आतंक के दो मसीहाओं का द्वंद्व



आतंक के दो मसीहाओं का द्वंद्व
डॉ. वेदप्रताप वैदिक



11 सितंबर एक तारीख है लेकिन यह दुनिया में वैसे ही प्रसिद्ध हो गई है, जैसे 25 दिसंबर या 1 जनवरी! 11 सितंबर का मतलब वह दिन है, जब न्यूयार्क के ट्रेड टॉवर और वाशिंगटन के पेन्टेगॉन-भवन पर हवाई हमला हुआ था। इस हमले को हुए दस साल हो गए। इन दस वर्षों में अमेरिका और दुनिया ने क्या खोया और क्या पाया, इसका लेखा-जोखा जरूरी है।



इस हमले ने यह सिद्ध किया कि राज्य-जैसी शक्तिशाली संस्था को भी दंडित किया जा सकता है। जिन लोगों ने अमेरिकी जहाजों का अपहरण किया था और उन्हें न्यूयार्क, वाशिंगटन और फिलाडेल्फिया में गिराया था, वे किसी दुश्मन-राष्ट्र के फौजी नहीं थे। वह कार्रवाई दो राष्ट्रों के बीच लड़े जा रहे युद्ध की कार्रवाई नहीं थी। वह कुछ व्यक्तियों द्वारा की गई कार्रवाई थी। ये व्यक्ति अल-कायदा नामक संगठन से जुड़े हुए थे।


राज्य के मुकाबले कुछ व्यक्तियों का संगठन। लेकिन इस संगठन की कार्रवाई इतनी भयानक थी कि वह दो राज्यों के युद्ध से भी अधिक गंभीर सिद्ध हुई। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने आतंकवाद के विरूद्ध विश्व-युद्ध की घोषणा कर दी। इस युद्ध में अब तक चार-पाँच खरब (ट्रिलियन) डॉलर खर्च हो चुके हैं और छह हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिक मारे जा चुके हैं। आतंकवाद की लड़ाई में अमेरिका ने इतना पैसा बहा दिया है कि उतने पैसे में कई देश अपना सौ-दो सौ साल का पूरा खर्च चला सकते हैं। छह हजार अमेरिकी सैनिकों का मारा जाना भी बहुत बड़ी घटना है, क्योंकि अमेरिकी सैनिक भारतीय सैनिकों की तरह प्रायः जमीनी लड़ाई नहीं लड़ते हैं। उनकी लड़ाई हवाई होती हैं। वे जहाजों में बैठकर बम बरसाते हैं।


11 सितंबर से जन्मी इस लड़ाई ने अमेरिका को खोखला कर दिया है। उसे गहरे आर्थिक संकट में फँसा दिया है। हालांकि अमेरिका ने जबर्दस्त मुस्तैदी दिखाई। उसने अपने यहाँ दुबारा 11 सितंबर नहीं होने दिया और उसामा बिन लादेन को उसकी माँद में घुसकर मार दिया लेकिन इस तथ्य को कैसे नकारा जा सकता है कि अमेरिका आज भी जो सजा भुगत रहा है, उसका निमंत्रण उसने स्वयं दिया था। अल-क़ायदा के जन्मदाता उसामा बिन लादेन को सूडान और सउदी अरब से लाकर-अफगानिस्तान में किसने जमाया? बबरक कारमल और नजीबुल्लाह की सरकारों को गिराने के हिंसक प्रयत्नों को परवान किसने चढ़ाया? अमेरिका ने! पाक अफगान सीमांत के ‘इलाका-ए-गैर’ को अन्तरराष्ट्रीय आतंकवाद, अफीम की तस्करी और अराजक हिंसा का क्षेत्र किसने बनाया? अमेरिका ने! सोवियत संघ को पराजित करने की धुन में अमेरिका ने विश्व-आतंक के बीज बो दिए। काबुल में मुजाहिद्दीन सरकार के गिरने के बाद उसने तालिबान से हाथ मिलाने में भी कोई संकोच नहीं किया। उसने तालिबान के पोषक और संरक्षक जनरल मुशरर्फ को दक्षिण एशिया में अपना सिपहसालार घोषित किया। उसने आतंकवाद से पीड़ित भारत को अपना भागीदार नहीं चुना। पाकिस्तान को चुना, उस पाकिस्तान को, जो विश्व-आतंकवाद का सबसे बड़ा अड्डा था और जो लगातार अमेरिका से डॉलर निचोड़ता रहा और उसे धोखा देता रहा। इस दस वर्ष की अवधि की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि अब पाकिस्तान की पोल खुल गई है। लेकिन पता नहीं कि अब भी अमेरिका की आँख खुली है या नहीं?


अमेरिका की आँख बंद होने का अर्थ क्या है? उसका सीधा-सादा अर्थ यही है कि वह अपने आतंकवाद को पहचाने! अपनी आँखें  खोले और यह जाने कि वह दुनिया को सबसे बड़ा और सबसे खतरनाक आतंकवादी है। जितने लोग 11 सितंबर 2001 को आतंकवादियों ने न्यूयार्क में मारे (3000), उनसे पता नहीं कितने गुना बेकसूर लोग अमेरिका ने अफगानिस्तान, एराक, लातीनी अमेरिका, अफ्रीका और वियतनाम में मार गिराए है। अमेरिकी फौज और सीआईए क्यूबा, निकारागुआ, हैती, पनामा, लेबनान आदि देशों में बाकायदा आतंकवादियों को प्रशिक्षित करके भेजते रहे हैं। अमेरिका के शासकीय और राजकीय आतंकवाद का इतिहास बहुत लंबा रहा है। ‘रेड इंडियंस’ पर यदि गोरे यूरोपीय आतंक नहीं जमाते तो संयुक्त राज्य अमेरिका की स्थापना कैसी होती? इसी आंतरिक आतंक का विस्तार उसने सारे विश्व में किया है। 


अपना वर्चस्व कायम करने के लिए उसने क्या-क्या दुष्कर्म नहीं किए? दुनिया के हर तानाशाह के साथ साँठ-गाँठ की। मानव अधिकारों के उल्लंघन की अनदेखी की। तेल और अन्य खनिजों पर उसकी लार इतनी टपकती रही कि उसने लोकतांत्रिक मूल्यों को भी धता बता दी। एराक और अफगानिस्तान में वह क्यों घुसा? आतंकवाद का खात्मा तो एक बहाना था। असली आकर्षण तेल और गैस का था। इसराईल को वह क्यों पले हुए है? ताकि पश्चिम के तेलोत्पादक राष्ट्र अपनी रक्षा के लिए उस पर निर्भर रहें। आतंकवादी लोग आंतक फैलाकर अपने लिए कुछ नहीं चाहते लेकिन अमेरिका अपने लिए सब कुछ चाहता हैं। इसलिए आतंक फैलाता है।


राजकीय आतंकवाद ओर साधारण आतंकवाद में यही फर्क है। राजकीय आतंकवाद अपनी क़ीमत वसूलने में कभी नहीं चूकता। वैसे दोनों का दर्शन, सिद्धांत और नीति लगभग एक-जैसी होती है। आप जरा-जरा जॉर्ज बुश और उसामा बिन लादेन की भाषा की तुलना करें। दोनों भगवान का नाम लेते हैं। एक ‘गॉड’ की ‘ओथ’ लेता है और दूसरी अल्लाह की कसम खाता है। अगर पहला कहता है कि दुनिया से अन्याय और अत्याचार खत्म करना मेरा धर्म है तो दूसरी भी इन्हीं शब्दों को दोहराता है। यदि पहला दूसरे को हिंसक और अनैतिक कहता है तो दूसरा भी पहले पर यही आरोप लगाता है। दोनों का अंदाज मसीहाई होता है। 11 सितंबर की खूबी यही थी कि कमजोर मसीहा बलवान मसीहा की छाती पर चढ़ बैठा। बुश और उसामा में फर्क क्या है? दोनों मौसेरे भाई हैं।


इस समय बलवान मसीहा-जीतता हुआ दिखाई पड़ रहा है-श्रीलंका में, फलस्तीन में, एराक में, अफगानिस्तान में भी लेकिन यह जीत आँख मिचौनी भी सिद्ध हो सकती है। जीत के घमंड में वह यह न भूल जाए कि अभी आतंक के सिर्फ फूल-पत्ते टूटे हैं। उसकी जड़े अभी भी हरी हैं। आतंक की शुरूआत पहले मसीहा ने ही की है। पहला आतंकवादी वही है। दूसरा मसीहा तो प्रतिक्रियावादी है। वह जवाबी आतंकवादी है। यह ठीक है कि दूसरा मसीहा खाली-खट है। उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। यही उसकी ताकत भी है। इस ताकत का मुकाबला वह मसीहा कैसे करेगा, जिसके पास खोने के लिए बहुत कुछ है। सब कुछ है। दस वर्ष के इस दौर की सीख यही है कि पहला मसीहा ताकत का दुरूपयोग बंद करे और छोटे आतंक को बढ़े आतंक से खत्म करने को अंतिम समाधान न माने! दूसरे मसीहा को रास्ते पर लाने के लिए एक दूसरा रास्ता भी खोजे। 

ए-19, प्रेस एनक्लेव, नई दिल्ली-17

7 टिप्‍पणियां:

  1. लेकिन, आदरणीय वैदिक जी, ये तमाम बातें अमेरिका की आँख में आँख डाल कर कौन कहे? हमारे आपस में इस कथा को बांचते रहने से क्या होने वाला है? भारत का नेतृत्व क्या कभी ताल ठोक कर अमेरिका को आतंकवादी कह सकता है?

    एक और सवाल मन में उठा करता है कि अमेरिका को क्या विश्व-जनमत की कोई परवाह है? अस्तु!

    रोचक दो-टूक विश्लेषण के लिए धन्यवाद.

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  2. vaidik ji ka lekh achcha hai ,par hame aatank ki bajah bhi janna chahiye ,batcheet nahi ho pa rahi hai hame vichar vimarsh se ek pull banana hoga jisse hokar manavta ke ubhar paye ja sake dono or se barood se prahar hoga tab yah silsila annat chalta rahega

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  3. अच्छा लेख है! लेकिन बात वही जो ॠषभ जी ने कही! :)

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  4. क्या भारत ने किसी को ललकारा है? यदि नहीं, तो फिर यहां आतंकवाद क्यॊं? या फिर, आतंकवाद किसी मज़हब विशेष का ध्येय बन गया है? यदि नहीं, तो फिर इसका विरोध क्यों नहीं होता? क्यों आतंकवादियों को शरण दी जा रही है और किसी पुलिस कार्रवाई पर हाय-तौबा मचाया जाता है- जैसे बाटला कांड में?????

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  5. आतंकवाद एक भयानक महामारी है। अमेरिका में इसके व विरुद्ध लडने का अनुकरणीय साहस है। काश भारत के नेता भी वैसी इच्छाशक्ति दिखा पाते। 9-11 के साढे तीन हज़ार शहीदों को श्रद्धांजलि!

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  6. डा.वेद प्रताप वैदिक ने सटीक विशलेष्ण किया। अमेरिका के नीतिकारों ने जेहीदी आतंकवादी तत्वों की विध्वंसकारी ताकत को कदाचित तब तक नहीं पहचाना, जब तक जेहीदियों ने अमेरिका को ही खूनी निशाना नहीं बना लिया। वर्ल्ड ट्रेड टावर के विध्वंस के बाद अमेरिका का नज़रिया परिवर्तित हो गया। वरन् पाकिस्तान की सरपरस्ती में 1988 से कश्मीर में शुरु हुई जेहादी जंग को अमेरिकन नीतिकार कश्मीरी आजादी की जंग निरुपित करते रहे। विगत 23 वर्षों के दौरान कथित जेहादियों ने जितने जख्म भारत को दिए हैं, उतने अधिक जख्म दुनिया के किसी भी मुल्क को नहीं दिए। कश्मीर और शेष भारत में जेहीदी आतंकवादियों ने एक लाख से अधिक भारतवासियों को हलाक़ किया। अमेरिका ने पाकिस्तान को जितनी विशाल वित्तीय सहायता प्रदान की उसका अधिकतर इस्तेमाल भारत को तबाह करने के लिए किया गया। अमेरिका के नीतिकारों ने जेहीदी आतंकवादी तत्वों की विध्वंसकारी ताकत को कदाचित तब तक नहीं पहचाना, जब तक जेहीदियों ने अमेरिका को ही खूनी निशाना नहीं बना लिया। वर्ल्ड ट्रेड टावर के विध्वंस के बाद अमेरिका का नज़रिया परिवर्तित हो गया। वरन् पाकिस्तान की सरपरस्ती में 1988 से कश्मीर में शुरु हुई जेहादी जंग को अमेरिकन नीतिकार कश्मीरी आजादी की जंग निरुपित करते रहे। विगत 23 वर्षों के दौरान कथित जेहादियों ने जितने जख्म भारत को दिए हैं, उतने अधिक जख्म दुनिया के किसी भी मुल्क को नहीं दिए। कश्मीर और शेष भारत में जेहीदी आतंकवादियों ने एक लाख से अधिक भारतवासियों को हलाक़ किया। अमेरिका ने पाकिस्तान को जितनी विशाल वित्तीय सहायता प्रदान की उसका अधिकतर इस्तेमाल भारत को तबाह करने के लिए किया गया।

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