अधर में लटकी अन्ना टीम
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अन्ना आंदोलन के दो सशक्त स्तंभ तो ढह ही चुके हैं और एक पहले से ही हिल रहा है। स्वामी अग्निवेश ने अपने विरोध और मोहभंग को मोबाइल फोन से निकालकर अब लाउडस्पीकर पर चढ़ा दिया है। प्रशांत भूषण ने कश्मीर पर मुँह खोलकर अपने लिए दरवाजा बंद कर लिया है। अन्ना की टिप्पणी के बावजूद अगर वे इस आंदोलन का हिस्सा बने रहते हैं तो उनकी इज्जत कितनी बची रह पाएगी, यह वे स्वयं समझ सकते हैं। जस्टिस हेगड़े पहले दिन से ही अपनी बीन अलग बजाते रहे हैं। यहाँ अगर इस बहस में न पड़ा जाए कि कौन सही और कौन गलत तो भी यह मूल प्रश्न तो उठना ही चाहिए कि अभी इस आंदोलन को शुरू हुए छह माह ही हुए हैं और इसमें इतनी दरारें क्यों पड़ती जा रही हैं?
इसका मूल कारण यह है कि अन्ना हजारे की टीम का कोई वैचारिक आधार नहीं है। इस टीम के लोग सिर्फ एक ही सूत्र से बंधे हुए थे। वह सूत्र था, जन-लोकपाल। यह सूत्र भी कोई सुविचारित और सुनिश्चित नहीं था। इसमें दर्जनों परिवर्तन, संशोधन और परिवर्द्धन हो चुके हैं। टीम के सदस्यों की रायें भी अलग-अलग हैं। खुद अन्ना ने अनशन तोड़ने के दिन अपनी तीन प्रमुख माँगों को दरकिनार कर दिया। जन-लोकपाल का यह पतला ‘धागा’ पाँच -छह स्वयंभू ‘हाथियों’ को बाँधकर कैसे रख सकता था? इस पतले सूत्र की खातिर अन्ना टीम के लोग अपना-अपना निजी एजेंडा कैसे छोड़ सकते थे? किसी को ‘बड़ी’ सरकारी कुर्सी पकड़नी है, किसी को अपनी छपास की प्यास बुझानी है, किसी को किसी राजनीतिक दल में ऊँचे ओहदे पर पहुँचना है और यह भी संभव है कि कुछ लोग सिर्फ भ्रष्टाचार विरोधी हों। उन्हें अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए। ये तरह-तरह के लोग सदा सिर्फ जन-लोकपाल की माला फेरते रहें, यह कैसे संभव है? अन्ना-टीम के प्रमुख पाँच-छह लोगों में से कोई एक भी ऐसा नहीं है, जो कोरा कागज हो। हर कागज पर कोई न कोई इबारत पहले से लिखी हुई है। इसलिए जब स्वामी अग्निवेश ने अमरनाथ के शिवलिंग की पूजा का विरोध किया तो अन्ना-टीम को साँप सूँघ गया और प्रशांत भूषण ने जब कश्मीर में जनमत-संग्रह की बात कही तो पूरी की पूरी टीम हकलाने लगी। खुद अन्ना बदहवास हो गए। वे समझ गए कि जन-लोकपाल का कच्चा धागा इतना बोझ नहीं उठा पाएगा। अभी तो यह शुरूआत है। अभी कई छोटे-मोटे ऐसे मुद्दे अचानक उठ पड़ेंगे कि अन्ना-टीम को बिखरने में देर नहीं लगेगी।
हिसार के उप-चुनाव में कूद पड़ना कौन-सी बुद्धिमानी थी? इस मुद्दे पर भी पूरी टीम सहमत हो, ऐसा नहीं लगता। खुद अन्ना हिसार क्यों नहीं गए? उन्होंने सिर्फ अपील जारी क्यों की? शायद ऐसा उन्होंने अरविंद केजरीवाल के दबाव में आकर किया हो? हिसार अरविंद का अपना शहर है लेकिन हुआ क्या? जिस कुलदीप बिश्नोई का समर्थन किया, वह सिर्फ पाँच-छह हजार वोटों से जीता और उसने भी दो-टूक शब्दों में कह दिया कि मेरी जीत में अन्ना टीम का कोई योगदान नहीं है। कुलदीप के मुकाबले जो अन्य दो प्रमुख उम्मीदवार खड़े थे, उनमें से अजय चौटाला को भी लगभग साढ़े तीन लाख वोट मिल गए। इन दोनों उम्मीदवार में कौन अधिक स्वच्छ है? इनमें से कोई भ्रष्टाचार-विरोधी है? अन्ना-टीम ने कांग्रेस का विरोध किया लेकिन उसके उम्मीदवार को डेढ़ लाख वोट मिल गए। यह ठीक है कि वह तीसरे नंबर पर रहा और पिछले चुनाव के मुकाबले उसके 50 हजार वोट कम हो गए और उसकी जमानत भी जब्त हो गई लेकिन अन्ना का असर तो तब माना जाता जब कांग्रेसी उम्मीदवार को पाँच हजार वोट भी नहीं मिलते। हम यह न भूलें कि अन्ना की लड़ाई भ्रष्टाचार से है, इस या उस दल से नहीं। इस लड़ाई को दलों के दलदल में फँसाने का औचित्य क्या है? अन्ना-टीम या तो पूरी तरह से राजनीति करे या दलीय राजनीति से बिल्कुल दूर रहे। यदि वह अधर में लटकी रही तो उसे न तो माया मिलेगी न राम।
और फिर जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है, उसके कहने पर ही तो अन्ना ने अपना अनशन तोड़ा है। अब अन्ना-टीम अचानक कांग्रेस-विरोधी क्यों हो गई है? जब तक लोकपाल विधेयक पास नहीं हो जाता, अन्ना-टीम को अपना धैर्य क्यों खो देना चाहिए? स्वयं अन्ना ने अपनी उत्तरप्रदेश यात्रा स्थगित कर दी है और मौन धारण कर लिया है लेकिन अन्ना-टीम ने शंखनाद कर दिया है। तो क्या यह माना जाए कि अन्ना और उनकी टीम ने अलग-अलग रास्ते चुन लिये हैं या ये लोग दिग्भ्रमित हो गए हैं? हिसार का प्रयोग यदि अगले पाँच राज्यों के चुनावों पर थोपने की कोशिश की जाएगी तो अन्ना-टीम की कितनी किरकिरी होगी? जाहिर है कि हिसार को अखिल भारतीय प्रयोगशाला नहीं बनाया जा सकता।
मान लें कि अन्ना-टीम पिछले दरवाजे से राजनीति में कूदे बिना नहीं रहेगी। तो क्या होगा? वही होगा, जिसका वह घनघोर विरोध कर रही है। भाजपा को फायदा मिलेगा। आखिर वोटर क्या करेंगे? वे उसी भाजपा को सत्तारूढ़ करवा देंगे, जिससे अन्ना-टीम बड़ा दुराव दिखाती है। अन्ना हजारे और उनकी टीम संघ से अपने परहेज को बाजे-गाजे के साथ प्रचारित करते हैं? क्यों करते हैं? समझ में नहीं आता। वे किससे डरते हैं? भ्रष्टाचार का जो भी विरोध करे, उसे साथ लिया जाना चाहिए। यदि कुछ साहसी और ईमानदार कांग्रेसी भी इस अभियान में साथ आएँ तो उन्हें क्यों नहीं आने देना चाहिए?
अन्ना-टीम जरा यह भी सोचे कि अगर संसद ने लोकपाल बिल पास कर दिया तो फिर वह क्या करेगी ? यह तो एकसूत्री आंदोलन भर है। वह सूत्र क्या पूरी व्यवस्था को बदल सकता है? इस देश के 17 हजार न्यायाधीश मिलकर भ्रष्टाचार नहीं घटा पाते तो लोकपाल भ्रष्टाचार को कैसे मिटा पाएगा? भ्रष्टाचार जितना सरकारी कर्मचारियों और नेताओं में फैला हुआ है, उससे ज्यादा भारत की जनता में व्याप्त है। यदि जनता भ्रष्टाचार के लिए तैयार न हो तो कोई नेता या अफसर भ्रष्टाचार कैसे कर लेगा? देश की जनता को भ्रष्टाचार के विरूद्ध खड़गहस्त करने की कोई रणनीति अन्ना-टीम के पास नहीं है। वह सिर्फ हवा में तलवार घुमा रही है। वह उन्हीं लोगों (सांसदों) और तरीकों (कानूनों) के जरिए भ्रष्टाचार खत्म करना चाहती है, जो भ्रष्टाचार के सबसे बड़े पोषक है। अन्ना टीम के पास कोई राजनीतिक विचारधारा या दर्शन या कोई व्यापक दृष्टि न हो तो न सही, कम से कम भ्रष्टाचार के विरूद्ध कोई जबरदस्त रणनीति तो हो।
unki nitio ko samjhne ke liye akl ki awashyakta hai....?????
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