पंद्रह साल से क्या होगा

पंद्रह साल से क्या होगा



संसद में अल्पसंख्यकों के अलावा और किसी प्रकार का आरक्षण नहीं होना चाहिए, यह मानते हुए भी मेरी समझ में नहीं आता कि स्त्रियों के लिए आरक्षण के जिस विधेयक पर इतना शोर बरपा हुआ है, उसकी अवधि सिर्फ पंद्रह साल क्यों है। मजे की बात यह है कि इस पंद्रह साल वाले प्रावधान पर कोई चर्चा भी नहीं हो रही है। मानो आरक्षण कोई हीरा हो जो अभी मिल रहा है तो ले लो -- पंद्रह साल बाद जब यह हीरा काँच में बदल जाएगा तब देखा जाएगा! लेनेवालों की जैसी मानसिकता है, पानेवालों की मानसिकता भी उससे कुछ कम अल्पकालिक नहीं लगती। महिला आरक्षण को सिर्फ पंद्रह साल तक सीमित करके (जिसमें दो या तीन टर्म तक ही साटें आरक्षित हो सकेंगी) सत्तारूढ़ दल ने यह साबित कर दिया है कि उसकी मंशा राजनीति में कोई टिकाऊ परिवर्तन लाना नहीं, बल्कि स्त्रियों को लॉलीपॉप थमा कर अपने को महिला-हितैषी साबित कर देना भर है।



संसद और विधान सभाओं में महिला आरक्षण की तुलना अकसर पंचायतों में महिलाओं को दिए गए आरक्षण से की जाती है। लेकिन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। खास तौर पर दो बातें गौर करने लायक हैं। पहली बात यह है कि पंचायतों में आरक्षण की कोई समय-सीमा तय नहीं की गई है। यानी जब तक पंचायतें हैं, तब तक उनमें महिलाओं को एक-तिहाई आरक्षण मिलता रहेगा। अपने आपमें यह व्यवस्था भी ठीक नहीं है, क्योंकि कुछ समय के बाद सामाजिक स्थितियाँ ऐसी हो जानी चाहिए कि पंचायत में चुने जाने के लिए किसी स्त्री को आरक्षण की बैसाखी की जरूरत न रह जाए। परमानेंट आरक्षण किसी भी वर्ग को पंगु ही बनाएगा। दूसरी तरफ, विधायिका में महिला आरक्षण की अवधि इतनी छोटी रखी गई है कि इससे सामाजिक समानीकरण को कोई विशेष फायदा नहीं पहुंचेगा। पंद्रह साल तो देखते-देखते बीत जाएँगे। उसके बाद महिलाएँ ठगी गई-सी महसूस करेंगी। तब फिर एक अभियान चलाया जाएगा कि आरक्षण की अवधि को और बढ़ाया जाए। यह काम अभी ही क्यों नहीं हो सकता?



दूसरी बात यह है कि गाँवों की सत्ता संरचना में फर्क इसलिए नहीं आया है कि एक-तिहाई सीटों पर महिलाएँ चुनी जा रही हैं। ज्यादा फर्क इस बात से आया है कि महिलाओं के लिए आरक्षण सभी पदों पर भी लागू किया गया है। यानी गाँव, ब्लॉक और जिला, तीनों स्तरों पर सभी पदों (अध्यक्ष और उपाध्यक्ष) का तैंतीस प्रतिशत भी महिलाओं के लिए आरक्षित है। किसी गाँव पंचायत में एक-तिहाई पंच महिलाएँ हैं, इसकी बनिस्बत यह ज्यादा असरदार होता है कि कोई महिला सरपंच हो। जहाँ भी उल्लेखनीय परिवर्तन आया है, इसलिए आया है कि सरपंच कोई महिला थी। इसके विपरीत, प्रस्तुत महिला आरक्षण विधेयक में सिर्फ सीटें आरक्षित की जा रही हैं, पद नहीं। इससे भी परिवर्तन होगा, लेकिन ज्यादा और तेज परिवर्तन इससे होगा कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, स्पीकर और मंत्रियों के पदों में भी एक-तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित किए जाएँ। संसद और विधान सभाओं की सदस्यता में से कुछ हिस्सा महिलाओं के लिए छोड़ देना भी त्याग है, लेकिन असली त्याग तो वह कहलाएगा जो सत्ता के वास्तविक केंद्रों में किया जाएगा। प्रधानमंत्री के रूप में यह मनमोहन सिंह का दूसरा टर्म है। तीसरा टर्म किसी महिला को क्यों नहीं मिलना चाहिए ? क्या सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह का कलेजा इतना बड़ा है?



अगर इस तर्क को मान लिया जाता है कि आरक्षण का उद्देश्य समानता लाना है, ताकि एक निश्चित समय के बाद किसी को भी आरक्षण की जरूरत न रह जाए, तो इस 'निश्चित समय' को परिभाषित करना भी जरूरी है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों को संसद में आरक्षण दिया गया था तो इसकी अवधि दस साल रखी गई थी। इसके पीछे उम्मीद यह थी कि दस साल में इन समूहों के लिए इतना सघन काम किया जाएगा कि इन्हें संसद में आने के लिए आरक्षण की जरूरत नहीं रह जाएगी। लेकिन आलम यह है कि हर दस साल के बाद संविधान में संशोधन कर आरक्षण की अवधि को बढ़ाया जाता रहा है। अब महिलाओं को सिर्फ पंद्रह वर्षों के लिए आरक्षण दिया जा रहा है। क्या यह अवधि ऊँट के मुंह में जीरे की तरह नहीं है ? मेरा अनुमान यह है कि यह अवधि पचीस साल से कम नहीं होनी चाहिए।



यह सुझाव मान लेने पर यादव बंधुओं को भी खुश किया जा सकता है। यों कि इन पचीस वर्षों में पहले दस वर्ष की आधी (मैं तो कहूँगा, सारी की सारी) सीटें ओबीसी के लिए आरक्षित कर दी जाएँ। दस वर्ष की इस अवधि में ओबीसी कल्याण के लिए भरपूर प्रयास किए जाएँ। उसके बाद सारी आरक्षित सीटें सभी वर्गों के लिए खोल दी जाएँ। अगर इस पर भी यादव बंधु राजी नहीं होते हैं, तो इस फार्मूले के आधार पर महिला आरक्षण विधेयक पारित कर दिया जाए, चाहे इसके लिए मार्शल का ही सहारा क्यों न लेना पड़े।



आरक्षण अपने आपमें कोई लक्ष्य नहीं है। यह सामाजिक समता स्थापित करने का एक साधन है। इसलिए आरक्षण की अवधि का उपयोग महिलाओं की स्थिति को पुरुषों के समकक्ष लाने का आंदोलन चलाने के लिए होना चाहिए। यह आंदोलन सरकारी और गैरसरकारी, दोनों स्तरों पर चलाना होगा। तभी महिला आरक्षण टोटका मात्र न रह कर परिवर्तन का एक सक्षम औजार बन सकेगा। फिलहाल तो इसकी हैसियत झुनझुने से ज्यादा नहीं है।
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राजकिशोर

1 टिप्पणी:

आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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