भारत के बड़े दोस्त थे रब्बानी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति प्रो. बुरहानुद्दीन रब्बानी की हत्या से अफगानिस्तान में चल रहे शांति-प्रयासों को गहरा धक्का लगेगा। वे अफगानिस्तान के सबसे बड़े नेताओं में से एक थे। वे सिर्फ राष्ट्रपति ही नहीं रहे, उन्होंने लगभग 20 साल तक मुजाहिदीन-संघर्ष का भी नेतृत्व किया था। वे पठान नहीं थे। वे ताज़िक थे, फारसीभाषी थे और उनका जन्म बदख्शान में हुआ था, जो पामीर पहाड़ों का घर है। उसे दुनिया की छत भी कहा जाता है।
इस समय वे अफगानिस्तान की उच्च शांति समिति के अध्यक्ष थे। उनके नेतृत्व में ही अफगानिस्तान की सबसे कठिन समस्या का समाधान खोजा जा रहा था। यह रब्बानी साहब के शानदार व्यक्तित्व का ही कमाल था कि उनके नाम पर अफगानिस्तान के सभी नेता और अमेरिका, पाकिस्तान व ईरान आदि सभी देश सहमत थे। तालिबान से बात करने के लिए सबसे उपयुक्त नेता वही थे। उनकी हत्या इसीलिए हुई है कि बड़े-बड़े तालिबान नेताओं की दुकानें रब्बानी साहब की वजह से बंद होने लगी थीं।
प्रो. रब्बानी ताज़िक थे और तालिबान गिलजई पठान हैं, फिर भी उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारी इसीलिए सौंपी गई थी कि वे स्वभाव से विनम्र, मृदुभाषी और अच्छे मुसलमान थे। उनके नेतृत्व की सफलता का प्रमाण यही है कि उनकी शांति समिति में अनेक पूर्व तालिबान नेता सहर्ष शामिल हो गए थे, जिनमें अब्दुल हकीम मुजाहिद प्रमुख हैं। मुजाहिद वाशिंगटन में तालिबान के अनौपचारिक लेकिन वास्तविक राजदूत हुआ करते थे।
प्रो. रब्बानी का व्यक्तित्व इतना सर्वस्वीकार्य था कि सत्ता में न रहते हुए भी वे काबुल में सत्ता के समानांतर केंद्र बने हुए थे। यों तो वे जमीयते-इस्लामी नामक पार्टी के अध्यक्ष थे लेकिन पिछले कई वर्षों से अफगानिस्तान के लगभग सभी प्रमुख दलों के संगठन ‘राष्ट्रीय मोर्चा’ (जब्हे-मिल्ली) के भी वे ही अध्यक्ष थे। अफगानिस्तान में बाकायदा राजनीतिक दल नहीं हैं, भारत की तरह। लेकिन अनेक संगठन दलों की तरह काम करते हैं। इन संगठनों के नेताओं में अनेक मुजाहिदीन कमांडर, कई पश्तो, ताजिक, उजबेक और हजारा नेता और कई पुराने कम्युनिस्ट नेता भी शामिल हैं। वजीर अकबर खान नामक मशहूर बस्ती में बने प्रो. रब्बानी के मकान में इन नेताओं के साथ बातचीत करने और उन्हें संबोधित करने के अवसर मुझे भी कई बार मिले हैं। राष्ट्रपति हामिद करजई से असंतुष्ट रहनेवाले सभी नेता प्रो. रब्बानी की शरण में पहुँच जाते थे लेकिन उन्होंने करजई के लिए कभी कोई सीधा खतरा खड़ा नहीं किया।
प्रो. रब्बानी के इतने अहिंसक व्यक्तित्व के बावजूद तालिबान के प्रति सहानुभूति रखनेवाले पठान यह मानते थे कि अगर तालिबान को मुख्यधारा में जोड़ने में रब्बानी सफल हो गए तो अफगानिस्तान की राजगद्दी एक बार फिर पठानों के हाथ से खिसक जाएगी। रब्बानी साहब जैसा कोई ताजिक दुबारा राष्ट्रपति बन जाएगा। इस अर्थ में इस समय जो हत्या हुई है, वह एक पूर्व राष्ट्रपति की तो है ही, वह अफगानिस्तान के भावी राष्ट्रपति की भी है। मेरी यह व्याख्या इसलिए भी तर्क संगत है कि हामिद करजई ने अगला चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर दी है।
रब्बानी की हत्या इतनी गंभीर घटना है कि करज़ई को संयुक्तराष्ट्र का अपना कार्यक्रम स्थगित करके काबुल आना पड़ा है। रब्बानी और करज़ई के आपसी संबंध काफी गरिमापूर्ण रहे हैं, यह दोनों ने ही मुझे कई खास मौकों पर कहकर और करके बताया है। रब्बानी के बेटे सलाहुद्दीन को भी अभी कुछ माह पहले ही करजई ने तुर्की में राजदूत नियुक्त किया है। इसके बावजूद काबुल के अनेक लोग रब्बानी की हत्या का दोष करजई के माथे मढ़ने की फूहड़ कोशिश करेंगे। इस सारी घटना को वे जातीय चश्मे से देखनें और दिखाने की कोशिश करेंगे। इन प्रयासों का परिणाम भयंकर हो सकता है। पठानों और ताज़िकों में दूरियॉं बढ़ सकती हैं। इसका लाभ तालिबान को मिलेगा। पाकिस्तान के उग्रवादी तबके भी खुश होंगे। पाकिस्तानी सरकार ने गहरा शोक व्यक्त किया है लेकिन कौन नहीं जानता कि पगड़ी में बम रखकर रब्बानी की जान लेनेवाला व्यक्ति ब्लूचिस्तान स्थित ‘क्वेटा-शुरा’ का सदस्य था। पाकिस्तान सरकार की अनदेखी के बिना क्या क्वेटा-शूरा या हक्कानी ब्रिगेड एक दिन भी जिन्दा रह सकते हैं?
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के लिए यह कह देना आसान है कि रब्बानी की हत्या के बावजूद तालिबान से बात जारी रहेगी लेकिन ओबामा को अफगानिस्तान के आंतरिक हालात की कितनी समझ है? ओबामा के लिए यह समझना आसान नहीं है कि रब्बानी की हत्या का असर अहमदशाह मसूद की हत्या से भी अधिक गंभीर होगा। मसूद की हत्या तो विदेशियों ने की थी लेकिन रब्बानी की हत्या को देश के एक बड़े वर्ग के साथ जोड़कर देखा जाएगा। सच्ची बात तो यह है कि रब्बानी की हत्या अमेरिका के लिए अब एक नया सिरदर्द खड़ा कर देगी।
प्रो. रब्बानी ने मुजाहिद्दीन नेता के तौर पर लगभग 20 साल पेशावर में बिताए लेकिन पाकिस्तान उन्हें अपना मोहरा नहीं बना सका। मैं उन्हें 1969 से ही जानता था। वे काबुल विश्वविद्यालय में नए-नए लेक्चरर लगे थे। इस्लामी कानून पढ़ाते थे और मैं अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अनुसंधान कर रहा था। जब 1983 में पेशावर में मैं उनसे मिला तो उन्होंने मुझे पहचान लिया और उन्होंने अपने तंबू में मेरी बड़ी आवभगत की। मैं लगभग सभी विश्व-विख्यात मुजाहिदीन नेताओं से मिला और अब तक लगातार मिलता रहता हूँ लेकिन प्रो. रब्बानी के साथ एक खास तरह की आत्मीयता बन गई। 1983 और 1988 में रब्बानी साहब मेरी इस पहल के लिए तैयार हो गए कि काबुल के प्रधानमंत्रियों से बात की जाए, खून-खराबा बंद किया जाए और शांतिपूर्ण समाधान निकाला जाए। पाकिस्तान के घनघोर विरोध के बावजूद इस दिशा में कदम बढ़ानेवाले वे अकेले बड़े मुजाहिदीन नेता थे। मेरा मानना था कि जब तक मुजाहिदीन के सभी नौ संगठनों में एकता नहीं हो जाती, काबुल से बातचीत सफल नहीं होगी। प्रो. रब्बानी ने आगे होकर गुलबदीन हिकमतयार से बात की। अन्य नेताओं से भी। उन्होंने मेरे निवेदन को माना और सभी मुजाहिद्दीन नेताओं से व्यक्तिगत अपील की कि वे इंदिरा गांधी और बाद में राजीव गांधी को गालियॉं देना बंद करें। उसका असर भी हुआ।
कई बार में सोचता हूँ कि रब्बानी साहब ताजिक नहीं होते और पठान होते तथा बदख्शान में नहीं, कुणार या कंधार में पैदा हुए होते तो क्या अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच अराजकता का दौर इतना लंबा चलता? किसी तगड़े पठान बादशाह की तरह वे सख्ती से काम लेते तो क्या तालिबान उनका तख्ता उलट पाते? क्या पाकिस्तान उनके खिलाफ सफल हो पाता ?
यों तो प्रो. रब्बानी के मुजाहिद साथियों में से अभी सिबगतुल्लाह मुजद्ददी, पीर गैलानी और सय्याफ जिंदा हैं और काबुल में उनका सम्मान भी काफी है लेकिन रब्बानी का विकल्प खोजना आसान नहीं है। जुलाई में प्रो0 रब्बानी जब दिल्ली आए थे तो 16 जुलाई को वे और मैं पूरे दिन साथ रहे। यह उनकी दूसरी भारत-यात्रा थी लेकिन इसके पहले भी एक बार उन्होंने भारत की गुप्त-यात्रा की थी। वे भारत के अभिन्न मित्रों में से थे। पाकिस्तान समर्थित तालिबान से लड़ने के लिए रब्बानी साहब ने जो ‘नार्दन एलायंस’ बनाया था, उसे हमारा पूरा समर्थन था। पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के लोगों को गुमराह करने के लिए यह झूठ फैला दिया था कि अफगानिस्तान के सारे पठान पाकिस्तान के साथ हैं और रब्बानी के नेतृत्व में सारे गैर-पठान ईरान और भारत के साथ हैं। भारत ने अफगानिस्तान की एकता को सदा सर्वोपरि माना है। उसने प्रो. रब्बानी जैसे ताजिक को अपना मित्र माना तो करजई जैसे पठान को अत्यंत विशिष्ट महत्व दिया है।
अफगानिस्तान की इस राष्ट्रीय शोक की घड़ी में भारत उसके साथ है।
(लेखक, अफगान मामले के प्रख्यात विशेषज्ञ हैं। प्रो. रब्बानी और लेखक अब से 42 साल पहले काबुल विश्वविद्यालय में एक साथ काम करते थे)
21 सितंबर 2011
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जानकारी भरे लेख के लिए शुक्रिया ! कई बाते चौंकाने वाली रहीं जिनके बारे में कोई जानकारी नहीं थी !
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
बेशक अमेरिका को इस हत्या कांड को कम करके नहीं आंकना चाहिए.
जवाब देंहटाएंऔर भारत के लिए तो एक आत्मीय का कम होना चिंता का सबब होगा ही.
जब भी कोई शांति का रास्ता सुझाने सामने आएगा ये आतंकवादी उसे रास्ते का कांटा समझेंगे। परंतु उन्हें यह याद रकना होगा कि यही कांटों का रक्त एक दिन उनका काल बनेगा॥
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