हिंदी दिवस पर विशेष
हिंदी
भाषा : विकास के विविध आयाम
-ऋषभदेव शर्मा
आपको मालूम ही है कि ‘हिंदी’ शब्द
के
कई
अर्थ
प्रचलित
रहे
हैं. इसका
सबसे
सही
और
व्यापक
अर्थ
है
भारतीय.
जो
कुछ
भी
भारतीय
था
एक
ज़माने
में
अभारतीयों
द्वारा
उसे
हिंदी
कहा
जाता
था
और
इसी
का
एक
पहलू
यह
कि
यह
शब्द
सभी
भारतीय
भाषाओं
का
द्योतक
था.
कालान्तर
में
यह
उस
क्षेत्र
की
५
उपभाषाओं
और
१७
बोलियों
का
सामूहिक
नाम
बन
गया
जिसे
आज
हिंदीभाषी
या
क
क्षेत्र
कहते
हैं.
साहित्य
में
आज
भी
यही
अर्थ
व्यवहृत
है;
लेकिन
राजभाषा
के
रूप
में
स्वीकृत
होने
पर
इसका
अर्थ
केवल
कौरवी
या
खड़ी
बोली
के
परिनिष्ठित
रूप
तक
सिमट
गया.
आज
जब
भारतवर्ष
धर्म,
क्षेत्र,
भाषा,
जाति
और
नस्ल
के
नाम
पर
टुकड़े-टुकड़े
होने
की ओर
अग्रसर
है;
यह
याद
रखना
ज़रूरी
है
कि
मूलतः
हिंदी
शब्द धर्म,
भाषा,
जाति
और
नस्ल
से
परे
समग्र
भारतीयता
का
वाचक
है.
यदि साहित्य के
इतिहास
में
मान्यता
प्राप्त
अर्थ
की
बात
करें
तो
कहा
जा
सकता
है
हिंदी
भाषा
ने
अपनी
हजार
साल
से
ज्यादा
की
यात्रा
में
अभी
तक
अनेक
पड़ाव
पार
किए
हैं, उतार-चढाव देखे हैं. उसकी इस विकास यात्रा की एक बड़ी विशेषता यह रही है कि वह
सदा जन की ओर प्रवाहित होती रही है. चाहे बोलियों और भाषाओँ के बीच संपर्क की बात
हो, या व्यापार-वाणिज्य और ज्ञान-विज्ञान से लेकर धर्म-अध्यात्म और राष्ट्रीयता की
चेतना के अखिल भारतीय प्रसार की बात हो अथवा दक्षिण एशिया के लोगों के आपसी
वार्तालाप की बात हो या फिर विश्व भर में फैले भारतवंशियों की भारतीय पहचान की बात
हो – हिंदी इन सारी भूमिकाओं को बखूबी निभाती आई है, निभा रही है क्योंकि उसमें जन
से जुड़ने की अद्भुत शक्ति विद्यमान है जो उसके लचीलेपन के रूप में सामने आती है.
अपनी जनशक्ति के कारण ही
इस भाषा ने लंबी चर्चा के बाद स्वतंत्र भारत-संघ
की राजभाषा का स्थान प्राप्त किया.इसमें संदेह नहीं कि भारतीय संविधान
द्वारा प्रस्तुत भाषा-नीति ‘संघीय, लोकतांत्रिक, संतुलित, समावेशी और
भाषा-निरपेक्ष’ है जिसमें सभी भारतीय भाषाओं के विकास की संभावनाओं का पूरा ख़याल
रखा गया है. १४ सितम्बर १९४९ को भाषा सम्बन्धी प्रावधानों को संविधान सभा ने
स्वीकृत किया था और यह तय किया गया था कि १५ वर्ष के भीतर हिंदी को व्यवहारतः उसका
संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए आवश्यक प्रयास किए जाएंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं;
इसलिए हिन्दी
को
हर
क्षेत्र
में
प्रसारित
करने
के
लिए राष्ट्रभाषा
प्रचार समिति, वर्धा ने सन्
१९५३
से
संपूर्ण
भारत
में
१४
सितंबर
को
प्रतिवर्ष
हिन्दी-दिवस
के
रूप
में
मनाना शुरू किया. आगे चलकर केंद्र सरकार ने इसे सरकारी
कार्यालयों के लिए एक अनिवार्य आयोजन का रूप दे दिया. संविधान लागू होने के १५
वर्ष पूरे होने को आते ही कुछ प्रान्तों में भाषाई राजनीति का ऐसा उबाल आया कि
हिंदी के साथ अंग्रेजी को सह-राजभाषा बना दिया गया और हिंदी का विरोध करने वाले
राज्यों की सहमति की अनिवार्यता के कारण हिंदी के व्यावहारिक रूप में भारत संघ की
राजभाषा बनने की संभावनाओं पर पानी फिर गया. इसलिए हिंदी दिवस के बहाने भाषा-चेतना
जगाना आज केवल सरकारी कार्यालयों का कर्मकांड भर नहीं, एक राष्ट्रीय आवश्यकता है.
14 सितंबर को
जब-जब हम हिंदी दिवस मनाएँ तो भारत के संविधान के अनुच्छेद-343 से
अनुच्छेद-351 तथा
अनुसूची-8 के
प्रावधानों
का
तो
खयाल
रखें
ही,
यह
भी
खयाल
रखें
कि
राजभाषा
की
यह
सारी
व्यवस्था
भारत
की
जातीय
अस्मिता
और
सांस्कृतिक
विरासत
को
अक्षुण्ण
बनाए
रखने
तथा
विकसित
करने
के
उद्देश्य
से
की
गई
है।
इसे
केवल
सरकारी
कामकाज
की
भाषा
तक
सीमित
रखना
उचित
नहीं
होगा।
बल्कि
सच
तो
यह
है
कि
अनुच्छेद-351 के
निर्देश
के
अनुरूप
हिंदी
का
सामासिक
स्वरूप
राजभाषा
की
अपेक्षा
व्यापक
जनसंपर्क,
शिक्षा , साहित्य, मीडिया, वाणिज्य, व्यवसाय, ज्ञान विज्ञान और तकनीकी की भाषा के रूप में उसके व्यापक व्यवहार द्वारा ही
संभव है. विभिन्न संवैधानिक संस्थाओं के माध्यम से यह माँग उठनी चाहिए कि हिंदी का
जो संवैधानिक
अधिकार
लंबे
अरसे
से
लंबिंत
या
स्थगित
पड़ा
है,
उसे
तुरंत
बहाल
किया
जाए। ज़रूरी हो तो इसके लिए न्यायालय की भी शरण में जाया जा
सकता है. यदि हिंदी को यह स्थान मिल जाएगा तो सभी
भारतीय
भाषाओं
को
इससे
बल
मिलेगा
तथा
परस्पर
अनुवाद
द्वारा
उनके
माध्यम
से
हिंदी
भी
बल
प्राप्त
करेगी।
मौलिक लेखन के साथ-साथ व्यापक स्तर पर अनुवाद को अपना कर
हिंदी को भूमंडलीय ज्ञान की
खिड़की
बनाया
जा
सकता
है,
अत: इस दिशा में भी ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत
है। तभी हिंदी का वह सामासिक और वैश्विक स्वरूप उभर सकेगा जो भारत ही नहीं, दुनिया
भर
के
किसी
भी
भाषाभाषी को बरबस अपनी ओर खींच लेगा.
बहुभाषिकता की
दृष्टि
से
भारत
संभवतः
विश्व
भर
में
सर्वाधिक
विविधताओं
और
विचित्रताओं
वाला
देश
है।
हजारों
मातृभाषाएँ
यहाँ
हजारों
साल
से
बोली
जाती
हैं।
भिन्न
भाषा
भाषियों
के
बीच
परस्पर
संवाद
के
लिए अलग-अलग संदर्भों में कई भाषाएँ संपर्क भाषा का काम
करती हैं. भारत की
जिस
धार्मिक
और
सांस्कृतिक
एकता
की
प्रायः
चर्चा
की
जाती
है
उसका
आधार
संभवतः
ऐसी
संपर्क
भाषा
रही
होगी
जिसके
माध्यम
से
देश
भर
में
पर्यटन,
तीर्थाटन
और व्यापार-व्यवसाय करने वाले परस्पर विचार-विनिमय करते रहे
होंगे. प्राचीन भारत में यह भूमिका संस्कृत ने निभाई और आधुनिक भारत में यह काम हिंदी कर रही है.यह
भी देखा जा सकता है कि जब-जब भारत में कोई
धार्मिक , सामाजिक,
राजनैतिक आंदोलन खड़ा हुआ या किसी लोकनायक
ने
संपूर्ण
देश
को
एक
साथ
संबोधित
करना
चाहा,
तब-तब उन आंदोलनों -और लोकनायकों ने उस काल की संपर्क भाषा को अपनाया। यही आवश्यकता 19वीं-20वीं
शताब्दी
में
स्वतंत्रता
आंदोलन
के
नायकों
ने
अनुभव
की
और
निर्विवाद
रूप
से
हिंदी
को
व्यापक
जनसंपर्क
के
लिए
सर्वाधिक
समर्थ
भाषा
के
रूप
में
पाया
और
स्वीकार
किया।
महात्मा
गाँधी
और
उनके
समकालीनों
ने
इसीलिए
हिंदी
को
राष्ट्रभाषा
के
रूप
में
प्रतिष्ठा
प्रदान
की।
राजभाषा के रूप में भी हिंदी की प्रतिष्ठा का यही आधार रहा.
इसलिए यह आवश्यक है कि हम हिंदी के प्रयोक्ता आपने दैनंदिन व्यवहार से लेकर
औपचारिक अवसरों तक पर सर्वत्र हिंदी के व्यवहार को व्यापकतर बनाएँ ताकि उसकी
सर्वग्राह्यता बढ़ती रह सके.
स्मरणीय है कि बहुभाषिक समाज
में
किसी
भाषा
का
संप्रेषण
घनत्व
सर्वत्र
एक
जैसा
नहीं
होता
बल्कि
एक
भाषा
क्षेत्र
से
दूसरे
भाषा
क्षेत्र
के
संपर्क
में
आने
के
क्षितिजों
पर
वह
काफी
बदलता
है।
फिर
भी
भारतीय
भाषाओं
के
दो
मुख्य
परिवारों
[इस विषय पर पुनर्विचार अपेक्षित है कि भाषाओँ का
आर्य-द्रविड के रूप में नस्ली बंटवारा कितना यथार्थ है और किता मिथ्या!] के जो
अनेक
रूप
उत्तर
और
दक्षिण
में
प्रचलित
हैं,
भाषा
संपर्क
की
प्रक्रिया
में
उनके
बीच
काफी
लेन-देन होता रहा है। इतना ही नहीं, दोनों
वर्गों
में
संस्कृत
से
आए अर्थात समस्रोतीय शब्दों का प्रतिशत बहुत बड़ा है
समस्रोतीय शब्दों का यह प्राचुर्य यह स्थापित करने के लिए पर्याप्त हो सकता है
कि मूलतः आर्य और
द्रविड
भाषाएँ
सजातीय
हैं।
इस
सजातीयता
का
एक
प्रमाण
इन
सारी
भाषाओं
में
वर्णमाला
की
लगभग
समरूपता
में
निहित
है।
तमिल
जैसी
सबसे
छोटी
वर्णमाला
में
भी
हिंदी
की
भाँति
ही
स्वर
और
व्यंजन
समान
क्रम
में
हैं
तथा
व्यंजनों
को
क,
च,
ट,
त,
प
वर्गों
के
क्रम
में
रखा
गया है – भले ही चार-चार ध्वनियों के लिए एक लिपि-चिह्न हो.
आधारभूत शब्दावली और वर्णक्रम की यह समानता राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि का सुदृढ़
आधार है – सबकी अपनी भाषाओं और लिपियों के समानांतर! राष्ट्रीयता की
भावना
से
प्रेरित भारतीय
जनता
व्यापक
संपर्क
की
इन
प्रणालियों [संपर्क भाषा और संपर्क लिपि] को सहजतापूर्वक
स्वीकार कर सकती है.
आज इक्कीसवीं शताब्दी की
भूमंडलीकृत दुनिया में यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण हो गया है कि भारत दुनियाभर
के
उत्पाद
निर्माताओं
के
लिए
एक
बड़ा
ख़रीदार
और
उपभोक्ता
बाज़ार
है।
बेशक,
हमारे
पास
भी
अपने
काफ़ी
उत्पाद
हैं
और
हम
भी
उन्हें
बदले
में
दुनियाभर
के
बाज़ार
में
उतार
रहे
हैं
क्योंकि
बाज़ार
केवल
ख़रीदने
की
ही
नहीं,
बेचने
की
भी
जगह
होता
है।
इस
क्रय-विक्रय की अंतर्राष्ट्रीय वेला में संचार माध्यमों
का केन्द्रीय महत्व है क्योंकि वे ही उपभोक्ता के मन
में किसी उत्पाद को खरीदने की ललक पैदा करते हैं. यही कारण
है कि आज बाज़ार से लेकर विचार तक भूमंडलीकृत मंडी की भाषा का
प्रसार
हो
रहा
है
तथा
मातृबोलियाँ
सिकुड़
और
मर
रही
हैं। आज
के
इस भाषा
संकट
को
इस
रूप
में
भी देखा
जा
रहा
है
कि
भारतीय
भाषाओं
के
समक्ष
उच्चरित
रूप
भर
बनकर
रह
जाने
का
ख़तरा
उपस्थित
है
क्योंकि
संप्रेषण
का
सबसे
महत्वपूर्ण
उत्तरआधुनिक
माध्यम
टी.वी अपने विज्ञापनों से लेकर
करोड़पति
बनाने
वाले
अतिशय
लोकप्रिय
कार्यक्रमों
तक
में
हिंदी
में
बोलता
भर
है,
लिखता
अंग्रेज़ी
में
ही
है।
इसके
बावजूद
यह
सच
है
कि
इसी
माध्यम
के
सहारे
हिंदी
अखिल
भारतीय
ही
नहीं
बल्कि
वैश्विक
विस्तार
के
नए
आयाम
छू
रही
है।
विज्ञापनों
की
भाषा
और
प्रोमोशन
वीडियो
की
भाषा
के
रूप
में
सामने
आनेवाली
हिंदी
शुद्धतावादियों को
भले
ही
न
पच
रही
हो,
युवा
वर्ग
ने
उसे
देश
भर
में
अपने
सक्रिय
भाषाकोश में
शामिल
कर
लिया
है।
इसे
हिंदी
के
संदर्भ
में
संचार
माध्यम
की
बड़ी
देन
कहा
जा
सकता
है। अपनी समावेशी प्रवृत्ति के कारण हिंदी इस तरह अपनी
स्वीकार्यता का विस्तार करती दिखाई दे रही है. यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि
भाषा-मिश्रण भाषा-विकास का एक चरण भर है, इससे आतंकित होना उचित नहीं. बल्कि हमें
खुश होना चाहिए कि हमारी भाषा में नए-नए वैविध्य संभव हो प् रहे हैं. ध्यान दें तो
पता चलेगा कि जहां एक तरफ
साहित्य-लेखन
की
भाषा
आज
भी
संस्कृतनिष्ठ
बनी
हुई
है
वहीं दूसरी
तरफ़
संचार
माध्यम
की
भाषा
ने
जनभाषा
का
रूप
धारण
करके
व्यापक
जन
स्वीकृति
प्राप्त
की
है।
समाचार
विश्लेषण
तक में
कोडमिश्रित
हिंदी
का
प्रयोग
इसका
प्रमुख
उदाहरण
है।
इसी
प्रकार
पौराणिक,
ऐतिहासिक,
राजनैतिक,
पारिवारिक,
जासूसी,
वैज्ञानिक
और
हास्यप्रधान
अनेक
प्रकार
के
धारावाहिकों
का
प्रदर्शन
विभिन्न
चैनलों
पर
जिस
हिंदी
में
किया
जा
रहा
है
वह
एकरूपी
और
एकरस
नहीं
है
बल्कि
विषय
के
अनुरूप
उसमें
अनेक
प्रकार
के
व्यावहारिक
भाषा
रूपों
या
कोडों
का
मिश्रण
उसे
सहज
जनस्वीकृत
स्वरूप
प्रदान
कर
रहा
है।
एक
वाक्य
में
कहा
जा
सकता
है
कि
संचार
माध्यमों
के
कारण
हिंदी
भाषा
बड़ी
तेज़ी
से
तत्समता
से
सरलीकरण
की
ओर
जा
रही
है। इससे
उसे
अखिल
भारतीय
ही
नहीं,
वैश्विक
स्वीकृति
प्राप्त
हो
रही
है। स्वतंत्रता प्राप्ति
के
समय
तक
हिंदी
दुनिया
में
तीसरी
सर्वाधिक
बोली
जाने
वाली
भाषा
थी
परंतु
आज
स्थिति
यह
है
कि
वह
दूसरी
सर्वाधिक
बोली
जाने
वाली
भाषा
बन
गई
है
तथा
यदि
हिंदी
जानने-समझने वाले हिंदीतरभाषी देशी-विदेशी हिंदी-भाषा-प्रयोक्ताओं को भी जोड़ लिया जाए तो हिदी विश्व
की प्रथम सर्वाधिक व्यवहृत भाषा
सिद्ध
होगी।
हिंदी
के
इस
वैश्विक
विस्तार
का
बड़ा
श्रेय
भूमंडलीकरण
और
संचार
माध्यमों
के
विस्तार
को
जाता
है।
यह
कहना
ग़लत
न
होगा
कि
संचार
माध्यमों
ने
हिंदी
के
जिस
विविधतापूर्ण
सर्वसमर्थ
नए
रूप
का
विकास
किया
है,
उसने
भाषासमृद्ध
समाज
के
साथ –साथ भाषा-वंचित समाज के सदस्यों को
भी
वैश्विक
संदर्भों
से
जोड़ने
का
काम
किया
है।
यह
नई
हिंदी
कुछ
प्रतिशत
अभिजात
वर्ग
के
दिमाग़ी
शगल
की
भाषा
नहीं
बल्कि
अनेकानेक
बोलियों
में
व्यक्त
होने
वाले
ग्रामीण
भारत
की
नई
संपर्क
भाषा
है।
इस
भारत
तक
पहुँचने
के
लिए
बड़ी
से
बड़ी
बहुराष्ट्रीय
कंपनियों
को
भी
हिंदी
और
भारतीय
भाषाओं
का
सहारा
लेना
पड़
रहा
है।
मीडिया की भाषा
और
साहित्य
की
भाषा
की
तुलना
करने
से
पहले
यह
जानना
जरूरी
है
कि
हमारा भाषा-प्रयोग इस बात पर
निर्भर
करता
है
कि
हम
किसे
संबोधित
कर
रहें
हैं|
जब
तक
साहित्य
और
इलेक्ट्रानिक
माडिया
का
लक्ष्य
पाठक/श्रोता/दर्शक अलग-अलग रहेगा तब तक उनकी भाषा
भी
अलग
अलग
रहेगी|
साहित्य
की
अपेक्षा
टीवी,
सिनेमा
और
इन्टरनेट
के
लेखक
के
सामने
अपेक्षाकृत
अधिक
बड़ा
और
वैविध्यपूर्ण
प्रयोक्ता
समाज
होता
है
जिसके
लिए
इन
माध्यमों
को
तदनुरूप
भाषा
रूपों
का
गठन करना
पड़ता
है|
जब
मीडिया
ऐसा
करता
है
तो
शुद्धतावादियों को
यह
लगने
लगता
है
कि
उनकी
भाषा
को
बिगाड़ा
जा
रहा
है|
यहाँ यह विचारणीय है कि
किस
माध्यम
का
लक्ष्य
प्रयोक्ता
या
उपभोक्ता कौन
है|
जैसे
जैसे
यह
उपभोक्ता
समाज
बढता
जाता
है
इसके
संस्तर
भी
बढते
जाते
हैं
– अशिक्षित से लेकर उच्च शिक्षित तक और एक्बोलिभाशी से लेकर
बहुभाषाभाषी तक.| इसीलिए तरह
तरह
के
भाषा
वैविध्य
सामने
आते
हैं|
इसके
अलावा
विषय
और
विधा
के
अनुरूप
भी
मीडिया
की
भाषा
में
वैविध्य
स्वाभाविक
है
– जैसे मनोरंजनप्रधान
कार्यक्रमों की भाषा ठीक वैसी नहीं हो सकती जैसी ज्ञान
और
सूचना
प्रधान
कार्यक्रमों
की
होगी| यह
कहना
कि
मीडिया
भाषा
को
खराब
कर
रहा
है
कतई
गलत
है
क्योंकि
जिसे
आप
खराब
भाषा
कह
रहे
हैं
वह
भी
किसी
वर्ग
विशेष
को
लक्षित
करके
ही
इस्तेमाल
की
जा
रही
है
तथा
उस
वर्ग
के
बीच
सम्प्रेषण
को
संभव
बना
रही
है|
दरअसल
इलेक्ट्रानिक
मीडिया
साहित्य
की
तुलना
में
बहुत
बड़ा
मास
मीडिया
है,
वह
अपेक्षाकृत
अधिक
व्यापक
जन
माध्यम
है
जिसकी
पहुँच
उस
लोक
तक
भी
है
जहां
साहित्य
के
तथाकथित
सूर्य
की
किरणें
कभी नहीं
पहुँच
पातीं|
दरअसल भाषा
की
भ्रष्टता
का
मसला
अपने
अपने
चयन का
मसला
है|
कोई
शुद्ध
भाषा
को
चुनता
है
तो
कोई
भदेस
को|
हाँ,
इस
तथ्य
को
चिंतनीय
माना
जाना
चाहिए
कि
कोई
अखबार
या
चैनल
षड्यंत्रपूर्वक आपकी
भाषा
को
विदेशी
शब्दों
से
अस्वाभाविक
रूप
से
भर
दे|
यदि
इस
तरह
अप्राकृतिक
भाषा
का
प्रयोग
किया जाएगा
तो
धीरे
धीरे
इसके
पाठकों
और
दर्शकों
की
संख्या
घटती
जाएगी|
आप
जानते
हैं
न
कि
कोई
भी
कार्यक्रम
या
चैनल
अपनी
टीआरपी
घटाना
नहीं
चाहता
- फिर भला वह ऐसी भाषा का प्रयोग क्यों करने लगा जो उसके
लक्ष्य दर्शक को अटपटी और अस्वीकार्य लगे|
शुद्ध
या
तथाकथित
साहित्यिक
भाषा
से
परहेज
का
कारण
भी
यही है
कि
उससे
इलेक्ट्रानिक
मीडिया
के
बाजार
पर
कुप्रभाव
पड़ता
है|
बेशक
फ़िल्म
और
टीवी
का
प्रथम
उद्देश्य
बाजार
है
जबकि
साहित्य
का
प्रथम
उद्देश्य
आत्माभिव्यक्ति है|
इसलिए
भी
दोनों
की
भाषा
में
अंतर
दिखाई
देना
स्वाभाविक
है|
इसे
दो
वर्गों
की
लड़ाई
के
रूप
में
देखना
बुद्धिमत्ता नहीं बल्कि राजनैतिक
चालबाजी
है| इसलिए नकली
संघर्ष
या
संकट
की
दुहाई
देने
के
बजाय
यह
इस
बात
पर
विचार
करना
उपयोगी
होगा
कि
साहित्य
और
मीडिया
किस
प्रकार
एक
दूसरे
के
सहयोगी
हो
सकते
हैं|
सहयोगी
हो
भी
रहें
हैं|
जैसे
कि
तमाम
तरह
की
साहित्यिक
कृतियाँ
अब
इन्टरनेट
के
माध्यम
से
उन
तमाम
लोगों
को
भी
उपलब्ध
हो
रही
हैं
जिन्हें
वे
कल
तक
उपलोब्ध
नहीं
थीं|
अमेज़न
के
माध्यम
से
दुनिया
भर
में
इन्टरनेट
के
जरिये
सबसे
अधिक
किताबें
बिक रही
हैं
तो
यह
मीडिया
और साहित्य
की
दुश्मनी
का
नहीं,
दोस्ती
का
प्रतीक
हैं|
दरअसल
आप
जो
भी
लिखते
हैं,
मीडिया
का हर
रूप
उसके
लिए
माध्यम
बनता
है|
इन्टरनेट
ने
आपके
लेखन
को
बरसोंबरस
डायरी
में
कैद
रहने
से
मुक्त
कर
दिया
है
और
प्रकाशकों
के
शोषण
से
बचने
का
भी
रास्ता
निकाला
है|
मैं
तो
कहूँगा
कि
साहित्य
सृजन
और
उसके
प्रकाशन
को
अधिक
जनतांत्रिक
बनाने
में
इन्टरनेट
बड़े
काम
की
चीज़
है|
लिखिए,
प्रकाशित कीजिए,
दुनिया
के
किसी
भी
कोने
में
बैठे
हुए
अपने
पाठक
अथवा
विशेषज्ञ
की
राय
जानिए,
अपने
लेखन
में
संशोधन
और
परिवर्धन
कीजिए,
उसे
मांजिए,
निखारिए
. यह सब पहले इतना सहज नहीं था.| मीडिया को
साहित्य
और भाषा का
शत्रु
बताने
वाले
विद्वान्
ज़रा
'द टेलीग्राफ'
में
प्रकाशित
इस
समाचार
पर
गौर
फरमाएँ
कि
इन्टरनेट
के
कारण
कविता
लेखन
में
भारी
उछाल
आया
है| इस
पोएट्री
बूम
का
श्रेय
इस
तथ्य
को
जाता
है
कि
इन्टरनेट
लेखकों
के
लिए
नए
पाठक
वर्ग
के
दरवाज़े
खोलता
है
.ऑनलाइन सक्रिय अनेक ब्लॉग और
चर्चा
मंच
इसके
साक्षी
हैं|यह भी भाषा-विस्तार का एक पहलू है और इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती क्योंकि
यदि आपकी भाषा को कल जीवित रहना है तो उसे आज पूरी तरह कम्प्युटर-साध्य बनना
पड़ेगा. कहने की ज़रूरत नहीं कि हिंदी इस यात्रा में निरंतर प्रगति कर रही है.
हिंदी के
इस
रूप
विस्तार
के
मूल
में
यह
तथ्य
निहित
है
कि
गतिशीलता
हिंदी
का
बुनियादी
चरित्र
है
और
हिंदी
अपनी
लचीली
प्रकृति
के
कारण
स्वयं
को
सामाजिक
आवश्यकताओं
के
लिए
आसानी
से
बदल
लेती
है।
इसी
कारण
हिंदी
के
अनेक
ऐसे
क्षेत्रीय
रूप
विकसित
हो
गए
हैं
जिन
पर
उन
क्षेत्रों
की
भाषा
का
प्रभाव
साफ़-साफ़ दिखाई देता है। ऐसे अवसरों पर हिंदी व्याकरण और संरचना के प्रति अतिरिक्त
सचेत नहीं रहती बल्कि पूरी सदिच्छा और उदारता के साथ इस
प्रभाव को आत्मसात कर लेती है . यह
प्रवृत्ति हिंदी के
निरंतर
विकास
का
आधार
है
और
जब
तक
यह
प्रवृत्ति
है
तब
तक
हिंदी
का
विकास
रुक
नहीं
सकता।
बाज़ारीकरण
की
अन्य
कितने
भी
कारणों
से
निंदा
की
जा
सकती
हो
लेकिन
यह
मानना
होगा
कि
उसने
हिंदी
के
लिए
अनुकूल
चुनौती
प्रस्तुत
की।
बाज़ारीकरण
ने
आर्थिक
उदारीकरण,
सूचनाक्रांति
तथा
जीवनशैली
के
वैश्वीकरण
की
जो
स्थितियाँ
भारत
की
जनता
के
सामने
रखी,
इसमें
संदेह
नहीं
कि
उनमें
पड़कर
हिंदी
भाषा
के
अभिव्यक्ति
कौशल
का
विकास
ही
हुआ।
अभिव्यक्ति
कौशल
के
विकास
का
अर्थ
भाषा
का
विकास
ही
है।
यहाँ यह भी
जोड़ा
जा
सकता
है
कि
बाज़ारीकरण
के
साथ
विकसित
होती
हुई
हिंदी
की
अभिव्यक्ति
क्षमता
भारतीयता
के
साथ
जुड़ी
हुई
है।
यदि
इसका
माध्यम
अंग्रेज़ी
हुई
होती
तो
अंग्रेज़ियत
का
प्रचार
होता।
लेकिन
आज
प्रचार
माध्यमों
की
भाषा
हिंदी
होने
के
कारण
वे
भारतीय
परिवार
और
सामाजिक
संरचना
की
उपेक्षा
नहीं
कर
सकते।
इसका
अभिप्राय
है
कि
हिंदी
का
यह
नया
रूप
बाज़ार
सापेक्ष
होते
हुए
भी
संस्कृति
निरपेक्ष
नहीं
है।
विज्ञापनों
से
लेकर
धारावाहिकों
तक
के
विश्लेषण
द्वारा
यह
सिद्ध
किया
जा
सकता
है
कि
संचार
माध्यमों
की
हिंदी
अंग्रेज़ी
और
अंग्रेज़ियत
की
छाया
से
मुक्त
है
और
अपनी
जड़ों
से
जुड़ी
हुई
है।
अनुवाद
को
इसकी
सीमा
माना
जा
सकता
है।
फिर
भी,
कहा
जा
सकता
है
कि
हिंदी
और
अन्य
भारतीय
भाषाओं
ने
बाज़ारवाद
के
खिलाफ़
उसी
के
एक
अस्त्र
बाज़ार
के
सहारे
बड़ी
फतह
हासिल
कर
ली
है।
अंग्रेज़ी
भले
ही
विश्व
भाषा
हो,
भारत
में
वह
डेढ़-दो प्रतिशत की ही भाषा
है।
इसीलिए
भारत
के
बाज़ार
की
भाषाएँ
भारतीय
भाषाएँ
ही
हो
सकती
हैं,
अंग्रेज़ी
नहीं।
और
उन
सबमें
हिंदी
की
सार्वदेशिकता
पहले
ही
सिद्ध
हो
चुकी
है।
मीडिया की चर्चा के साथ ही
यह बात भी विचारणीय है कि वर्तमान
वैश्विक
परिदृश्य
में
अनुवाद
का
महत्व
पहले
की
अपेक्षा
कहीं
अधिक
है. साहित्य के अनुवाद के माध्यम से हम केवल
किसी
अन्य
भाषा
के
लेखन
से
ही
परिचित
नहीं
होते
बल्कि
उस
भाषा
समाज
की
सामजिक-सांस्कृतिक परंपराओं
और
विशेषताओं
से
भी
परिचित
होते हैं. अनुवादक
किसी भाषा में रचित साहित्य के अर्थ और रूप भर को नहीं बल्कि उसमें निहित मूल्यों
और सरोकारों को भी दूसरी भाषा में प्रकट करने का भी दायित्व निभाता है..ऐसा करने
के लिए अनुवादक का द्विभाषिक के साथ ही द्वि-सांस्कृतिक होना अपरिहार्य शर्त है. इसलिए
हिंदी भाषा के बहु-सांस्कृतिक और सामासिक स्वरुप के गठन में विभिन्न देशी-विदेशी
भाषाओं से किये जाने वाले अनुवादों की भी सुनिश्चित भूमिका है जो स्वागतयोग्य है.
मेरी मान्यता है कि
राजभाषा क्रियान्वयन का क्षेत्र केवल सरकारी दफ्तरों तक सीमित नहीं है बल्कि शिक्षा
, साहित्य और मीडिया से लेकर न्यायपालिका और संसद तक सब कुछ इसके दायरे में आता
है. इसमें शक नहीं कि इस दिशा में अभी देश केवल कुछ ही कदम चल पाया है तथा लंबा
रास्ता सामने है. लिकिन इतना तो संतोष किया ही जा सकता है कि जनभाषा के साथ ही
राजभाषा हिंदी के प्रति भी लोगों में जागरूकता आई है और जैसा कि २०११ के
हिंदी-दिवस के आपने संदेश में गृहमंत्री ने बताया है, आज हमारे कर्मचारी
राजभाषा
कार्यान्वयन
के
प्रति
पूर्णत: जागरूक
हैं
और उन्हें अपना
अधिकाधिक
कार्य
हिंदी
में
करने
व
वार्षिक
कार्यक्रम
के
लक्ष्यों
को
पूरा
करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाता है.। यही नहीं बल्कि कार्यान्वयन
के
क्षेत्र
में
प्राप्त संतोषजनक
स्थिति
से
प्रेरित
होकर सरकार इस दिशा
में प्रयत्नशील है कि कर्मचारियों
के
मन
में
हिंदी
की
ओर
एक
प्रतिबद्धता
का
वातावरण
पैदा
किया जाए ।
ऋषभदेव शर्मा
rishabhadeosharma@yahoo.com
हिंदी के विविध आयामों और चुनौतियों को लेखक ने विशद रूप में प्रस्तुत किया है ।
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