मेरा दोस्त शहर ‘लैंसडाउन’
- दीप्ति गुप्ता
शान्त और सुरम्य वादियों में
कायनात की कुदरती तिलस्म ओढ़े एक छोटा सा शहर, कोमल घास से भरे पहाडी ढलान, एक तरह की खास खुशबू से भरे
खुद-ब-खुद उग आनेवाले जंगली फूल, झूमते दरख़्त, परस्पर सटे-सटे, छोटे-छोटे पहाडी घरों का घनछत, हरियाली के बीच में
आने जाने वालों की आवा-जाही से बन जाने वाली प्राकृतिक बटिया, सर्पीली सड़कें, इधर
उधर लगभग हर आधा किलोमीटर की दूरी पर बने अंग्रेजों के ज़माने के भव्य बंगलें जिनकी
लाल टीन की छत चिमनियों सहित दूर से ही अपनी झलक दिखाती वहाँ की सघन वनस्पतियों
में अपनी उपस्थिति को दर्ज करती, मन को लुभाती पहाडी फलों की मीठी महक, खुले विशाल
मैदान में ट्रेनिंग लेते रंगरूटो की परेड,
शहर से ऊपर पहाडी पर स्थित आर्मी हैडक्वार्टर
से बिगुल की उठती एक खास धुन, अक्सर सड़क और बटिया पर ‘लैफ्ट-राईट -
लैफ्ट-राईट’ करते सैनिकों के भारी फ़ौजी बूटों की तालबध्द ध्वनि, शाखों पर पंछियों
की चहचहाहट, जून माह की सुबह - शाम के सर्द झोको से भरी गरमी, धुंध से भरी ना थमने
वाली जुलाई-अगस्त की बरसात, सितम्बर माह का धुले सफ़ेद बादलों वाला नीला आकाश,
सर्दियों में सफ़ेद नाजुक फूलों सी झरती बर्फ और अपनी आगोश में लेता कोहरा, इस सब
का नाम है ‘लैंसडाउन’ I उत्तराखंड में ६०००फ़ीट की ऊंचाई पर,
प्रकृति की गोद में बसा मन को मोह लेने
वाला यही ‘लैंसडाउन’ आज भी मेरे मानस पटल
पर अपने भरपूर सौंदर्य के साथ अंकित है I अँग्रेज़ो के समय से ही अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण लैंसडाउन, एक लोकप्रिय ‘हिल
स्टेशन’ के रूप में स्थापित हो चुका था I घने देवदार और
चीड के जंगलों व चारों ओर पहाड़ों से घिरा यह अनूठा रम्य स्थान, अब से ५० वर्ष पहले
तो और भी अधिक प्राकृतिक संपदा व सौंदर्य से भरा था I
दिल्ली से २५० कि.मी. और कोटद्वार से कुल ४१
कि.मी. दूर स्थित यह ‘हिल स्टेशन’ कोटद्वार से पौडी जाने वाले रास्ते पर पडता है I दिल्ली से कोटद्वार तक बस अथवा ट्रेन से पहुंचा जा सकता
है I कोटद्वार रेलवे स्टेशन पर लैंसडाउन जाने के लिए बसें और टैक्सी सरलता से मिलती है I इसके अलावा
‘जौली ग्रांट’ निकटतम एअरपोर्ट है जो कोटद्वार - हरिद्वार रोड पर
देहरादून से १५२ कि.मी. दूरी पर है I
इस शहर से मेरा
कोई मामूली नहीं बल्कि एक सघन भावनात्मक रिश्ता है जो सुकुमार उम्र में उसके साथ
कायम हुआ I तब से वह मेरा दोस्त बन, मेरे
दिलोदिमाग पर ऐसा छाया कि आज भी जब मुझे ‘लैंसडाउन’ याद आता है तो सुबह से शाम हो
जाती है,पर मैं उसे याद करते नहीं थकती I लैंसडाउन की याद
आते ही चीड, देवदार के पेड़ दिल में लहराने लगते हैं, सूरजमुखी, गुलाब, पैंजी,
पौपी के रंगबिरंगे फूल आँखों में खिल उठते हैं, काफल, बेडू, हिसालू जैसे
मेरे अस्तित्व में महक उठते हैं, झींगुरों
की चिकमिक झनझनाहट मेरे ज़हन में झनझनाने लगती है, और इन सबके जीवंत होते ही
मैं उस पचास- पचपन साल पुराने लैंसडाउन
में जैसे उड़ कर पहुँच जाती हूँ I
वैसे इसका मूल
नाम वहाँ की स्थानीय बोली में ‘कालूडांडा’
था - कालू यानी ‘काला’ और ‘डांडा’ यानी पहाड़ I ‘कालूडांडा’ का नाम ‘लैंसडाउन’
१८८७ में, भारत
के तत्कालीन अँग्रेज़ वायसराय ‘लॉर्ड लैंसडाउन’ के नाम पर पड़ा
था I लैंसडाउन की बेहतरीन आबो हवा के कारण
अँग्रेज़ो ने इसे गढवाल राइफ़ल्स
के सैनिकों का ‘गढवाल राइफ़ल्स कमांड आफ़िस’ और यहाँ कैंटूनमैंट
स्थापित किया था I ब्रिटिश राज में
यह भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की आज़ादी
से जुडी गतिविधियों का भी एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा और आजादी के बाद से यह भारतीय सेना की गढवाल राइफ़ल्स का कमांड
आफ़िस बना I यद्यपि लैंसडाउन के दर्शनीय स्थल अँगुलियों पर गिने जा सकते हैं लेकिन उन
स्थलों की और समूचे शहर की चुम्बकीय
रमणीयता असीम है I यह शहर अपने से अधिक बड़े और प्रसिध्द हिल स्टेशनों को सहज ही मात देने वाला
है I जैसे ऊपरवाले ने इसे अपने हाथों से फुर्सत में बसाया हो और जगह जगह सौंदर्य रोप दिया हो I
उस छावनी की ‘चेटपुट लाइन्स‘ में शहर से तीन किलोमीटर दूर, चीड़ और
देवदार के घने पेड़ों के बीच अनूठी शान ओढ़े एक
बंगला था, जो ‘एवटाबाद हाउस‘
के नाम से जाना जाता था। ब्रिटिश राज में
म्युनिसिपल कमिश्नर उस बंगले में बड़े ठाट बाट के साथ रहता था । १९४७ में भारत
के आज़ाद होने पर,
लैन्सडाउन के नामी डॉक्टर अमरनाथ शाह ने उस बंगले
को अँग्रेज़ अधिकारी से ख़रीद लिया था। यह वो बंगला है जहाँ मेरा बचपन बीता और
जहाँ से इस शहर के
साथ मेरे भावनात्मक प्रगाढ़ रिश्ते की शुरुआत हुई । उसमें पाँच बड़े –बड़े कमरे,
और एक पूरब सामना ड्रॉइंग रूम था जिसके साथ सर्दियों के लिए एक बहुत ही खूबसूरत ग्लेज़्ड सिटिंग रूम हुआ करता था। हर कमरा अंग्रेजों के ज़माने
के क्लासिक फर्नीचर से सजा था। कडाके की सर्दी से राहत पाने के लिए हर कमरे में ‘फायर
प्लेस’ बने हुए थे । गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल का तब तक कोई ‘टीचर्स हास्टल’ न होने
के कारण १९५०-५१ से १९६० तक एवटाबाद
बंगला बाहर से आने वाली टीचर्स का ‘हास्टल’ था I सर्दियों में
हमारा नौकर अक्सर उसमें लकडियाँ जला देता
और हम सब उसके पास कोट, मफलर पहने देर रात तक आग तापते बैठे हुए, किस्से कहानियां
कहते रहते और मैं उन सब टीचर्स के बीच एकमात्र बच्ची कहानी सुनती सुनती गुनगुनी गरमाहट पाते ही सो जाती । बंगले के चारो ओर
पत्थरों का एक सिरे से दूसरे को छूता हुआ
गोलाकार बराम्दा था। बराम्दे से दो
ओर तीन-तीन सीढ़ी नीचे उतरने पर, चारों ओर खुली जगह में रंगबिरंगे फूलों की क्यारियां थी । वहाँ
से सामने दूर पश्चिम में जयहरीखाल गाँव दिखाई देता था। इस गाँव के पार्श्व से उत्तर
की ओर हिमालय की बर्फ़ीली पहाड़ियाँ पसरी हुई थी। सुब्ह उगते सूरज
की किरणें उन पे बिखरती तो वे सोने जैसी
चमचमाती ।
नीलकंठ, नन्दा देवी और चौखम्भा की चोटियाँ तो उस बर्फ़ीली श्रृंखला का
इन्द्रधनुषी गहना थीं। उसके नीचे दांए बांए लहराते सीढ़ीदार खेत उस दृश्य की शोभा को द्विगुणित करते।
उत्तर की ओर फलों के पेड़ थे, जो मौसम में आड़ू और काफ़ल से लदे रहते । दूसरी ओर ऊँचे-ऊँचे भीमकाय बनस्पति से भरे दूर से नीले से
दिखने वाले हरिताभ पहाड़ एक के ऊपर एक सटे मन में भय सा उपजाते।उन पे कोटद्वार, दुगड्डा और जयहरीखाल से आती जाती बसें दूर से रेंगती खिलौने जैसी दिखती। यदा कदा बसों की आवाजाही उस नीरव स्तब्धता में कुछ स्पन्दन का एहसास
कराती। बंगले के दक्षिण में दूर लोहे का मेनगेट था जिससे होकर पथरीला रास्ता बंगले
के बराम्दे तक आता था। इस लम्बे रास्ते के दोनो ओर भी फूलों की क्यारियाँ और रात
की रानी की झाड़ियाँ थी जो पथरीले रास्ते को राजमार्ग की सी भव्यता प्रदान करती। इस मुख्य रास्ते से लगा हुआ, हल्की सी ऊँचाई पर,
यानी बंगले के
दाहिनी ओर मखमली लॉन था और दूसरा लॉन
मेनगेट से अन्दर आते ही बाईं ओर पड़ता था। यह लॉन अपेक्षाकृत अधिक फैला हुआ था। इससे लगा हुआ, दूर तक पसरा बुरांस,
बेड़ू के पेड़ों
और रसभरी की झाड़ियों का घना जगंल था, जिसमें एक प्राकृतिक बटिया स्वत:
बन गई थी। अक्सर
गढ़वाली औरतें लकड़ी बीनतीं उस जंगल में आती जाती दिखती,
तो कभी साल में एक बार कॉरपोरेशन वाले उस जंगल की
थोड़ी बहुत काट-छांट कर जाते। वरना वह जंगल बेरोक टोक
फलता फूलता रहता और अपने में मस्त रहता। पूरे वर्ष चिड़ियों की चहचहाहट और मधुमास में कोयल की कुह-कुह, पपीहे की पीहू-पीहू उसे गुलज़ार रखती।
शहर के बीचों बीच का चौक ‘क्लार्क क्रिसेंट’
उस बीते समय से, वह केन्द्रीय स्थान रहा है, जहाँ हर तरह की सामाजिक, साँस्कृतिक व
राजनीतिक गतिविधियां बड़े जोर शोर से होती थी, दशहरा, दीवाली, पन्द्रह अगस्त,
छब्बीस जनवरी पर यह चौक खूब सजाया जाता और
देखने लायक होता I
यह ‘झंडा चौक’ के नाम से मशहूर था और
अब ‘गांधी चौक’ के नाम से जाना जाता है I सब लोग इन मौकों पर घरों से निकल कर,
उत्साह से भरे उस चौक में अवश्य आते व आपस
में मिलते, खुशियाँ मनाते कोई राजनेता आता, तो भी उसके स्वागत में वहाँ भाषण आदि के लिए मंच बनता, बंदनवार लगाई जाती और राजनेता को सुनने के लिए
भीड़ उमड़ पडती I मुझे याद है कि एक बार ‘संपूर्णानंद जी’ आए थे और मै शायद उस समय पांचवी
कक्षा में पढती थी मुझे और मेरे साथ किसी एक और लड़की को ‘संपूर्णानंद जी’ को माला पहनाने के लिए बड़ी
अच्छी तरह तैयार करके, खास हिदायते दी गई थी कि किस तरह उन्हें प्रणाम करके आदर
सहित फूलों की माला पहनानी होगी और फिर उसके तुरंत बाद दूसरी लड़की राजनेता जी को
फूलों का गुच्छा देगी I उसके बाद बहुत देर तक साँस्कृतिक कार्यक्रम चले
थे I
इस चौक
के ऊपर उत्तर दिशा में ‘गियारसी लाल अग्रवाल’ का शहर का इकलौता ‘पिक्चर हाल’ था,
जो आज भी है, इस शहर का एकमात्र मनोरंजन का माध्यम है I पूरब में वह लंबा चौड़ा बंगला था, जिसमे उन
दिनॉ गवर्नमेंट गर्ल्स हाईस्कूल चलता था I उस बंगलेनुमा
स्कूल के गेट से बाहर निकलते ही, कुछ कदम की दूरी
पर उस शहर की कई वर्ष पुरानी एक बेकरी थी जिसमें डबलरोटी, बन, केक, व बिस्किट बनने
की महक जब दोपहर १२ बजे तक आसपास के स्कूल, आफिसों में पसरने लगती थी, तो हमारा
स्कूल भी उस महक की गिरफ्त से बच नहीं पाता था और हम बच्चे इंटरवैल होने का बेताबी
से इंतज़ार करते कि कब घंटी बजे, कब हम दौड कर बेकरी पे धावा बोले और वहाँ से ‘बटर
बन’, ‘फ्रूट बन’ लेकर खाएं I बेकरी के पास ही लम्बाई में बना हुआ बंद
सब्जी मार्केट था जिसमें युसूफ खान की
दुकान से ही हम ताज़ी सब्जी व लाल लाल सेब, मीठे अमरूद वगैरा खरीदते थे I अब वहाँ बडी
दुकाने आदि बन गई हैं I
‘क्लार्क
क्रिसेंट’(अब ‘गांधी चौक’) चौक के दक्षिण में नीचे जाती सड़क से वहाँ का छोटा सा बाजार
शुरू होता है I सड़क के दोंनो ओर हर ज़रूरत की चीज़ की दुकाने है I १९६२ में सबसे पहली दुकान थी – ‘कन्हैयालाल’ हलवाई की; जहां पहाड़ की मशहूर मिठाई ‘बाल’ और भुने हुए खोए की
सोंधी खुशबू वाली चाकलेट मिलती थी I इसके अलावा स्वादिष्ट बेसन के लड्डू, इमरती, जलेबी,
बर्फी, कलाकंद और बडे-बडे समोसे मिलते थे I समोसे और बेसन
के लड्डू तो लाजवाब होते थे I दो दुकाने छोड़ कर सरदार ‘बरयाम सिंह’ जी की
जनरल मर्चेंट की दुकान थी, नेगीजी की कपडे
की दुकान, तीन चार राशन की दुकानें, स्टेशनरी, बर्तनों, लोहे आदि की दुकानो के बीच में रिहाइशी घर भी थे I खूब चहल पहल से
भरा वह पहाडी बाज़ार सबके लिए जैसे मन लगाने की रौनक भरी जगह था I आज यह बाज़ार
बेहतर दुकानों से सुसज्जित है I चौक के
पश्चिम में दो रास्ते विपरीत दिशाओं में कटते है I एक नीचे बस्ती
की ओर जाता है और दूसरा, दूसरी ओर के रिहाइशी इलाके की ओर होता हुआ सरकारी गेस्ट हाउस व अस्पताल से जा मिलता है I चौक में एक कतार
में भी कुछ दुकानें है जिनमे सबसे बड़ी दुकान ‘श्यामलाल ड्रग कंपनी’ है I बीते ज़माने में भी हम अधिकतर
दवाइयां यही से लेते थे क्योकि शाह कंपनी का स्टाक फ्रेश होता था और लगभग हर दवा वहाँ उपलब्ध होती थी I अब इस चौक में
पर्यटकों के लिए रहने की आधुनिक सुविधाओं से भरपूर, एक ‘मयूर’ होटल भी बन गया है I
‘टिफिन टाप’ शहर से
सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित लैंसडाउन का ऐसा
स्थान है, जहां से शहर की हर चीज़ नज़र आती है, सामने की पहाडी श्रंखला, सीढ़ीदार
खेत, दूर दूर बने घर और बंगले वहाँ से नन्हे मुन्ने से दिखाई देते और उन्हें देख
कर मेरा ‘बाल-मन’ कभी भरता ही नहीं था I वहाँ अक्सर हम तरह - तरह का खाने पीने का सामान बड़ी बड़ी केन बास्केट और बैग में भर कर ले जाते और सुबह से शाम तक पिकनिक मनाते I बाकायदा चाय से
लेकर गरम - गरम पुलाव वगैरा खुले आकाश के नीचे हाथों हाथ पत्थरों से बनाए गए
चूल्हे और प्राइमस स्टोव पर बनता और सब खूब
खाते, गाने गाते, अन्त्याक्षरी खेलते, ताश
खेलते I
इसी
तरह लैंसडाउन का दूसरा दर्शनीय स्थल है, ‘स्नो व्यू’ I वह भी ऊंचाई शहर की ऐसी जगह पर स्थित है, जहाँ से हिमालयन
रेंज, चौखम्भा, नंदा देवी, नीलकंठ की चोटियाँ स्टैंड पर फिक्स लंबी सी दूरबीन से
साफ़ देखी जा सकती है I
‘शहर के एक ओर ऊचाई
पर दूर एक मंदिर हुआ करता था जो आज भी है, जिसकी दो-तीन छोटी-बड़ी चोटियाँ
नीचे शहर से दिखती थी I वहाँ शिवरात्री
पर हमेशा मैं ‘बीबी’ (मेरी माँ) के साथ जाती थी I सुना है कि मंदिर
आज भी बहुत ही प्यारा और साफ-सुथरा है I वहाँ की
निस्तब्धता, धूप - अगरबत्तियों की सुगंध, घंटियों
की मधुर गुंजार, मंद-मंद बहती सर्द हवा, चारों ओर नज़र आती नीली पहाडियां और घाटियाँ उसे और भी अलौकिक बना देती
हैं I
लैंसडाउन से जयहरीखाल गाँव को जाने वाली सड़क पर, ‘सेंटमैरी
चर्च’ है, जो अपने में अपूर्व शान्ति समेटे ऐसा खामोश खड़ा दीखता था जैसे
साक्षात येशू ही उसमें उतर आए हों I यह आज
भी ज्यों का त्यों विद्यमान है I इस चर्च में कई
बार सोलोमन आंटी (मेरी माँ की सहेली) के साथ मैं रविवार को प्रार्थना में शरीक
होने जाया करती थी I चर्च के एक ओर, यानी सड़क के पार, थके राहगीरों के बैठने के लिए,अंग्रेजों के जमाने की पत्थर की
बेंच बनी हुई थी, जिस पर शेड लगा हुआ था I शाम को उस सड़क पर
घूमने जाने वाले उस बेंच पर जमे रहते और वहाँ से ख़ूबसूरत नज़ारे का लुत्फ़ उठाते हुए महवियत से प्रकृति को
देखते रहते I इस चर्च के ठीक सामने ऊपर की ओर कच्ची पगडंडी रिटायर्ड डिप्टी कलक्टर नेगी के
बंगले पर जाती थी I उनके घर हम अक्सर ही डिनर व लंच पर
जाते, बड़े लोग गप्पे मारते बैठे रहते और हम बच्चे बाहर खुली, फूलों से भरी जगह में
बंगले के चारों ओर दौड़ते-खेलते रहते।
लैंसडाउन के ‘परेड ग्राउंड’
में खेलकूद कार्यक्रमों व सैनिकों की परेड के समय ‘दर्शक दीर्घा’ की
तरह उपयोग की जाने वाली लम्बाई और चौड़ाई में फैलाव के साथ बनी, हमेशा स्वच्छ और धुली धुली रहने वाली सीढियों के ऊपर
की ओर ‘वार मेमोरियल’ बना हुआ है, जिसे वहाँ आने वाले सैलानी जब देखने आते है,
तो वहाँ फूल अवश्य चढाते है I
‘एवटाबाद‘ बंगले से कुछ ही
दूरी पर हट के, एक सड़क पहाड़ों में लहराती हुई,
‘सेंटमैरी चर्च’
से गुज़रती हुई, जयहरीखाल गाँव को जाती है I यह सड़क ‘ठंडी सड़क’ के नाम से मशहूर है I क्योंकि शहर से अलग ठन्डे पहाड़ों और सुखद हरियाली के बीच में बनी यह सड़क
वाकई हर मौसम में ठंडक से भरी रहती है I इस सड़क पर ही नजीबाबाद, कोटद्वार, दुगड्डा, पौडी, अल्मोडा, श्रीनगर से
आने-जाने वाली बसे गुज़रती हैं I मई-जून की गुनगुनी गरमी में लोग इस
‘ठंडी सड़क’ पर हमेशा से शाम को ऐसे टहलने जाते जैसे कि उन्हें वहाँ से खास ठंडक अपने में भर कर लानी हो I जबकि उस ज़माने में ‘लैंसडाउन’ गरमी के दो
महीने में भी विशेष गर्म नहीं होता था I मुश्किल से २५ डिग्री तापमान रहता था I लेकिन वहाँ के निवासियों के लिए दस महीने कडाके
की सर्दी में समय गुजारने की आदत के कारण, मई-जून की थोड़ी सी भी गरमी ‘बहुत’ होती थी और आज
भी यही हाल है ।
इन स्थलों के अलावा कुछ वर्ष पूर्व लैंसडाउन में ‘बुल्ला लेक’ और ‘लेक
पार्क’ भी बन गया है जहां पर्यटक बोटिंग
करते हैं, और प्रकृति की गोद में जी भर कर
समय गुज़ारते हैं I
आज भी जब मुझे, मेरे बचपन का ‘दोस्त
शहर’ लैंसडाउन याद आता है तो लगता है जैसे किसी शहर को नहीं बल्कि अपनत्व से भरे किसी
आत्मीय जन को याद कर रही हूँ I दिलो-दिमाग पर लैंसडाउन की अमिट छाप, मेरे अंतर्मन की
वह बेशकीमती पूंजी है, जो मुझे उदास और अवसाद के पलों में भी ऊर्जा
और प्रफुल्लता से भर देती है, मेरे निढाल तन-मन
में प्राण फूंक देती है I मैं कल्पना के पंखों पे सवार हो कुछ पल के लिए इस धरती पर बसे ‘जन्नत के
टुकड़े ’’लैंसडाउन’’ के गले लगकर, उसकी गोद में समा जाती
हूँ और उसकी महक व खूबसूरती को मन में समेट कर ताज़गी से भर उठती
हूँ I
..................ooo...................
इस पोस्ट को बुकमार्क करके रख लिया है , काफ़ी समय से यहां जाने की योजना बन रही है , जाने से पहले इसका प्रिंट आऊट लेता जाऊंगा , बडे ही रोचक अंदाज़ में बयां किया आपने
जवाब देंहटाएंमैडम आपने जो कुछ भी कहा अगर वो भारत के किसी हिस्से की तारीफ में है तो ठीक है पर लेंसडाउन जो की एक अंग्रेज अफसर के नाम पर है मुझे बहुत बुरा लगा की आज भी हम उन अंग्रेजो के नाम पर अपने शहर के नाम को संबोधित करते है मुझे गर्व है जिन्होंने अंग्रेजो के नाम की जगह भारतीय नाम में परिवर्तन कर देश प्रेम को बढ़ावा दिया है जय मद्रास को चेन्नई और वि टी को सी एस टी (छत्रपति शिवाजी टर्मिनस ) का नाम दिया अगर आप इसकी तारीफ करने की बजाये इसका नाम किसी भारतीय शहीद के नाम पर रखने के लिए कार्य करे तो सभी देश वासियों को आप पर गर्व होगा .. जय हिंद जय भारत वन्दे मातरम
जवाब देंहटाएंस्वतंत्र भारत मेंभी जगह,शहर ब्रिटिश- काल के ही होना दिल दुखा देता है.मैकाले के प्रेत ने अभी भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा है.रावण के आकार,प्राकारकी तरह यह भी बढ़ा चढ़ा जा रहा है.लगता है गोरे अंग्रेजों का सपना , काले अंग्रेज अवश्य पूरा करेंगे.केम्ब्रिज ,ऑक्सफोर्ड तो वैसे भी देश के गली मोहल्ले में कुकुरमुत्ते की तरह पनप रहे हैं.संसद और सरकार में भी ज्यादातर अंग्रेजों की ही भरमार है.यह देखते हुए क्या इन अंग्रेजी नामों से देश को मुक्ति मिलेगी,शायद अभी तो नहीं.
जवाब देंहटाएंस्वाभिमानी स्वदेशी जी क्यों न एस भी सोचें की विदेशी तो मुग़ल , पठान और अन्य मुस्लमान शासक भी थे तो हमें उनके नामों का भी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, परन्तु यदि इन नामों को इतिहास मैं जगह मिल गयी है तो अब बदलना इतना आसान नहीं क्यों की लैंसडौन नाम ही अंग्रेजी है सबसे पहले तो यही बदलना होगा उसके बाद बाकि की जगहों के नाम बदलना आसान होगा l
जवाब देंहटाएंस्वाभिमानी स्वदेशी जी क्यों न एस भी सोचें की विदेशी तो मुग़ल , पठान और अन्य मुस्लमान शासक भी थे तो हमें उनके नामों का भी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, परन्तु यदि इन नामों को इतिहास मैं जगह मिल गयी है तो अब बदलना इतना आसान नहीं क्यों की लैंसडौन नाम ही अंग्रेजी है सबसे पहले तो यही बदलना होगा उसके बाद बाकि की जगहों के नाम बदलना आसान होगा l
जवाब देंहटाएंस्वाभिमानी स्वदेशी जी क्यों न एस भी सोचें की विदेशी तो मुग़ल , पठान और अन्य मुस्लमान शासक भी थे तो हमें उनके नामों का भी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, परन्तु यदि इन नामों को इतिहास मैं जगह मिल गयी है तो अब बदलना इतना आसान नहीं क्यों की लैंसडौन नाम ही अंग्रेजी है सबसे पहले तो यही बदलना होगा उसके बाद बाकि की जगहों के नाम बदलना आसान होगा l
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