बाधाओं के बीच नई चाल में ढल रही हिंदी

बाधाओं के बीच नई चाल में ढल रही हिंदी
कांति  कुमार जैन 


जब मैं पिछले दिनों की प्रसिद्ध फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई देखकर लौट रहा था तो मेरे 20 वर्षीय नाती ने अचानक मुझसे पूछा- नानाजी मैंने कक्षा में गांधीवाद के बारे में तो पढ़ा था पर यह गांधीगीरी कोई नई बात है? मुझे कहना पड़ा कि गांधीगीरी बिल्कुल नई बात है और देश में बढ़ती मर्यादाहीनता, धृष्टता, सैद्धांतिक घपलेबाजी और वास्तविक प्रतिरोध न कर प्रतिरोध का स्वांग करने वालों को संवेदित करने जैसी चीज है। जिन शब्दों में गीरी लग जाता है, वे कुछ हीनता व्यंजक अर्थ देने लगते हैं। जैसे- बाबूगीरी, चमचागीरी, गुंडागीरी। मुझे भारतेंदु हरिश्चंद्र के उस कथन की भी याद आई, जिसमें आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व उन्होंने घोषित किया था कि हिंदी नई चाल में ढली। अंग्रेज भारत में धर्म, ध्वजा और धुरी के साथ आए थे। इन तीनों का प्रभाव हिंदी के स्वरूप पर भी पड़ा था। धर्म के प्रचार के लिए उन्होंने बाइबिल का अनुवाद किया और उसे मुद्रण यंत्रों से छपवाकर जनता के बीच वितरित किया। ध्वजा के लिए उन्होंने प्रश्न तंत्र तैयार किया और धुरी यानी तराजू के लिए भारत में अंग्रेजी माल का नया बाजार विकसित किया। इन तीनों के साथ हिंदी क्षेत्र में ढेरों अंग्रेजी शब्द आए, जो आज तक प्रचलित हैं।


 1947 में स्वतंत्रता के साथ ही हिंदी पुन: नई चाल में ढली। लोकतंत्र, संविधान, विकास कार्य, शिक्षा का प्रचार-प्रसार, तकनीक जैसे कारणों से हिंदी व्यापक हुई, उसका शब्दकोश समृद्ध हुआ। नए-नए स्त्रोतों से आने वाले शब्द हिंदी भाषी जनता की जुबान पर चढ़ गए। इन शब्दों में विदेशी शब्द थे, बोलियों के शब्द थे, गढ़े हुए शब्द थे। जब जनता अपनी बात कहने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग करती है, उनकी कुंडली नहीं पूछती। बस हमारा काम चलना चाहिए। वह तो भाषा के पंडित हैं, जो शब्दों का कुल-गोत्र आदि जानना चाहते हैं।


 जनता भाषा की संप्रेषणीयता को महत्वपूर्ण मानती है, जबकि पंडित लोग भाषा की शुद्धता को महत्व देते हैं। हिंदी के स्वाभिमान का हल्ला मचाने वालों को आड़े हाथों लेते हुए निराला जी ने एक बड़े पते की बात कही थी- "हम हिंदी के जितने दीवाने हैं, उतने जानकार नहीं"। हिंदी के शुद्धतावादी पंडितों ने कुकुरमुत्ता नामक कविता में प्रयुक्त नवाब, गुलाब, हरामी, खानदानी जैसे शब्दों पर ऐतराज जताया था। कहा था कि इन शब्दों से हमारी हिंदी भ्रष्ट होती है। इन शुद्धतावादी विचारकों का कहना है कि हिंदी के साहित्यकारों को विदेशी शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। अब सामंत, वर्णशंकर, कुलीन कहने से हिंदी के स्वाभिमान की रक्षा भले ही हो जाए, किंतु व्यंग्य की धार भोंथरी होती है और संप्रेषणीयता भी बाधित होती है। हिंदी के ये शुद्धतावादी पोषक शहीद भगत सिंह को बलिदानी भगत सिंह कहना चाहते हैं। उनका बस चले तो वे भगत सिंह को भक्त सिंह बना दें। वे फीसदी को गलत मानते हैं, उन्हें प्रतिशत ही मान्य है। वे राशनकार्ड, कचहरी, कार, ड्राइवर, फिल्म, मेटिनी, कंप्यूटर, बैंक, टिकट जैसे शब्दों के भी विरोधी हैं। वजह, वही हिंदी का स्वाभिमान। यह झूठा स्वाभिमान हिंदी के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। ऐसे लोग हिंदी को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते। वे वस्तुत: जीवन की प्रगति के ही विरोधी हैं।


 एक बार पं. शांतिप्रिय द्विवेदी जबलपुर आए थे। कवि पं. भवानी प्रसाद तिवारी उन दिनों वहाँ के मेयर थे। उन्होंने शांतिप्रिय जी के सम्मान में एक कवि गोष्ठी का आयोजन किया। अपनी कविताएँ भी सुनाईं। उनकी एक काव्य पंक्ति है-  "कैसी मुश्किल कर दी, तुमने कितनी रूप माधुरी प्राणों में भर दी"। शांतिप्रिय जी का हिंदी प्रेम जागा। उन्होंने सौंदर्य के आप्लावनकारी तत्व को परे खिसकाते हुए शिकायत की, बाकी सब तो ठीक है, यह मुश्किल शब्द विदेशी है। इसे यहाँ नहीं होना चाहिए। भवानी प्रसाद जी तो अतिथि वत्सल और शालीन थे। वे कुछ नहीं बोले, पर जीवन लाल वर्दी विद्रोही जो स्वयं बहुत अच्छे कवि और व्यंग्य कर रहे थे, बिफर गए। बोले- मुश्किल से आसान शब्द आप हिंदी में बता दें तो अपना नाम बदल दूँ।


 पंडित शांति प्रिय द्विवेदी जैसे विद्वान जीवन की प्रगति से ज्यादा भाषा की शुद्धता के हिमायती हैं। जीवन जब आगे बढ़ता है तो वह अपनी आवश्यकता के अनुरूप नए शब्द दूसरी भाषाओं से उधार लेता है, नए शब्द गढ़ता है, लोक की शब्द संपदा को खंगालता है और अपने को संप्रेषणीय बनाता है। मेरे एक मित्र हैं। वह मोबाइल रखते हैं, पर मोबाइल शब्द का प्रयोग उन्हें पसंद नहीं है। मोबाइल को वे चलित वार्ता कहते हैं। जब वे आप से अपनी चलित वार्ता का क्रमांक पूछते हैं तो आप भौचक्के रह जाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। ऐसे शुद्धतावादी हर युग में हुए हैं और हास्यास्पद माने जाते रहे हैं। 


मध्यकाल के उस फारसीदाँ का किस्सा आज भी लोगों द्वारा दुहराया जाता है, जब वे अपने नौकरों से आब-आब की माँग करते रहे थे और पानी उनके सिरहाने ही रखा था। सो, जब कोई दीवाना मोबाइल को अछूत समझता है या पानी से परहेज करता है तो न वह भाषा का मित्र है और न ही अपने जीवन का। ऐसे विद्वानों को मेरे मित्र अनिल वाजपेयी अनसुधरे बल कहते हैं। हिंदी तो बराबर स्वयं को सुधारती चलती है, पर ये विद्वान लकीर पीटने में ही मगन रहते है। हिंदी के एक विख्यात समीक्षक को दबिश जैसे शब्दों से परहेज है। वे समझते हैं कि दबिश अंग्रेजी के फुलिश या रबिश का कोई भाई-बंद है। यदि उन्होंने हिंदी को ही दबना, दबाना दाब, दबैल जैसे शब्दों को याद कर लिया होता तो वे दबिश के प्रयोग पर आपत्ति नहीं करते। कचहरी, पुलिस, कानून-व्यवस्था, थाना आदि से संपर्क रखने वाले दबिश से अपरिचित नहीं हैं। वस्तुत: हिंदी के दीवाने जीवन से अपने शब्दों का चयन नहीं करते, हिंदी के शब्दकोशों से करते हैं।


 हिंदी के शब्दकोशों के सहारे हम आज के लोकतांत्रिक भारत के जीवन, सामाजिक विसंगतियों, आर्थिक उलझनों और सांस्कृतिक प्रदूषण को पूरी तरह और सही-सही समझ ही नहीं सकते। हिंदी के शब्दकोश में न तो सुपारी जैसा शब्द है, न अगवा, हफ्ता, फिरौती, बिंदास, कॉलगर्ल, ब्रेक जैसे शब्द। आप हर दिन समाचार पत्रों, पुस्तकों, जन संप्रेषण माध्यमों, बोलचाल में ये शब्द सुनते हैं और समझते हैं, पर इन्हें अभी तक हमारे कोशकारों ने पंक्तियां मानकर शब्दकोश में स्थान नहीं दिया। हमारे शब्दकोश जीवन से कम से कम पचास साल पीछे हैं। हिंदी में समस्या नए विदेशी शब्दों को स्वीकृत करने की तो है ही, उन शब्दों को भी अंगीकार करने की है, जो हिंदी की बोलियों में प्रचलित हैं। हिंदी के साहित्यकार विभिन्न बोली क्षेत्रों से आते हैं। वे जब हिंदी में अपने क्षेत्रों के अनुभवों और परिवेश की कथा लिखेंगे तो वहाँ के शब्दों के बिना उनका काम नहीं चलेगा। 


हिंदी सदैव से एक उदार और ग्रहणशील भाषा रही है। जब रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी कहा तो वे हिंदी की इसी व्यापक ग्रहणशीलता को रेखांकित कर रहे थे। साधु किसी एक स्थान पर जमकर नहीं रहता, घूमना-फिरना, नए-नए क्षेत्रों में जाना उसकी सहजवृत्ति है। इसी कारण हमारे मध्यकालीन संत कवियों में नाना बोली क्षेत्रों के शब्द मिल जाएंगे। हिंदी कविता का अधिकांश तो हिंदी की बोलियों में ही है। तुलसी, जायसी जैसे कवियों ने अपनी बोली के शब्दों से अपने काव्य को समृद्ध किया है। नए युग में भी गुलेरी ने ‘उसने कहा था’ में ‘कुड़माई’ जैसे शब्द का प्रयोग कर उसे हिंदी पाठकों का परिचित बना दिया। कृष्णा सोबती ‘डार से बिछुड़ा’ लिखकर पंजाबी ‘डार’ को हिंदी का शब्द बनाने में संकोच नहीं करतीं। मैला आँचल, जिंदगीनामा, डूब, चाक जैसे उपन्यासों की रोचकता केवल कथा को लेकर ही नहीं, उसकी भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता को लेकर भी है। 


कुछ दिनों पहले हिंदी के एक समीक्षक ने मैला आंचल की हिंदी को अपभ्रष्ट कहकर उसका परिनिष्ठित हिंदी में अनुवाद करने का सुझाव दिया था। इधर हिंदी की बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में स्वीकृत किए जाने की माँग बढ़ रही है। यदि अवधि को हिंदी से पृथक भाषा मान लिया जाएगा, तब क्या रामचरित मानस का हिंदी अनुवाद करना पड़ेगा। हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों को भोजपुरी में रूपांतरित करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी? नामवर सिंह तब हिंदी के नहीं, भोजपुरी के साहित्यकार माने जाएँगे। 


इधर मेरे पास बुंदेली प्रेमियों के बहुत से पत्र आ रहे हैं, जिसमें आग्रह किया जा रहा है कि मैं अपनी मातृभाषा के रूप में हिंदी को नहीं, बुंदेली को जनगणना पत्रक में दर्ज करवाऊँ? यह एक संकीर्ण विचार है। इससे हिंदी बिखर जाएगी और हिंदी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। हमें हिंदी को अद्यतन बनाने के लिए जिन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए, उन बातों की ओर किसी का ध्यान नहीं है। हमारे विश्वविद्यालयों, हिंदी सेवी संस्थाओं, हिंदी के प्रतिष्ठानों के पास ऐसी कोई योजना नहीं है कि हिंदी में आने वाले नए शब्दों का संरक्षण, अर्थ विवेचन और प्रयोग का नियमन किया जा सके। ‘पिछड़ी’ का विरोधी शब्द ‘आगड़ी’ हिंदी में इन दिनों आम है, पर अगड़ी का शब्दकोशीय अर्थ अर्गला या अड़ंगा है। 


अभी हाल में ही आक्सफोर्ड एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी का नया संस्करण जारी हुआ है। इसमें विश्व की विभिन्न भाषाओं के करीब तीन हजार शब्द शामिल किए गए हैं। बंदोबस्त, बनिया, जंगली, गोदाम जैसे ठेठ भारतीय भाषाओं के शब्द हैं, पर वे अंग्रेजी के शब्दकोश में हैं। क्योंकि अंग्रेजी भाषी उनका प्रयोग करते हैं। इन नए शब्दों में एक बड़ा रोचक शब्द है चाऊ या चाव, जिसका अर्थ दिया गया है चोर, बदमाश, अविवाहित माँ। इस चाव शब्द का एक रूप चाई भी है। सूरदास ने चाव शब्द के चबाऊ रूपांतर का प्रयोग अपनी कविता में किया है- ‘सूरदास बलभद्र चबाऊ जनमत ही को धूत’। हिंदी का चाव या चाई शब्द सात समंदर पार तो संग्रहणीय माना जाता है, पर अपने घर के शब्दकोशों में नहीं दिखता।


 हिंदी क्षेत्र में इतने विश्वविद्यालय हैं, हिंदी का प्रचार-प्रसार करने वाली इतनी संस्थाएँ हैं। क्या कोई ऐसी योजना नहीं बन सकती कि हिंदी में प्रयुक्त होने वाले नए शब्दों को रिकार्ड किया जा सके। हम प्रत्येक दस वर्ष में जनगणना पर करोड़ों रुपये खर्च करते हैं, क्या हिंदी की शब्द गणना पर कुछ खर्च नहीं किया जा सकता? वैश्विकीकरण के साथ, नई उपभोक्ता वस्तुओं के साथ, नए मनोरंजन के साथ, लोकतंत्र की नई-नई व्यवस्थाओं के साथ जो सैकड़ों शब्द हिंदी में आ रहे है, उन्हें काल की आँधी में उड़ जाने देना गैर-जिम्मेदारी भी है और लापरवाही भी है। यह हिंदी के प्रति हमारी संवेदनविहीनता का द्योतक तो है ही। 

हमें आज हिंदी के शुद्धतावादी दीवाने नहीं, हिंदी के संवेदनशील जानकार चाहिएँ।






3 टिप्‍पणियां:

  1. मेरा मानना है कि हम जो हो रहा है उसके रोने और फिर मुंह धोने में समय बरबाद न करके, अपनी ऊर्जा को हिन्‍दी की बेहतरी के लिए प्रयोग करें तो हिन्‍दी हित में यह सर्वोत्‍तम योग होगा।

    इस योगदान से हिन्‍दी चाहे राष्‍ट्रभाषा, राजभाषा न बने पर गारंटिड है कि विश्‍वभाषा जरूर बनेगी। आज से ही सभी ब्‍लॉगर, चाहे वे विवाद करते हैं अथवा संवाद, प्रण ले लें कि प्रत्‍येक सप्‍ताह में कम से कम एक और अधिक से अधिक की तो कोई सीमा ही नहीं है, हिन्‍दी ब्‍लॉग बनवायेंगे और उसे सक्रिय रखने में जुटे रहेंगे।

    जैसे हम पीते हैं चाय उसी प्रकार पोस्‍टें लगायें और जितने और जो रखते हैं मोबाइल, उतने ब्‍लॉग बनायेंगे - फिर किसकी मजाल कि हिन्‍दी को विश्‍वभाषा बनने से रोक सके।

    कुछ समय बाद ही आप देखेंगे कि हमारी प्‍यारी हिन्‍दी विश्‍वभाषा की प्रतिष्‍ठा पा चुकी है।

    जवाब देंहटाएं
  2. चिन्तनपरक आलेख...........

    अच्छी बात.........

    जवाब देंहटाएं
  3. जाने कैसे सोच लेते हैं लोग इतनी गम्भीर बातें!!!

    जवाब देंहटाएं

आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

Comments system

Disqus Shortname