प्रेमचंद के पुनर्पाठ के लिए योग्य वारिस का होना है जरूरी- लाल बहादुर वर्मा
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जयंती व गोदान के 75 वर्ष होने के उपलक्ष्य में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के क्षेत्रीय केंद्र, इलाहाबाद में `75वें वर्ष में गोदान : एक पुनर्पाठ' विषय पर आयोजित संगोष्ठी के दौरान अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए इतिहासबोध पत्रिका के संपादक लाल बहादुर वर्मा ने कहा कि प्रेमचंद की रचनाओं के पुनर्पाठ के लिए योग्य वारिस का होना जरूरी है। पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर प्रेमचंद का पुनर्पाठ नहीं हो सकता। पुनर्पाठ के लिए प्रेमचंद जैसी स्पिरिट विद् द टाइम होनी चाहिए। हमें प्रेमचंद का अनुयायी बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए बल्कि उनसे आगे, बेहतर समझ और कमिटमेंट के साथ पुनर्पाठ करना चाहिए। इस अवसर पर वरिष्ठ आलोचक रविभूषण (रांची), साहित्य समीक्षक अली जावेद (दिल्ली) व क्षेत्रीय केंद्र के प्रभारी प्रो.संतोष भदौरिया मंचस्थ थे।
प्रेमचंद की रचनाओं के पुनर्पाठ की जरूरत पर बल देते लालबहादुर वर्मा ने कहा कि जो समाज अतीत का पुनर्पाठ नहीं करता, वह जड़ हो जाता है। किसी भी कृति में सबकुछ ढूँढना खतरनाक और प्रतिगामी होता है। किसी भी रचना का एक पुनर्पाठ नहीं हो सकता, जब समाज विविध रूपी हो, तो पुनर्पाठ समकालीनता के दबाव में ही संभव होगा। पुनर्पाठ क्यों और कैसे हो, यह भी विचारणीय है का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आज की स्थितियों को रचना में ढूँढने लगे, सिर्फ यह महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह विश्लेषण ज्यादा जरूरी है कि लेखक ने क्या लिखा और क्या नहीं लिखा। यह लेखक की अपनी सीमा है या देशकाल की। पुनर्पाठ का मतलब होगा जो प्रेमचंद में नहीं है उसे उद्घाटित किया जाए। उन्होंने गोदान का जिक्र करते हुए कहा कि यह सिर्फ गाँव की कृति नहीं, अपितु समाज को समग्रता में लेता है। उन्होंने कहा कि साहित्येतर लेखन में भी प्रेमचंद की विश्वदृष्टि महत्वपूर्ण है। उनके साहित्य मूल्यांकन में माइक्रो दृष्टि नहीं होनी चाहिए क्योंकि उनके यहाँ तो सारा समाज और संसार मौजूद हैं। विस्थापन आज की व्यवस्था का सबसे बड़ा हथियार है, इसे भी प्रेमचंद ने बहस में शामिल किया है। परंपरा तथा मूल्यों से विस्थापन समाज को कमजोर करता है, प्रेमचंद के यहाँ यह एहसास भी मौजूद है। प्रत्येक 31 जुलाई को हमें इन्हीं चुनौतियों की याद दिलाती है।
वक्ता के रूप में रविभूषण ने कहा कि गोदान बीसवीं शताब्दी की ऐसी कृति है जो शताब्दी के समस्त प्रश्नों को अपने में समेटती है। आज गोदान के समस्त पाठ की जरूरत है। अभी तक उसका कृषक पाठ बहुत हो चुका। गोदान यह संकेत करता है कि कैसे शिक्षा और स्वास्थ की अवहेलना कर समाज के दिमाग और शरीर को कमजोर किया जाता है, जिससे उसपर शासन करना आसान होता है। प्रेमचंद गोदान में पावर स्ट्रक्चर को रेखांकित करते हैं, जहाँ मनुष्यता दाँव पर लगी हुई है। गोदान में वस्तुत: होरी की मृत्यु नहीं बल्कि हत्या होती है, आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिकान किस प्रकार से गरीब, किसान को लील लेने को आतुर है, इसपर हमें सोचने की जरूरत है। गोदान में भारतीय समाज और मनुष्य के समस्त स्वप्न सांकेतिक रूप में अभिव्यक्त हुए हैं। इसलिए इसे कविता के रूप में पढ़े जाने की जरूरत है। प्रेमचंद के गोदान में भाग्यवादी होरी है, इंकलाबी गोबर भी है, का जिक्र करते हुए साहित्य समीक्षक अली जावेद ने कहा कि सामंती और ब्राह्मणवादी व्यवस्था की जकड़न में होरी अंतत: हारता है। आज समस्याओं की जटिलता बढ़ी है। हमें प्रेमचंद से आगे की बात करनी होगी। उन्होंने कहा कि जब लोकतंत्र के मायने बदल रहे हैं तो गोदान का पुनर्पाठ बेहद जरूरी मसला है। कार्यक्रम के दौरान शहर के वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी जियाउल हक की पहल पर नार्वे में हुए कत्लेआम की भर्त्सना की गयी और इस अमानवीय घटना पर दो मिनट का मौन रखकर शोक व्यक्त किया गया।
संगोष्ठी का संयोजन और संचालन प्रो.संतोष भदौरिया ने किया। इस अवसर पर रामजी राय, अकील रिजवी, ए.ए.फातमी, प्रणय कृष्ण, अनीता गोपेश, अनिल रंजन भौमिक, प्रवीण शेखर, मुश्ताक अली, अनुपम आनन्द, के.के.पाण्डेय, मीना राय, गोपाल रंजन, धनंजय चोपड़ा, सुरेन्द्र वर्मा, नन्दल हितैषी, अशोक सिद्धार्थ, अलका प्रकाश, शिवमूर्ति सिंह, फखरूल करीम, रमेश सिंह, रेनू सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, संजय पाण्डेय, सुरेन्द्र राही, सुनील दानिश, शशिधर यादव उपस्थित थे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!