अपने को पहचानें








अपने को पहचानें – कोSहम्



सुधा सावंत, एम ए, बी एड


कहने को बड़ा अटपटा सा प्रश्न है, - कौन हूं मैं – और उत्तर उससे भी विचित्र – एक यात्री। पर सच मे हम यात्री हैं ज्ञान पथ के । हमारी यात्रा अज्ञान से ज्ञान की ओर है। अंधकार से प्रकाश की ओर है। असत्य से सत्य की ओर है और मृत्यु से अमरता की ओर है। तभी तो हम प्रार्थना करते है –


असतो मा सद् गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्माSमृतम् गमय ।।


हम ईश्वर से प्रार्थना करते है कि हे प्रभो, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलिए, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलिए, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलिए। हमारी यात्रा ज्ञान प्राप्त करने की, आत्मा के अपने गंतत्य परमात्मा तक पहुंचने की यात्रा है। जन्म रास्ते में आने वाले अनेक पड़ावो की तरह हैं। हमारे संबंधी, मित्र, शत्रु, सब यात्रा में चलने वाले यात्रियों के समान हैं।


चलिए मान लेते हैं कि हम एक आन्तरिक, आध्यात्मिक यात्रा पर निकले पथिक हैं। तो यात्रा की तैयारी क्या करें। सुनिए हम किसी नए शहर में जाते हैं, तो वहाँ का मानचित्र ले लेते हैं। उस शहर में कौन कौन से दर्शनीय स्थल हैं। कौन सा मार्ग किस स्थान तक ले जाएगा, उसे देखते देखते मार्ग का अनुसरण करते हुए अपने गंतव्य तक पहुंचते हैं। दर्शनीय स्थलों को देखकर, लोगो से मिलकर यात्रा को सफल मानते हैं।


ठीक ऐसी ही हमारी जीवन-यात्रा है। समस्त ज्ञान के मूल स्रोत वेद आदि ग्रंथ जीवन पथ के मार्गदर्शक मानचित्र के समान हैं। वेदो के द्वारा बताए गए मार्ग पर चलकर हम आसानी से आत्म साक्षात्कार कर सकते हैं और परमात्मा के स्वरूप को तत्वत: जान सकते हैं। ऋग्वेद में एक मंत्र है:


द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया: समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।।


दो सुंदर पक्षी जो सहयोगी हैं, परस्पर मित्र हैं। एक ही वृक्ष पर मज़े से बैठे हुए हैं। इन दोनो में से एक इस वृक्ष के फल को खाता है और दूसरा पक्षी न खाता हुआ, अध्यक्षता का काम करता है ।


मंत्र के अनुसार वृक्ष प्रकृति का परिचायक है और दो पक्षी परमात्मा और जीवात्मा के परिचायक हैं। तीनों नित्य हैं शाश्वत हैं। बस तीनो की विशेषताएं अलग अलग हैं। प्रकृति जड़ है, एक पक्षी जो फल खाता है वो जीव है और जो फल नही खाता है - वह ईश्वर है, नियंता है, अध्यक्ष है। केवल सबकी क्रियाओं की जानकारी रखता है। उसे कर्म फल नही भोगना पड़ता है।
इस मंत्र के सहारे हम अनेक बातें सीखते हैं कि हम जीवात्मा हैं। जो काम करेंगे उसका अच्छा या बुरा फल भोगना पड़ेगा। अत: अच्छे काम करें। सावधानी से करें अन्यथा काम बिगड़ सकता है। ईश्वर अध्यक्ष है तो उन्हें अपना काम अच्छे से अच्छे ढंग से करके दिखाएं। गर्व न करें क्योकि हमारा ज्ञान तो सीमित है, हमारे अध्यक्ष का ज्ञान असीमित है। हां, हम भी अपने ज्ञान को निरंतर बढ़ा सकते हैं।


यजुर्वेद में एक अन्य मंत्र भी बहुत अच्छा है जो इस प्रकार है –
विद्यां च अविद्यां च यस्तद्वेदोभयम् सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाSमृतमश्नुते।।


विद्या और अविद्या को जो व्यक्ति ठीक से साथ साथ समझता है वो अविद्या के द्वारा मृत्यु को पार करके विद्या के द्वारा अमरता या अमृत को प्राप्त करता है।


यहां विद्या परमात्मा, जीवात्मा विषयक अर्थात चेतन तत्व का ज्ञान है और अविद्या प्रकृति अर्थात जड़ तत्व विषयक ज्ञान है। अविद्या अज्ञान नहीं है। इसे हम भौतिक विज्ञान या रसायन शास्त्र आदि के रूप में प्राप्त करते हैं।


हम डॉक्टर या ईंजीनियर तो बन जाते हैं लेकिन केवल अपने स्वार्थ के लिए काम करते हैं – परमार्थ के लिए नही। कुछ डॉक्टर बनने के बाद भी दूसरो के शरीर के अंग निकाल कर बेच देते हैं। या दवाईंयो में मिलावट करते हैं। दूसरों की सुविधा नही देखते – केवल अपना स्वार्थ देखते हैं। तब यह किताबी ज्ञान अविद्या बन कर रह जाता है क्योकिं इसमें स्वार्थ होता है परोपकार नही। क्योंकि हमने अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त नही किया।


विद्या के द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान से संबंधित पुस्तको को पढ़कर, अच्छे गुरू के समीप रह कर हमें अच्छे संस्कार मिलते हैं और चेतन तत्व के बारे में जानकारी भी मिलती है।



आपने नचिकेता की कहानी पढ़ी होगी। नचिकेता के पिता वाजश्रवा स्वर्ग सुख प्राप्त करना चाहते थे। अत: ऋषियों से यज्ञ करवाया। पहले तो सोचा था कि यज्ञ के पूरा हो जाने पर ऋषियों और ब्राह्मणों को बहुत सा दान देंगे। दुधारु गाएं देंगे। परंतु यज्ञ के पूरा होने पर ब्राह्मणों को बूढ़ी गायें देना शुरु कर दिया। लोग दबी आवाज़ में वाजश्रवा की निंदा करने लगे। बालक नचिकेता यह सह न सके।



उन्होनें पिता जी से पूछा ``पिताजी आप मुझे किसे दान में देंगे ? आपकी सबसे प्रिय वस्तु तो मैं हूं।’’ पहले तो पिता नें इस पर ध्यान नहीं दिया। बार बार पूछे जाने पर गुस्से से कहा – जा मैंने तुझे मृत्यु के देवता यमराज को दान दिया। बालक नचिकेता ईश्वर भक्त था,विनम्रता पूर्वक बोला – पिताजी मुझे यमराज के पास जाने की अनुमति दीजिए। अब पिता को अपनी भूल का पता चला।



नचिकेता यमराज के पास पहुंचे और तीन वरदानों में से एक वरदान के रूप में आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। यमराज ने सोचा यह अभी बालक है पता नहीं आत्मज्ञान प्राप्त करने के योग्य है भी या नहीं। इसलिये यमराज ने नचिकेता को बहुत सा धन संपत्ति देने का लालच दिया। हाथी, घोड़े, महल, राज्य सबकुछ देने के लिए कहा। परंतु नचिकेता पर इन प्रलोभनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।


उन्होनें विनम्रता पूर्वक यमराज से कहा कि यह सभी वस्तुएं उन्हे केवल भौतिक सुख दे सकती हैं – आत्मिक शांति नहीं। इसलिए वे आत्मज्ञान ही प्राप्त करना चाहते हैं। यमराज ने कहा संसार में दो तरह का ज्ञान है – श्रेय का और प्रेय का। श्रेय आत्मज्ञान है और प्रेय सासांरिक सुख भोग को प्राप्त करने का ज्ञान है। धैर्यवान व्यक्ति प्रेय के स्थान पर श्रेय का चुनाव करते हैं।


श्रेयो हि धीर: अभिप्रेयो वृणीते,
प्रेयो मंदो योगक्षेमात् वृणीते ।।



संसारिक सुख चाहने वाले व्यक्ति अपने को केवल शरीर के रुप में ही पहचानते हैं। उन्हें पता नही कि शरीर तो उन्हें साधन के रुप में मिला है। शरीर के माध्यम से वे अपने चेतन आत्मरुप को पहचान सकें। नचिकेता क्योंकि आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिए आग्रह कर रहा था तो उन्होनें कहा – हे नचिकेता यदि तुम अपने शरीर को रथ के रूप में मानो तो इंद्रियां घोड़ों के समान हैं। मन लगाम की तरह है और बुद्धि सारथी के समान है। आत्मा इस रथ में बैठे यात्री के समान है। आत्मा की यात्रा परमात्मा को पहचानने की है। इस प्रकार हम सभी जीवात्मा यात्री हैं और परमात्मा तक पहुंचना चाहते हैं।
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4 टिप्‍पणियां:

  1. आत्मा-परमात्मा, ज्ञान-अज्ञान, विद्या-अविद्या, जीवन-मृत्यु आदि पर अच्छी व्याख्या करता हुआ ज्ञानप्रद लेख। आभार॥

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  2. जीवन यात्रा में हम स्वय कहा है इसका सुंदर परिचय और साथ ही नचिकेता की कहानी पुन: पढने को मिली..शुक्रिया.

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