विकसित करना समाज में लोगों के व्यक्तित्व को सशक्त करने वाला एक शक्तिशाली कदम है।


भाषा के प्रयोग और विकास के लिए एक कटिबद्धता और एक सुनियोजित दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता है परंतु ये दोनों बातें ही आज देखने को नहीं मिलतीं। दूसरी बात - जिस अंग्रेज़ी के बलबूते पर हम नाच रहे हैं उसमें भाषिक प्रवीणता की स्थिति का मूल्यांकन होना चाहिए। अंग्रेज़ी की स्थिति जितनी चमकीली ऊपर से दिखाई देती है वह पूरे भारत के संदर्भ में उतनी आकर्षक नहीं है। लोग जैसे तैसे एक खिचड़ी भाषा से अपना काम चला रहे हैं। हिन्दी की खिचड़ी शैली को एक आधिकारिक मान्यता प्रदान करके हम उसके विकास के लिए नहीं अपितु उसके ह्रास के लिए कदम उठा रहे हैं। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं का विकास तब होगा जब उसके अधिकाधिक शब्द औपचारिक व अनौपचारिक प्रयोग में आएँगे और विभिन्न भाषा-प्रयोग-क्षेत्रों में उसका प्रयोग, मान और वर्चस्व बढ़ेगा। 

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गत दिनों चल रहे लेखों के क्रम में ( हिन्दी पर सरकारी हमले का आखिरी हथौड़ा और हिन्दी का ताबूत ) आज के  लेख  षड्यंत्र है या अनभिज्ञता के पश्चात् अभी अन्य लेख भी  आने शेष हैं।


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4 टिप्‍पणियां:

  1. यहाँ यह भी जोड़ना समीचीन होगा कि अंग्रेजी दुनिया की सबसे ज्यादा अव्यवस्थित/अनियमित भाषा है।
    इसके व्याकरण में अपवादों की भरमार है, या कहें कि सैंकड़ों शब्द ऐसे हैं जिनका अपना अलग व्याकरण है।
    कोई एक नियम सब पर लागू नहीं होता। जो स्वर और शब्द माधुर्य, हिंदी में है उसका अंग्रेजी मे कतई अभाव है।
    उछ्चारण या शब्द ध्वनि के इतने बेतुके नियम हैं कि सीखने वाला एक बार तो पागल ही हो जाता है।
    इंग्लैंड के बाहर यह सिर्फ गुलामों की भाषा है। हमारी सरकार और हमारे नेता अपनी मानसिक गुलामी से आजाद
    नहीं होना चाहते इस लिए आक्रांताओं की इस भाषा को निरंतर प्रश्रय दिए जा रहे हैं। आज इस हिंगलिश के इतने
    हिमायती तैयार हो गए हैं कि कविश्रेष्ठ रहीम की पंक्तियाँ बरबस याद आती हैं- पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन;
    अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन। जब चारों ओर से सरल हिंदी के नाम पर हिंगलिश को स्थापित करने का प्रयास
    हो रहा है, तो हिंदी और भारतीय भाषा-प्रेमियों को अपने स्तर पर अपने प्रयास जारी रखने चाहिएँ। सरकार की ये कुत्सित
    चालें धीरे-धीरे अपने आप नाकाम हो जाएँगी।

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  2. @ विनोद जी, `हिन्दी का ताबूत' पर आपकी टिप्पणी अभी लगाई है।
    धन्यवाद।

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  3. हिन्दी और अंग्रेजी का मामला नहीं है यह…यह समस्त भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के बीच का मामला है…

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  4. From: Priyadarshi Dutta --priyadarsi.dutta@gmail.com;
    Sent: Monday, November 07, 2011 10:12 AM


    It would be prudent for Hindi to understand its place and role in society; and let English have its own; and Indian other languages have their own. In an Indian family, mother had a place & role, the father had a place and another role; and both are important in their own ways. But what would happen, as its happening today, when mother is trying to copy the role of the father in being a breadwinner and decision maker. The mother's role is getting diminished in the life of the children, making them culturally & psychologically denuded. Hindi is not happy to enrich the cultural life of the people, it wants to be the professional language and official language. With such ambition it is likely to fail in both the roles.

    But the problem with Hindi is that it is not innovator in the professionalism. The jobs, by which we means governemnt or private knowledge-based jobs, are outcome of European way of organizing public life. Hindi merely wants to supplant it. The language of the computer and Internet is English, because Americans and British innovated them. The Hindi speakers did not innovate them, but merely want to supplant it with Hindi. Hindi is acting as a replacement language, a translators' language. But it is not interested in things where it can give some original contribution. Hence, this disaster.

    Best
    PD

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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