साप्ताहिकी

साप्ताहिकी
Monday, December 14, 2009


 
विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्ति परेषां परिपीडनाय (खलस्य)


कल रवि जी ने  श्री  देवाशीष   तथा  श्री रमण कौल  के एकल प्रयासों से बनी चिट्ठा निर्देशिका  का उल्लेख यहाँ किया तो कई चिट्ठाकारों ने अपना उल्लेख उसमें न होने की बात दुहराई| अब यदि कोई वहाँ रजिस्टर्ड ही नहीं हुआ स्वयं जा कर, तो वह स्वयं को वहाँ पाएगा कैसे ? इसलिए महत्वपूर्ण बात यह है कि चिट्ठाकार साथी अपने ब्लॉग को वहाँ रजिस्टर्ड करवाने के साथ ही साथ  आँकड़ों का एक विभाग तक भी जाएँ, अपने सम्बन्ध में जानकारी आदि दे कर तथ्यपूर्ण बनाएँ|  देखिए --

इस पोस्ट के बहाने सभी चिट्ठाकारों और चिट्ठे पढ़ने वालों और नेट पर हिन्दी के चाहने वालों से निवेदन हैं कि वे हिन्दी ब्लॉग्स चिट्ठादर्शिका पर पंजीकृत हों, अपने प्रोफाईल में सारी जानकारी भरें और यदि चिट्ठा लिखते हैं तो उसे निर्देशिका में जोड़ने के उपरांत उसे क्लेम भी करें। इससे हमें समय समय पर जाल पर हिन्दी प्रयोग और प्रयोक्ताओं के बारे में जानकारी मिलती रहेगी।


  उसे अद्यतन बनाने में अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह तो आप को व हमें ही करना है ना ! अस्तु !!


 गत  दिनों (बल्कि माहों) से हिन्दी चिट्ठा संसार पर मुख्यतः विग्रह, विवाद और वर्चस्व के बादल बहुधा छाए दिखाई देते रहे हैं| मेरे जैसा कड़े जी वाला व्यक्ति तक भी इस हाहाकार, छीना छपटी, अहमन्यता और पारस्परिक दोषारोपणों के जंजाल से विचलित ही नहीं विरक्त भी हो उठा मानो| जाने क्या तो बँट रहा है जिसके लिए युद्धक भूमिका में सब तने बैठे हैं ?  हम एक दूसरे की रेखा को छोटी कर के अपनी रेखा को बड़ा दिखाने के भ्रम में क्या तो पा लेंगे? पता नहीं !!



 आसपास के परिवेश, समय और परिस्थिति से अनजान समय और मनुष्य अपना कोई सकारात्मक योगदान देने की अपेक्षा किंचित भी संसाधनों और स्रोतों का दुरुपयोग करता है तो वह अपनी आने वाली नस्लों का अपराधी है| उदाहरण के लिए इस रिपोर्ट को देखें कि प्रति व्यक्ति की जाने वाली बर्बादी का दुष्परिणाम संसार के अलग अलग कोने में बैठे व्यक्तियों तक को कैसे भोगना पड़ जाता है | ऐसे में किसी का भी अनुत्तरदायी एक भी एक्शन (किसी भी कार्य/ व्यवहार का) बड़े भावी और समकालिक अर्थ रखता है|



स्वास्थ्य और विज्ञान में रूचि रखने वालों के लिए गत दिनों कुछ महत्वपूर्ण चीजें पढ़ने देखने को मिलीं| सर्वप्रथम आप अतिरिक्त भार को कम करने के प्रयास में जुटे एक व्यक्ति के प्रयासों और परिणाम  को सचित्र देखें-  ( चित्र मैंने सकारण हटा दिए हैं, आप लिंक पर ही उन्हें देखें ) |




दूसरा समाचार  मेडिकल से जुड़े हमारे साथी चिट्ठाकारों के साथ साथ स्वास्थ्य के प्रति सकारात्मक जागरूकता अपनाने वाले पाठकों  के लिए भी अतीव   महत्वपूर्ण शोध  है|


Alcohol consumption has long been linked to cancer and its spread, but the underlying mechanism has never been clear. Now, researchers at Rush University Medical Center have identified a cellular pathway that may explain the link.


हमारे साथी चिट्ठाकार बंधु ऐसे महत्त्व के विज्ञान लेखों का भी हिन्दी उल्था करके इतनी आवश्यक जानकारियों को निरंतर हिन्दी के पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का काम करें तो लोक कल्याण की दृष्टि से व जन जागृति की दिशा में देश कुछ आगे बढ़े|



यहाँ अपनी भाषा के प्रति भावों की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में एक ऐसी कल्पना का रूप निरख कर एक बार अवश्य आप का भी वाह वाह कहने का मन हो आएगा |


Apostrophe
Brackets
Colon
Comma
Dash
Ellipsis
Exclamation Point
Hyphen
Parentheses
Period

Question Mark
Quotes
Semicolon




अब  गत दिनों हिन्दी ब्लॉग जगत की कुछ पठनीय प्रविष्टियों पर एक दृष्टि डालें तो डॉ. पद्मजा शर्मा की यह कविता बरबस संवेदना से सराबोर कर देती है -

कविता

पिता की मृत्यु  के बाद

माँ बहुत रोती है पिताजी
बेटा  दफ्तर जाते समय
न मिले तो / आंसू
पोता न सुने कहानी
घर में हो ब्याह
या जाया हो नाती
हर मौके बस रोती / माँ


आप जानते हो पिताजी
आपके खाने से पहले
खाती नहीं थी माँ


जब तक आपसे  नहीं कर लेती थी तकरार
कहाँ शुरू होता था उसका दिन
आपका भी कहाँ लगता था मन
जब हो जाती थी नाराज
कितना मनाते थे आप


सुनाकर माँ को / मुझसे कहते थे-
' तेरी माँ का स्वभाव फूल सरीखा है
जो दूसरों को बांटकर सुगंध
बिख़र जाता है ख़ुद '


तब माँ फेर लेती थी पीढ़ा
और आँखों की कौर से
पौछती थी गीलापन


जब से आप गए हो / पिताजी
बैठी रहती है आपकी तस्वीर के आगे
बिना कुछ खाए पिए
काट देती  है सारा  दिन


माँ की आँखों से
हंसी ख़ुशी उदासी की
जो त्रिवेणी बहती है
कभी पलट कर देखो तो सही / पिताजी


पोते को हँसता बोलता देखकर
कभी कभी रोते हुए माँ
कहती है  धीरे से -
' तेरे पिता हंस रहे हैं '


पर आप पहले की तरह
सिर्फ माँ के लिए
कब हंसोगे पिताजी



गत दिनों नंदिनी की एक कविता पर कवि ओम की एक टिप्पणी से जिस प्रकार की गलतफहमियाँ हुई और उस प्रकरण में विलंबित उत्तर के चलते जिस प्रकार नंदिनी ने अपना ब्लॉग बंद किया, नंदिनी के ब्लॉग बंद होने के चलते कई जगह विचलित होकर प्रतिक्रियाएँ आदि हुई, वह सब  घटनाक्रम काफी अजीबोगरीब व क्विक रिएक्शन के साथ मुझे व्यक्तिगत स्तर पर बहुत विगलित भावुकता से पूर्ण व कमजोर मनःस्थिति का वाचक प्रतीत होता रहा है|  मेरे ऐसा प्रतीत होने की जी भर आलोचना की जा सकती है किन्तु इधर युवा संभावनाशील लेखन की जो हल्की-सी छवि बननी प्रारम्भ हुई थी, उसका गुलशन नंदा टाईप कायांतरण मेरे गले नहीं उतरता| लेखन अथवा सम्बन्ध व्यक्ति की शक्ति हैं, उन्हें अपनी कमजोरी के भार से दबा देना आत्मघाती ऐसा कदम हैं कि जिसके लिए दया नहीं, सहानुभूति नहीं अपितु आक्रोश भर जाता है मन में| कोरी भावुकता के चलते, लेखन के डगमग होने की छवि के चलते किसी का कोई कल्याण उसमें निहित नहीं है| अतः ऐसे प्रसंगों से किसी भवितव्यता की अपेक्षा नहीं जन्मती|





२ दिन पूर्व वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा जी ने वर्तमान की युवतियों और विवाह संबंधों पर बातों बातों में एक प्रसंग में मुझे कहा कि अमृता जी बहुत भाग्यशाली थीं जो उन्हें इमरोज जैसा व्यक्ति उनके जीवन में मिला; और साथ ही यह भी जोड़ा कि दुनिया में कौन लड़की उतनी सौभाग्यशाली होती है भला?


कल के एक महत्वपूर्ण पाठ्य को पढ़ कर सुधा जी की इस बात के सोलह आना खरे होने से आप पुनः सहमत होंगे-


अमृता -इमरोज और साझा नज्म

पंद्रह दिनों पहले अमृता एक बार फिर इमरोज़ के सपनों में आई, बादामी रंग का समीज सलवार पहने | 'सुनते हो ,कमरे में इतनी पेंटिंग क्यूँ इकठ्ठा कर रखी है ?अच्छा नहीं लग रहा ,कुछ कम कर दो "|अमृता कहें और इमरोज़ न माने ,ये तो कभी हुआ नहीं ,अब इमरोज़ ने कमरे से पेंटिंग कम कर दी हैं ,कमरे में फिर से रंगों रोगन करा दिया है |हाँ ,अपने बिस्तर के पैताने या कहें आँखों के दायरों तक ,और मेज़ पर रखे रंगों और ब्रशों के बीच अमृता की तस्वीरें टांग रखी है |इन तस्वीरों को देखकर यूँ लगता है जैसे हर वक़्त अमृता आज भी इमरोज़ की निगहबानी कर रही है ,इमरोज़ घर से बाहर कम जाते हैं ,क्यूँकर जाते ?

 

 


डॉ. अजित गुप्ता वर्तमान में मनुष्य के मन में बसे भय को तोल कर और टटोल कर देखती हैं-

 

डर कैसे बस गया जीवन में?

बचपन शहर से दूर रेत के समन्‍दर के बीच व्‍यतीत हुआ। साँप और बिच्‍छू जैसे जीव रोज के ही साथी थे। वे बेखौफ कभी भी घर में अतिथी बन जाते थे। लेकिन डर पास नहीं फटकता था। घर के आसपास रेत के टीले थे, रोज शाम को सहेलियों के साथ वहाँ जाकर टीलों के ऊपर बैठते थे। कभी-कभी तो किसी एक सहेली के साथ ही जाकर बैठ जाते थे, लेकिन डर नहीं लगता था। उस जमाने में मोपेड बाजार में आयी तो घर में भी भाई ने खरीदी। हम उनकी आँख बचाकर निकल जाते सूनी सुनसान सड़क पर। चारों तरफ रेत ही रेत और बीच में काली सड़क। लेकिन फिर भी डर नहीं लगता था। सायकिल से कॉलेज जाते, रास्‍ते में कोई बदमाश छेड़ देता तो सामने तनकर खड़े हो जाते, क्‍योंकि डर नहीं था।

 

 

जिन महिला चिट्ठाकारों ने अथक श्रम द्वारा कुछ ही समय में निरंतरता बनाए रखते हुए विविध प्रकार से अवदान दिया है, उनमें संगीता पुरी जी का नाम उल्लेखनीय है| ज्योतिष से इतर उन्होंने तकनीकी शब्दावली को नेट पर टाईप कर डालने का कार्य भी अपने बूते हाथ में लिया व अपने सगोत्री समाज पर केन्द्रित ब्लॉग भी वे निरंतर लिख रही हैं| जिन विषयों पर बहुधा वाह वाह नहीं मिल सकती वैसे विषय भी उन्होंने जिम्मे लिए | इसी प्रकार का एक विशेष लेख उनका कल मेरे पढने में आया -


क्‍या ईश्‍वर ने शूद्रो को सेवा करने के लिए ही जन्‍म दिया था ??

प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर थी, पर धीरे-धीरे यह व्यवस्था जन्म आधारित होने लगी । पहले वर्ण के लोग विद्या , दूसरे वर्ण के लोग शक्ति और तीसरे वर्ण के लोग पैसों के बल पर अपना महत्‍व बनाए रखने में सक्षम हुए , पर चौथे वर्ण अर्थात् शूद्र की दुर्दशा प्रारम्भ हो गयी। अहम्, दुराग्रह और भेदभाव की आग भयावह रूप धरने लगी। लेकिन इसके बावजूद यह निश्चित है कि प्राचीन सामाजिक विभाजन ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में था जिसका अन्तर्निहित उद्देश्य सामाजिक संगठन, समृद्धि, सुव्यवस्था को बनाये रखना था। समाज के हर वर्ग का अलग अलग महत्‍व था और एक वर्ग के बिना दूसरों का काम बिल्‍कुल नहीं चल पाता था।




 समय की सुई तेजी से बढ़ रही है|

अतः अंत में केवल कुछ और प्रविष्टियों के लिंक आप को थमा रही हूँ जो मुझे विचारणीय व महत्त्व के प्रतीत हुए ( आपकी पसंद व महत्त्व देने  की कसौटी नितांत भिन्न भी हो सकती है )|


पहला लेख पढने पर उसमें वर्णित शोध परिणाम के बारे में जान  मुझे अपनी पुस्तक कविता की जातीयता  का एक अध्याय स्मरण हो आया|  




धीरे-धीरे ये स्ट्रेस दिमाग़ के उस हिस्से (हाइपोथेलमस) पर असर डालता है जो हमारे शरीर के कई एक्शन्स को कंट्रोल करता है...। इस स्ट्रेस की वजह से शरीर में ऐसे हारमोन्स का रिसाव होने लगता है जो शरीर को कमज़ोर कर देते हैं और बुढ़ापा समय से पहले ही आ जाता है...।




मान लीजिए अगर आप किसी को धोखा देते हैं तो आपके मन में कहीं न कहीं इस बात का पछतावा रहता है..। चाहे आपको इस बात का मलाल भी न हो लेकिन कहीं न कहीं ये बात आपके दिमाग पर गुपचुप तरीके से असर डाल रही होती है...।




सतीश चंद्र श्रीवास्तव द्वारा लिखित इस लेख को पढ़ कर मेरा तो मन जार जार रोने को हो आया था| शहीदों की चिताओं पर मेले लगना तो दूर ....


सोनिया गांधी और अंबिका सोनी की तस्वीरों से युक्त विज्ञापन प्रकाशित और प्रसारित किया गया। अब एक साल बाद सिर्फ 16 शहीदों के परिजनों का पता लगा पाना क्या कौम के खात्मे का गंभीर संकेत नहीं दे रहा? क्या पूंजीवाद और भूमंडलीकरण के दौर में राष्ट्रीयता और राष्ट्रभक्ति जैसी बातें अप्रासंगिक और दकियानूसी नहीं हो गई हैं? परंतु इस बात का जवाब भी तो सोचना पड़ेगा कि राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करके अमेरिका-इंग्लैंड ही नहीं, चीन और जापान भी कोई कदम क्यों नहीं नहीं उठाते? ऐसे में भारतीय व्यवस्था आखिर किनके हाथों में खेल रही है?
सवालों में इतिहासकार
इतिहास के पन्नों में सभी ने पढ़ा है कि 13 अप्रैल 1919 को 'वैशाखी वाले दिन' जनरल डॉयर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौज ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध फायरिंग की थी। हजारों की संख्या में लोग मारे गए थे। इतिहासकारों के पास इस बात का जवाब नहीं है कि किसे भ्रम में डालने के लिए और किसकी चापलूसी करते हुए पुस्तकों में 'वैशाखी वाले दिन' का इस्तेमाल किया गया। हकीकत यह है कि अमृतसर में वैशाखी मेला की कोई परंपरा नहीं है। पंजाब में वैशाखी का मेला आनंदपुर साहिब में लगता है। जलियांवाला बाग में न पहले कभी मेला लगता था और न आज ही कोई परंपरागत आयोजन होता है। कड़वी सचाई यह भी है कि आज के अमृतसर में पांच प्रतिशत लोग भी नहीं जानते कि मजदूर और मानवाधिकारों के विरोधी रॉलेट एक्ट के खिलाफ 31 मार्च और 6 अप्रैल को पूर्ण बंदी तथा 9 अप्रैल को रामनवमी के जुलूस में हिंदू-मुस्लिम एकता ने अंग्रेजों को हिला कर रख दिया था। आंदोलन प्रभावित करने के लिए 10 अप्रैल 1919 को प्रमुख नेता डा. सैफुद्दीन किचलू और डा. सत्यपाल को गिरफ्तार किया गया तो युवा हिंसक हो उठे। अंग्रेजों पर हमला बोला। स्टेशन, बैंक, डाकघर को निशाना बनाया। देशभक्तों पर हुई फायरिंग में 35 शहीद हुए। 13 अप्रैल को इसी सिलसिले में शोकसभा थी, जिसमें 20 हजार से अधिक लोग मौजूद थे। मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में सेवा समिति के दल ने 1500 से अधिक शहीदों की सूची तैयार की थी। उक्त सूची अब गायब है।



आचार्य रामचंद्र शुक्ल की १२५ वीं जयन्ती पर आयोजित एक गंभीर विमर्श की रिपोर्ट  तैयार की है अमिताभ त्रिपाठी जी ने इलाहाबाद से  |










अनंतिम



जाते जाते 
नेट पर हिन्दी लेखन के लिए दिए जाने वाले पुरस्कारों में सम्मिलित होइए, किन्तु कुछ तथ्य ध्यान में रखे रहते हुए|


आप का पूरा सप्ताह सर्व मंगल से परिपूर्ण हो |

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी साफ़गोई और निष्पक्ष तेवर देखते ही बनता है।

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  2. पिछले एक सप्ताह से नेट से दूरी बनी रही है। इस बीच काफी कुछ पढ़ने से रह गया। आपकी यह चिट्ठाचर्चा भी नहीं पढ़ पाया था। अभी कम्प्यूटर ने काम करना शुरू किया तो पहला पाठ यहीं का कर रहा हूँ।

    निश्चित ही आपकी चर्चा बहुत गहरी और सार्थक उद्देश्य से की गयी होती है। एक और बधाई लें।

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  3. यदि कभी चिट्ठाचर्चाओं का मूल्यांकन हुआ तो इस विधा को नईनई दिशाएं देने के लिए आपकी प्रविष्टियों का प्रथम पंक्ति में उल्लेख होगा.

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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