शनैः शनैः की जा रही है, जिसकी बिदाई




शनैः शनैः की जा रही है, जिसकी बिदाई
-प्रभु जोशी 






जिस चिन्ता को केन्द्र में रख कर यह लेख लिखा जा रहा है, उसकी पूर्व-पीठिका के रूप में यह थोड़ा ज़रूरी हो गया है कि हम पहले अपने समय के ‘निकट अतीत’ की तरफ, तनिक गरदन मोड़ कर देख लें, क्योंकि, हम सब जानते ही हैं कि हमारे ‘वर्तमान-समय‘ में हरदम हमारा ‘अतीत-समय’ भी मौजूद रहता है और वही हमारे ‘भविष्य के जन्म’ का जिम्मेदार भी होता है।




बहरहाल, बीसवीं सदी निश्चय ही मनुष्य की त्रासद पीड़ाओं और उसके स्वप्नों की बेछोर उड़ानों की थी, इसीलिए उसके बिदा होने के सिर्फ कुछ वर्षों पूर्व, समूचे मानव-जगत और उसके ‘भविष्य’ को प्रभावित करने वाली घटनाएँ, लगभग श्रृंखलाबद्ध ढंग से घटीं, जिनमें सबसे दुर्भाग्यशाली घटना थी, ‘विचारधारा का लोप’। उसी में उसके ‘पतन की पटकथा’ और ‘संभावनाओं का भाष्य’ मौजूद था, जो अब हमारे सामने बेलिहाज होकर आ रहा है, जबकि इक्कीसवीं सदी ने अभी अपनी उम्र के दस वर्ष भी पूरे नहीं किये हैं।





कहना न होगा कि अब सबसे बड़ी दिक्कत यही होती जा रही है कि हमारे ‘वर्तमान’ में, जिस भंगिमा के साथ ‘भविष्य’ प्रवेश करता चला जा रहा है, ‘विचारधारा के लोप’ के चलते हमारे लिए उसकी पुख्ता परख और पहचान ही काफी जटिल हो गयी है। ‘बाजार-निर्मित आशावाद’ का एक ऐसा विचित्र दुष्चक्र चल रहा है, जिसमें अब हमारा ‘सर्वस्व’ फँस चुका है। समय की ‘पारस्परिक‘संबद्धता’ दम तोड़ रही है। वह अवसान के निकट है। भूमण्डलीकरण की जन्मपत्री बनाने वालों के द्वारा लगातार यह सिद्ध किया जा रहा है कि यह युग ‘अनिश्चितताओं का है। इसलिए ’विचारधारा’ की बात फूहड़ और फिजूल है। यह ‘पैराडाइम-शिफ्ट’ है।



भूमण्डलीकरण के इस दौर में, पूँजी की ‘वक्र-गति’ से जन्मे ‘अनिश्चय’ के चलते, आज हर संस्था, व्यक्ति और अनुशासन के समक्ष एक निष्करूण संदेह खड़ा हो गया है कि कब वह किधर या कहाँ चला जायेगा, ‘निश्चित’ नहीं है। अभी-अभी जो ‘विराट’ बन कर सामने खड़ा है, वह कभी भी ‘वामन’ बन कर भीड़ में खो सकता है। उसकी तमाम शिनाख्तें यक-ब-यक गायब हो सकती हैं। अब सारे ‘यूटोपिया’, ‘डिस-टोपिया’ में बदल गये हैं। सारे ‘इज्मों’ को ‘वाज्मों’ में अवघटित कर दिया गया है। ‘विचार' और ‘आदर्श’ के भग्नावशेष में, एक निहायत ही विलम्बित रुदन है, जो उस प्रौढ़ पीढ़ी के रुँधे हुए गले से निकल रहा है, जिसे ‘माध्यम-निर्मित नियतिवाद’ ने पहले अपमानित और अंत में अपदस्थ कर दिया है।



दरअस्ल यह ‘सर्वसत्तावाद’ और ‘केन्द्रीय नियोजन’ की मिली-भगत से रची गयी, वह त्रयी है, जो ‘सूचना’, ‘समृद्धि’ और ‘हिंसा’ का नया समीकरण गढ़ रही है। जाहिर है कि अब यह किसी से छुपा नहीं रह गया है कि अब समूची सूचना-प्रौद्योगिकी इन्हीं के चाकरी या टहल में पूरे मनोयोग से लगी हुई है। यह त्रयी ही उसका एकमात्र एजेण्डा बन गया है।



बहरहाल, विडम्बना यही है कि आज हमारा समाचार-पत्र उद्योग इसी के बर्बर-बवण्डर के हवाले हो गया है। इसीलिए, उसके ‘रूप‘, ‘स्वरूप' और ‘अन्तर्वस्तु’ में अराजक उलट-पुलट तथा तोड़-फोड़ चल रही है। वह समाज को सूचना सम्पन्न बनाने की आड़ में ‘विचार‘ और ‘बोध’ के नये संकट की तरफ धकेल रहा है, जिसके परिणाम आने में अब अधिक समय नहीं रह गया है। अब अखबार पूरी तरह से महानगरीय सांस्कृतिक अभिजन को ही सम्बोधित है- उन्हीं के रहन-सहन, जीवन-मरण के प्रश्न ही अखबारों के पृष्ठों की अन्तर्वस्तु पर छाये हुए हैं।



बहुत स्पष्ट बात यही है कि बुनियादी रूप से पश्चिम की आवारा पूँजी, वहाँ की ‘कल्चर-इंडस्ट्री‘ (संस्कृति-उद्योग) को भारत के परम्परागत समाज और सांस्कृतिक स्वरूप को निगलने के लिए तैयार कर रही है। क्योंकि इसी में ही भूमण्डलीकरण की सफलता निहित है। यह कल्चर-इकोनामी का कार्यभार है कि उसने ‘सूचना’ और ‘संस्कृति’ को गड्डमड्ड करके चौतरफा एक ऐसे विचार भ्रम का निर्माण कर दिया है कि किसी को ‘सम्पट’ नहीं बैठ पा रही है कि वस्तुतः ये सब हो क्या रहा है? वे ‘तकनीकीवाद’ को ‘सांस्कृतिक-नियतिवाद’ में बदल रहे हैं। इसीलिए, हमारे तमाम भाषायी अखबार अपने को ऐसी सामग्री से अंधाधुंध तरीके से कूट-कूट कर भरे जा रहे हैं, जो अब ‘विचार’ नहीं, ‘वस्तुओं’ के लिए जगह बनाने के काम में इमदाद करती हैं। वह ‘युवा‘ और ‘जीवनशैली के महिमा-मण्डन’ पर एकाग्र है। भूमण्डलीकरण को लागू करने के काम में जुते होने के कारण इनके लिए अर्थशास्त्र अनालोच्य बन गया है। वह उम्मीदों का पर्याय है। जनतंत्र निवेश है और वह सबसे ऊँची बोली लगाने वाली के जेब में है। समाचार-उद्योग इस सारे तह-ओ-बाल में एक शक्तिशाली घटक की हैसियत से शामिल हो चुका है। वह भी पूँजी के प्रवाह पर नौकायन करना चाहता है।



निश्चय ही ऐसे में उनके लिए अखबार में लगभग ‘आत्मा‘ की तरह मौजूद ‘सम्पादकीय संस्था’ को धीरे-धीरे अवसान की तरफ धकेलना जरूरी हो गया है। क्योंकि, अखबार के पृष्ठ पर कोने में छोटी-सी जगह में बैठा हुआ, वह गाहे-ब-गाहे अड़ जाता था कि मैं यह नहीं होने दूँगा । मैं वो नहीं होने दूँगा। वह उसी जगह खड़े हो कर रोज-रोज सम्पादक की आवाज में बोलता था, उसे सुन कर लगता था, वहाँ से राष्ट्र बोल रहा है, वहाँ से हजारों-हजार लोगों की आवाजें उठ रही हैं। वहाँ से ‘मूल्य’ और ‘आदर्श’ बोल रहे हैं। वहाँ से एक निर्भीक दहाड़ उठा करती थी, जो ‘विचार‘ या ‘विचारधारा’ के साहचर्य से उस सबको भयभीत करती थी, जो ‘अनैतिक’ या ‘मूल्यहीन’ और जनकल्याण से दूर था। उसकी दहाड़ की अनुगूंज अखबार के हर पन्ने पर बरामद होती थी। उस जगह की दहाड़ से ‘भय’ उपजता था। एक दिन यह तक हुआ कि उसके वहाँ से चुप हो जाने से भी सत्ता ‘भयभीत’ हो उठी। सम्पादकीय पृष्ठ की वह जगह खाली छोड़ देने से भी ‘विचार‘ की भय पैदा करती अनुगूँज देखी गयी। उस चुप्पी पर भी तलवारें खिंची। क्योंकि, तब अखबार का कागज, छपाई, स्याही मशीनें सब मालिक के थे, लेकिन अखबार जितना सम्पादक का था, उतना मालिक का नहीं। मालिक ने अपने अखबार को हिन्दी का अखबार नहीं, बल्कि अंग्रेजी के पाठकों की नर्सरी में बदलने के लिए उसमें भाषा का खतरनाक घालमेल शुरू कर दिया है।




कहना न होगा कि अब अखबार, सम्पादक का नहीं रहा गया है। उसके बौद्धिक वर्चस्व से मुक्त वह सिर्फ पाठक का है। ‘पाठक’ का भी नहीं, बल्कि उस ‘उपभोक्ता’ का जिसने ग्राहक बनते समय कुर्सी, टी-सेट, सिनेमा के टिकट या कोई अन्य सामान मुफ्त में पाया है। इसलिए फूल की पुड़िया के साथ सुबह-सुबह घर के दरवाजे से भीतर फेंक दिये गये इस ‘दैनंदिन-उत्पाद’ की उत्तरजीविता उसके छपने के साथ ही समाप्त हो चुकती है और कहने की जरूरत नहीं कि सम्पादक की हत्या इसी ‘पाठक बनाम ग्राहक’ ने की है। अब अखबार को भी सम्पादक नहीं चाहिए। उसे अब उत्पादन और वितरण के साथ ‘रेवेन्यू-जेनरेट’ करने वाला करिश्माई कारिन्दा चाहिए, जिसे पाठक नहीं ‘उपभोक्ता’ की रूचि को बदलते हुए, ऐसी रूचि का निर्माण करना है, जो पश्चिम के सांस्कृतिक मालों व जीवनशैली को स्वीकार ले। वे उन सूचना सम्राटों के अनुयायी बन रहे हैं, जो ‘सूचना‘ और ‘संस्कृति’ का घालमेल करके, तीसरी दुनिया में अपनी जीवन शैली बेचने के कारोबार में लगे हैं, जो ‘रिंग-काम्बीनेशन’ की तरह ख्यात हैं। ये हैं जर्मनी की ‘वुल्फ’, ‘ब्रिटेन की ‘रायटर’, अमेरिका की ‘न्यूज कार्पोरेशन’। वे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भेज कर हमारे समाचार उद्योग को ‘वैचारिक विकलांग’ बना रही हैं। वे सामाजिक आर्थिक और राजनीति के क्षेत्र की ऐसी सूचनाएँ देती हैं, जो न सच होती हैं, न झूठ-बल्कि, सिर्फ विश्वसनीय होती हैं। जिन पर तीसरी दुनिया के लोगों के पास विश्वास करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।




तो कुल जमा मकसद यह कि अखबार से सम्पादक की बिदाई ऐसे ही नहीं हो रही है। यह शनैः शनैः एक चतुर प्रविधि के जरिये हुआ है। पहले सम्पादक को विदीर्ण करके दो टुकड़े किये। सम्पादक इकाई नहीं रह गया। वह ‘समाचार-सम्पादक’ और ‘विचार-सम्पादक’ में बँटा। वे दोनों टुकड़े एक-दूसरे के विरोधी हो गया। यह नयी ‘डायकाटमी’ (द्वैत) बनी, जिससे एक के जरिये सत्ता या व्यवस्था पर चोट की जाती, दूसरे से प्राथमिक चिकित्सा। यह दायें और बायें हाथ की पृथक-पृथक मुद्रा थी। अब अखबार के लिए अभीष्ट ‘सत्य‘ नहीं ,संतुलन था। वह वर्ग और वर्ग, सम्प्रदाय और सम्प्रदाय तथा अंत में राजा और प्रजा के बीच बनाने का काम करने लगा। ‘सम्पर्क’ और ‘विनिमय’ उसके दो नये दायित्व हुए। बाद इसके ‘सम्पादक’ चुनाव के मौसम में पन्ना-पन्ना पैसा-पैसा हुआ। हर पृष्ठ यानी अलग-अलग जोतदारों का रकबा। वे उपजायें और फसल मालिक को दें। कुछ, ‘वे‘ खुद भी रख लें। अब जमींदार वाली कृपण और क्रूरता के बजाय सेठ की उदारता। पन्ना-पन्ना पैसा बरसा।




नतीजतन, अब अखबार के पास सम्पादक नहीं है, अखबारी कर्मचारियों की एक बेचेहरा फौज है, जो सूचना के निर्माण, वितरण और प्रबंधन में सुंदर, सुखद और मनोरंजन के कारोबार को बढ़ाने में जोत दी गयी है। वे सूचना के प्रवाह नहीं, पूँजी के प्रवाह को लाने और बनाने के लिए अनुबंधित श्रमजीवी हैं। वे सचाई के साथ कितना फ्लर्ट कर सकते हैं, यही उनकी सम्पादकीय (?) कुव्वत को आँकने का असली पैमाना है। वहाँ, वही योग्य है, जो तुक्कड़ बुद्धि से हुए एक भयानक खबर का शीर्षक ऐसे बनायें कि वह खबर मनोरंजन में बदल जाये। खबर ठहाका बन जाये, मजा बन जाये, फन बन जाये। जरूरी और जायज गुस्से को मसखरी से नाथ सके। जिस तरह कहा गया कि गाँव के कल्याण के लिए कुल का त्याग जरूरी है, उसी तरह अब जरूरी है, अखबार के कल्याण के लिए सम्पादक का त्याग।




हकीकतन, अब वहाँ सम्पादक नहीं है और ना ही उसकी दहाड़। वहाँ से अब कोई दहाड़ सुनायी नहीं देती। वहाँ स्वर नहीं, दृश्य है। एक अदृश्य हो चुकी नस्ल का भाँय-भाँय करता दृश्य। वहाँ अब कोई शेर नहीं, किन्तु शेर की भूसा भरी खालें हैं। यह क्षेत्रीय ‘प्रेस‘ नहीं, सिर्फ ‘रेस‘ है। व्यावसायिक-स्पर्धा के बजाय, एक-दूसरे को मरने या मिटाने के लिए लपलपाती ईर्ष्या।





मच्छरदानी, जिस तरह मच्छर बाहर और दूर रखती है, ठीक उसी तरह अखबार सम्पादक को दूर और बाहर रखने के लिए है। बावजूद इसके यदि वह अंदर आने की आकांक्षा का शिकार है- तो अब वहाँ सम्पादक के चोले में प्रवेश निषेध है। वह स्तंभकार के गणवेश में आ सकता है। कभी-कभार, हफ्ते-पन्द्रह दिन में। उनके लिए उसका ‘प्रतिष्ठा मूल्य’ काम का है, ‘प्रतिबद्धता मूल्य’ नहीं। उन्हें सिद्धान्त बघारने वाले किसी समाजशास्त्री की तरह पेश आने पर आपत्ति होगी। क्योंकि, सिद्धान्त अखबार के पेट के लिए अपाच्य हैं। सिद्धान्त की मूलियों की डकारें उठाती हैं। स्पष्ट है कि उन्हें सिद्धान्त नहीं चाहिये। फण्डे चाहिये। फण्डे प्रबंधन के। अध्यात्म के। राजनीति के। दुनियादार किस्म की सफलता हासिल करने के। सफलता भी समाज की नहीं, सिर्फ व्यक्ति की।




नहीं जानता कि देश में सम्पादकों की नई-पुरानी नस्ल इस हकीकत को कैसे लेती और देखती है, लेकिन यह तो वह चाह ही रही होगी कि उनकी नस्ल को उन्होंने अपने सामने दम तोड़ते देखा और कुछ भी नहीं किया, इस लांछन से बचने की कोशिश करती हुई वह दूर और मूक बनी टकटकी लगाकर देखती हुई असहाय खड़ी है। पता नहीं उसके हाथ उठना चाहते हैं, प्रार्थना में, पीड़ा में या कि असहाय हो जाने की निराशा में।


4, संवाद नगर, इन्दौर




1 टिप्पणी:

आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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