" विमर्श के लिए लेख पुनः प्रेषित है,
असग़र वजाहत के सुझाव पर कि हिंदी रोमन लिपि में भी लिखी जाये.
ज़रूरी नहीं है कि सुझाव स्वीकार ही किया जाये लेकिन इस पर विमर्श तो किया ही जाना चाहिए
उमेश "
इस सन्देश के साथ प्राप्त लेख को पाठको के विमर्श हेतु पठनार्थ प्रस्तुत कर रही हूँ|
आपको स्मरण होगा कि गत दिनों यहाँ उक्त विषय पर प्रभु जोशी जी व राजकिशोर जी के अत्यंत विचारोत्तेजक लेख ( असगर वजाहत जी के उक्त सुझाव (?) की मीमांसा करते हुए / खंडन करते हुए ) प्रकाशित किए थे| पाठकों से निवेदन है कि कोई राय बनाने से पूर्व वे उन लेखों का पाठ भी देखे -विचारें व तब किसी निर्णय पर पहुँचें|
आपके विचारों की प्रतीक्षा है ।
- कविता वाचक्नवी
मत कर मोह तू
उमेश अग्निहोत्री
असग़र वजाहत के लेखों (16 और 17 मार्च) की प्रतिक्रियास्वरूप जनसत्ता के पृष्ठों पर जो बहस छिड़ी है वह स्वागतयोग्य है । लेखों को पढ़कर पहले तो मेरे मन में भी कुछ वैसी ही प्रतिक्रियाएँ हुई थीं जैसी मतांतर में व्यक्त की जा रही हैं, लेकिन अब वे मुझे भावनात्मक अधिक लग रही हैं, वैज्ञानक सोच से प्रेरित कम ।
अब 4 अप्रेल के लेख की ही बात करें तो राजरानी पालीवाल कहती हैं कि हमारे यहाँ का संपन्न शहरी समाज अपने आप को देवनागरी लिपि और भारतीय भाषाओं से दूर रख कर भले ही श्रेष्ठता बोध का शिकार हो, आम जनता तो रोमन और देवनागरी से कोसों दूर है ।
मेरी नज़र में इस से भी अधिक गंभीर मसला यह है कि एक लिपि न होने के अभाव में भारत के विभिन्न राज्यों का संपन्न पढ़ा लिखा शहरी समाज और भारत का मध्य वर्ग स्वतंत्रता प्राप्ति के 60-65 वर्ष बाद आज भी एक दूसरे से कोसों दूर बना हुआ है । असली मुद्दा यह है कि उसे एक दूसरे के करीब किस प्रकार लाया जाये । कौन सी लिपि इस कार्य में योगदान कर सकती है ? आज के प्रोद्योगिक विश्व में, जब कि रू-ब-रू की बजाय, इंटरनेट पर लिखित में संवाद का प्रचलन निरंतर बढ़ता दिखाई दे रहा है, लिपि पहले कभी की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण बन गयी है । इसलिये असग़र वजाहत ने फिर वही रोमन राग ठीक ही छेड़ा है ।
शासक वर्ग ने तो अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिये अंग्रेजी अपना ही रखी है, वे चाहे किसी भी प्रदेश के हों, एक दूसरे की बात भी समझते हैं, लेकिन शासित और विभिन्न प्रदेशों के मध्यवर्ग आज भी एक दूसरे से लिख कर बात नहीं कर पा रहे । इसमें नुकसान उन्हीं को ही नहीं, सभी को हो रहा है, और अंग्रेजी बनी हुई है ।
मुझे नहीं मालूम था कि कभी प्रगतिशील लेखक संघ ने भारत की सभी भाषाओं के लिये रोमन लिपि अपनाने का सुझाव दिया था, और जैसा कि रीतारानी पालीवाल कहती हैं, उसके लिये कोई वैज्ञानिक आधार नहीं दिया था । मेरे विचार में इसके वैज्ञानिक आधार हैं और उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता । डॉक्टर हरदेव बाहरी ने भाषा विज्ञान कोश में रोमन लिपि के बारे में लिखा है कि इसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन-परिवर्धन कर के विश्व लिपि के रूप में अपनाया जा सकता है ।
अगर हम गौर करें तो रोमन लिपि में यह जो विशेषता है वह किसी अन्य लिपि में उतनी नहीं है । रोमन अक्षरों के विकास की कहानी दिलचस्प है । आरंभ में यह बड़े अक्षरों में ही लिखी जाती थी, जिन्हें तेज़ लिखने के लिये छोटे अक्षरों में परिवर्तित किया गया । इसका एक फायदा यह हुआ कि कागज़ पर एक बार लिखना शुरू कर देने के बाद पूरा शब्द एक ही झ़टके में लिखा जाने लगा, जो गुण दुर्भाग्य से हमारी देवनागरी में नहीं है । किसी भी शब्द को लिखने के लिये कई बार कलम उठानी पड़ती हैं । आरंभ में रोमन लिपि में अक्षरों की संख्या 23 थी, जिसमें J, U, W बाद में जोड़े गये ताकि लैटिन के अलावा अन्य भाषाएँ भी लिखी जा सकें । आज रोमन लिपि के कई रूप प्रचलित हैं । इसे इंग्लिश, आयरिश, चेक, हंगेरियाई, स्वीडिश, तुर्क, और उसके माध्यम से अज़रबेजानी, उज़बेकिस्तानी, वियतनामी जैसी अनेक विविध जातियों ने अपनाया है, और इससे उन देशों का अपनी संस्कृति से रिश्ता नहीं टूटा है, जैसे कि कई प्रतिक्रियाओं में व्यक्त किया गया है । वियतनाम के उत्तर और दक्षिणी भागों में दो अलग-अलग लिपियाँ प्रचलन में थीं, अब एक – रोमन – ही कर दी गई है । स्पष्ट है कि विदेशी लिपि अपना लेने से संस्कृति से संबंध नहीं टूटता, ( जायसी का उदाहरण भी हमारे समक्ष है ) अलबत्ता, भाषा को उसकी समग्रता में अपना लेने से यह मुमकिन है ।
अपनी सीमित अक्षर संख्या के कारण रोमन को लिखना और पढ़ना आसान हो जाता है । कई लोगों का तर्क है कि चूंकि देवनागरी ध्वनिमूलक लिपि है, उसमें जो लिखा जाता है, वह ही पढ़ा जाता है, इसलिये अधिक वैज्ञानिक है और हिंदी के लिये अधिक उपयुक्त भी है । भारत में बहुत से अक्षर, एक ही व्यंजन को कई प्रतीकों में बदल देते हैं, जिनमें स्वर अर्थात मात्राओं के लगाने से वे इतने अधिक हो जाते हैं कि किसी दूसरी भाषा के बोलनेवालों के लिये याद रखना दुरूह होता चला जाता है । मिसाल के लिये प्रमुख द्रविड भाषा तमिल की आक्षरिक लिपि में, भाषा-विज्ञानियों के अनुसार, 312 अक्षर बन जाते हैं और कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में तो इससे भी अधिक । ऐसी स्थिति में किसी दूसरे भाषा-भाषी के साथ लिखित में संवाद स्थापित करना कितना कठिन हो जाता है, यह हम सभी जानते हैं । दूसरे की भाषा को समझने के लिये पहले उसकी लिपि को सीखो, फिर उससे बात करो । और जिस देश में अनेकों भाषाएं हों, और उनकी उतनी ही लिपियां हों, ऐसे में लिपियां क्या उन्हें जोड़ने में बाधक नहीं बन रही है ? हमें सोचना चाहिये कि हिंदी जैसी भाषा, जिसमें भारत भर को जोड़ने का समर्थ है, और जहां तक बोलने की बात है, यह देशभर में बोली और समझी जाती है, क्या उसकी लिपि, देवनागरी, हिंदी के प्रचार-प्रसार के रास्ते में अड़चन तो नहीं बन रही ? क्या लिपि के आग्रह ने हिंदी और उर्दू को एक दूसरे को दूर नहीं रखा, और देश के विभाजन की माँग में प्रतिक्रियात्मक भूमिका नहीं निभायी ? क्या हम देवनागरी पर आज भी जोर इसलिये तो नहीं दे रहे कि हमें देवनागरी में लिखने की आदत और सुविधा है ? मुझे खुद देवनागरी में लिखना पसंद है ।
भाषा का ध्वनिमूलक संस्कार भी उसका कोई बहुत बड़ा गुण नहीं है । अगर इसे उसका गुण मान लिया जाये तब तो हमें किसी उस भाषा की ओर झुकना चाहिये जो हिंदी से भी अधिक ध्वनिमूलक हैं । तिस पर भी, अभी कोई भी ऐसी भाषा नहीं है जो दावे के साथ कह सके कि उसके यहां सभी ध्वनियों के अक्षर-रूप हैं, जो वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में निरंतर बढ़ते ही चले जायेंगे। क्या हिंदी की बात दीगर है ?
यह सही है कि अगर भारत की सभी भाषाएँ देवनागरी लिपि अपना लेतीं तो लोगों को एक-दूसरे के करीब लाने का सिलसिला अपेक्षतया आसान हो जाता । लेकिन वैसा तो होता आज भी दिखाई नहीं दे रहा । इसके उलट देखने में यह आ रहा है भारत की कोई भी भाषा सिखाने के लिये रोमन लिपि का प्रयोग ही अधिक हो रहा है । और अगर यह हो ही रहा है तो इसे अपना ही क्यों न लिया जाये । स्कूलों में जिन बच्चों को पहली कक्षा से ही अंग्रेजी की शिक्षा दी जा रही है , और जो अंग्रेजी का व्याकरण, शब्द विन्यास कठिनता से सीख पा रहे हैं, जब वे रोमन लिपि में अपनी बात आसानी से व्यक्त कर पायेंगे, तो क्या वे उसी ओर पहले नहीं जायेंगे ?
लिपि जितनी सरल हो उतनी ही अच्छी रहती है । रोमन लिपि की लोकप्रियता एक बड़ा कारण उसका सरल होना है । जहां तक उसे अपनाने को लेकर यह आपत्ति है कि उसमें जो लिखा जाता है उसका उच्चारण उससे भिन्न हो जाता है, पी यू टी पुट और बी यू टी बट क्यों है, कमल हसन है या हसान या हासन, प्रकाश करात है या प्रकाश कारत या करत, यानी उच्चारण की समस्या पैदा हो जाती है, तो इसका संबंध तो वर्तनी से है । बहुत सी भाषाएं ऐसी हैं जिनकी लिपि में केवल व्यंजन ही हैं, और उनमें स्वर बिंदु या रेखाओं के द्वारा चिन्हित किये जाते हैं, शब्द क्या है यह संदर्भों से समझ आता है । मतलब शब्द तो केवल सिंबल होता है, उसका उच्चारण क्या है, वह तो जिस तरह वह किसी क्षेत्र में बोली जा रही है उससे तय होता है । बच्चा पहले भाषा की ध्वनियों से परिचित होता है, उसका लिखित रूप तो वह बाद में देखता है, और किस ध्वनि को कौन-सा अक्षर या शब्द व्यक्त करता है, यह तो अपने मस्तिष्क में बाद में जोड़ता है । अगर किसी को मालूम है कि प्रकाश का उपनाम करात है या कारत, तो अंग्रेज़ी में उसके हिज्जे कुछ भी हों, वह बुलेगा उसी तरह जिस तरह वर्तनी में बुलता आया होगा । कानपूर के-ए-न-पी-यू-आर लिखा जाता है, कोई उसे कनपुर नहीं पढ़ता । न ही नागपुर को नगपुर और सीतापूर या सीतापुर को सितापुर । यही बात दक्षिण भारत के कई शहरों के नामों पर भी लागू होती है ।
उच्चारण पर बल देना ठीक तो है, लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा बल देना कभी-कभी भाषा के विकास की राह में अवरोध पैदा कर देता है । वह इसलिये कि यह भाषा को एक मानक रूप प्रदान कर देता है, जब कि भाषा का स्वभाव है कि वह हर बारह कोस बाद बदलने लगती है । हर वह व्यक्ति जो भाषा को उसके मानक रूप में उच्चारित करता है वह यह समझने लगता है कि उसका उच्चारण तो शुद्ध और सही है और जो उस की तरह नहीं बोल पा रहा उसका उच्चारण अशुद्ध और ग़लत है । यह एक बड़ा कारण है कि बहुत से अहिंदी भाषी हिंदी बोलने से बचते हैं । यहां चीन की चित्र-लिपि के उदाहरण से हम भारतीयों को कुछ ग्रहण करना चाहिये । उसकी चित्र-लिपि एक ही है, जिसे उसकी 45-50 की लगभग राष्ट्रजातियाँ समान रूप से अपनी –अपनी बोलियों में पढ़ पाती हैं और समान लिपि होने के बावजूद अपनी-अपनी अलग पहचान बनाये हुए हैं ।
यह तथ्य भी गौरतलब है कि, जैसा कि भाषा विज्ञानी ध्यान दिलाते हैं, हिब्रू लिपि का उपयोग यीडिश लिखने के लिये होने लगा है जिसमें मूलत : जर्मन और स्लाविक तत्व हैं, जिनका हिब्रू से कोई संबंध नहीं है । इसका प्रयोग मध्य यूरोप के यहूदी करते हैं । इससे यह साबित होता है कि कोई लिपि उस भाषा से अलग, और स्वतंत्र रूप से भी बनी रह सकती है जिसके लिये वह प्रारम्भ में उपयोग मे आयी थी । हमारे अपने ही क्षेत्र में पंजाबी, गुरुमुखी और शाहमुखी में लिखी जाती है । कहते हैं कि अगर पश्चिमी देशों के इसाईयों ने Saracens यानी इस्लाम के पूर्व के सीरियाई-अरबों को पीछे खदेड़ न दिया होता तो पश्चिमी युरोपीय आज अपनी भाषा अरवी अक्षरों में लिख रहे होते । इंटरनेट पर मैंने इसी विषय पर कुछ शोध करते हुए यह भी पढ़ा कि संस्कृत भी कई लिपियों में लिखी जा रही है । यह बात कितनी सही है, यह तो आप जाने, यहां कहने का तात्पर्य यह है कि लिपि और भाषा का संबंध अटूट नहीं है । लिपि सुविधा के लिये है ।
हिंदी के लिये रोमन लिपि अपनाने का फायदा प्रकाशन जगत को भी होगा । उसका बाज़ार बढ़ेगा । इसका फायदा फिर लेखक को भी होगा आज हिंदी के बड़े से बड़े लेखक को तमिलनाडू में कोई नहीं जानता । रोमन लिपि हो जाने से, भारत के दक्षिणी राज्यों में जो लोग हिंदी फिल्में देखते हैं, बड़ी आसानी से पाठक बन जायेंगे । और दक्षिणी राज्यों में ही नहीं, विदेशों में – अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, यूरोप में जो भारतीय रहते हैं, उनकी दूसरी पीढ़ी भी हिंदी को अपनाये रख सकेगी । हिंदी फिल्म का जो क्षेत्र है, वह हिंदी भाषा का भी है । हिंदी को अखिल भारत की या विश्व की भाषा बनाना है तो हमें उसके इस आयाम का भी फायदा उठाना चाहिये ।
मुझे तो लगता है कि अगर रोमन लिपि पहले ही अपना ली गई होती, तो भारत में अंग्रेजी-प्रेम इस कदर न बढ़ता जितना कि आज देखने में आ रहा है , बल्कि उसके ही हथियार से उसका मुकाबला किया जा सकता था ।
सुनने में आया है कि चीन और जापान जैसे देशों में भी आज रोमन लिपि को लेकर विचार किया जा रहा है । मैं असग़र वजाहत की इस राय से सहमत हूं कि हमें लिपि के मामले में भावनात्मकता से ऊपर उठ कर तटस्थ और निष्पक्ष रह कर विचार करना चाहिये, और सोचना चाहिये कि वह कौन सी लिपि है जिसमें हमें एक दूसरे से और विश्व से जोड़ने की सबसे अधिक क्षमता है । सबको अपनी मातृभाषा प्यारी होती है, उसके जटिल से जटिल ध्वनियां और संरचनाएं हम आसानी से सीख लेते हैं, लेकिन दूसरे भाषा-भाषियों के लिये यह काम इतना आसान नहीं है । हम क्या उन पर अपनी लिपि इसलिये थोपें क्योंकि हम बहुमत हैं ? मातृभाषा को विश्वभाषा के रूप में स्वीकार कराने के लिये कुछ छोड़ने – अपनाने के लिये मन बनाना होगा ।
जो भारतीय विदेशों में बस गये हैं उन से तो मेरा विशेष आग्रह रहा है कि वे एक-दूसरे से और अपने बच्चों से लिखित में बात करने के लिये रोमन लिपि का अधिकाधिक प्रयोग करें । उनके बच्चे हिंदी समझते तो हैं, लेकिन उसे देवनागरी में न पढ़ पाने के कारण लिखित में अंग्रेजी का ही प्रयोग करते हैं । रोमन लिपि उन्हें आती ही है, यह लिपि उन्हें हिंदी से जोड़े रखने का काम आसानी से कर सकती है, क्योंकि भाषा को लिखित रूप में याद रखने के लिये उसकी लिपि निरंतर देखते रहने से वह भाषा दिमाग में जमता रहेगी । यह तरीका हिंदी को विदेश में भी जिंदा रख पायेगा, नहीं तो जाने कब वे बच्चे हिंदी सीखेंगे, हिंदी की पुस्तकें खरीदेंगे, फिर पढ़ेगे, और एक-दूसरे से लिख कर बात करने में सक्षम हो पायेंगे ।
अंतत: होगा वही जैसा माना जाता है कि विदेश में तीसरी पीढ़ी के पास उनके बाप-दादा के दिये नाम तो रह जायेंगे, उनके पास उनकी भाषा नहीं रहेगी ।
लिपि के मोह में क्या हमारी काग़जी मुद्रा पर, रोड साइनों पर लिपियों की भरमार होती चली जायेगी और हम में दूरियाँ बनी रहेंगी ?
चलिये आपके बाकी सब तर्क मान भी लें लेकिन सबसे बड़ी समस्या ये है कि रोमनागरी को पढ़ना अपने आप में एक सजा है। एक पैराग्राफ पढ़ने में 15-20 मिनट लग जाते हैं और पढ़ने का मजा भी नहीं रहता।
जवाब देंहटाएंजैसी बातें ऊपर व्यक्त की गई हैं उस हिसाब से रोमन में पढ़ना तभी सुविधाजनक हो सकता है जब पहली बात तो ये कि हिन्दी को रोमन में लिखे जाने के फिक्स नियम हों और दूसरा एक बच्चे को जन्म से रोमन में ही हिन्दी पढ़ने के लिये दीक्षित किया जाय तो आगे जाकर वह ऐसी हिन्दी (?) पढ़ पायेगा। फिलहाल हमें लगता है कि इतनी मेहनत करने से जल्दी कोई देवनागरी लिपि सीख सकता है।
और एक बात, इसे भविष्यवाणी समझ लें। चाहे असगर साहब जैसे रोमनागरी समर्थक लोग कुछ कहें, काम चलाने की बात अलग लेकिन रोमन लिपि हिन्दी भाषा के लिये देवनागरी का स्थान कभी न ले सकेगी। ऐसा कहने का कारण हमारा देवनागरी प्रेम नहीं बल्कि हिन्दी को रोमन में व्यक्त करने की दुरुहता है।
@ ई-पंडित,
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने।
.. और कोई भला यह बताए कि ध,ढ / थ,ठ/थ आदि जैसी ध्वनियों और उन से बनने वाले शब्दों का क्या हाल होगा, जिनके लिए रोमन में कोई वर्ण ही नहीं अलगाने वाले। उन सबकी तो हत्या ही हो जाएगी ना।
लिपि के वैज्ञानिक मानते हैं कि संसार की सर्वश्रेष्ठ व सर्वाधिक वैज्ञानिक, सर्व सम्पन्न, सर्व समर्थ लिपि कोई है तो वह है देवनागरी। जरा उमेश जी और असगर जी लिपियों की विवेचना और उसका मानव मस्तिष्क से सह सम्बन्ध, मानव मस्तिष्क पर उसके प्रभाव और भाषा की अभिव्यक्ति व लिपि की पारस्परिकता की विवेचना वाला समग्र विश्व साहित्य व वैज्ञानिक खोजें उठाकर पढ़ें तो पता चलेगा कि देवनागरी के रूप में भारतीय भाषाओं के पास एक वरदान है, यह भारतीयों-मात्र की नही अपितु विश्व के भविष्य की धरोहर है। और आप को क्योंकि फ़ोकट में बिना यत्न के मिली हुई है, सो आप अपने को इसे नष्ट करने का अधिकारी भी समझते हैं?
विश्व का कोई स्वाभिमानी देश भला ऐसा करेगा?
अभी एक और लेख (भाषा और संस्कृति को तबाह करने के षड्यन्त्रों को भूमंडलीकरण का नाम देकर FM चैनलों की मुहिम पर केन्द्रित)प्रकाशित कर रही हूँ, आँखे खोलने वाला लेख है। देखिए कि कैसे संस्कृति व सभ्यताएँ मिटाने की चाल में देशवासियों को लपेटा जा रहा है।
शायद रोमनीकरण के समर्थकों की नींद खुले और वे चेतें।
ईमेल द्वारा प्राप्त सन्देश -
जवाब देंहटाएंदेवनागरी को रोमन में लिखने के लिए अनेक वर्षों से अनेक प्रयास हुए हैं।
इसका मुख्य कारण था विश्व की अधिकांश जनता रोमन लिपि (जिसका युनिकोड नाम है BASIC LATIN) से परिचित है। और इसके बाद कम्प्यूटर युग में मजबूरी वश देवनागरी को रोमन में लिखने का प्रयोग करना पड़ा। क्योंकि कम्प्यूर के बेसिक कोड ASCII (00-7F रेंज) में होते थे और हर कम्प्यूटर प्रणाली में मूलतः एवं स्वतः उपलब्ध थे।
इसके लिए प्रमुखतः निम्न प्रणालियाँ विकसित हुईं
1. Avinash Chopde का itrans
www.aczoom.com/ itrans/
इसमें कई तरीके अपनाए गए, यथा अ = a
आ = aa या A
2.
CDAC ने अपने DV1 range के अंग्रेजी फोंट्स के 80-FF range में अंग्रजी के अक्षरों पर diaciric चिह्न सहित फोंट्स जारी किए तथा हिन्दी को Roman में लिखने के लिए नेशनल लाईब्रेरी कोलकाता द्वारा विकसित स्टैण्डर्ड को प्रवर्धित किया।
3. गूगल ट्रांशलिटरेशन ने अंग्रेजी में टंकण करके हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में पाठ टंकित करने की प्रणाली प्रचलित की।
4. भारत सरकार के MIT TDIL द्वारा इसके लिए कोड निर्धारित कर मानकीकरण हेतु ड्राफ्ट भी जारी किए थे। देखें--
http://hariraama. blogspot. com/2007/ 07/standardisati on-of-roman. html
तथा
http://hariraama. blogspot. com/2007/ 08/roman- transliteration- standardisation2 .html
किन्तु अभी तक इनका मानकीकरण नहीं हो पाया है।
तथा लोग विविध पद्धतियों का प्रयोग कर रहे हैं।
5.
iiit.net हैदराबाद द्वारा WX notation विकसित कर के काफी भारतीय भाषाओं के तकनीकी कार्यों की प्रविष्टि / प्रोग्रामिंग रोमन लिपि में की गई।
इसके अलावा सैंकड़ों पद्धतियाँ विकसित हुईं।
किन्तु कोई भी संपूर्ण, सरल, सुगम, समाधान नहीं दे पाई। तथा देवनागरी के मूल पाठ को रोमन में लिखने पर कुछ न कुछ बिगड़ाव ही हुआ।
विशेषकर रोमन में लिखे भारतीय मूल के व्यक्ति तथा स्थानों के नाम तक का सही उच्चारण दूसरा कोई कर पाए, यह लगभग असंभव ही माना गया।
अतः रोमन में भारतीय भाषाओं को लिखना -- गलत प्रतिफल देता है। विशेषकर मंत्र तथा श्लोक को रोमन में लिखना तो सबसे बड़ा पाप ही होता है, क्योंकि उच्चारण बिगड़ने की भारी आशंका होती है। और मंत्रों तथा श्लोकों के गलत पठन से उलटा प्रभाव मिलता है।
हालांकि अब युनिकोड के प्रचलन से देवनागरी में संवाद,सन्देश, वेबसामग्री आदि सरल हुईं हैं। लेकिन युनिकोड में कई मूलभूत त्रुटियाँ छुपी रह गईं है। जिसके कारण सही प्रतिफल नहीं मिल पा रहा है।
आशा है भविष्य में कोई बेहतर मानक बनेंगे और मूल देवनागरी में समग्र विश्व का संचार सुगम होगा।
-- हरिराम