यह चुस्ती फिर कब दिखाई देगी?
- राजकिशोर
दूसरे सभी बुखारों की तरह आखिरकार कॉमनवेल्थ खेलों का बुखार उतर गया। दिल्ली के राजा लोग अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि वे एक कठिन परीक्षा में खरे उतरे हैं। जैसे ज्यादातर छात्र साल भर मौज-मस्ती करते हैं और आखिरी दिनों में परीक्षा की तैयारी जोर-शोर से करने लगते हैं, वैसे ही भारत सरकार शुरू में तो इस उम्मीद पर लगभग हाथ पर हाथ धरे बैठी रही कि ईश्वर की कृपा से सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन जब परीक्षा की तारीखें नजदीक आने लगीं और सब कुछ गलत ही गलत होता नजर आने लगा, तब आला वजीर को खुद हस्तक्षेप करना पड़ा और तैयारी की गाड़ी टॉप स्पीड से चलने लगी। अब हम संतोष की सांस ले सकते हैं और यह दावा कर सकते हैं कि हम उतने जाहिल या काहिल नहीं हैं जितना अखबारों में काम करने वाले, जो व्यवस्था के जन्मजात आलोचक हैं, हमें बता रहे थे। अखबार हार गए, सरकार जीत गई।
क्या यह प्रधानमंत्री की अचानक पैदा हुई नाराजगी का नतीजा था कि कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारी समय पर पूरी हो गई और हम अपनी ही आंखों में गिरने से बच गए? विचार करने की बात यह है कि विशेषज्ञ वही थे, अमलाशाही वही थी, ठेकेदार और मजदूर वही थे, लेकिन वे तब तक कछुए की चाल से चलते रहे जब तक इन सभी पर ऊपर से एक अदृश्य मुक्का पड़ा। क्या इस मुक्के की थाप न लगने तक वे अपना-अपना काम संतोषप्रद रफ्तार से नहीं कर सकते थे? मुक्का खाने के बाद इन सब की कार्य कुशलता अचानक बढ़ गई और जो समय पर होता हुआ नहीं दिख रहा था, वह अचानक रास्ते पर आ गया। इससे क्या पता चलता है?
पता यह चलता है कि भारत की अमलाशाही वास्तव में उतनी काहिल या कामचोर नहीं है जितनी आम तौर पर समझी जाती है। वह चाहे तो अपनी हर ड्यूटी को ठीक से और समय पर निपटा सकती है। लेकिन इसके लिए उसे चाबुक की फटकार चाहिए। चाबुक का डर न हो, तो सब कुछ बिखरा-बिखरा-सा पड़ा रहता है – फर्श की धूल, सड़कों के गड्ढे, शौचालयों की गंदगी, पेशाबखानों के दाग और दफ्तर की उद्देश्यहीन अस्तव्यस्तता। जब पता चलता है कि साहब दौरा करने वाले हैं, तब अचानक सभी अधीनस्थों की इंद्रियां – छठी इंद्रिय सहित - जाग उठती हैं और साहब जहां-जहां से गुजर सकते हैं, वहां-वहां सुंदरीकरण का अभियान शुरू हो जाता है। यह चुस्ती अचानक आसमान से टपक नहीं पड़ती, बल्कि भीतर सोई रहती है। जागती वह तब है जब निलंबित या बरखास्त होने का डर पैदा हो जाता है। शायद हमारा राष्ट्रीय चरित्र यही है।
बेशक सरकारी दफ्तरों और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की तुलना में निजी क्षेत्र के काम-काज में मजबूरी होने पर ही काम करने की प्रवृति बहुत कम दिखाई पड़ती है। इसका मुख्य कारण यह है कि सरकारी कर्मचारियों को नौकरी की सुरक्षा का अभेद्य कवच मिला हुआ है। उन्हें स्थानांतरित या मुअत्तल तो कभी भी किया जा सकता है, पर बरखास्त करना नाकों तले चने चबाना है। मंत्री आते-जाते रहते हैं, संत्री बने रहते हैं। दूसरी तरफ, निजी क्षेत्र में एक मिनट में छुट्टी हो जा सकती है – कर्मचारी की गलती हो चाहे न हो। यहां हर कर्मचारी अपनी पीठ पर चाबुक की छाया महसूस करता है और चाबुक की मार से नहीं, बल्कि मार के भय से सरपट दौड़ता रहता है - उसके पेट में पूरे दाने हों या नहीं।
निश्चय ही, यह कोई अच्छी हालत नहीं है। इसी आधार पर निजी क्षेत्र को सार्वजनिक क्षेत्र से ज्यादा चुस्त और कार्यकुशल बताया जाता है। प्रतिद्वंद्विता को सहकार से ज्यादा कारगर भावना माना जाता है। सवाल उठता है कि मनुष्य क्या हमेशा डर से ही परिचालित होता रहेगा? क्या लोभ ही उसकी कार्यकुशलता का स्तर ऊंचा रख सकता है? बेशक साधारण आदमी के लिए संत होना कठिन है (सच तो यह है कि संतों के लिए भी संत होना कम कठिन नहीं है)। बेहतर से बेहतर संस्कृति में भी डर और लोभ की कुछ न कुछ भूमिका बनी रहेगी। इसके बावजूद उत्पादन के पूरे तंत्र की परिचालिका शक्ति अगर यही तत्व बने रहते हैं, तो ऐसे समाज को कोई सभ्य समाज नहीं कहा जा सकता। यह तो एक तरह से दास प्रथा की वापसी है।
कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारी का पूरापन एक और तथ्य की याद दिलाता है। वह तथ्य यह है कि भारत सरकार आम तौर पर भले ही लद्धड़ और सुस्त दिखाई देती हो, किसी बड़ी चुनौती का सामना करना हो, तो वह चीते की-सी फुर्ती के साथ टूट पड़ती है। कुछ ऐसी ही घटनाओं को याद कीजिए। तेलंगाना में सशस्त्र क्रांति के प्रयास को कितना जल्द कुचल गया था। इमरजेंसी में सरकारी तंत्र कितना चुस्त और कार्यकुशल हो गया था। बाबू दफ्तर में समय पर पहुंचने लगे थे और रेलें एकदम समय पर चलने लगी थीं। जब पंजाब में आतंकवाद पर निर्णायक चोट करनी थी और भिंडरांवाले को खत्म करना था, तब अकाल तख्त पर कितनी त्वरित कार्रवाई की गई थी। जब करगिल में भारतीय जमीन को पाकिस्तानी घुसपैठियों से आजाद कराना था, तो इस काम को कितनी जल्द और कितनी बहादुरी के साथ अंजाम दे दिया गया था। लेकिन यही फुर्ती माओवादियों का सफाया करने में (यह उचित है या नहीं, यह अलग सवाल है), दिखाई नहीं पड़ रही है। इसका प्रमुख कारण यही है कि सरकार ने घोषणा भले ही कर दी हो, पर वह अपनी पूरी ऊर्जा के साथ इस अजेंडा पर काम नहीं कर पा रही है। अगर सरकार सचमुच ठान ले, तो यह काम दो-तीन महीने से ज्यादा का नहीं है।
इसीलिए यह प्रश्न करना जायज है कि कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन में जिस तरह की सक्रियता दिखाई दी, क्या वैसी ही सक्रियता अन्य सरकारी परियोजनाओं के क्रियावन्यन में क्यों दिखाई नहीं दे सकती? गरीबों के लिए सरकारी अनाज देर से पहुंचता है, बीपीएल कार्ड जारी करने में महीनों लग जाते हैं, सड़कें मरम्मत के इंतजार में बरसों बिलखती रहती हैं, बिजली के खंबे लग जाते हैं, पर बिजली को पहुंचने में कई साल लग जाते हैं, आदमी आज रिटायर होता है और उसकी पेंशन अगले या अगले के अगले साल शुरू हो पाती है आदि-आदि। स्पष्ट है कि सरकार ने खेलों के आयोजन में जैसी चुस्ती दिखाई, क्या वैसी ही चुस्ती वह अन्यत्र क्यों नहीं दिखा सकती है। लेकिन किसी को इसकी जरूरत ही क्या है? क्या इसके बिना भी देश ठीकठाक नहीं चल रहा है और दुनिया भारत में लोकतंत्र की सफलता के गीत नहीं गा रही है?
यह "अदृश्य चाबुक" चलाने के लिये 100-50 देशभक्त हिटलरों की सख्त आवश्यकता है अभी…
जवाब देंहटाएंIt is a very lovely presentation worth appreciating.
जवाब देंहटाएंकहते हैं न लातों के पीर बातों से नही मानते। गुलाम रहते हुये हमे चाबुक खाने की आदत पड गयी है। लगता है देश को एक हिटलर की जरूरत है। बहुत अच्छा लगा आलेख। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंयदि भ्रष्टता मिट जाय तो कोई कारण नहीं कि हम विश्व के शीर्ष देशों में से एक हों। तब शायद किसी चाबुक की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। सब कुछ चुस्त-दुरुस्त हो जाएगा॥
जवाब देंहटाएंकड़ी मेहनत रोज-रोज नहीं होती। जब कोई कास आयोजन हो तब के लिए बचाकर रखनी पड़ती है। घर में लड़की की शादी हो तो नक्कारे भी जोरदार मेहनत में लग जाते हैं। आखिर घर की इज़्ज़त का सवाल जो खड़ा हो जाता है। :)
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