इक खुला पत्र : सिद्धार्थ के नाम
प्रिय सिद्धार्थ!
तुमने आसपास के परिवेश व परिस्थितियों की सामान्य घटनाओं में से विचारणीय बिन्दु तलाश कर उन्हें विमर्श हेतु लाने का प्रयास जो प्रारम्भ किया है, वह श्लाघनीय है. जनमानस के भीतर बसी मध्ययुगीन परम्पराओं को लोग आदिकाल से चली आई, सनातन, वैदिक, धार्मिक और जाने क्या क्या माने ढोए चले जाते/जा रहे हैं। धर्मभीरु जनता का ९९.९५ प्रतिशत यह भी यह भी नहीं जानता कि धर्म होता क्या है, उसका स्वरूप क्या है। न वह यह जानता है कि धर्म का पूजा पद्धति से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे मे रेगिस्तान में उगे अरण्डी के पौधे ही सबसे बड़े पेड़ होने का दावा मनवाते रहते हैं। जिन्हें एक भी बात भूले -भटके कोई सीधी-सच्ची कह दे तो उसकी तो मानो शामत ही हो गई। हाथ जोड़कर, क्षमापूर्वक सत्य कहने वाले तक को भी लोग बहुधा तो शत्रु बनकर लतियाते हैं, या फिर कुछेक सच बोलने का सहूर सिखाते हैं।
उधर अधजल गगरी लिए छलक-छलक पड़ने वाले अपनी दुकान को दूना-चौगुना करने की वितण्डा इस सारे आत्मानुशासनविरत समाज पर फैलाते रहे हैं, कभी धर्म के ठेकेदार और पहरुए बनकर या कभी स्त्री-पुरुष/ ये जाति-वो जाति/ यह भाषा-वह भाषा/ यह क्षेत्र-वह क्षेत्र/ आदि आदि के द्वन्द्व को एजेण्डा बनाकर लोकप्रियता, गु्रुडम (नेतागिरी) की रोटियाँ सेंकते हैं। इसमें महाभारत काल (लगभग ५००० वर्ष) से प्रमाद व पतन के मारे भारत के जन को ह्रासमान ही होते चले जाने से तब कौन रोक सकता है? इसमें स्त्रियाँ, आबाल-वृद्ध सब दारुण दशा में हैं। धन बल, देहबल, सत्ताबल आदि जिसके पास हैं, सब अधिकार भी उसी के ,सब निर्णय भी। वैसे, यहाँ परिवर्तन वस्तुत: चाहता ही कौन है? कोई नहीं। परिवर्तन होते हैं विचार व कर्म की क्रान्ति से। और क्रान्ति का अर्थ है अपने को आमूलचूल बदलना (न कि बाह्य युद्ध)। जब कोई स्त्री-पुरुष अपने को आत्मानुशासी के रूप में ढालने को, परिवर्तित करने को तैयार ही नहीं तो समाज को बदलने की कल्पना उन ठेकेदारों की जेब में अन्तिम साँसे ले कर दम तोड़गी ही।
बात लम्बी हो गई। तुम्हारी सद्भावना इन अर्थों में भी नेक है कि स्वयं को झंडाबदार बताए बिना स्त्री को (उसके सामान्य मानवी होने के अधिकार तक को छद्म व प्रपंच से घेरे आई धूर्त मानसिकता से बचाने की इच्छा के चलते) मानवीय दृष्टि से देखने का उपक्रम किया।
अजब संयोग यह है कि कल ही मैंने अपनी फ़ेसबुक प्रोफ़ाईल पर स्टेटस मैसेज के रूप में एक ऐसा ही सन्देश लिखा (जिस पर वहाँ कुछ मित्रों ने अपनी राय भी दी)। जो मैंने कल वहाँ लिखा, उसका अविकल पाठ यह है -
"ध्यातव्य है कि भारतीय भाषासमाज में सबके सब आशीर्वाद, दिए भले स्त्री को जाएँ, किन्तु लगते/होते पुरुष के लिए हैं और सबकी सब गालियाँ, दी भले जा रही हों पुरुष को, किन्तु लगती/होतीं सब स्त्री के लिए हैं। यह है हमारी सोशियो-साइकॉलॉजी, हमारे समाज का असली चरित्र और इस समाज में स्त्री होने व पुरुष होने का अन्तर।"
Hari Joshi
कविता जी, ये ऐसा सच है जिसे सब जानते हैं। सनातन है। ...शायद कभी इसमें परिवर्तन आए। स्त्री और पुरुष जिंदगी के रथ के दो पहिए हैं जिनमें से एक भी निकल जाए तो जीवनरथ चल नहीं सकता लेकिन फिर भी हर नियम/परंपरा स्त्री पर ही हमला करता है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष।
Nutan Gairola
Aadi kaal se, samaaj kee sanrachna isee tarah se hoti aayi hai, Purush Pradhaan , sakti.. Sab purush dimaag se chala hai. . Bhojan , sringaar, shiksha , vicharo ke aur kaun sa chetr nahi jaha mahila purus aik jaise rahe ho. Sabi jagah. . .nari ko devi roop de kar us se opekhsha kee gai jyada. . . Kavita jee kee baat se mai sehmat hoon. . .Haan aaj ... Read Moreka purus vaise in sab baato ko samajh raha hai, par vo in sadiyo se chali aa rahi vyavastha ko aik jhatke mai tod nahi tor sakta hai. . Hame intjaar karna hoga. .
Pratibimba Barthwal
आज सुबह ही रिया जी ने "मेरे अपने"मे यही च्रचा शुरु की है। ,इस पर थोडा सुबह लिखा था, अभी इतना कहना चाहूंगा कि "घर" को बनाने मे महिला का योगदान उसकी प्रक्रति मे शामिल है. पुरुष और महिलाओ की प्रकृति भी जिम्मेदार है॥आप इसे पुरुष प्रधान कहे लेकिन ये भी सच है कि आज इसमे परिवर्तन आया है दोनो ही इसे समझ रहे है-कुछ महिलाओ ने इसे खुद ही अंजाम दिया या फिर पुरुष वर्ग ने इसमे सह्योग दिया......
Ashok Kumar
Yah sach hai ki stree aur purush ke beech jo bhinnta hai usse samajh ne hamesha hee alag tareeke se paribhasit kiya aur ussiee wajah se kabhee stree ko toh kabhee purush ko jyada mahatva mila.Agar hum yah maan le ki samaj ko dono ki utanee hee jaroorat hai jitani ek bhasha ko shabdo ki jaroorat hotee hai toh shayed yah samasya hee samapt ho jaye.....
Parul Yadav
mam bilkul sahi kaha, aaj b desh k sabse badi post per mahilaye hai fir b aaj k samaj me aurto ki condition me change nahi hua hai. aaj tak sansad me 50% ka bill tak pass nahi ho paya hai, uske bad k kamo ka bill pass ho gaya bt ye nahi........ humko khud jagna hoga.
वाह !
जवाब देंहटाएंसुन्दर बात! हम आपकी फ़ेसबुक भौत दिन से देखिइच नहीं!
जवाब देंहटाएंअगर आप आलेख में 'खुला पत्र" की भावाभिव्यक्ति नहीं करती तो भी बात सहज ही समझ में आ जाती ! बंद न रहती !
जवाब देंहटाएंसडी गली जड़ीभूत मान्यताओं से मुक्ति पाए बिना समाज गतिमान हो ही नहीं सकता.
जवाब देंहटाएंजब तक परिवार है तब तक नारी उसके केंद्र में है। भारतीय परिवार में अब तक तो नारी उसका दायित्व निभाती आ रही है और शायद ही किसी नारी ने अपने परिवार के दायित्व को बोझ समझा हो। जिस दिन नारी इस दायित्व से मुंह मोड़ लेगी, उस दिन परिवार टूटने लग जाएंगे।
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