अफगानिस्तान में भारत की भूमिका
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बराक ओबामा ने घोषणा की है कि जुलाई 2011 यानी अगले महीने से अमेरिकी फौजों की अफगानिस्तान से वापसी शुरू हो जाएगी। इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले दस वर्षों से दक्षिण एशिया में जो राजनीति चल रही है, उसमें कुछ बुनियादी बदलाव आने शुरू हो जाएँगे। ये बदलाव क्या-क्या हो सकते हैं?
सबसे पहला बदलाव तो यह हो सकता है कि अफगानिस्तान में अराजकता फैल जाए। अब तक अफगानिस्तान में करजई सरकार इसीलिए टिकी रही, क्योंकि विदेशी सेनाएँ तालिबान और अल कायदा से लड़ती रहीं। यदि काबुल में अंतरराष्ट्रीय सेनाएँ नहीं होतीं तो करजई सरकार उसी तरह गिर जाती, जैसे नजीबुल्लाह, रब्बानी और मुल्ला उमर की सरकारें गिरी थीं। इस खतरे के प्रति ओबामा प्रशासन सतर्क जरूर है, लेकिन उसने अभी तक कोई ऐसा पुख्ता इंतजाम नहीं किया है कि करजई सरकार अपने दम पर जिहादियों का मुकाबला कर सके। ऐसी स्थिति में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की सेनाएँ अफगानिस्तान से केवल कुछ हद तक ही हटेंगी। पूरी तरह नहीं हटेगी।
स्थायी सैनिक अड्डे
ऐसी खबरें भी हैं कि अमेरिका चाहे अपने सैनिकों की संख्या घटा दे, लेकिन अफगानिस्तान के पाँच-छह सामरिक स्थानों पर अपने स्थायी सैनिक अड्डे बनाए रखेगा। इस खबर से पास-पड़ोस के सभी देश चिंतित हैं। पाकिस्तान को चिंता यह है कि अमेरिका अफगानिस्तान का स्थायी संरक्षक बन गया तो उसके सपने अधूरे रह जाएँगे। वह अफगानिस्तान पर अपनी दादागीरी कैसे चला पाएगा? भारत के विरुद्ध उसे वह अपना सामरिक पिछवाड़ा कैसे बना पाएगा?
रूस, चीन, उजबेकिस्तान, कजाकिस्तान और ईरान जैसे देशों को यह चिंता है कि यदि अमेरिका अफगानिस्तान में उसी तरह से टिक गया, जैसे कि वह यूरोपीय देशों में 65 साल से टिका है, तो उनके अपने हित प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। अपने फौजी अड्डों से अमेरिका इन देशों के आंतरिक मामलों में तो सीधा हस्तक्षेप कर ही सकता है, वह जासूसी जाल भी आसानी से बिछा सकता है। वह चाहे तो अंदरूनी बगावतें भी भड़का सकता है। इसके अलावा अफगानिस्तान की सामरिक स्थिति या उसके खनिजों से यदि किसी पड़ोसी देश को कोई लाभ होता होगा तो उसकी चाबी भी अमेरिका के हाथ में ही होगी। सारे पड़ोसी राष्ट्र मिलकर भी अमेरिका के इस प्रभुत्व को चुनौती नहीं दे पाएँगे।
कौन देगा सुरक्षा की गारंटी
इसलिए नहीं दे पाएँगे कि क्योंकि ये सब राष्ट्र मिलकर भी अफगानिस्तान को उसकी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकते। रूस तो पहले ही अफगानिस्तान में झुलस चुका है। चीन अपने दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए यह रिस्क नहीं लेना चाहेगा। पाकिस्तान को पता है कि हर अफगान उसके इरादों के बारे में कितना आशंकित रहता है। पाकिस्तान के साथ तीन-तीन बार अफगानिस्तान के युद्ध की नौबत तक आ चुकी है। ईरान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान और ताजिकिस्तान की इतनी सैन्य हैसियत नहीं कि वे किसी राष्ट्र को फौजी सुरक्षा दे सकें। ऐसी हालत में भारत एकमात्र राष्ट्र है, जो अफगान फौज को अपने पाँव पर खड़ा कर सकता है। भारत चाहे तो साल भर में वह पाँच लाख अफगान जवानों को प्रशिक्षण देकर ऐसी फौज खड़ी कर सकता है, जो आंतरिक और बाहरी दोनों खतरों का मुकाबला कर सकती है। लेकिन क्या अमेरिका इस विकल्प के लिए तैयार होगा?
यदि अमेरिका इस विकल्प के लिए तैयार हो जाए तो अफगानिस्तान संपूर्ण एशिया की शांति और समृद्धि का केंद्र बन सकता है। अफगानिस्तान से अमेरिका के हटते ही तालिबान के बने रहने का तर्क ध्वस्त हो जाएगा। तालिबान का मुख्य मुद्दा यही है कि वे अफगान मातृभूमि को विदेशी कब्जे से मुक्त करवाना चाहते हैं। यदि काबुल में ऐसी सरकार कायम हो जाए, जो सचमुच संप्रभु हो और जन समर्थित हो तो फिर वहाँ अशांति और हिंसा रह ही नहीं सकती। ऐसी स्थिति में मध्य एशिया की अपार खनिज संपदा भारत, चीन, रूस और अमेरिका जैसे समर्थ राष्ट्रों को सहज सुलभ हो जाएगी। वे खुद तो अपार समृद्धि के स्वामी बनेंगे और वे इन मुस्लिम राष्ट्रों को भी मालामाल कर देंगे। अफगानिस्तान संपूर्ण एशिया की समृद्धि का चौराहा बन जाएगा।
किनारा करे अमेरिका
इसके संकेत अभी से मिलने शुरू हो गए हैं। अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई की ताजा इस्लामाबाद यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच व्यापार और पारगमन की समस्त बाधाएँ दूर हो गईं। अब अफगान माल पाकिस्तान होता हुआ वाघा बॉर्डर तक यानी भारत तक आ सकेगा। यह ठीक है कि पाकिस्तान अफगानी ट्रकों को भारत की सीमा में नहीं घुसने देगा। इसके बावजूद अफगान-भारत व्यापार बढ़ेगा। उधर पाकिस्तानी माल अफगानिस्तान होते हुए मध्य एशिया के सभी गणतंत्रों में जा सकेगा। जिस दिन पाकिस्तान इस रास्ते को भारत के लिए खोल देगा, सभी देशों के वारे-न्यारे हो जाएँगे। आखिर पाकिस्तान कब तक इस प्रलोभन से बचा रहेगा? यदि अमेरिका सचमुच दक्षिण एशिया से थोड़ा किनारा कर ले और पाकिस्तान के मुँह में लड्डू रखना बंद कर दे तो पाकिस्तान अपने आप यह रास्ता भारत के लिए खोल देगा।
असल में अफगानिस्तान होकर मध्य एशिया में जाने वाले इन मार्गों के खुलने की संभावनाएँ बढ़ती जा रही हैं। अभी कजाकिस्तान में संपन्न हुए शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में भी काफी उदारता के स्वर फूटे हैं। रूस और चीन चाहते हैं कि भारत, पाकिस्तान, ईरान और मंगोलिया भी इसके सदस्य बन जाएँ। अफगानिस्तान तो लगभग बन ही गया है। इस नई पहल का संकेत स्पष्ट है। रूस और चीन इस संगठन को मात्र अमेरिका विरोधी मोर्चा नहीं बनाना चाहते। वे चाहते हैं कि एशिया के सभी राष्ट्र इस संगठन के तहत ऐसी भूमिका निभाएँ, जिससे अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता तो स्थापित हो ही, परस्पर सहयोग के आयाम भी खुलें। सैकड़ों वर्ष पुराना चीन से यूरोप तक जाने वाला रेशम पथ (सिल्क रूट) फिर से हरा-भरा हो और यह एशिया का अछूता और अविकसित भूखंड विश्व-समृद्धि का केंद बन जाए। 'शंघाई राष्ट्रों' का यह सपना तभी पूरा हो सकता है, जबकि अमेरिका थोड़ी दूरंदेशी और उदारता का परिचय दे।
अब जब वहां का राष्ट्रपति ही नहीं चाहता कि अमरीकी फौज वहां रहे तो औचित्य भी नहीं कि अपने लोगों का जान-माल ऐसे देश पर लुटाएं। मरने दो उन्हें अपनी गुटबाज़ी की चक्की में॥
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