भारतीय भाषाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए : भोपाल घोषणा-पत्र


भारतीय भाषाओं की अस्मिता की रक्षा के लिए
भोपाल घोषणा-पत्र

(नीचे के प्रारूप से जो भी मित्र सहमत हों वे अपने हस्ताक्षर करते चलें ताकि शीघ्रातिशीघ्र केंद्र सरकार को भेजा जा सके।

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भोपाल में 24 और 25 सितम्बर 2011 को `भूमण्डलीकरण और भाषा की अस्मिता' विषय पर आयोजित परिसंवाद के हम सभी सहभागी महसूस करते हैं कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की अस्मिता ही नहीं, अस्तित्व तक खतरे में हैं। 


स्वतन्त्र भारत को एक सम्पन्न, समतामूलक तथा स्वाभिमानी देश के रूप में विकसित होना चाहिए था। यह जीवन के सभी क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं के उपयोग से ही सम्भव था, किन्तु न केवल हमारी अपनी भाषाओं की उपेक्षा की गयी, बल्कि इनकी कीमत पर अंग्रेजी को अनुचित बढ़ावा दिया गया। इसके पीछे जो वर्गीय नज़रिया था, उसने हमें एक औद्योगिक राष्ट्र बनने से रोका, हमारी खेती को चौपट किया, आम जनता से सरकारी तन्त्र की दूरी बढ़ाई और शिक्षा तथा पूँजी के वर्चस्व ने इस प्रकिया की रफ्तार को खतरनाक ढ़ंग से बढ़ाया है।


हम मानते है कि वर्तमान भूमण्डलीकृत निजाम में भारत की जो हैसियत, भूमिका और दिशा है उसमें ज़्यादातर हिन्दुस्तानियों की भौतिक खुशहाली तथा सांस्कृतिक उन्नति की कोई गारन्टी नही है। उनकी अपनी भाषाओं का दमन, उनकी भौतिक विपन्नता और लोकतान्त्रिक व्यवस्था में उनकी समुचित हिस्सेदारी के अभाव के लिए जिम्मेदार है। इसलिए हमारी नजर में जन-भाषाओं की रक्षा, तरक्की और फैलाव का सुनिश्चित कार्यक्रम अपना कर तथा इस पर अमल की प्रक्रिया में शिक्षा, प्रशासन, न्याय तथा जीवन के सभी अहम पहलुओं से जुड़ी व्यवस्थाओं में गहरे परिवर्तन ला कर हम भारत के संविधान के आदर्शों एवं लक्ष्यों को हासिल कर सकते है।


अंगे्रजी से हमारा कोई दुराव नही है हम इसकी शक्ति, दक्षता और खूबसूरती के कायल है। हम चाहते है कि हमारे लोग दुनिया की अन्य समृद्ध भाषाओं के साथ-साथ अंगे्रजी से भी लाभान्वित हो, लेकिन हम नही चाहते कि अंग्रेजी या कोई भी विदेशी भाषा सम्पूर्ण भारत के समग्र विकास में रोड़े खड़े करे तथा हिन्दुस्तानियों की एक बहुत बड़ी जमात को अपने ही घर में पराया बना दे। हमें यकीन है कि अंग्रेजी के सच्चे प्रेमी अंग्रेजी को शोषण, अन्याय, विषमता तथा अविकास का औजार बनते देखकर खुश नही हो सकते। इसलिए हम इस भोपाल घोषणा-पत्र को अंगीकार करते हुए यह चाहते है और माँग करते हैं कि -


1. भारत के सार्वजनिक में यथासंभव भारतीय भाषाओं का प्रयोग हो। 


2. नीचे से लेकर ऊपर तक समस्त शिक्षा भारतीय भाषाओं में दी जाये। इसकी तुरन्त शुरुआत प्राथमिक शिक्षा से की जाये। जिन विषयों की बेहतरीन किताबें भारतीय भाषाओं में नहीं है, उन्हें तैयार करने का काम विद्वानों की टोलियों को सौंपा जाए। यह काम ज्यादा से ज्यादा दस वर्ष की मियाद मंे पूरा किया जाना चाहिए। इसके चार चरण हो सकते हैं-पहले माध्यमिक शिक्षा स्तर तक, उसके बाद स्नातक स्तरप तक, फिर उत्तर-स्नातक और शोध तक और अन्त में तकनीकी विषयों की शिक्षा।


3. किसी भी भारतीय को अंग्रेज या कोई विदेशी भाषा सीखने के लिए बाध्य न किया जाये। प्रत्येक भारतीय को संविधान-मान्य भाषा में उच्चतम स्थान तथा पद तक जानेका अधिकार होना चाहिए। 


4. सभी तरह की औद्योगिक प्रक्रियाओं तथा जन माध्यमों से अंग्रेजी को रुखसत करते हुए देशी भाषाओं को उनका हक दिया जाये।


5. धारा सभाओं, प्रशासन एवं अदालतों से अंग्रेजी को हटाने के लिए एक मियाद तय की जाये और किसी भी हालत में उस मियाद को न बढ़ाया जाये।


6. राज्यों की भाषा क्या हो, इस पर विवाद नहीं है। पर केन्द्र का मामला उलझा हुआ है। हम महसूस करते हैं कि बहुभाषी केन्द्र चलाना व्यावहारिक नहीं है। इसलिए, जैसा कि संविधान कहता है, केन्द्र की भाषा हिन्दी ही रहे, लेकिन केन्द्रीय नौकरियों की संख्या और नौकरशाहों की शक्ति को देखते हुए केन्द्र की राजभाषा के रूप में हिन्दी को ऐसे अतिरिक्त अवसर नहीं मिलने चाहिए, जिससे अन्य भाषा-भाषियों को अनुभव हो कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। इसलिए हम चाहते हैं कि केन्द्र के पास सेना, मुद्रा, विदेश नीति तथा अन्तरराज्यीय संसाधन जैसे विषय ही रहें और बाकी सभी अधिकार राज्यों, जिलों एवं स्थानीय निकायों के बीच बांट दिये जाएं। इससे कई राज्यों में हिन्दी के प्रति जो आक्रोश दिखाई पड़ता है, वह खत्म हो सकता है और भारतीय भाषाओं की पारिवारक एकता मजबूत हो सकती है। 


7. जनसंचार माध्यमों पर पूंजी के नियंत्रण को हम खतरनाक मानते हैं। अतः जनसंचार के किसी भी माध्यम से भाषा नीति का फैसला उस माध्यम से मालिकों तथा उसमें काम करने वालों की बराबरी पूर्ण सहमति और ऐसी सहमति न बन पाने पर ‘एक व्यक्ति: एक वोट‘ के आधार पर होना चाहिए।


8. हमारे देश का नाम भारत है। अपने ही देशवासियों के मुँह से ‘इण्डिया‘ सुनकर हमें अच्छा नहीं लगता। इसलिए ‘इण्डिया, दैट इज भारत‘ को हटाकर सिर्फ भारत रखा जाये। इसी तरह, भारतीय रिजर्व बैंक, भारतीय रेल, आकशवाणी आदि जैसे सभी राष्ट्रीय संस्थानों के अंग्रेजी नामों कोक हटाकर उनके भारतीय नामों को ही मान्य करना होगा। ‘इण्डियन आॅयल‘ तथा ‘एअर इण्डिया‘ जैसे सभी अंग्रेजी नामों को हटा कर उनकी जगह भारतीय नाम देने का काम तुरन्त हो।


भोपाल घोषणा-पत्र किसी प्रकार के ‘शुद्धतावाद‘ या इकहरेपन का आग्रही नहीं है, न ही यह भारत को बाकी दुनिया से काट कर रखने की हिमायत करता है। घोषणा-पत्र की समझ यह है कि भौतिक रूप से सम्पन्न तथा मजबूत और सांस्कृतिक दृष्टि से प्रौढ़ एवं प्रगतिशील भारत ही विश्व बिरादरी में अपना उचित तथा गौरवपूर्ण स्थान बना सकता है। इसकी शुरुआत भारत की भाषाई अस्मिता की रक्षा के संघर्ष से ही हो सकती है। हमारी भाषाएं बचेंगी, तभी हम भी बचेंगे। अर्थात् हमें पूरे आदमी और पूरे समाज की तरह जीवित रहना है, तो अपनी भाषाओं की अस्मिता को बचाने तथा समृद्ध करने की लड़ाई उसकी तार्किक परिणति तक लड़नी ही होगी। भोपाल घोषणा-पत्र निष्ठा, दृढ़ता और विनम्रता के साथ इस लड़ाई के लिए सभी का आवाहन करता है। 


  सौजन्य :  कथाकार प्रभु जोशी 

12 टिप्‍पणियां:

  1. कविता जी, उपर्युक्‍त के सम्‍बन्‍ध में मेरे विचार थोड़ा अलग हैं-
    1. मैं चाहता हूं कि भारत की राजभाषा संस्‍कृत बनायी जाये, सुसंस्‍कृत भारत के निर्माण के लिए यह निर्णय दृढ़ता के साथ लेना होगा। संस्‍कृत सीखने के लिए सभी को समान परिश्रम करना होगा तो किसी भी राज्‍य को कोई आपत्ति नहीं होगी। वस्‍तुत: अखण्‍ड भारत को एक सूत्र में पिरोने का काम संस्‍कृत ही कर सकती है, किसी और भाषा में वह सामर्थ्‍य नहीं है। यदि भारत विश्‍वगुरु बनने का सपना पालता है, तो उसे इतना तो करना ही होगा। इस बिन्‍दु पर समस्‍त तर्कों के समुचित उत्‍तर के लिए मैं मन ही मन तैयार हूं।
    2. अंग्रेजी को म्‍लेच्‍छ भाषा के रूप में आवश्‍यकतानुसार अनुवाद आदि कार्यों में उपयोग किया जाना चाहिए।
    3.जनसंचार माध्‍यमों के बारे में मेरा विचार यह है कि उन्‍हें एक बड़े जनसमूह (कम से कम 1000) द्वारा ही संचालित किया जाना चाहिए। जनसंचार माध्‍यमों पर किसी पूंजीपति का स्‍वामित्‍व भयावह है।

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  2. इस पूरी मुहिम को खतरा इस कुमार आशिष नामी सज्जन जैसे लोगों से हैं...

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  3. यह तो बोलते ही गला घोंटना जैसा हुआ, मुआफी चाहता हूं हुजूर। ...हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्‍या है.. तुम्‍ही कहो कि ये अंदाज-ए-गुफ्तगू क्‍या है। फिलहाल... लानत है देश के नौनिहालों पर..। कविता जी, आपके ब्‍लाग पर ऐसी हल्‍की प्रतिक्रियायें.. जो शुद्ध वर्तनी नहीं लिख सकते, वो नाम के पहले 'इस' लगा देते हैं। मैंने जो भी अभिमत व्‍यक्‍त किया है, उसके पीछे मेरे पास उचित तर्क हैं,साथ ही,विपक्ष की आशंकाओं का पर्याप्‍त निराकरण भी है। हां, एक बात और, मैं निर्विष प्राणी हूं, मुझसे एक मक्‍खी तक को खतरा नहीं है तो 'पूरी मुहिम' को क्‍या होगा।

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  4. सहमत और हस्ताक्षरित :
    प्रवीण त्रिवेदी
    फतेहपुर

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  5. @ अमितेश जी, कृपया व्यक्तिविशेष को निशाना बना कर बोलने की अपेक्षा मुद्दे पर टिप्पणी करेंगे तो अधिक अच्छा करेंगे / होगा ।

    @ आशीष जी, आप से आग्रह है कि आप इसे व्यक्तिगत अर्थों में न लेते हुए या व्यक्तिगत विरोध के रूप में न लेते हुए विचारों के विरोध के अर्थ में लें। यह सच है कि आवेश में भी भाषा की मर्यादा बनी रहनी चाहिए और इस संबंध में मैंने अमितेश जी को कह दिया है। मुझे खेद है कि ऐसा हुआ।

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  6. अनुराधा आर. का ईमेल संदेश -


    ""जनसंचार माध्यमों पर पूंजी के नियंत्रण को हम खतरनाक मानते हैं। अतः जनसंचार के किसी भी माध्यम से भाषा नीति का फैसला उस माध्यम से मालिकों तथा उसमें काम करने वालों की बराबरी पूर्ण सहमति और ऐसी सहमति न बन पाने पर ‘एक व्यक्ति: एक वोट‘ के आधार पर होना चाहिए।"

    उपरोक्त बिंदु 7 समझ में नहीं आया।

    पूंजी का भाषा से कैसा संबंध है? जब तक देश की और फिर तदनुरूप कार्पोरेट की अर्थव्यवस्था में आधारभूत बदलाव नहीं आएगा, पूंजी का नियंत्रण रहेगा। दूसरे, आज के समय में संचार माध्यमों में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं पर पूंजी ज्यादा लगाई जा रही है क्योंकि वहां बाजार बड़ा है। खासतौर पर बड़ी पूंजी और मुनाफे वाले माध्यम टीवी-रेडियो में तो अंग्रेजी में काफी कम कंटेंट है। हिंदी और भाषायीचैनल ही फल-फूल रहे हैं।
    दूसरी बात, अगर किसीकंपनी में मालिक है,तो फिर शेष कर्मचारी होंगे,जिन्हें मालिक अपनी जरूरतके अनुसार ही नौकरी पर रखेगा या निकालेगा। ऐसी आर्थिक संरचना में किसी के 'वोट' का क्या अर्थ है? सीधे शब्दों में- जो मालिक की नहीं सुनेगा, नौकरी से हाथ धो बैठेगा। वहां उसकी रायकौन मांगेगा, सुनना तो दूर की बात है।
    कृपया कोई मुझे समझा दे। अन्यथा, इस मूल मुद्दे पर मेरी सहमति है।
    -अनुराधा

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  7. mcgupta44@gmail.कॉम लिखते हैं -


    संदर्भ--हम चाहते हैं कि केन्द्र के पास सेना, मुद्रा, विदेश नीति तथा अन्तरराज्यीय संसाधन जैसे विषय ही रहें और बाकी सभी अधिकार राज्यों, जिलों एवं स्थानीय निकायों के बीच बांट दिये जाएं।

    >>> बहुत अच्छी बात है. किंतु ऐसा तो पहले से ही है!
    जिन्होंने यह माँग की है क्या वे बताएंगे कि क्या उन्होंने संविधान में इस विषय में क्या लिखा है, इसका अध्ययन कर लिया है?

    सातवें अनुच्छेद की लिस्ट एक में उन विषयों की सूची है जिन पर केन्द्र ही कानून बना सकता है. इन विषयों में से किसको आप या अन्य कोई राज्यों की लिस्ट में लाना चाहेंगे?

    --ख़लिश

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  8. अजित वडनेरकर जी लिखते हैं -


    सहमत

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  9. मॉस्को से अनिल जनविजय लिखते हैं -



    बेहतर हो कि इस घोषणापत्र पर एक हस्ताक्षर अभियान शुरू किया जाए। और इसे देश के सभी अख़बारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाए। समय-समय पर हम सभी को इसकी चर्चा करते हुए इसके पक्ष में आन्दोलन चलाना चाहिए।

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  10. bdshrivastava@gmail.कॉम लिखते हैं -



    हम भारत के संविधान के आदर्शों एवं लक्ष्यों को हासिल कर सकते है। इसलिए हम सभी चाहते हैं की सरकार, सरकार को चलने वालों, विपक्ष को इस अभियान में जनमत का साथ देना चाहिए

    - डॉ बी. डी. श्रीवास्तव
    धार

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  11. पहली लडाई तो राष्ट्रभाषा को उसका स्थान दिलाएं... राजभाषा बनाएं, फिर देखेंगे कि आगे क्या करना है॥

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  12. देश की आजादी के लिए जंतर मंतर पर 23 माह से चल रहा भारतीय भाषा आंदोलन का धरना 30 मार्च को भी जारी रहा

    देश की आजादी को अंग्रेजी गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए भारतीय भाषा आंदोलन का विगत 23 महीने से संसद की चैखट, राष्ट्रीय धरना स्थल जंतर मंतर पर निरंतर चल रहा धरना 30 मार्च 2015 को भी जारी रहा। धरने में भारतीय भाषाओं को लागू करने से लेकर देश में कैसे कल्याणकारी व्यवस्था स्थापित की जाय इस पर दिन भर गहन चर्चा हुई।
    रविवार 29 मार्च को भारतीय भाषा आंदोलन के धरने में महासचिव देवसिंह रावत, पत्रकार चंद्रवीरसिंह, अनंतकांत मिश्र, सच्चेन्द्र पाण्डे, धरना प्रभारी महेश कांत पाठक, श्रीओम जी महाराज, मोहम्मद सैफी, बाबा वीरेन्द्र नाथ वाजपेयी, समाजसेवी ताराचंद गौतम, राष्ट्रीय पिछडावर्ग महासभा के अध्यक्ष राजेश यादव, बागपत से समाजसेवी देवेन्द्र भगत, न्याय धर्मसभा के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी रामनरेश गुप्ता, डा अशोक शालीग्राम जी काबरा, सी सेट हटाओं आंदोलन के नेता पवन कुमार पाण्डे, नवल, कन्हैया तिवारी, मिहिर कुमार गोप, मोहन हांसदा, तरणीसेन मांझी, लक्ष्मण कुमार, प्रवीण व्यास ज्ञान प्रकाश, राकेश बसवाला, महावीर सिंह, अंकुर जैन, मुरार कण्डारी, निशांत, व वालिया आदि धरने में सम्मलित हुए।
    गौरतलब है कि संसद की चैखट जंतर मंतर पर भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र चैहान व महासचिव देवसिंह रावत के नेतृत्व में भारतीय भाषा आंदोलन के जांबाज 21 अप्रैल 2013 से निरंतर धरना दे रहे है। देश में अंग्रेजी गुलामी के सबसे बडे गढ़ संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं व न्यायालय में अंग्रेजी की अनिवार्यता को हटा कर भारतीय भाषा लागू करने सहित पूरी व्यवस्था में अंग्रेजी की दासता से मुक्त करने की मांग को लेकर भारतीय भाषा आंदोलन ने देश की मनमोहन सरकार व वर्तमान में मोदी सरकार को कई ज्ञापन दे दियें।
    परन्तु दुर्भाग्य यह है भारतीय भाषा आंदोलन के 1988 से पुष्पेन्द्र चोहान व स्व. राजकरण सिंह के नेतृत्व में संघ लोक सेवा आयोग पर चले ऐतिहासिक संघर्ष को जो वचन संसद ने 1991 में सर्वसम्मति से संकल्प पारित कर लिया था उसको लागू करने की मांग भाषा आंदोलन सदैव करता रहा। भारतीय भाषा आंदोलन में पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री अटल व विश्वनाथ प्रताप सिंह, उपप्रधानमंत्री देवीलाल व लालकृष्ण आडवाणी व चतुरानंद मिश्र सहित चार दर्जन से अधिक देश के वरिष्ठ नेताओं, सम्पादकों, साहित्यकारों ने भाग लिया। परन्तु सत्ता में आने पर न अटल बिहारी वाजपेयी, न विश्वनाथ प्रताप सिंह व न हीं अब मोदी ने भारतीय भाषाओं की सुध लेने का ईमानदारी से काम किया। इन्होंने भी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह ही देश से अंग्रेजी की गुलामी को बनाये रखने का ही काम किया ।

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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