शर्म तुमको मगर नहीं आती.....
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह खबर इस देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील, लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार और सत्तारूढ़ दल की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के पढ़ने लायक है। ये तीनों महिलाएँ हैं और तीनों भारत की सर्वोच्च संस्थाओं की सिरमौर हैं। ये तीनों महिलाएँ इस खबर को क्यों पढ़ें, यह मैं बाद में बताऊँगा।
खबर यह है कि इस देश में जितने लोग खुले में शौच जाते हैं, दुनिया के किसी देश में नहीं जाते। इतना ही नहीं, यूनीसेफ का ताजा सर्वेक्षण कहता है कि सारी दुनिया में जितने लोग भी खुले में शौच जाते हैं, उनके 58 प्रतिशत अकेले भारत में हैं। याने खुले में शौच जाना यदि शर्म की बात है तो भारत को सबसे ज्यादा शर्म आनी चाहिए।
भारत के लगभग 65 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो खेतों, खलिहानों, नहरों, नदियों, रेल की पटरियों और पेड़ों के पीछे छिपकर रोज़ निपटने बैठते हैं। उनकी कोशिश होती है कि वे अपनी इस मजबूरी का समाधान अंधेरे-अंधेरे ही कर लें। जिन्हें सूर्योदय के बाद शौच जाना होता है, ज़रा उनके असमंजस पर गौर कीजिए। वे पशु तो नहीं हैं। मनुष्य हैं। कुछ शर्मो-हया तो हर इंसान में होती ही है। उनके दिन की शुरूआत ही शर्म से होती है। भारत की आधी से अधिक आबादी अगर अपनी प्राकृतिक आवश्यकता के लिए हर रोज़ शर्मसार होती हो तो इस देश को हम स्वाभिमानी राष्ट्र कैसे कह सकते हैं?
इस स्वाभिमान से वंचित देशों में इथियोपिया, नेपाल और पाकिस्तान के नाम भी आते हैं लेकिन ये देश भारत से पीछे हैं। चीन में सिर्फ 5-6 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं। इस अर्थ में चीन का आर्थिक प्रगति का दावा कुछ ठीक-ठाक लगता है लेकिन भारत की दशा क्या है है? भारत के आधे से अधिक लोग पशुओं का जीवन जी रहे हैं लेकिन उनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं है।
खुले में शौच जानेवाले लोग कौन हैं? उनमें से ज्यादातर ग्रामीण, गरीब, पिछड़े, किसान, आदिवासी और झुग्गी-झोपड़ीवाले शहरी लोग हैं। इनकी आवाज़ बुलंद करनेवाली कौन-सी पार्टी है, कौन से नेता हैं, कौन से अखबार हैं, कौन से टीवी चैनल हैं? हमारे इन मजबूर लोगों की हालत पर हमें तब भी शर्म नहीं आती, जबकि हमारे विदेशी मेहमान जो सुबह-सुबह रेल से दिल्ली पहुँचते हैं और हमसे पूछते है कि आपकी रेल की पटरियों के आस-पास इतने मर्द और औरतें उघड़े हुए क्यों बैठे पाए जाते हैं?
यह खबर भारत की उन तीन सभ्य और शक्तिशाली महिलाओं को इसलिए पढ़नी चाहिए कि वे गाँव में औरत होने का अर्थ समझ सकें। गाँव की औरतें प्रायः या तो सूर्योदय के पहले शौच जाती हैं या सूर्यास्त के बाद। उन्हें दिन में अगर हाजत हो जाए तो वे क्या करें? उन्हें दिन भर तकलीफ बर्दाश्त करनी पड़ती है। वे औरतें हैं, महिलाएँ नहीं। रात को गाँवों में कार से गुजरते हुए मैंने सड़कों के किनारे अक्सर ऐसे दृश्य देखे हैं कि मेरा दिल शर्म और क्रोध से भर उठता है। लेकिन दिल्ली के हुक्मरानों को कोई शर्म नहीं आती। कुछ महिलाओं को ऊँची कुर्सियाँ सौंपकर देश की ज्यादातर ‘औरतों’ को वे पशुओं से भी बदतर जीवन जीने के लिए छोड़ देते हैं।
baat sahi hai aapki aaj bhi aesa hota hai mere hi ganv me kitne log hai jo bahar jate hain.
जवाब देंहटाएंaap ka lekh sochne pr majboor karta hai
rachana
'' गाँवों में अधिकतर जगहों पर शौचालय नहीं हैं. स्त्री को सूरज डूबने के बाद और सूरज उगने के पहले ही शौच-निवृत्ति हेतु जाना होता है. दिन में बाहर जाएगी तो घर के मर्दों की नाक नहीं कट जाएगी? सबके सामने टट्टी को बैठेगी तो कोई सह पाएगा? भले मर्द दिन में चार बार लोटा-बोतल लेकर निबट आए - उसी का तो समाज है. कई बार, शहरों में भी महिला-शौचालयों की कमी रहती है या आसानी से उपलब्ध नहीं होते. स्कूलों, ऑफिसों में भी कमी या अभाव सा दीखता है उनका. परिणाम होता है कि पेशाब सहते-सहते औरतें 'यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन' की शिकार हो जाती हैं. अधिक जल पीती रहें तो वे बच सकती हैं, पर डर है बार-बार पेशाब लगेगा, तो कहाँ जाएँगी? जब पेट थोडा खराब होता है तो स्कूल या ऑफिस छोड़ कर घर बैठने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं होता. क्या करे बेचारी ? मर्दवादी मानदंडों पर बने समाज में कहीं भी उत्सर्जन के लिए बैठ कर बेहूदा मज़ाक का विषय बने?''
जवाब देंहटाएं---- [डॉ. रवींद्र कुमार पाठक, जनसंख्या समस्या के स्त्री-पाठ के रास्ते..., पृष्ठ 115 ].
एक ऐसी समस्या की ओर ध्यान दिलाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया , जिसे शायद अब तक समस्या की तरह लिया ही नहीं गया है । शायद ही अब तक ये सोचा गया हो । हालांकि कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में अस्थाई शौचालय का निर्माण कार्य योजना चलाई गई है किंतु वो बिल्कुल ऊंट के मुंह में जीरे जैसा है ।
जवाब देंहटाएंदुखद है कि भारत की एक तस्वीर आज भी यही है!
जवाब देंहटाएंइतना हटकर विषय सोचने के लिए बहुत बधाई. सच बात तो ये है कि जो महिलाएं जीवन में कभी भी इस प्रकार की स्थिति से दो चार हुई होंगी, वो इस समस्या से बेहतर तरीके से सामंजय बिठा पाएंगी. अगर देखा जाये तो लगता है कि २१ वीं सदी कि और तेज़ी से बढ़ते हुए भारत की इस समस्या पर तुरंत कुछ करने की आवश्यकता है, लेकिन हमारे नीति निर्धारक शायद कभी इस तरह की परिस्थियों से गुज़रे ही नहीं होंगे .
जवाब देंहटाएंkya naya khaa hai
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