वस्तानवी को हटाने का वास्तविक अर्थ
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मौलाना गुलाम मुहम्मद वस्तानवी को दारुल उलूम देवबंद के मोहतमिम के पद से हटाए जाने का असली अर्थ क्या है? इसे कुछ लोग धर्मनिरपेक्षता की हार बता रहे हैं तो कुछ मुस्लिम कट्टरपंथ की जीत कह रहे हैं और कुछ यह भी मान रहे हैं कि देवबंद के इस्लामी मदरसे से इससे ज्यादा उम्मीद ही क्या की जा सकती है? वह वस्तानवी जैसे आधुनिक और प्रगतिशील मौलाना को कैसे बर्दाश्त कर सकता था. सारे इस्लामी मदरसे मुसलमान बच्चों को सातवीं-आठवीं सदी के माहौल में कैद करके रखना चाहते हैं. यदि वस्तानवी मोहतमिम (कुलपति) बने रहते तो वे इस्लाम के इस डेढ़ सौ साल पुराने गढ़ को कोई कॉन्वेंट या कंप्यूटर ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट बना डालते.
ये तर्क और अंदेशे निराधार हैं. सबसे पहली बात तो यह कि मौलाना वस्तानवी उतने ही पक्के और प्रामाणिक मुसलमान हैं, जितना कि कोई भी अच्छा मुसलमान हो सकता है. उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि वे सेक्यूलर हैं. देवबंद की ‘शूरा’ ने उन्हें अचानक ही अपना कुलपति नहीं बना दिया. वे किसी नेता या पार्टी के थोपे हुए उम्मीदवार नहीं थे. वास्तव में वे उम्मीदवार ही नहीं थे. उन्होंने कुलपति पद के लिए न तो कोई अर्जी लगाई थी और न ही किसी से पैरवी करवाई थी. उन्हें ‘शूरा’ ने अपनी ही पहल पर नियुक्त किया था. वे दस साल से इस ‘शूरा’ के सदस्य थे. उन्होंने गुजरात और महाराष्ट्र में मुसलमान बच्चों को इतने अच्छे ढंग से प्रशिक्षित किया था कि वे अपनी मिसाल खुद बन गये.
उनका दोष सिर्फ इतना ही था कि वे बाहरी आदमी थे. उत्तर प्रदेश के इस महान इस्लामी मदरसे का मुखिया कोई गुजराती कैसे बन गया? यह वह मदरसा है, जिसके नाम से पाकिस्तान और अफगानिस्तान में बड़े-बड़े मौलानाओं ने अपनी दुकानें चला रखी हैं. वस्तानवी के मुसलमान होने पर गुजराती होना भारी पड़ गया. उनकी नियुक्ति के पहले दिन से ही उनके खिलाफ साजिशों का अंबार लग गया था. जो लोग देवबंद को अपनी पारिवारिक जागीर समझते हैं, उन्होंने तो वस्तानवी पर पहले दिन ही खम ठोक दिया. वस्तानवी कुर्सी की राजनीति के शिकार हो गए.
अगर वस्तानवी नरेंद्र मोदी के बारे में कोई बयान न देते तो भी उन्हें पटकनी मारने के लिए कोई और बहाना ईजाद कर लिया जाता. नरेंद्र मोदी पर मुँह खोलकर वस्तानवी आसानी से फँस गये. और फँसनेवालों में वे पहले नहीं हैं. उनके पहले अन्ना हजारे, राजीव गांधी फाउंडेशन, प्लानिंग कमीशन, एक उच्च सैन्य अधिकारी तथा सपा और माकपा के कुछ नेता भी सेक्युलरवादियों के इस तरह के वार झेल चुके हैं. वस्तानवी समेत उक्त सभी ने आँखों देखे यथार्थ का वर्णन भर किया था यानी मोदी के राज में गुजराती मुसलमानों ने अच्छी प्रगति की है. गुजराती मुसलमानों के बारे में यह बात सच्चर आयोग ने भी कही है. लेकिन जिस बात ने देवबंद की ‘शूरा’ को उकसाया होगा, वह यह होगी कि वस्तानवी ने यह कैसे कह दिया कि गोधरा कांड को मुसलमान भूल जाएँ और अब आगे बढ़ें. सचमुच मुसलमान ही क्या, किसी भी ईमानदार देशभक्त के लिए गुजरात के उस नर-संहार को भुला पाना कठिन है. और फिर वस्तानवी तो खुद मुसलमान हैं, मौलाना हैं. देवबंद के कुलपति थे. उनके मुँह से निकली इस बात को औसत मुसलमान के गले उतारना काफी मुश्किल है और यही बात उनके गले की हड्डी बन गई.
लेकिन यहाँ ‘शूरा’ को यह सोचना चाहिए था कि वस्तानवी ने गोधरा को भूलने की बात आखिर कहीं क्यों थी? क्या उसका मकसद नरेंद्र मोदी को निर्दोष होने का प्रमाण-पत्र देना था? बिल्कुल नहीं. क्या वस्तानवी की भाजपा या संघ से कोई गुप्त साँठगाँठ थी? नहीं, यह भी बिल्कुल नहीं? तो फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? इसका सिर्फ एक ही कारण समझ में आता है और वह यह कि वे मुसलमानों का भला चाहते हैं. पर उनके दिल की बात समझे बिना देवबंद के दादाओं ने उन्हें दबोच लिया. उनकी बात का गलत अर्थ लगाया. इसलिए देवबंद के दारुल उलूम में ही नहीं, देश के पढ़े-लिखे मुसलमानों में भी बहुत-से लोगों की सहानुभूति वस्तानवी के साथ हो गई है.
देवबंद से वस्तानवी को हटाकर दादा लोगों ने किसका नुकसान किया? क्या वस्तानवी का? नहीं. वस्तानवी तो अब अखिल भारतीय ख्याति के विद्वान बन गए हैं. वे अब गैर-मुसलमानों के बीच भी लोकप्रिय हो गए हैं. वे इस नई लोकप्रियता के दम पर महाराष्ट्र और गुजरात के अपने संस्थानों को नई ऊँचाइयों पर ले जाएँगे और उन्हें सभी तबकों का समर्थन मिलेगा.
यानी वस्तानवी को हटाकर देवबंद के दारुल-उलूम ने अपना ही नुकसान किया है. उसकी शानदार छवि विकृत हुई है. देवबंद से जारी हुए कुछ नारी-विरोधी फतवों को छोड़ दें और उसके इतिहास पर गौर करें तो पता चलेगा उसकी भूमिका काफी सराहनीय रही है. जिन्ना की मुस्लिम लीग के मुकाबले देवबंद ने जमीयत-उलेमा-ए हिंद कायम की थी, जिसने पाकिस्तान बनाने का विरोध किया था. देवबंद ने भारत को दारुल-हर्ब (युद्ध का घर) मानने से मना कर दिया था. उसने भारत को दारुल-अमन (शांति का घर) घोषित किया था. उसने जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद को भी अमान्य ठहराया था. उसने सलमान रश्दी की हत्या के फतवे का विरोध किया था. उसने आतंकवादी जेहाद को गैर-इस्लामी घोषित किया था. उसने यह घोषणा भी की थी कि बाबा रामदेव के योग और इस्लाम में कोई विरोध नहीं है. देवबंद की इस प्रगतिशील और क्रांतिकारी भूमिका को वस्तानवी-प्रसंग से धक्का जरूर लगेगा.
देवबंद का दारुल-उलूम अगर बिल्कुल पोंगापंथी और पीछेदेखू होता तो वह वस्तानवी जैसे आधुनिक और देखे-परखे मौलाना को अपना मोहतमिम क्यों बनाता ? वस्तानवी को हटाते वक्त ‘शूरा’ ने यह नहीं कहा कि वह उनके विचारों या कार्यशैली को इस्लाम-विरोधी मानती है, इसलिए यह मान बैठना तर्कसंगत नहीं लगता कि वस्तानवी चले गए हैं तो देवबंद भी रसातल को चला जाएगा. देवबंद को सदा आगे बढ़ना है. अब नए मोहतमिम मौलाना अब्दुल कासिम नोमानी के नेतृत्व में वस्तानवी के एजेंडे पर अमल करना शायद ज्यादा आसान होगा. ‘शूरा’ के सदस्य के तौर पर वस्तानवी निरंतर मार्गदर्शन तो कर ही सकते हैं. भारतीय मुसलमानों के लिए देवबंद आज भी एक महान धार्मिक प्रकाश-स्तंभ है. उसकी आभा पर वस्तानवी-प्रसंग के कारण अल्पकालिक ग्रहण जरूर लगा है लेकिन सूर्य को सदा चमकने से कौन रोक सकता है?
हर संस्था की अपनी राजनीति और उठापटक होती ही रहती है:)
जवाब देंहटाएंअसली धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टी/कैसी भी संस्था, तो भारत में कोई है ही नहीं है।
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट है .
जवाब देंहटाएंbahut achchi jankari..khaskar deoband ke pichle karyo ka byora ek naiee jankari yhi .dhanyabad
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