आज की चर्चा करने के लिए जी भर कोशिश करनी पड़ीं है| यात्रा पर निकलने से पूर्व चर्चा की मनःस्थिति बना पाना बड़ा ही दुष्कर होता है| पर आप तो जानते हैं कि कुछ चीजें दायित्वबोध के चलते भी निभाई जाती हैं, निभाई जानी चाहिएँ भी, जब जितना बन पड़े| सो, हम आप से गिने चुने कुछ लेखों की ही चर्चा करेंगे; वह इसलिए नहीं कि संकलक खंगालना समय माँगता है अपितु इसलिए भी कि कुछ मुद्दे गंभीर विमर्श की अपेक्षा करते हैं|
सब से पहले मैं चिट्ठाचर्चा परिवार और हिन्दी नेट समुदाय की ओर से स्वर्गीय कल्याण मल लोढ़ा जी को श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ | हिन्दी के इन सुप्रतिष्ठित विद्वान का अतुल अमूल्य योगदान आने वाली पीढ़ियों की धरोहर है|
हिंदी के सुविख्यात विद्वान तथा उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल आचार्य विष्णुकांत शास्त्री कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर लोढ़ा के शिष्य रहे. सन १९७९ से ८० तक आप राजस्थान के जोधपुर विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त किये गए. एक वर्ष के पश्चात आप पुनः कलकत्ता आ गए फिर सन १९८६ में आपने कलकत्ता विश्वविद्याला से अवकाश ग्रहण किया. प्रोफ़ेसर लोढ़ा ने ५० से अधिक शोध निबंध लिखे. आपने दर्जनों पुस्तकों की रचना की, जिनमे प्रमुख हैं- वाग्मिता, वाग्पथ, इतस्ततः, प्रसाद- सृष्टी व दृष्टी , वागविभा, वाग्द्वार, वाक्सिद्धि, वाकतत्व आदि. इनमे वाक्द्वार वह पुस्तक है, जिसमे हिंदी के स्वनामधन्य आठ साहित्यकारों - तुलसी, सूरदास, कबीर, निराला, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी के साहित्यिक अवदानों का सुचिंतित तरीके से मूल्याङ्कन किया गया है. प्रोफ़ेसर लोढ़ा ने प्रज्ञा चक्षु सूरदास , बालमुकुन्द गुप्त-पुनर्मूल्यांकन, भक्ति तत्त्व, मैथिलीशरण गुप्त अभिनन्दन ग्रन्थ का संपादन भी किया. प्रोफ़ेसर लोढ़ा को उनके साहित्यिक अवदानों के लिए मूर्ति देवी पुरस्कार, केंद्रीय हिंदी संसथान-आगरा से राष्ट्रपति द्वारा सुब्रमण्यम सम्मान, अमेरिकन बायोग्राफिकल सोसाइटी अदि ने सम्मानित किया. आप अपनी ओजपूर्ण वाक्शैली के लिए देश भर जाने जाते थे. विविध सम्मेलनों में आपने अपना ओजश्वी वक्तव्य देकर हिंदी का मान बढाया. आप के के बिरला फाउन्डेसन, भारतीय विद्या भवन, भारतीय भाषा परिषद्, भारतीय संस्कृति संसद सरीखी देश की सुप्रसिद्ध संस्थावों से जुड़े हुए थे. प्रोफ़ेसर लोढ़ा के निधन से साहित्य जगत में शोक की लहर है. उनका अंतिम संस्कार रविवार २२ नवम्बर को जयपुर में किया जा रहा है.
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साहित्य अकादमी पुरस्कारों के सम्बन्ध में एक नई व अनोखी सूचना मिलने पर हिन्दी-भारत याहू समूह में जो परिचर्चा छिड़ी, उसे बाँचना स्वयं में दो विचारपक्षों में से किसी एक विचार की पक्षधरता मात्र नहीं है अपितु साहित्य से जुड़े ऐसे अति महत्व के प्रश्नों पर भविष्य में देश में क्या होने जा रहा है, क्या होना चाहिए और क्यों होना चाहिए की पक्षधरता भी है| दोनों ही मत-विमत अपनी अपनी जगह सही और सटीक हैं| परिचर्चा इतनी महत्वपूर्ण, रोचक, सामयिक व विचार- उर्वर है कि आप में से प्रत्येक भाषा और साहित्य से सम्बद्ध पाठक को एक बार अवश्य देखना पढ़ना और उस पर अपनी राय देनी चाहिए थी, किन्तु हाय री आदान-प्रदान की श्रृंखला!!
· यदि हम सैमसंग की सहायता से पुरुस्कार की राशि बढा सकें तो क्या यह लेखकों के लिये अच्छा नहीं होगा ? नोबल पुरुस्कार की महत्ता का एक कारण यह भी है कि उस के साथ एक बड़ी पुरुस्कार राशि जुड़ी होती है । · यदि एक ’अल्फ़्रेड नोबल’ अपने निजी धन से एक ऐसा पुरुस्कार स्थापित कर सकता है जिसे पूरी दुनिया सम्मान से देखे और वह पुरुस्कार आने वाले वर्षों में कभी किसी पर निर्भर न रहे तो ऐसा पुरुस्कार हमारे अम्बानी , बिरला या मित्तल क्यों नहीं स्थापित कर सकते ? हमें किसी विदेशी कम्पनी सैमसंग पर निर्भर नहीं रहना होगा । · इस दुनिया में कुछ भी मुफ़्त नहीं मिलता । हम मुफ़्त ’टेलीविज़न’ भी तभी देख पाते हैं जब प्रायोजक उस के लिये पैसा देते हैं । किसी भी पुरुस्कार को बनाये रखने के लिये धन की ज़रूरत होती है और वह कहीं न कहीं से आना ज़रूरी है । धन का स्त्रोत जो भी होगा कुछ सीमाएं और बंधन तो ले कर आयेगा ही । हमें देखना यह है कि किस में हम अपनी स्वतंत्रता को कम से कम खोते हैं ।
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ऋषभ ने कहा…
महाराष्ट्र विधानसभा के चपत-समारोह को भावुकता के बजाय इस तरह भी देखने की ज़रुरत है कि इस बहाने एक उद्दंड नेता ने हिन्दी को जानबूझकर अपमानित कराया है..... उकसावा भी आपराधिक कृत्य है.
यह टिप्पणी बताती है कि हिन्दी के सम्मान के नाम पर जिस प्रकार के दाँव पेंच खेले गए हैं, उनसे हिन्दी का अपमान ही हुआ है| इसमें हिन्दी को दुत्कारने वाला जितना दोषी है, उस से बड़ा दोषी उसका सम्मान करने के नाम चाँटा खाने की सहानुभूति और महिमा मंडन पाने वाला है| उसके ऐसे कृत्य पर उसकी भर्त्सना के स्थान पर हिन्दी वालों ने यकायक पहली नज़र में उसे भले हिन्दी के लिए सार्वजनिक अपमान तक झेल जाने वाला नायक बना कर प्रस्तुत किया हो, मान लिया हो; किन्तु उद्वेग उतरते ही उस आपराधिकता की पोल खुलते दीखने लगी है|
राजनीति की बजबजाती गंदगी को हिंदी की पैकिंग लगाकर उस बजबजाती राजनीति को सहेजने के लिए अपने-अपने पक्ष की सेना तैयार करने की कोशिश थी
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समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अबू आजमी के रिश्ते देश के दुश्मन दाऊद इब्राहिम से होने की खबरों के ठंडे हुए अभी बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ और न ही इसे ज्यादा समय बीता होगा जब मराठी संस्कृति के नाम पर भारतीय संस्कृति तक को चुनौती देने वाले राज ठाकरे गर्व से पॉप स्टार माइकल जैकसन की गंधाती देह के दर्शन के लिए आतुर थे।
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बन्दूकधारियों और हताहतों के अपने शब्दों के माध्यम द्वारा मुम्बई आतंक की अकथ कथा के छिपे रहस्यों की जो वास्तविकता उजागर हुई है, उस कथा को उसके पूरे रूप में पहली बार पुरस्कृत फिल्मकार Dan Reed ने कई अनजाने पक्षों के साथ खरा-खरा प्रस्तुत किया है, ... एक ऐसी कथा जिसे सुन देख कर आप सिहर उठेंगे .... अवाक हो जाएँगे ...
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गत दिनों मुझे एक अजीबोगारीब लेख देखने पढ़ने का अवसर मिला| लेख क्या था, मानो अपनी कुंठाओं की अभिव्यक्ति थी| कृष्ण बिहारी जी के इस 5 नेट पन्नों में फैले लेख को आप भी स्वयं पढ़ें और विचारें|
लेखक लिखते हैं
प्रेम. यह शब्द जितना सम्मोहक है उतना ही भ्रामक भी. एक विचित्र-सी मनोदशा का नाम प्रेम है. यह कब होगा, किससे होगा और जीवन में कितनी बार होगा, इसका कोई अता-पता किसी को नहीं होता. जब-जब मुझसे किसी ने इसके बारे में सवाल किया है या मैंने खुद से पूछा है कि आख़िर यह मामला है क्या, तो मुझे केवल एक उत्तर ही देते बना है कि प्रेम वासना से उपजी मनोस्थिति है.
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असल में इस झूठ को वह इस तरह जीती है कि उसे यह सच लगता है कि किसी के साथ हमबिस्तर हो चुकने के बाद भी वह पाकीजा है. मैं नब्बे-पंचानबे प्रतिशत स्त्रियों की बात कर रहा हूं न कि उन पांच दस प्रतिशत की जिन्होंने समाज को ठेंगा दिखा दिया है. ये ठेंगा दिखाने वाली महिलाएं आर्थिक रूप से या तो स्वतंत्र हैं या फिर वेश्याएं हैं. वेश्या सबसे अधिक स्वतंत्र होती है.
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कहने का मतलब है कि रोज की दाल-रोटी है सेक्स, प्रेम का कहीं अता पता नहीं यह सच एक बड़ा सच है. मैं यदि देहधारी नहीं होता तो क्या कोई स्त्री मुझे प्रेम करती, यदि कोई अपने वज़ूद के साथ मुझे न बांधता तो क्या मैं उसके बारे में सोचकर अपना समय नष्ट करता. अशरीरी प्रेम को बहुत महत्व देने वालो, ऐसा कौन सा अशरीरी रिश्ता है जो तुम्हारे साथ ज़िंदा है
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इसका सीधा अर्थ है कि जिस्म है और पहुंच में है तो जहान है नहीं तो कुछ भी नहीं है.
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प्रेम एक ऐसा मर्ज़ है जो सबको जुकाम की तरह पकड़ता और छोड़ता है. कुछ लोगों को यह बार-बार पकड़ता और छोड़ता है. अगर यह उनकी आदत न बनी हो तो उन्हें हर बार पहले से ज्यादा दुखी करता है. प्रेम पहला हो या उसके बाद के किसी भी क्रम पर आए, होने पर पाने की छटपटाहट पहले से ज्यादा होती है और टूटने पर पहले से भी तगड़ा झटका लगता है. यह टूटना इनसान को बिखरा और छितरा देता है.जिनकी आदत ओछेपन की होती है और जो अवसर पाते ही अपना मतलब पूरा करने में लग जाते हैं उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. उनको ही क्रमश: लम्पट और छिनाल कहा जाता है. इस प्रवृत्ति के लोग प्रेम नहीं करते.ये एक किस्म की अलग लाइफ स्टाइल जीते हैं.
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प्रेम ईर्ष्यालु, शंकालु और हिंसक होता है. प्रेम ही एक मात्र ऐसा मानवीय व्यवहार है जिसमें सबसे अधिक अमानवीयता है. प्रेम बनाता नहीं, बरबाद करता है. यह अलग बात है कि बरबाद करने वाले की कोशिश कभी कभी नाकाम हो जाती है. मैं कभी नहीं मान सकता कि रत्नावली या विद्योत्तमा ने तुलसीदास या कालिदास को अमर कर दिया
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मैं जब इस लेख को लिखते हुए अपने परिवेश में इसकी चर्चा कर रहा हूं तो इस सभ्य समाज के लोग इसे मेरा व्यक्तिगत मत कहते हुए मुझे ख़ारिज करने में लगे हैं कि प्रेम कतई दैहिक नहीं है. प्रेम आत्मा की बात है. वासना का इससे कोई लेना-देना नहीं. प्रेम ही है कि दुनिया बची हुई है. मेरा मन इसे स्वीकार नहीं कर रहा. मैं समझता हूं कि करूणा है जिससे दुनिया बची हुई है. प्रेम और करूणा में अन्तर है .करूणा का जहां असीम विस्तार है, वहीं प्रेम एक संकरी गली है. प्रेम राजपथ नहीं है कि उस पर एक साथ और सबके साथ दुनिया चले. प्रेम में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है.
यदि प्रेम केवल देह से देह का सम्बन्ध ही होता और देह पाने तक, पा चुकने तक की यात्रा तक ही प्रेम की यात्रा होती तो किसी से भी प्रेम करने के बाद उसे ही पाने की लालसा क्यों रहती| देह तो लुके छिपे किसी की भी पा लेने वाले लोग सदा इस समाज में रहे हैं ना !!
अर्थात् a को यदि यदि b से प्रेम है और वह उस के लिए तड़प रहा / रही है तो उसे तड़पने की क्या आवश्यकता है? वह b से इतर किसी अन्य के देह को माध्यम क्यों नहीं बना लेता ? उसी की देह की अनिवार्यता क्यों रहती है ( यदि देह ही मूल कारक है तो)| और गृहस्थ के बुढापे में आपसी प्रेम को आप ऐसे ही ख़ारिज करते चले जाएँगे ?
आप खारिज कीजिए, क्योंकि आप के खारिज करने के अपने कारण हैं |
कहना शोभा तो नहीं देता किन्तु पूरे लेख से एक देह लोभी पुरुष की देह लोभी होने के कारण हुई दुर्गत से उपजी मानसिकता का दिग्दर्शन होता है| वैसे बूढ़े तोतों को पढ़ाने का लाभ हम नहीं देखते, इसलिए लेख पर तर्क वितर्क करने तक से ऊब हुई|
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इधर हिन्दी ब्लॉग जगत् में बच्चों के ब्लॉग बनाने का उत्साह भी दिखाई देता है, जो स्वागत योग्य है| ये ब्लॉग उन ब्लॉग से हट कर हैं जो बच्चों के विषयों पर अथवा उन्हें केंद्र में रख कर लिखे जा रहे हैं क्योंकि मैं उन ब्लॉग की बात कर रही हूँ जो बच्चों के नाम से उनके मातापिता अथवा परिवारीजनों द्वारा चलाए जा रहे हैं| अभी एक दो दिन पूर्व प्रवीण जाखड जी के ब्लॉग के माध्यम से हिन्दी में सबसे छोटी आयु की बच्ची का भी एक ब्लॉग देखा था|
खैर, बच्चों के या किसी बच्चे विशेष के ब्लॉग का लिंक या उल्लेख करना यहाँ मेरा उद्देश्य नहीं है| मेरा उद्देश्य इस बात को यहाँ उठाने का दूसरा है| वह यह कि जब भी कोई रचना किसी पात्र - विशेष के माध्यम से व्यक्त होती है तो वह उस पात्र की भाषा और उसी की भंगिमा लेकर आती है, आनी चाहिए| साहित्य इसका प्रमाण है| प्रेमचंद के हर पात्र की भाषा और भंगिमा उसके समाज, वय, लिंग, शिक्षा, अनुभव, स्तर, भाषिक पृष्ठभूमि आदि आदि आदि कई स्तरों का निर्वाह करती है| प्रेमचंद ही क्यों, सारा हिन्दी साहित्य, संस्कृत साहित्य, अन्य भाषाओं का साहित्य, पंचतंत्र..... जाने क्या क्या गिनाऊँ ! और तो और, बोलचाल में भी लोग जब बच्चे की भूमिका में कभी संवाद करते हैं तो तुतला कर बोलना, ... आदि शैली को अपना लेते हैं| अभिप्राय यह कि वाणी और शब्दों का चयन वक्ता अथवा पात्र के अनुसार होना भाषा की अनिवार्य शर्त है|
आज मुझे दुःख हुआ यह देख कर कि हम अपने बच्चों के मुँह में कैसी भाषा आरोपित कर रहे हैं| स्वप्निल नाम की इस बच्ची का ब्लॉग यों तो सराहनीय है, प्यारा है किन्तु आज के संवाद में एक शब्द "चुड़ैल" के प्रयोग में ऐसी असावधानी हुई है कि लगा जैसे हम अपने बच्चों को अपनी वान्छओं से आरोपित कर रहे हैं| उन पर उनकी उम्र से बड़ी चतुराई और उस चतुराई की भाषा बोलना लाद रहे हैं|
मुझे पक्का विश्वास है कि यह भाषा स्वप्निल कदापि नहीं बोलती होगी| बोलनी चाहिए भी नहीं| ऐसे में जो भी स्वप्निल बन कर इस ब्लॉग को लिख रहे हैं, उन्हें चाहिए कि शब्द चयन में सावधानी बरतें| बच्चे की भाषा और भावना से सामंजस्य न रखने वाले एक शब्द के गलत चयन व प्रयोग से बच्चे की पूरी छवि धूमिल हो जाती है| बच्चों के पास उनका बचपन अधिकतम सुरक्षित रहने दें| मेरी इस बात को तर्क वितर्क का मुद्दा बना कर मुझे खेद में न डालें| मैं किसी दुर्भावना वश ऐसा नहीं लिख रही हूँ| फिर भी यदि मेरी सलाह पर किसी को आपत्ति हो तो वह/ वे अपने बच्चों के लिए निर्णय लेने में स्वतन्त्र तो हैं ही |
अचानक पापा के कम्प्यूटर में मैंने एक फोटो देखी। फोटो में पापा एक लड़की के साथ शूट में खड़े हैं। मैंने सोचा मेरे पापा कब से फिल्मों में काम करने लग गए और ये चुडैल कौन है? जो मेरी मम्मी के स्थान पर पापा के साथ खड़ी है। पापा से पूछा तो पापा ने बताया कि बेटा ये तेरे पापा नहीं है, ये तो राजीव तनेजा अंकल के ब्लाग में किया गया कमाल है। यह जानकर मुझे अच्छा लगा कि चलो पापा न तो किसी फिल्म में काम कर रहे हैं और न ही मेरे मम्मी के स्थान पर कोई और है। आप एक चित्र के साथ हुई चुहल में हमें पहचाने की कोशिश कीजिए तब तक हम आप से अगली बार मिलने के लिए विदा ले लेते हैं|
वैसे यह तो सच है कि राजीव तनेजा जी की तकनीकी चित्रकारी ने ब्लॉग जगत् के लोगों को क्या से क्या बना दिया है|
अब यही देखिए -
हम आपसे अगली बार मिलने से पूर्व आपके मंगलमय भविष्य की कामना करते हैं.
सार्थक शब्दों के साथ अच्छी चर्चा, अभिनंदन।
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