संबंधों का नया मानचित्र




संबंधों का नया क्षेत्रीय नक्शा



प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की यह काबुल यात्रा ऐतिहासिक मानी जाएगी, क्योंकि पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने अफगानिस्तान में भारत को क्षेत्रीय महाशक्ति के रूप में प्रतिबिंबित किया है। अब तक काबुल जाने वाले हमारे नेताओं ने हमेशा सिर्फ सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध बढ़ाने की बात कही है।


वे यह मानकर चलते रहे कि गुटनिरपेक्ष होने के बावजूद भारत के संबंध अफगानिस्तान के साथ इसलिए घनिष्ठ नहीं हो सकते कि बीच में पाकिस्तान बैठा है और पाकिस्तान की पीठ पर अमेरिका का हाथ है। दूसरे शब्दों में अफगानिस्तान में कितनी भी बड़ी उथल-पुथल हो जाए, भारत सिर्फ तमाशबीन बना रहेगा।


यों भी पाकिस्तान ने अफगानिस्तान पहुँचने के लिए भारत को कभी खुलकर रास्ता नहीं दिया। अफगानिस्तान जाने वाले रास्तों को कभी भारत से झगड़ा होने पर वह बंद कर देता है और कभी अफगानिस्तान से झगड़ा होने पर! इस घेराबंदी को अब भारत ने तोड़ दिया है। अफगान-ईरान सीमांत पर भारत ने लगभग 200 किमी की जरंज-दिलाराम सड़क बनाकर दुनियाभर के लिए एक वैकल्पिक थल मार्ग खड़ा कर दिया है।


इस वैकल्पिक मार्ग का भी कोई ठोस फायदा दिखाई नहीं पड़ रहा था। इसके दो कारण हैं। एक तो ईरान से अमेरिका के संबंध खराब हैं और दूसरा भारत की विदेश नीति अभी तक पुराने र्ढे पर घूम रही थी। सिर्फ अफगानिस्तान को हजारों करोड़ रुपया देते रहो और जैसा अमेरिका कहे, वैसा करते रहो।


इस नीति में अब बुनियादी परिवर्तन के संकेत सामने आ रहे हैं। हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन और विदेश सचिव निरुपमा राव को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उन्होंने अफगानिस्तान के साथ ‘सामरिक संबंध’ स्थापित करने की पहल की।


इस नए भारत-अफगानिस्तान समीकरण से अब अमेरिका को भी क्या आपत्ति हो सकती है? अमेरिका इस समय भारत और अफगानिस्तान के जितने करीब है, पाकिस्तान के नहीं है। इस सामरिक संबंध का विरोध सिर्फ चीन कर सकता है, लेकिन भारत अपनी कूटनीतिक चतुराई से चीन को भी पटा सकता है।


पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष ने अभी तीन हफ्ते पहले काबुल जाकर हामिद करजई को यह सलाह दी थी कि वे अब अमेरिका के बजाय चीन के साथ नत्थी हो जाएं। पाकिस्तान को भनक लग गई थी कि भारत, अफगानिस्तान और अमेरिका मिलकर अब सामरिक संबंधों का कोई नया क्षेत्रीय नक्शा बना रहे हैं।


इस सामरिक संबंध का अर्थ क्या है? इसका सीधा-सादा अर्थ यह है कि आंतरिक शांति और व्यवस्था बनाए रखने में अफगानिस्तान की मदद करना और बाहरी आक्रमणों से उसकी रक्षा करना! इन दोनों लक्ष्यों की प्राप्ति में अफगान और अमेरिकी सरकारें पिछले 10 साल से नाकाम रही हैं।


अमेरिका ने सवा सौ अरब डॉलर फूँक दिए और हजारों अमेरिकी, यूरोपीय और अफगान जवान कुर्बान कर दिए, लेकिन ओबामा प्रशासन को अभी भी अफगानिस्तान से निकल भागने का रास्ता नहीं मिल पा रहा है। वह जुलाई 2011 में अफगानिस्तान खाली करना शुरू करेगा और 2014 तक उसे खाली कर पाएगा या नहीं, उसे खुद पता नहीं है।


ऐसे में भारत का मैदान में कूद पड़ना बहुत ही स्वागतयोग्य है। यह बात मैं पिछले दस साल से कह रहा हूँ और पिछले पाँच साल में इसे मैंने कई बार दोहराया है कि अफगानिस्तान अमेरिका की नहीं, भारत की जिम्मेदारी है। यदि अफगानिस्तान बेचैन होगा तो भारत कभी चैन से नहीं रह सकता।


हमारे सदियों पुराने इतिहास ने यह सिद्ध किया है। भारत में आतंकवाद ने तभी से जोर पकड़ा, जबसे अफगानिस्तान में अराजकता फैली है। अफगानिस्तान की अराजक भूमि का इस्तेमाल पहले रूस, फिर अमेरिका और सबसे ज्यादा पाकिस्तान ने किया।


सबसे ज्यादा नुकसान भारत का ही हुआ, लेकिन इस नुकसान की जड़ उखाड़ने का बीड़ा भारत ने कभी नहीं उठाया। वह अमेरिका पर अंधविश्वास करता रहा और अमेरिका पाकिस्तान पर अंधविश्वास करता रहा। अब ओसामा कांड ने इस अंधविश्वास के परखच्चे उड़ा दिए हैं।


अब भारत ने थोड़ी हिम्मत दिखाई है। पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने कहा है कि अफगानिस्तान की समस्या हमारी क्षेत्रीय समस्या है। अफगानिस्तान अपनी सुरक्षा जब खुद करेगा तो उसकी मदद करने में भारत पीछे नहीं रहेगा। यानी अमेरिका की वापसी के बाद भारत की कोई न कोई भूमिका जरूर होगी।


अब भी भारत यह कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है कि हम पांच लाख जवानों की राष्ट्रीय अफगान फौज और पुलिस खड़ी करने में आपकी मदद करेंगे। यह काम जितने कम खर्च और कम समय में भारत कर सकता है, दुनिया का कोई देश नहीं कर सकता। इसका खर्च तो अमेरिका सहर्ष उठा सकता है और इसके लिए अफगान सरकार भी तैयार है।


पिछले नवंबर में अपनी काबुल यात्रा के दौरान मैंने अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई, उनके प्रमुख मंत्रियों, फौज और गुप्तचर विभाग के सर्वोच्च अधिकारियों और लगभग सभी अन्य प्रमुख नेताओं से बात की थी। अफगानिस्तान के उज्ज्वल भविष्य के लिए सबको यही एकमात्र विकल्प मालूम पड़ता है, लेकिन हमारी सरकार पता नहीं क्यों ठिठकी हुई है?



उसे पाकिस्तान पर शक है। यह स्वाभाविक है। पाकिस्तान इस विकल्प को अपनी मौत समझता है। यदि पाँच लाख जवानों की फौज काबुल के पास हो तो पाकिस्तान अफगानिस्तान को अपना पाँचवाँ प्रांत कैसे बना सकता है?


इसीलिए हमारे प्रधानमंत्री ने न तो अफगान संसद के अपने भाषण में और न ही संयुक्त वक्तव्य में कहीं भी पाकिस्तान पर हमला किया। यह अच्छा किया।


उन्होंने सीमापार आतंकवाद और आतंकवादी अड्डों का जिक्र तक नहीं किया। उन्होंने हामिद करजई की तालिबान से बात करने की पहल का भी स्वागत किया। माना यह जा रहा है कि अब भारत अफगान पुलिस को प्रशिक्षण देगा। यदि यही काम बड़े पैमाने पर शुरू हो जाए तो मान लीजिए कि हमने आधा मैदान मार लिया।


पाकिस्तान हमारा विरोध करेगा। रास्ता भी नहीं देगा। यदि जरंज-दिलाराम सड़क इस वक्त काम नहीं आएगी तो कब आएगी? पाकिस्तान से हुए अमेरिकी मोहभंग की वेला में अगर भारत इतना भी नहीं कर सके तो उसे अपने आपको न तो अफगानिस्तान का दोस्त कहने का अधिकार है और न ही दक्षिण एशिया की क्षेत्रीय महाशक्ति!


- वेदप्रताप वैदिक

5 टिप्‍पणियां:

  1. गुटनिरपेक्षता की नीति भारत का बहुत अहित कर चुकी है। अब तो एक ही गुट है तो यह चिंता दूर हुई कि किस गुट से जुड़ें :)

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  2. डॉ० वैदिक जी आपने सामरिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में बहुत सुंदर विश्लेषण किया है बधाई |

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  3. १. चीन को पटाना क्या वाकई इतना आसान है?
    २. भारत क्या वाकई खुलकर अफगानिस्तान के साथ सामरिक मोर्चे पर खड़ा होगा?
    ३. क्या अमरीका को भारत का यह नया रोल पच सकेगा?

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