'डायनोसोर' अचानक ६.५ करोड़ वर्ष पूर्व समाप्त
इस आश्चर्यजनक घटना - कि 'डायनोसोर' अचानक ६.५ करोड़ वर्ष पूर्व समाप्त हो गए थे' - के प्रमाण मिलते हैं जिऩ्हें अधिकांश वैज्ञानिक आज स्वीकार करते हैं। इस सन्दर्भ में अचानक का अर्थ होगा 'कुछ हजार वर्ष'। इस घटना के पहले महाकाय डायनासोर तो लगभग २० करोड़ वर्षों से पृथ्वी पर राज्य कर रहे थे, और उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं था। यह तो अचानक ही कोई घोर संकट आ टपका होगा कि यह घटना हुई। किन्तु ऐसा कैसे हुआ इसके विषय में वैज्ञानिकों में मतभेद थे। दक्षिण भारत के पठार में हुई ज्वालामुखियों की शृंखला इस घटना के लिये एक विकल्प मानी जा रही थी। किन्तु इस शृंखला की अवधि लगभग २० लाख वर्ष थी, जिसके प्रभाव को अचानक नहीं माना जा सकता।
२००९ में ४१ अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के दल ने इस विषय पर उपलब्ध खोजों का अध्ययन कर इस संभावना को सर्वाधिक मान्यता दी है कि एक विशाल उल्का के पृथ्वी पर आघात करने से ऐसा हुआ। वह आघात आज मैक्सिको कहे जाने वाले देश में हुआ था। वहाँ के यूकैतन प्राय:द्वीप में १८० किलोमीटर व्यास के एक विशाल कटोरेनुमा गह्वर का निशान-सा मिलता है जिसका नाम 'चिक्ज़ुलुब (Chicxulub) गह्वर' है। यह प्राचीन गह्वर प्राकृतिक घटनाओं द्वारा भर दिया गया है। अंतरिक्ष से देखने पर भी गह्वर की कुछ कुछ निशानी मिलती है। किन्तु इस गह्वर के होने की पुष्टि नासा के शटल द्वारा लिये गए रेडार चित्र बेहतर करते हैं। अनुमान और अन्य प्रमाणों को खोज कर ही इसे मूल गह्वर माना गया है।
वास्तव में वह आघात इतना भयंकर था कि उसने पृथ्वी की आधी से भी अधिक जैव जातियों को नष्ट कर दिया था। आघात करने वाली वह चट्टान लगभग १० -१५ किलोमीटर लम्बी चौड़ी गहरी रही होगी। और उसका वेग २० माक अर्थात ध्वनि के वेग से लगभग २० गुना रहा होगा, तथा वातावरण को चीरते हुए आने के कारण यदि जल नहीं रही होगी तब भयंकर गरम तो रही होगी। उसकी गतिज ऊर्जा तथा ताप से ही तुरंत ही विस्फ़ोट-सा हुआ होगा और चारों तरफ़ आग फ़ैली होगी, भूकम्प आया होगा, हो सकता है कि त्सुनामी ने समुद्र तटों को अपनी चपेट में ले लिया हो। उस आघात ने वायुमंडल में सैकड़ों अरबों टन चूना-मिट्टी और पत्थर, जो यूकैतन क्षेत्र में हैं, तोपों के गोलों के समान जलते हुए दागे होंगे, जो सारे विश्व में फ़ैले, और आकाश में वर्षों तक अँधियारा छाया रहा होगा जिसके फ़लस्वरूप प्रकाश संश्लेषण बन्द हो गया होगा, कुछ हजार वर्षों तक शीत लहर रही होगी; करोड़ों टन कार्बन डाइआक्साइड निकली होगी जिसके कारण तुरंत बाद में वैश्विक तापन भी हुआ होगा। इन सभी कारकों के फ़लस्वरूप जीवों की लगभग आधी जातियाँ नष्ट हो गईं।
उपरोक्त घटना जैवविकास के धीमी गति की तुलना में एक 'अचानक' घटना मानी जाएगी जिसने जैवविकास की दिशा बदल दी ।
एक रेडियोधर्मी तत्व है 'इरिडियम' जो अधिकांशतया उल्काओं से आता है। तात्कालीन चट्टानों में यह तत्व अचानक ही प्रचुर मात्रा में मिलता है। और जैसे जैसे हम दूर से इस गह्वर के पास पहुँचते हैं इरिडियम की मात्रा बढ़ती जाती है।
इसके कटोरेनुमा गह्वर से जो मिट्टी, चट्टानें आदि फ़ेकी गई थीं उसमें ताप और प्रघात (शाक) के फ़लस्वरूप जो क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल बने वह वैसे ही रूप रंग तथा बनावट वाले क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल हैं जैसे कि नाभिकीय विस्फ़ोटों तथा 'उल्का - आघाती' कटोरों के निकट मिलते हैं; और वैसे प्रघात क्वार्ट्ज़ क्रिस्टल उस समय की चट्टानों में सारे विश्व में मिलते हैं तथा उनकी मात्रा भी गह्वर की निकटता के अनुसार बढ़ती जाती है। उनकी रासायनिक संरचना भी वैसी ही है जैसी कि उस मूल कटोरे की चट्टानों की है।
तात्कालीन चट्टानों में उस समय की 'कालिख' भी उसी अनुपात में मिलती है।
तात्कालीन वायुमंडल में अचानक ही कार्बन डाइआक्साइड की भयंकर मात्रा के होने के प्रमाण उस काल की पत्तियों के जीवाश्मों में मिलते हैं। विस्फ़ोट के परिणाम स्वरूप गरम जल फ़ैला होगा जिसके प्रभाव के कारण तात्कालीन ध्रुवप्रदेशों में गरम जल वाले जीवाश्म मिलते हैं। समुद्रों की क्रोड़ से लिये गए आक्सीजन के समस्थानिक आँकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं।
जब उस उल्का आघात से अँधेरा छा गया और तापक्रम गिरा तब वनस्पति तो नष्ट होना शुरु हो गई होगी। डायनासोर्स के समान भीमकाय जानवर तो पहले नष्ट हुए, और छोटे जानवर कम नष्ट हुए। किन्तु सामुद्रिक प्लांकटन भी उस काल में अचानक ही बहुत कम बचा, जो दर्शाता है कि समुद्र भी उस घटना से बहुत प्रभवित हुआ था। उस समय स्तनपायी जानवर बहुत छोटे हुआ करते थे, और डायनासोर से डरे हुए रहते थे, वे बचे और उनकी संख्या बढ़ती गई, और आज राज्य कर रही है। यह कितना बड़ा संयोग है जिसके कारण मानव जाति आज पृथ्वी पर राज्य कर रही है। यदि 'चिक्ज़ुलुब (Chicxulub) उल्का न गिरता तो पता नहीं मनुष्य को विकास के लिये और कितने लाखों या करोड़ों वर्षों रुकना पड़ता !
उल्कापात तो होते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने अवलोकन तथा गणनाओं से अनुमान निकाला है कि इतने विशाल उल्कापात तो औसतन दस करोड़ वर्षों में एक होता है। अर्थात् भविष्य में भी ऐसे विशाल उल्कापात होंगे, किन्तु लगभग अगले दस करोड़ वर्ष में। अत: अभी तो उसकी चिन्ता की बात नहीं। चिन्ता की बात तो यह है कि कहीं हमारी भोग की प्रवृत्ति इस वसुंधरा को उसके बहुत पहले ही प्रलय में न डुबा दे या विशाल मरुस्थल न बना दे।
काफी महत्वपूर्ण जानकारी..ज्ञानवर्धक लेख..बधाई.
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