कविता मनुष्य का निजी मामला नहीं
प्रमोद कौंसवाल
यह ‘धूपधर्म’ की आशा वाली मनुष्यों को बचाने की आवाज़ें हैं। इन पंक्तियों का लेखक कुमार विकल के निराश-हताश दिनों का ऐसा साक्षी रहा है कि जो धूप के ज़रूर खिलने के इंतज़ार में सोचता हुआ बैठा रहा कि एक उजली दुनिया आएगी, रोशनी के सारे बिंब पंजाब विश्वविद्यालय परिसर में कार्निवल की तरह फैल जाएगी- जहां कुमार विकल रहते थे और जहाँ से किसी साफ़-सुथरी सुबह कसौली की यही सुरमई पहाडियाँ दिख पड़ती थीं। इस पूरी काव्य यात्रा को समझने के लिए पंजाब के आतंकवाद के दिनों के हालात, पत्थर दिल कहलाने वाले भारत के सबसे आधुनिक नेहरू के सपनों के ‘सिटी ब्यूटीफुल’ चंडीगढ़ की दरो-दीवारों, यारों की यारी समझने और विकल के व्यक्तित्व की विकटता जैसी चीज़ों को समझना ज़रूरी है। रंग ख़तरे में है- इस संग्रह के छपने के समय कविता की मेरी समझ काफी कुछ हाशिए में थी। लेकिन विकल की मौत से पहले - निरूपमा दत्त मैं बहुत उदास हूँ - इस आख़िरी संग्रह को छापने के लिए पाण्डुलिपि तैयार करने का काम ‘पल प्रतिपल’ के संपादक देश निर्मोही ने मुझे दिया और अपने प्रकाशन संस्थान- ‘आधार’ से तुरंत छाप दिया। बाद में ‘एक छोटी सी लड़ाई’ समेत तीनों संग्रहों को मिलाकर संपूर्ण कविताओं का महान संपूर्ण संकलन छाप दिया। आपको बता दूँ कि विकल का शहर चंडीगढ़ वो शहर है जहाँ दरख़्त भी सदा अपनी मर्ज़ी से उगे हैं- इतने ऊँचे कि जो छाया भी नहीं देते। एक पंजाबी कवि ने तो इन पेड़ों के बारे में यहाँ तक कहा है कि इन पर झूला डालने वाली आज भी मरी और कल भी...। असल में चंडीगढ़ से पहला परिचय कविताओं ने कराया था। और मेरे जाने (1989) के बाद तो विकल की संगत में वहाँ के एक से एक युवा कवि विपुल कविताएँ लिखने लगे। इन कविताओं में शहर के अंतरमन और जनजीवन से जैसा जुड़ाव आप पाते हैं, वह खुलकर सामने दिखने वाला है। कविता, चंडीगढ़ और कुमार विकल एक लंबे समय तक एक दूसरे के पर्याय रहे। आज चंडीगढ़ और कुमार विकल का रिश्ता चाहे न बचा हो लेकिन कोई दो दशक पहले विकल कविताओं से छिटक गए पर तब तक उन्होंने यहाँ कविताओं के लिए एक माकूल माहौल तैयार कर लिया था। हम आए दिन सुनते थे कि विकल हिंदी कविता में अपनी जगह बनने के लिए बेहत व्यग्र रहते हैं- तब ऐसा माहौल भी था। पिछले डेढ़ दशक के उत्तरार्ध में कवि सत्यपाल सहगल का ‘पहल’ के एक अंक से मैंने उनका पता नोट किया। मैंने उनके घर जाकर बताया कि यहाँ के हिंदी कवियों की एक सूची तैयार हो तो अच्छा है। यह सूची मैंने चार पेज के रंगीन साप्ताहिक ‘गुरुवारी जनसत्ता’ के लिए तैयार की थी। परिशिष्ट का मैं संपादक था।
इस लगाव के बीच महसूस हुआ कि हिंदी आलोचना में अभी तक ग़रीब आदमी की कविता का आलोचनाशास्त्र नहीं बना है। इसलिए नागार्जुन और त्रिलोचन के साथ कुमार विकल की कविता हमारी आलोचना की अपर्याप्तताओं के बरक्स खड़ी है। हम ग़रीब आदमी की कविता को उस तरह से नहीं देख पाए हैं, जैसे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को देखा था। यह भी एक महत्वपूर्ण अंतर है। लंबे समय अराजक हो गई काव्य की भाषा के चलन के समय में कुमार विकल ने सहजता से भरी कविताएँ लिखकर बृहतर हिंदी भाषी समकालीन कविता में नया संदेश दिया। महज़ भाषा का ही नहीं, अर्थ का भी है। अपेक्षाकृत नई पीढ़ी की नुमाइंदी करते हुए भी संप्रेषण के प्रति उनका लगाव देखते ही बनता है। उनमें पाठक और श्रोता की परवाह है। कुमार विकल में लोकप्रियता की सहज भूख रही है। बाद में उन्हें सभी तरह के काव्य सम्मेलनों और गोष्ठियों में लगातार बुलाया गया। विकल ने कोई साहित्यिक अभिजात नहीं पाला। क़स्बों और छोटे शहरों के अल्पज्ञात साहित्यकारों और साहित्य सभाओं से उनका गहरा लगाव रहा है। लेकिन कुमार विकल निर्विवाद नहीं हैं। उनकी खानपान की आदत ने उनको साहित्य, सामाज और निजी दुनिया में कई समस्याएं पैदा कीं। इसे वह कभी तलवार तो कभी ढाल की तरह प्रयोग करते रहे। कभी अपनी ग़रीबी के ऊब से मुक्ति के लिए लेकिन लंबे काल में वह उनके शत्रु के रूप में ही सामने आई हैं जिसने उन्हें भीतर से नुक़सान पहुँचाया और शरीर को ही नहीं, इससे उनकी भीतरी शक्ति में कमी और संभावनाओं में ठहराव आया। इसी बड़ी दुनिया में अपनी छोटी सी लड़ाई लड़ते हुए उन्हें जिन साथी-यारों की ज़रूरत भी थी, उनमें कोई गढ़े नहीं जा सके। प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय जैसे एक दो नामों को छोड़कर उनकी कविताओं को समय पर किसी ने तवज्जो भी नहीं दी क्योंकि वह एक साधारण आदमी थे और उससे भी साधारण नौकरी कर रहे थे। वह किसी बड़े अख़बार के ऐसे संपादक नहीं थे कि जहाँ ऊँची कुर्सी को सलाम बजाने की हिंदी की आदत में एक सिलसिला बना पाते। वरना कल्पना कीजिए कि कैसे आलोकधन्वा एक संग्रह से यकायक छा गए और कैसे लीलाधर जगूड़ी जैसे कवि अचानक कविता में ज़िंदा ही नहीं हुए, झंडाथमाऊ तक बन बैठे हैं। इस मायने में विकल के बारे में महज़ गुलेरी का उदाहरण समझ आता है जो एक ज़माने में सिर्फ़ रचना-ग्लैमर से दूर रहकर एक ही कहानी -उसने कहा था-से प्रसिद्ध हो गए। इस मायने में चंडीगढ़ बौना तो नहीं है लेकिन दिल्ली, यूपी, हैदराबाद, और मुंबई से लेकर कोलकाता और मध्यप्रदेश तक ग्लैमर के टापू बने हैं और बने रहे। ऐसे हालात में विकल की खुद की कविता की पहचान की जद्दोजेहद कोई बेमानी नहीं लगती है....?
कविता आदमी का कोई निजी मामला नहीं है/ यह एक दूसरे तक पहुँचने का पुल है/ अब वही आदमी पुल बनाएगा जो उस पर चलते आदमी की सुरक्षा कर सकेगा....या- जब मैं अपनी कविताओं के बारे में सोचता हूँ तो मुझे कई हथियारों के नाम याद आते हैं...विकल की कविता ‘एक छोटी सी लड़ाई’ और ‘एक सामरिक चुप्पी’ से ये पंक्तियाँ रखनी इसलिए भी ज़रूरी लगती हैं कि विकल के समकालीन भारतीय हिंदी कवियों में ऐसे कवि विरले ही होंगे जो अपने हथियारों पर जंग लग जाने की चिंता करते हों। रचनात्मक और आम आदमी की ताक़त की पहचानने वाले कुमार विकल की कविताएँ जहाँ एक तरफ़ वस्तुजगत की स्थितियों की एक के बाद एक पड़ताल खोलती जाती है, वहीं एक प्रतिबद्ध कवि का संदेश भी होता है। लेकिन इन सबसे बढ़कर कविताओं की ख़ूबी है कि आदमी के तमाम रिश्ते- ये चाहे समाज, परिवार, राजनीति से वास्ता रखते हों अपनी नैतिक ज़मीन तैयार कर रहे हैं। कुमार विकल का पहला कविता संग्रह- ‘रंग ख़तरे में है’ असल में एक सियासी कविता थी। इमरज़ेंसी ख़त्म हुई और जनता पार्टी की सरकार आई तो विकल को लगा कि बदलेगा कुछ नहीं, समाज को बेहतर बनाने की कोशिश में लगी शक्तियाँ वैसी की वैसी ही रहेंगी। आम आदमी के जीवन में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। कविता को हिंदी के दिमाग़दारों ने ग़लत समझा। विकल को उस दौर में साफ़ लगा कि भारत की तस्वीर कहीं से नहीं बदलने वाली- जो लोग ख़तरे में हैं वे आज भी और आगे भी ख़तरे से खाली नहीं हैं। यह कहना सही नहीं कि उसमें पंजाब का कोई संदर्भ था, वह पूरे देश के हालात की कविता बनी, वह चर्चित हुई और उथल-पुथल इसलिए भी मची कि तब भिंडरावाला का सितारा बुलंद था। हाँ, पंजाब के हाल पर उनकी तब की दस-बारह कविताएँ हैं। पंजाब की घटनाओं ने भारतीय इतिहास के पन्नों में जैसी जगह बनाई, उसके बारे में विकल की कविता वहाँ की घटनाओं या वहाँ की सामाजिक स्थितियों को पेश करने और उस तकलीफ़ को बाँटने, उसमें हिस्सेदारी के लिए बहुत कुछ कहती है। हाँ वह (पाश की तरह) आक्रामक नहीं थे तो शायद इसलिए कि स्थितियाँ काफी जटिल थीं। विकल ने शुरू में तकलीफ़ की कविताएँ लिखीं भी थीं। सारे हालात देखकर जो तकलीफ़ उनको हुई, वह बयान की गईं। बयान से ज़्यादा विश्लेषण कहना ज़्यादा सही होगा। मुल़्क में दिल्ली दरबार की सियासत हो या किसी जगह सती के नाम पर रूपकंवर को आग में धकेलने की सामाजिक घटना, ऐसे मामलों में विकल यही मानते थे कि कवि के सामने सबसे पहले आदमी है- सबका साबका आदमी से है। दुख भोगने वाला आदमी ही है। कवि का मुख्य संबंध आदमी की पीड़ा से है। आदमी को नज़रअंदाज़ करके किसी तरह की भी सामाजिक या सियासी रचना का अन्तर्तत्व समृद्ध नहीं हो सकता। यानि किसी भी रचना में जहाँ आदमी गौण हैं, अर्थहीन रचना है। घटना प्रमुख नहीं, प्रमुख है आदमी की मौजूदगी। वह ग़ायब न होने पाए। निरुपमा दत्त, सत्यपाल सहगल, लाल्टू या हम कई लोगों से वह कहते कि कविता कोई प्रलाप नहीं है (शायद इसलिए कहते थे उनके दौर में विलापभरी कई ऐसी कविताएँ लिखी गईं जिनका कोई जीवन न था, स्वाभाविक है हो भी नहीं सकता) हाय उजड़ गए, पंजाब बर्बाद हो गया...। इस क़िस्म की भावुकता से बचना होगा। विकल ने हालात बहुत भावुक और शिद्दत से महसूस किए लेकिन रचना में इससे बचने की ज़रूरत समझी। जानते रहें कि विकल वह कवि हैं जो कहते थे मेरी कविता में निराशा है (क्योंकि समाज के हाल ऐसे ही हैं) लेकिन निराशावाद नहीं है। रोने-पीटने की कविता किसी काम की नहीं। एक और प्रमुख चिंता उनकी यह थी कि कविता का दायरा बड़ा नहीं हो पा रहा है। मृणाल पांडे की किसी कविता पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने चिंता ज़ाहिर की और कहा कि देश के कवियों को अब ये समझना चाहिए कि यथार्थ सबसे अहम है। इसके बिना कोई साहित्यिक कर्म संभव नहीं है।
इस बात पर ज़रा और बारीक़ी से ग़ौर करते हैं। आप भारत भवन की संस्कृति से निकली की एक बड़ी कविता-जुंडली की कविताओं को याद कर सकते हैं। इन पंक्तियों का लेखक नहीं, शीर्ष आलोचक बिरादरी बता चुकी है कि दरबार भोपाल मनुष्य के सुख-दुख की कविता नहीं, कलावाद की बाज़ीगरी है जिसे कविता नाम दिया गया है। शायद विकल देश के अकेले ऐसे सबसे बड़े कवि हैं जिनके बहाने इस तरह की कविता को अपरिहार्य रूप से ग़ैर-ज़रूरी कहा जा सकता है और कहना भी क्यों नहीं चाहिए ! यह विकल की की कविता के तेवर की ओर झाँकने की कोशिश है। उनकी कविता के परिवेश और फ़लक को जानना समय की नब्ज़ पकड़ने के लिए भी ज़रूरी है। वह खुद की तरह हर कवि को निकट की चीज़ों की छोटी-मोटी सचाई को जानने पर ज़ोर देते लगते हैं, भूकंप की भीषण तबाही के लिए वह आपको आर्मीनिया या उत्तरकाशी पर कविता लिखने की सलाह नहीं देते। उनकी कविता में अपनी ही जानी-पहचानी चीज़ों पर पैनी नज़र है और यह भी हम समझते रहें कि विकल जाने पहचाने अपने आसपास के हाल पर कविता लिखना एक कठिन काम भी मानते थे।
आज़ादी के बाद कविता में दो धाराएँ काम करती रहीं। दोनों धाराएँ समानांतर तौर पर चलती रहीं। इसी के परिणामस्वरूप कविता में टकराव आया। एक कविता प्रगतिवाद की थी, दूसरी नई कविता बाद में प्रयोगवाद बन गई। एक समय ऐसा आया जब एक ख़ास कविता को बिल्कुल नकार दिया गया। बहुत से लोग लिख रहे थे जिनमें बाबा नागार्जुन, शमशेर और केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवि थे...। बहुत से लोग लिख रहे थे। उनको नकारा गया, किसी ने नहीं पूछा। इसके मायने यह भी नहीं थे कि प्रगतिशील कविता नहीं लिखी जा रही थी। लेकिन एक तरह का शीतयुद्ध था। कुछ साहित्यिक कारण थे जिससे प्रगतिशील कविता नेपथ्य में चली गई। इसका इतना असर हुआ कि दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ भी यही सुलूक़ होने लगा। आज यह स्थिति नहीं है। आज कविता का प्रमुख स्वर प्रगतिशील और जनवादी है। ऐसा स्वर जो पहले कभी नहीं रहा।
विकल ने एक अंतराल में अपने संपन्न मित्रों के प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए प्रारंभ में कविताएँ लिखीं। तब कविता एक ग्लैमर थी। एक प्रेमी अपने प्रेम की अभिव्यक्ति कविता के ज़रिए करता था तो उसके असरदार होने के इनक़ानात शायद ज़्यादा जाने जाते थे। विकल ने 1964-65 में नियमित रूप से लिखना शुरू किया। स्वाभाविक है कि तब से लेकर काफी बदलाव आया। सही अर्थों में विकल ने कविता की शुरुआत कम्युनिस्ट पार्टी के जुलूसों में कविताएँ पढ़ने से की। लेकिन भूलना नहीं चाहिए कि गोरख पांडे एक बीच की कड़ी कविता में बनते हैं जिसके आधार पर कहना चाहिए कि ऐसा नहीं है कि आज जो कविता लिखी जा रही है, वह जन आंदोलनों से नहीं निकल रही है या जो जनता से सीधा और सार्थक संवाद न रखती हों। लेकिन इस तरह की कविता को आज हिंदी साहित्य का हिस्सा कम और लोक-साहित्य का हिस्सा ज़्यादा माना जाता है। इन दो तरह की कविताओं पर इधर काफी समय से चर्चा चल रही है। दूसरी तरह की कविता का स्वरूप काफी कुछ सरकारी संस्कृति और आलीशान रहन-सहन से निकला है। लेकिन इस तरह की कविता विकल के रचना संसार में नहीं है। इसलिए उनकी कविता की उम्र को लेकर किसी को मुग़ालते में नहीं रहना चाहिए।
विकल के ‘पैने हथियारों’ का संदेश क्या है- जी हाँ, कवि अपनी कविता से बाहर आए, वह सीमित न रहे। जिस विषय को लेकर क़लम चलाई है उसके लिए बाहर आकर लड़े भी। सांप्रदायिक दंगों पर लिखने से कुछ नहीं होता- बाक़ायदा आंदोलन में शरीक़ हो और पता लगाए कि दंगों के पीछे कौन-कौन सी ताक़तें हैं। जानें कि दंगों के पीछे असली कारण क्या हैं। उर्दू लेखक ज़ैकी अनवर का उदाहरण लें। वह जमशेदपुर के एक मुसलमान मोहल्ले में रहते थे। बाद में एक हिंदू मोहल्ले में मकान किराए पर गए। और आख़िरकार दंगों में मारे गए। मेरठ दंगों में बशीर के साथ वहाँ उनके घर शास्त्रीनगर वाले घर में क्या-क्या न बीती। उन्होंने आख़िरकार शहर ही छोड़ दिया। विकल की कविता ‘एक सामरिक चुप्पी’ आख़िर इसी पीड़ा से उपजी है जो साफ़ कहती है कि मैं अब अपनी कविता के बाहर अपनी कविता से बड़ा हथियार गढ़ रहा हूँ। जाहिर है कविता में ही मुक्ति नहीं है। इसमें क्या दो राय कि विकल की कविताएँ शुरु से ही हिंदी कविता के व्यापक पाठक समुदाय को आकर्षित करती रहीं। सुधीजनों को ही नहीं, कविता के प्रेमी, साधारण जनों को भी। वह भारतीय समाज में धीरे-धीरे बढ़ रही मनुष्य-विरोधी स्थितियों की दहशतभरी ख़बरें हैं, आम लोगों की ज़िदगी की यातनाओं की चिंता है, ख़ास लोगों के छल-छद्म की वास्तविकताएँ हैं । यहाँ शोषित पीड़ित मनुष्य के दुख-दर्द से गहरी सहानुभूति है। विचारधाराओं के संकटों की पहचान है और जनजीवन की अदम्य जिजीविषा में अटूट आस्था है तो दूसरी ओर प्रकृति के रंग, रूप, रस, गंध की सघन आसक्ति है और कोमल मानवीय भावों और संबंधों की संवेनशील पुनर्रचना भी।
विकल के लिखने के शुरुआती दौर के आसपास को भी थोड़ी देर के लिए देख लीजिए। यह वह दौर था जब पंजाब विश्वविद्यालय का अंग्रेज़ी विभाग फ़ैशन परेड का अड्डा कहलाता था। विश्वविद्यालय में दिलजलों की सबसे ज़्यादा भीड़ आर्ट्स ब्लाक में रहती जहां यह विभाग था। इसी तरह सेक्टर ग्यारह का वूमन कॉलेज मशहूर था। दूर देहातों से संपन्न पंजाबी जाटों के लड़के चंडीगढ़ आते और वापस जाने का नाम न लेते। न जाने इस तरह कितने लोग चंडीगढ़ के होकर रह गए। तभी पंजाबी लोकगायकी का यह जुमला ख़ूब चला- चंडीगढ़ रहण वाली अस्सी मुंडे नहीं दिला दे माड़े...। शुरू के सालों में चंडीगढ़ का दिल सेक्टर बाइस ही था। वहाँ के कैफे में रमेश कुंतल मेघ, इंद्रनाथ मदान और कुमार विकल से लेकर पंजाबी के शायर शिव बटालवी की महफ़िलें जमतीं। इन महफ़िलों की अपनी सच्ची-झूठी कहानियाँ हैं जिनसे ये आत्मा के पहरेदार चंडीगढ़ के पत्थर दिल को जगाने की कोशिश करते। उन्हीं दिनों पंजाबी के प्रमुख कवि अमितोज पंजाबी विश्वविद्यालय में रहकर गाँव को याद करते हुए एक बूढ़े बैल की आत्मकथा लिख रहे थे। इस कोशिश में दूरदराज के गाँव-क़स्बों से आए पंजाबी नौजवानों के दिल ही टूटते। - मैं मसीहा बेख़्या बीमार तेरा शहर दां रोग बनकर रह गया है। प्यार तेरे शहर दा- बटालवी ने यह गीत चंडीगढ़ में ही लिखा। फिर भी लोगों का यहाँ से जाने का मन नहीं किया। ऐसे कई उदाहरण हैं जब लोगों ने अपनी तरक़्कियाँ और बीवियाँ छोड़ दीं- पर चंडीगढ़ न छोड़ा। फिर धीरे-धीरे जब शहर ने अपनी आत्मा रचा-बसा ली तो बाद के लेखक कवि इसकी रगों में दौड़े- विकल के पास झंडा था। कोई डेढ़ दशक तक अपने प्यारे पिंड और अमृसतर में कहानियाँ लिखने वाले गुल चौहान ने चंडीगढ़ आते ही अपने उपन्यास में इस शहर को विकल की तरह ही देखा- मैं घर से बहुत दूर था और घिरा पड़ा- इस शहर में। जो शहर ग़ुम होने की इजाज़त नहीं देता- कोई बड़ी दीवार न दावा, बस आसमान ही आसमान...। एक खालीपन जिसमें आदमी को बुरी तरह किसी साथ ही ज़रूरत है- इसके आगे अकेला और कमज़ोर हूँ। बेशक, हर बार इस तरह नहीं होता...कई बार लुभाता है, शहर का इस तरह होना। इसका ऐसा शहरीपन, इसका ऐसा अलगाव उसका दखल न देना या उतना ही देना, जितना वाज़िब हो। कई बार मैंने जब भी इससे कहीं दूर जाने की सोची, सबसे पहले मेरे जेहन में चंडीगढ़ ही आया।
इसी माहौल में कुमार विकल मध्यवर्गीय संसार में अंतरसंघर्ष के कवि बने रहे जिनसे समकालीन हिंदी कविता का एक भिन्न काव्य स्तर बना। ढलते दिनों की कविताओं में निजी रूप से एक नया जीवन और कवि के तौर पर वह तलवार हाथ में ले सके जिससे वे अपने पुराने लक्ष्य- ‘कविता से बाहर अपनी कविता से बड़ा हथियार बनाने’ में कामयाब रहे। आख़िर यह भिन्न काव्य-स्तर और कविता से बड़ा हथियार क्या है, ये कौन-सी चीजें हैं, किस तरह के जीवन प्रसंग हैं जो हमारे समय के मूर्त रूप हैं। एक भरपूर मानवीय चेतना से सराबोर इस कवि में जब भी ग़रीब आदमी का नया प्रसंग आया है तो ग़रीब आदमी कोई अवधारणा नहीं, वह एक ठोस मनुष्यता के रूप में आया है। एक मोटी खुरदरी मनुष्यता। एक अनगढ़ मनुष्यता, ‘आलू मटर की सब्जी/ ग़रीब पंजाबी की सबसे अमीर रोटी.../ लेकिन ज़रूरी नहीं ग़रीब आदमी सफ़र पर जाए....।’ साधारण आदमी को सामने लाने की उनकी बुद्धि या समझ कोई साधारण नहीं है। कवि के पास जीवन की वास्तविकताओं की समझ में विलक्षणता है। कविता की उनकी यह बौद्धिकता जीवन को हस्तगत करने वाली बौद्धिकता है। कविता में उनकी यह बौद्धिकता अक्सर मार्मिक प्रसंगों के रूप में सामने आती है। इसके बारे में उल्लेखनीय बात यह है कि यह विद्वता पर कम और सहज ज्ञान पर ज़्यादा आधारित है। इसलिए उनके पास जो अनुभव रहे, वे सिर्फ़ उस आदमी के पास हो सकते हैं जो सचमुच सड़क का आदमी है। वे अनुभव जो आवाराग़र्दी, जोख़िम, हार-जीत, आक्रमण और आशंका के बीच से निकलते हैं। ये सब अभिजात्यता और सुविधा की बाहर की दुनिया में मिलते हैं। विकल की कविताओं में तो उसका एक हिस्सा साफ़-साफ़ आया है। ये अनुभव प्रेम-प्रसंगों से लेकर राजनीति और साहित्य की हाथापाई तक फैले हैं। ग़रीबी ने उनको सहेजकर रखा है- कविता में और कविता से बाहर। उनको जानने और चाहने वालों के दायरे में अक़्सर इस ग़रीबी के भागीदार नहीं हैं। इसलिए मानवीय अर्थवेत्ता की संभावना से भरा यह कवि अपनी अंतरयात्रा में अकेला रहा और जहाँ से रोशनी की दुनिया में लाने के लिए दोस्त को उसका वादा याद दिलाता है- ‘तय तो यह था/ तुम मुझे एक उजली दुनिया में ले आओगे/ यहाँ रोशनी के बिंब/ मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे.../ अपना-अपना ईश्वर ढूँढने के लिए/ हम शहर के कार्निवल में जाएँगे ...’
कुमार विकल ने प्रारंभ में दुखों की कई कविताएँ लिखीं। बाद के दिनों की कविताएँ या अन्य कविताओं के अंश उस दौर की लिखी कविताओं का विस्तार लगती हैं। कहना चाहिए ये कविताएँ एक आम ग़रीब आदमी की कविताएँ हैं। दूसरी ओर हिंदी की अधिकतर प्रगतिशील कविता ग़रीब आदमी के बारे में है। यह बड़ा महसूस किए जाने वाला अंतर है। हिंदी आलोचना में ग़रीब की कविता का आलोचनाशास्त्र अभी तक नहीं बना है। नागार्जुन और त्रिलोचन के साथ विकल की इसीलिए हमारी आलोचना की अपर्याप्तता बरक्स खड़ी है। इससे पार जाना असंभव नहीं। हम ग़रीब की कविता को, उसके दुखों के सार्वभौमिक रूप को ऐसे ही देखें जैसे कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को देखा था।
विकल की कविताओं में स्थितियों के विश्लेषण के साथ आदमी की उपस्थिति बराबर बनी रहती है। विकल चाहे वह सियासी या सामाजिक किसी भी घटना को देख रहे हों, उसे सीधे आदमी के सुख-दुख से जोड़ते हैं। उन्होंने यह बात कही भी- असल में दुख भोगने वाला तो आदमी ही है। कवि का मुख्य मक़सद आदमी की पीड़ा से है। उसे आगे लाए बग़ैर चीज़ों को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। किसी भी रचना में जहाँ आदमी गौण है, अर्थहीन रचना है। घटना प्रमुख नहीं- प्रमुख है आदमी की मौजूदगी, वह ग़ायब न होने पाए। यही आदमी विकल की कविताओं की भीतरी ताक़त है। यही आदमी के जीवन में हर छोटी सी लड़ाई के लिए अपने हथियार पैने करके रखता है। बहुत मुमकिन है और जैसा देखा भी गया है। कई लोगों को जिनको हिंदी साहित्य में स्थापित होने की काफी अफरा-तफरी और ज़ल्दबाज़ी है, उन्हें विकल की कविताओं में चले तीर-तलवार, भाषाई प्रस्तुति समझ नहीं आती या उसे नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। इन एक तरह की चीख़ और ग़ुस्से से भरी कविताओं से उन्हें खीज होती है और चिढ़ आती है। लेकिन उन्हें चाहिए जैसा कि रघुवीर सहाय ने कहा कि- ‘वे सोचते रह जाएँ देर तक क्या है वह, और जब याद आ जाए तो उसे निकाल दें मेरी कविताओं में से...।’ यह भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं कि लंबे समय से अराजक हो चुकी कविता की भाषा के चलन के समय में कुमार विकल ने सीधी-सादी कविताएँ लिखीं। यह सादापन भाषा का ही नहीं, अनुभव और अर्थ का भी है। संप्रेषणीयता के प्रति उनका लगाव उल्लेखनीय है। इसी तेवर में उनके दुखों का अंधेरा और खुशियों की धूप का उजास दीप्त है-
निरूपमादत्त मैं बहुत उदास हूँ
तुम इस शहर को छोड़ चुकी हो...
तुम चंडीगढ़ लौट आओ
ताकि हम दोनों
बहुत से हमक़लम लोगों से मिलकर
दुखों को कम करने के लिए लड़ सकें... (‘एक पत्र’ से)
एक सुख
हज़ार दुखों के सामने बहुत बड़ा है
दुखों की अंधेरी कोठरी में
एक छोटा सा सुख टिमटिमाता है (‘एक सुख’ से)
वह पानी से
एक ऐसा हथियार बना सकता है
जो दुखों के मूल स्रोतों को
एक सीमा तक मिटा सकता है (‘दुख’ से)
चर्चित कविताओं में एक-धरा समर्पण- में वह दुनिया को इस तरह बुनते और समर्पित करते हैं- ‘मैं यह धरती उन सभी लोगों को सौंपता हूँ/ जो इस धरती को ब हुत प्यार करते हैं/ कि हज़ार दुख सहने के बाद/ इस धरती से लाख मनुहार करते हैं/ क्योंकि यह धरती/ लाख दुखों के बाद भी सुखदा है...।’ पंजाब में लिखी गई पंजाबी और हिंदी कविता का कोई दो दशक धरती का रोता-पिटता और प्रलाप करता पंजाब है। जब हाल ठीक हुए तो पंजाबी जनमानस इन कविताओं से गुज़रकर उनमें कुछ नहीं पाता। आख़िर विलाप ही कविता नहीं है। विकल इस बात को जानते थे और कभी-कभी तो खटाक से टोक देते थे कि देखो मेरी कविता में निराशा है, निराशावाद नहीं। और वह इसलिए कि निराशा से आशा का जन्म होता है। यह सही भी है कि उस दौर में विकल, अमरजीत चंदन या सुरजीत पातर जैसे कुछ नाम छोड़ दें तो ज़्यादातर की रचनाएँ कोई युगबोध लेकर नहीं आईं। पंजाब समस्या पर विकल की कई कविताएँ हैं। उनमें गहरी मनुष्यता, सहानुभूति और वे काव्य वक्तव्य हैं जो महज़ धुँआँ नहीं छोड़ते, आग पैदा करते हैं और मनुष्य के लिए अन्न की प्रार्थना करते हैं। चीख़, निद्राचोर जैसी कविताएँ कभी आरती, कभी कलमा तो कभी अरदास बनकर आम आदमी की पवित्र प्रतिज्ञाओं में घुसपैठ कर जाती हैं। कोई संदेह नहीं, ज़मीन से जुड़े आदमी की तरह जीवित रहने वाली कुमार विकल की कविताएँ भी जिस तरह से पंजाबी और पंजाब से बाहर भी लोकप्रिय रहीं, वह बताती है कवि की आस्था कितनी सुरक्षित है।
‘कुमार विकल
जिसकी जीवन संध्या में अब भी
धूप पूरे सम्मान से रहती है
क्योंकि वह अब भी धूप का पक्षधर है’
कुमार विकल के बारे में कुमार विकल के इस ‘बयान’ में ग़ालिब वाला अंदाज़ है। विकल को सबसे प्रिय है धूप जो तमाम कविताओं में बिखरी है- वह हर तरह के अंधेरे की ठंड के ख़िलाफ़ खड़ी है। अपने अंधेरे समय में जो लोग धूप की ऊष्मा, ऊर्जा और रोशनी चाहते हैं, उन्हें विकल की कविता आत्मीय लगती है। वह पंजाबी भाषी होते हुए भी हिंदी के सबसे ख़ास कवियों में एक हुए, ठीक वैसे ही जैसे मराठीभाषी मुक्तिबोध।
कुमार विकल पर अच्छी जानकारी। आम आदमी के दुख-दर्द को समझने वाला रचनाकार ही मन को छूनेवाली रचना कर सकता है।
जवाब देंहटाएं''धूप ने कविता लिखी है
जवाब देंहटाएंगुनगुनाने के लिए !!''
कुमार विकल जी की बारे मे जान कअरी बहुत अच्छी लगी धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंआपका आभार.....बहुत अच्छी सामग्री....परोसी आपने
जवाब देंहटाएंमैं सब चट कर गया....अच्छी लगी...धन्यवाद....!!
इष्टमित्रों और परिवार सहित आपको, दशहरे की घणी रामराम.
जवाब देंहटाएंरामराम.
A VARY GOOD & INFORMATIVE ARTICLE ON POET KUMAR VIKAL BY PRAMOD KONSVAL. CONGRATS FOR SUCH BEAUTIFUL WRITE UP.
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