सादगी का गेम शो
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसे सादगी कहें और किसे अय्याशी ? हवाई जहाज की 'इकॉनामी क्लास' में यात्रा को सादगी कहा जा रहा है| इन सादगीवालों से कोई पूछे कि हवाई-जहाज में कितने लोग यात्रा करते हैं ? मुश्किल से दो-तीन करोड़ लोग ! 100 करोड़ से ज्यादा लोग तो हवाई जहाज को सिर्फ आसमान में उड़ता हुआ ही देखते हैं| तो हवाई- यात्रा सादगी हुई या अय्याशी ? देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो साल में एक बार भी रेल यात्रा तक नहीं करते| करोड़ों ऐसे हैं कि रेल और जहाज उनकी पहुंच के ही परे हैं| करोड़ों लोग ऐसे भी हैं, जो कभी कार में ही नहीं बैठे| तो क्या मोटर कार, रेल और जहाज में यात्रा करने को अय्याशी माना जाए ? नहीं माना जा सकता| जिन्हें जरूरत है और जिनके पास पैसे हैं, वे यात्रा करेंगे| उन्हें कौन रोक सकता है ? वे यह भी चाहेंगे कि विशेष श्रेणियों में यात्रा करें| सवाल सिर्फ आराम का ही नहीं है, रूतबे का भी है| रूतबा असली मसला है, वरना दो-तीन घंटे की हवाई- यात्रा और पांच-छह घंटे की रेल- यात्रा में कौन थककर चूर हो सकता है| अगर पूरी रात की रेल या जहाज की यात्रा है तो रेल की शयनिका या जहाज की 'बिजनेस क्लास' को अय्याशी कैसे कहा जा सकता है ? जिन्हें गंतव्य पर पहुंचकर तुरंत काम में जुटना है, उनके लिए यह आवश्यक सुविधा है|
लेकिन हमारे नेताओं ने कई 'अनावश्यक सुविधाओं' को 'आवश्यक सुविधा' में बदल दिया है| माले-मुफ्त, दिले-बेरहम | नेताओं के आगे रोज़ नाक रगड़नेवाले धनिक अगर इन सुविधाओं को भोग रहे हैं तो नेता पीछे क्यों रहें ? पांच-सितारा होटलों में रहनेवाले नेता क्या सच बोल रहे हैं ? देश के बड़े से बड़े पूंजीपति की भी हिम्मत नहीं कि वह अपने रहने पर एक-डेढ़ लाख रू. रोज़ महिनों तक खर्च कर सके| वह नेता ही क्या, जो अपनी जेब से पैसा खर्च करे| या तो कोई पूंजीपति उसका बिल भरता है या डर के मारे होटल ही उसे लंबी रियायत दे देता है| मंत्रियों ने यह कहकर पिंड छुड़ा लिया कि होटलों के साथ 'उनका निजी ताल-मेल' है| पत्रकारों को खोज करनी चाहिए थी कि यह निजी ताल-मेल कैसा है? यदि ये मंत्री लोग अपना पैसा खर्च कर रहे होते तो प्रणब मुखर्जी को कह देते कि भाड़ में जाए, आपकी सादगी ! हमारी जीवन-शैली यही है| हम ऐसे ही रहेंगे, जैसा कि मुहम्मद अली जिन्ना कहा करते थे| वे यह भी पूछ सकते थे कि मनमोहनजी, प्रणबजी, सोनियाजी, अटलजी, आडवाणीजी ! जरा यह तो बताइए कि आपके घर कौनसी पांच-सितारा होटलों से कम हैं ? क्या उनका किराया दो-तीन लाख रू. रोज से कम हो सकता है ? डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि भारत का आम आदमी तीन आने रोज़ पर गुजारा करता है और प्रधानमंत्री (नेहरू) पर 25 हजार रू. रोज खर्च होते हैं ! आज हमारे मंत्रियों पर उनके रख-रखाव, सुरक्षा और यात्र पर लाखों रू. रोज़ खर्च होते हैं जबकि 80 करोड़ लोग 20 रू. रोज़ पर गुजारा करते है| सिर्फ पांच-सितारा होटल छोड़कर कर्नाटक भवन या केरल भवन में रहने से सादगी का पालन नहीं हो जाता और न ही साधारण श्रेणी में यात्र करने से ! ये कोरा दिखावा है लेकिन यह दिखावा अच्छा है| इस दिखावे के कारण देश के पांच-सात लाख राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को कुछ शर्म तो जरूर आएगी, जैसे कि एक सांसद को आई थी, सोनियाजी को इकॉनामी क्लास में देखकर ! साधारण लोगों पर भी इसका कुछ न कुछ असर जरूर पड़ेगा|
लेकिन इससे देश की समस्या का हल कैसे होगा ? बाहर-बाहर सादगी और अंदर-अंदर अय्रयाशी चलती रहेगी| सादगी हमारा आदर्श नहीं है| हमने हमारे समाज को अय्रयाशी की पटरी पर डाल दिया है और हम चाहते हैं कि हमारी रेल सादगी के स्टेशन पर पहुंच जाए| हमने रास्ता केनेडी और क्लिंटन का पकड़ा है और हम चाहते हैं कि हम लोहिया और गांधी तक पहुंच जाएं| नेताओं के दिखावे से हम आखिर कितनी बचत कर पाएंगे ? बचत और सादगी का संदेश देश के दहाड़ते हुए मध्य-वर्ग तक पहुंचना चाहिए| हम यह न भूलें कि जो राष्ट्र अय्रयाशी के चक्कर में फंसते हैं, वे या तो दूसरे राष्ट्रों का खून पीते हैं या अपनी ही असहाय जनता का! रक्तपान के बिना साम्राज्यवाद और पूंजीवाद जिंदा रह ही नहीं सकते| गांधीजी ठीक ही कहा करते थे कि प्रकृति के पास इतने साधन ही नहीं हैं कि सारे संसार के लोग अय्याशी में रह सके| हमने अपने देश के दो टुकड़े कर दिए हैं| एक का नाम है, 'इंडिया' और दूसरे का है, 'भारत' ! इंडिया अय्याशी का प्रतीक है और भारत सादगी का ! भारत की छाती पर हमने इंडिया बैठा दिया है| 'इंडिया' के भद्रलोक के लिए ही पांच-सितारा होटलें हैं, चमचमाती बस्तियां हैं, सात-सितारा अस्पताल हैं, खर्चीले पब्लिक स्कूल हैं, मनोवांछित अदालते हैं| चिकनी सड़कें, वातानुकूलित रेलें और जहाज हैं जबकि 'भारत' के (अ) भद्रलोक के लिए अंधेरी सरायें हैं, गंदी बस्तियां हैं, बदबूदार अस्पताल हैं, टूटे-फूटे सरकारी स्कूल हैं, तिलिस्मी अदालते हैं, गड्रढेदार सड़के हैं, खटारा बसें हैं और मवेशी-श्रेणी के रेल के डिब्बे हैं| जब तक यह अंतर कम नहीं होता, जब तक समतामूलक समाज नहीं बनता, जब तक देश में प्रत्येक व्यक्ति के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय, सुरक्षा और मनोरंजन की न्यूनतम व्यवस्था नहीं होती, सादगी सिर्फ दिखावा भर बनी रहेगी| हमारे नेतागण अपनी शक्ति 'भारत' से प्राप्त करते हैं और उसका उपयोग 'इंडिया' के लिए करते हैं| 'भारत' की सादगी उसकी मजबूरी है| उसका आदर्श भी 'इंडिया' ही है| इसीलिए हर आदमी चूहा-दौड़ में फंसा हुआ है| मलाई साफ़ करने पर तुला हुआ है| उसे कानून-क़ायदे, लोक-लाज और लिहाज़-मुरव्वत से कोई मतलब नहीं है| इस मामले में नेता सबसे आगे हैं| जो जितना बड़ा नेता, वह उतने बड़े ठाठ-बाठ में रहेगा| इस जीवन-शैली पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती| उल्टे, दिल में यह हसरत जोर मारती रहती है कि हाय, हम नेता क्यों न हुए ? अगर आम लोगों को इस अय्याशी पर एतराज़ होता तो वे चौराहों पर नेताओं को पकड़-पकड़कर उनकी खबर लेते, उनकी आय और व्यय पर पड़े पर्दो को उघाड़ देते और भ्रष्टाचार के दैत्य का दलन कर देते| यह कैसे होता कि अकेली दिल्ली में नेताओं के बंगलों के रख-रखाव पर 100 करोड़ रू. खर्च हो जाते और देश के माथे पर जूं भी नहीं रेंगती| हमारे नेता और अफसर हर साल अरबों रू. की रिश्वत खा जाते हैं और आज तक किसी नेता ने जेल की हवा नहीं खाई | जापान और इटली में भ्रष्टाचार के कारण दर्जनों सरकारें गिर गईं और ताइवन के प्रसिद्घ राष्ट्रपति चेन जेल में सड़ रहे हैं लेकिन हमारे सारे नेता राजा हरिशचंद्र बने हुए हैं| हमारे नेता और अफसर इसीलिए राजा हरिशचंद्र का नक़ाब ओढ़े रहते हैं कि भारत के लोगों ने भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार मान लिया है| यह राष्ट्रीय स्वीकृति ही हमारे लोकतंत्र् का कैंसर है| यह कैंसर शासन, प्रशासन, संसद, अदालत और सारे जन-जीवन में फैल रहा है| इसे देखकर अब किसी को गुस्सा भी नहीं आता| अय्रयाशी ही भ्रष्टाचार की जड़ है| ठाठ-बाट, अय्याशी और दिखावा हमारे राष्ट्रीय मूल्य बन गए हैं| अय्याशी के दिखावे को सादगी के दिखावे से कुछ हद तक काटा जा सकता है लेकिन जिस देश में अय्रयाशी सत्ता और संपन्नता का पर्याय बनती जा रही हो, वहां सादगी का दिखावा कुछ ही दिनों में दम तोड़ देगा| यह ठीक है कि विदेह की तरह रहनेवाले सम्राट जनक, प्लेटो के दार्शनिक राजा, अपनी मोमबत्तीवाले कौटिल्य, टोपी सीनेवाले औरंगजेब और प्रारंभिक इस्लामी खलीफाओं की तरह नेता खोज पाना आज असंभव है लेकिन सादगी अगर सिर्फ दिखावा बनी रही और अय्याशी आदर्श तो मानकर चलिए कि भारत को रसातल में जाने से कोई रोक नहीं सकता !
लेकिन हमारे नेताओं ने कई 'अनावश्यक सुविधाओं' को 'आवश्यक सुविधा' में बदल दिया है| माले-मुफ्त, दिले-बेरहम | नेताओं के आगे रोज़ नाक रगड़नेवाले धनिक अगर इन सुविधाओं को भोग रहे हैं तो नेता पीछे क्यों रहें ? पांच-सितारा होटलों में रहनेवाले नेता क्या सच बोल रहे हैं ? देश के बड़े से बड़े पूंजीपति की भी हिम्मत नहीं कि वह अपने रहने पर एक-डेढ़ लाख रू. रोज़ महिनों तक खर्च कर सके| वह नेता ही क्या, जो अपनी जेब से पैसा खर्च करे| या तो कोई पूंजीपति उसका बिल भरता है या डर के मारे होटल ही उसे लंबी रियायत दे देता है| मंत्रियों ने यह कहकर पिंड छुड़ा लिया कि होटलों के साथ 'उनका निजी ताल-मेल' है| पत्रकारों को खोज करनी चाहिए थी कि यह निजी ताल-मेल कैसा है? यदि ये मंत्री लोग अपना पैसा खर्च कर रहे होते तो प्रणब मुखर्जी को कह देते कि भाड़ में जाए, आपकी सादगी ! हमारी जीवन-शैली यही है| हम ऐसे ही रहेंगे, जैसा कि मुहम्मद अली जिन्ना कहा करते थे| वे यह भी पूछ सकते थे कि मनमोहनजी, प्रणबजी, सोनियाजी, अटलजी, आडवाणीजी ! जरा यह तो बताइए कि आपके घर कौनसी पांच-सितारा होटलों से कम हैं ? क्या उनका किराया दो-तीन लाख रू. रोज से कम हो सकता है ? डॉ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि भारत का आम आदमी तीन आने रोज़ पर गुजारा करता है और प्रधानमंत्री (नेहरू) पर 25 हजार रू. रोज खर्च होते हैं ! आज हमारे मंत्रियों पर उनके रख-रखाव, सुरक्षा और यात्र पर लाखों रू. रोज़ खर्च होते हैं जबकि 80 करोड़ लोग 20 रू. रोज़ पर गुजारा करते है| सिर्फ पांच-सितारा होटल छोड़कर कर्नाटक भवन या केरल भवन में रहने से सादगी का पालन नहीं हो जाता और न ही साधारण श्रेणी में यात्र करने से ! ये कोरा दिखावा है लेकिन यह दिखावा अच्छा है| इस दिखावे के कारण देश के पांच-सात लाख राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को कुछ शर्म तो जरूर आएगी, जैसे कि एक सांसद को आई थी, सोनियाजी को इकॉनामी क्लास में देखकर ! साधारण लोगों पर भी इसका कुछ न कुछ असर जरूर पड़ेगा|
लेकिन इससे देश की समस्या का हल कैसे होगा ? बाहर-बाहर सादगी और अंदर-अंदर अय्रयाशी चलती रहेगी| सादगी हमारा आदर्श नहीं है| हमने हमारे समाज को अय्रयाशी की पटरी पर डाल दिया है और हम चाहते हैं कि हमारी रेल सादगी के स्टेशन पर पहुंच जाए| हमने रास्ता केनेडी और क्लिंटन का पकड़ा है और हम चाहते हैं कि हम लोहिया और गांधी तक पहुंच जाएं| नेताओं के दिखावे से हम आखिर कितनी बचत कर पाएंगे ? बचत और सादगी का संदेश देश के दहाड़ते हुए मध्य-वर्ग तक पहुंचना चाहिए| हम यह न भूलें कि जो राष्ट्र अय्रयाशी के चक्कर में फंसते हैं, वे या तो दूसरे राष्ट्रों का खून पीते हैं या अपनी ही असहाय जनता का! रक्तपान के बिना साम्राज्यवाद और पूंजीवाद जिंदा रह ही नहीं सकते| गांधीजी ठीक ही कहा करते थे कि प्रकृति के पास इतने साधन ही नहीं हैं कि सारे संसार के लोग अय्याशी में रह सके| हमने अपने देश के दो टुकड़े कर दिए हैं| एक का नाम है, 'इंडिया' और दूसरे का है, 'भारत' ! इंडिया अय्याशी का प्रतीक है और भारत सादगी का ! भारत की छाती पर हमने इंडिया बैठा दिया है| 'इंडिया' के भद्रलोक के लिए ही पांच-सितारा होटलें हैं, चमचमाती बस्तियां हैं, सात-सितारा अस्पताल हैं, खर्चीले पब्लिक स्कूल हैं, मनोवांछित अदालते हैं| चिकनी सड़कें, वातानुकूलित रेलें और जहाज हैं जबकि 'भारत' के (अ) भद्रलोक के लिए अंधेरी सरायें हैं, गंदी बस्तियां हैं, बदबूदार अस्पताल हैं, टूटे-फूटे सरकारी स्कूल हैं, तिलिस्मी अदालते हैं, गड्रढेदार सड़के हैं, खटारा बसें हैं और मवेशी-श्रेणी के रेल के डिब्बे हैं| जब तक यह अंतर कम नहीं होता, जब तक समतामूलक समाज नहीं बनता, जब तक देश में प्रत्येक व्यक्ति के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा, न्याय, सुरक्षा और मनोरंजन की न्यूनतम व्यवस्था नहीं होती, सादगी सिर्फ दिखावा भर बनी रहेगी| हमारे नेतागण अपनी शक्ति 'भारत' से प्राप्त करते हैं और उसका उपयोग 'इंडिया' के लिए करते हैं| 'भारत' की सादगी उसकी मजबूरी है| उसका आदर्श भी 'इंडिया' ही है| इसीलिए हर आदमी चूहा-दौड़ में फंसा हुआ है| मलाई साफ़ करने पर तुला हुआ है| उसे कानून-क़ायदे, लोक-लाज और लिहाज़-मुरव्वत से कोई मतलब नहीं है| इस मामले में नेता सबसे आगे हैं| जो जितना बड़ा नेता, वह उतने बड़े ठाठ-बाठ में रहेगा| इस जीवन-शैली पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होती| उल्टे, दिल में यह हसरत जोर मारती रहती है कि हाय, हम नेता क्यों न हुए ? अगर आम लोगों को इस अय्याशी पर एतराज़ होता तो वे चौराहों पर नेताओं को पकड़-पकड़कर उनकी खबर लेते, उनकी आय और व्यय पर पड़े पर्दो को उघाड़ देते और भ्रष्टाचार के दैत्य का दलन कर देते| यह कैसे होता कि अकेली दिल्ली में नेताओं के बंगलों के रख-रखाव पर 100 करोड़ रू. खर्च हो जाते और देश के माथे पर जूं भी नहीं रेंगती| हमारे नेता और अफसर हर साल अरबों रू. की रिश्वत खा जाते हैं और आज तक किसी नेता ने जेल की हवा नहीं खाई | जापान और इटली में भ्रष्टाचार के कारण दर्जनों सरकारें गिर गईं और ताइवन के प्रसिद्घ राष्ट्रपति चेन जेल में सड़ रहे हैं लेकिन हमारे सारे नेता राजा हरिशचंद्र बने हुए हैं| हमारे नेता और अफसर इसीलिए राजा हरिशचंद्र का नक़ाब ओढ़े रहते हैं कि भारत के लोगों ने भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार मान लिया है| यह राष्ट्रीय स्वीकृति ही हमारे लोकतंत्र् का कैंसर है| यह कैंसर शासन, प्रशासन, संसद, अदालत और सारे जन-जीवन में फैल रहा है| इसे देखकर अब किसी को गुस्सा भी नहीं आता| अय्रयाशी ही भ्रष्टाचार की जड़ है| ठाठ-बाट, अय्याशी और दिखावा हमारे राष्ट्रीय मूल्य बन गए हैं| अय्याशी के दिखावे को सादगी के दिखावे से कुछ हद तक काटा जा सकता है लेकिन जिस देश में अय्रयाशी सत्ता और संपन्नता का पर्याय बनती जा रही हो, वहां सादगी का दिखावा कुछ ही दिनों में दम तोड़ देगा| यह ठीक है कि विदेह की तरह रहनेवाले सम्राट जनक, प्लेटो के दार्शनिक राजा, अपनी मोमबत्तीवाले कौटिल्य, टोपी सीनेवाले औरंगजेब और प्रारंभिक इस्लामी खलीफाओं की तरह नेता खोज पाना आज असंभव है लेकिन सादगी अगर सिर्फ दिखावा बनी रही और अय्याशी आदर्श तो मानकर चलिए कि भारत को रसातल में जाने से कोई रोक नहीं सकता !
जो नेता अपना सत्र होने के बाद भी दिल्ली में सरकारी मकान खाली नहीं करते, जो मंत्री १०० करोड के मकान में ठिकाना बना बैठते हैं, जो करोडों रूपयों की हेराफेरी करने वाले को मुक्त कर देते हैं, उनके चरित्र को लेकर क्या कहना। और, अब तो जनता भी जानती है उनके ये ढकोसले:(
जवाब देंहटाएंआपकी बात से सौ प्रतिशत सहमत. पर जनता की लाचारी तो देखिये. क्या किया जा सकता है?
जवाब देंहटाएंरामराम.
श्री अमिताभ त्रिपाठी द्वारा ईमेल से भेजी टिप्पणी
जवाब देंहटाएंRe: [हिन्दी-भारत] सादगी का गेम शो
...
From:
Amitabh Tripathi amitabh.ald@gmail.com
...
To: HINDI-BHARAT@yahoogroups.com
वैदिक जी ने बहुत सामयिक और कष्टप्रद समस्या को रेखांकित किया है। मैंने लाल बहादुर शस्त्री जी के बारे में पढ़ा था कि एक बार वे प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे थे। पहले तो उस कुपे में गर्मी थी लेकिन थोड़ी देर बाद कुछ शीतलता का अनुभव होने पर उन्होने कारण जानना चाहा तो पता लगा कि डिब्बे में कूलर लगा दिया गया इसलिये ठण्डा लग रहा है। उन्होने पूँछा कि क्या सभी डिब्बों में लगा है? उत्तर था नहीं। मात्र उनके डिब्बे में पिछले स्टेशन पर लगाया गया है। फिर, आज के नेता जान कर आश्चर्य कर सकते हैं कि, अगले स्टेशन पर उन्होने कूलर निकलवा दिया यह कह कर कि जब सब डिब्बों में नहीं लग सकता तो मेरे डिब्बे में भी आवश्यकता नहीं है। उनके प्रधानमंत्रित्त्व काल मे सरकारी कार का अपने लड़्को द्वारा दुरुपयोग कर लिये जाने पर उसका राजकीय दर पर मुगतान राजकोष में जमा किया था फिर उनके पुत्रॊं की हिम्मत उस तरह की हिमाकत करने की दोबारा नहीं हुई। आज सरकारी वाहन का पारिवारिक प्रयोग सम्मान सूचक माना जाता है। मैंने शास्त्री जी की चर्चा इसलिये की कि प्लेटो, चाणक्य आदि का काल तो सुदूर अतीत का है जबकि शास्त्री जी को गये अभी लगभग ४३ वर्ष हुये।
कल उनकी जयन्ती है और इस पोस्ट के बहाने उनका स्मरण करने का हमे अवसर मिला इसके लिये वैदिक जी को धन्यवाद! कल बापू की भी जयंती है। इन महानाआत्माओं को याद करते हुये हम कामना करें कि हमारे कर्णधारों में भी इनका अनुकरण करने की सद्बुद्धि आये।
शुभकामनाओं सहित
अमित
बढ़िया लिखा है।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुभकामनाएँ!बढ़िया लिखा है।
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
वैदिक जी!
जवाब देंहटाएंवन्दे मातरम.
अभियंता शिरोमणि भारत रत्ना सर मोक्षगुन्दम विश्वेश्वरैया मैसूर राज्य के दीवान के नाते उस रात एक गाँव में रुके थे. कुछ देर काम करने के बाद उनहोंने अपने सामान से एक मोमबत्ती निकाली और उसे जलाकर पहले से जल रही मोमबत्ती बुझा दी और फिर काम करने लगे. समीप बैठे सज्जन से रहा नहीं गया, उनहोंने ऐसा करने का कारण पूछा तो सर एम्.व्ही. ने बताया की पहलेवाली मोमबत्ती सरकारी थी जिसकी रौशनी में उनहोंने सरकारी काम किया और अब घर पत्र लिख रहे हैं इसलिए सरकारी मोमबत्ती बुझाकर निजी मोमबत्ती जलाई है. इन्हीं एम्. व्ही. ने बिहार में भयानक बाढ़ आने के बाद गाँधी जी के कहने पर बिहार का दौराकर बाढ़ नियंत्रण के उपाय सुझाते हुए रिपोर्ट दी तो तत्कालीन भारत सरकार ने उन्हें एक बड़ी राशि का चैक पारिश्रमिक के रूप में भेजा. एम्.व्ही. ने चैक लौटते हुए लिखा कि वे गाँधी जी के कहने पर देश की जनता के कष्ट निवारण हेतु गए थे अंग्रेज सरकार के कहने पर नहीं इसलिए वे कोई पारिश्रमिक स्वीकार नहीं कर सकते.
आज के नेता, व्यापारी, अधिकारी और आम जन कोई भी ऐसा आचरण कर सकता है क्या? आज तो न्यायाधीश जिनको देश सर्वाधिक सम्मान, अधिकार और सुविधाएँ देता है निरंतर कदाचार और दुराचरण कर रहे हैं. यहाँ तक कि उन्हें अपनी संपत्ति की घोषणा करने की भी हिम्मत नहीं हो रही.
आज ईमानदारी कि परिभाषा बदल गयी है-
सुना है
इलाके में
एक ईमानदार अफसर
आया है.
रिश्वत तो लेता है
पर काम
तुरंत कर देता है.