डोर दाँतों से छूट रही हो तो आप उसे ओंठों से....
कल प्रमोद कौंसवाल जी ने एक चर्चा आहूत की| यह चर्चा जीवन संबन्धी मनुष्य के व्यावहारिक दृष्टिकोण और उत्तरोत्तर समयानुसार बदलते जाते परिवेश व परिस्थिति की अनुकूलता प्रतिकूलता के साथ मनुष्य के तादात्म्य साधने के कौशल और जिजीविषा के समन्वय जैसे प्रश्न उठाती है। इस पर कई मित्रों ने अलग अलग राय दी। यहाँ यथावत प्रस्तुत है, उस परिचर्चा में प्रस्तुत मित्रों के विचार | आप की राय भी महत्वपूर्ण है, अत: निवेदन है कि अपनी राय दे कर चर्चा को अधिक जीवंत व कारगर बनाएँ।
सादर
- ( कविता वाचक्नवी )
Pramod Kaunswal
समाज और व्यवस्था में तमाम जटिलताएं हैं, फिर भी क्या आप मेरी तरह से यह मानते हैं कि जीवन की डोर दांतों से छूट रही हो तो आप उसे आंठों से थाम सकते हैं । ...नए साथी राय देंगे, वरिष्ठ साथी सीख...................................................... ......................................................(पोस्ट का नेचर मज़ा-मज़ाकनहीं...सादर)
Pramod Kaunswal
यह बात मैंने अपने एक साथी और उनके साथियों से सवाल के तौर पर पूछी..लेकिन कुछ साथी इसे मज़े के लिए लिखा मान बैठे तो यहां लिख रहा हूं।...सादर।
Dr.Kavita Vachaknavee
मेरे विचार से यह सही ही है। पर अपनाने में दुर्गम भी। व्यक्ति (स्वयं हम) स्वभाव कहाँ छोड़ पाते हैं? जिन्दगी- भर जिन्होंने पंजे पैने किए हों वे तो दाँतों के साथ उनका भी इस्तेमाल करने की ताक में रहते हैं।अपनी ताकत के रहते कोई विरला ही उसका उपयोग (?) नहीं करता।
Dr.Kavita Vachaknavee
हाँ, जीवन के साँसों की डोर छूटने तक तो स्वत: ही ऐसे हथियार और ऐसी ताकतें आदमी का साथ छोड़ चुकती हैं,तब दान्तों की बजाय होंठों से थामने की विवशता के चलते तो अपनाना ही होगा। काश इस पकड़ ढीली होने की नौबत आने से पहले हम ये सीख पाएँ और जिन्दगी को दान्तों की जगह होंठों से थामना सीख लें तो जिन्दगी लम्बी,सुहानी और जाने कितनी बेहतर हो जाए।आमीन!!
Rakesh Agarwal
Aap hamein Hindi mein yahan type karna sikhayen toh hum rai aur seekh donon hi denge!
Saurabh Sengupta
मैं आप कि ही बात रखता हूँ — "जीवन की डोर दांतों से छूट रही हो तो..." — इसका अर्थ श्वास-विक्रय से जुड़ा है ... जो अब अपनी समाप्ति कि और है| इसका अर्थ वृधावस्ता से भी है| आपका कहना ... उसे "आंठों" से थाम सकते है... समझ नहीं आया "आंठों" ??? "होठों" या "हाथों" तो नहीं है ... ?
Saurabh Sengupta
होठों से ... मुकेशजी का एक बड़ा प्यारा गीत याद आया —
"होठों से छूलो तुम ... मेरा गीत अमर कर दो|"
"होठों से छूलो तुम ... मेरा गीत अमर कर दो|"
Pratibimba Barthwal
जीवन की डोर दांतो से तात्पर्य कि हम हमेशा कुछ ना कुछ ना कुछ हालातो को जबरदस्ती थामे हुये है और ये अक्सर हर वयक्ति के साथ होता है अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिये हर क्षेत्र मे...होंठो से थामना यानि सहजता पूर्वक जिन्दगी के मायनो को समेटना...और ये कार्य आज की परिस्थित्यो मे जटिल है...( आपने किस संदर्भ मे लिखा है ये जानना भी जरुरी है)... शुभकामना।
Ashok Kumar
Daton tak pahuchane ka rasta hothon se hoker hee jata hai.Jahan tak jeevan ki dor daton se thamane ki bat hai toh itna yaad rakhna chahiye ki jindagi apne aap mei ek paheli hai aur jeevan mei jo kuchh bhee hota hai uss per AAPKA PURA niyantran ho, yah katai mumkin nahee.Atah Jeevan ki dor daton se dabane ki jagah usse waisa hee rahne de jaisa wo swabhavik rup mei hai........
Bighn Vinashak ka naam lijiye.....aur naye josh ke saath jindagi ko apnee raftaar se chalne dijiye.....
Bighn Vinashak ka naam lijiye.....aur naye josh ke saath jindagi ko apnee raftaar se chalne dijiye.....
Sayeed Ayub
यह "आंठों" क्या है साहब?
Pramod Kaunswal
कृपया॥आंठों... को ओंठों या होंठों- जैसा आप कहते हों पढें ...(सैयद भाई खूब मिला आज कानमरोड़ी का..धन्यवाद सादर)..क्लीयर ..? अब कुछ लिखें भी, तो अच्छा लगेगा..।
Pramod Kaunswal
धन्यवाद कविता जी...आपने अपनी बात में ... होंठों का इस्तेमाल किया...साथियों के को समझना चाहिए था कि टाइपिंग की गलती को हम नजरअंदाज कर दें...। यह बड़प्पन और साथियों ने दिखाया धन्यवाद...
Gurnam Singh Shergill
jeewan kaa lakshya nirantar cheishtha karte janaa hona chahye-dori chhot=ti hai chhotney do-hontoN ko try karne दो
Sayeed Ayub
आप मुझे सईद लिख सकते हैं, सैयद की जगह। यह कानमरोड़ी नहीं था, मैं सच में नहीं समझ पाया कि यह कौन सा शब्द है। जीवन की डोर अगर छूट रही है तो उसे दाँतो या ओंठों से पकड़ने का प्रश्न नहीं रह जाता है, प्रश्न होता है बस उसको किसी तरह पकड़ने का लेिकन उससे भी अहम प्रश्न यह है कि जीवन की डोर हाथों के बजाय दाँतों में कैसे आ गयी और वहाँ से भी छूट क्यों रही है?
Pramod Kaunswal
जी सईदभाई....लोग जब मैं एक चार पेजी अखबारी संस्करण का संपादक था कौंसवाल तो क्या कन्सवाल लिखते थे-एक साहब ने भौंसवाल तक लिख डाला था (लेकिन मैं समझ गया था कि यह उन्होंने किसी के मुंह से सुना ही होगा..)...मूल बात पर आएं ओर अपने विचार रखे...
भूल के लिए माफी॥
भूल के लिए माफी॥
Pramod Kaunswal
हरिजोशी जी के पेज से...मजदूर का क्या रविवार और क्या सोमवार प्रमोदजी। आपने किसी लंगड़े आदमी को कलकत्ता में रिक्शा चलाते देखा है।चक्रधर ने एक बार देखा था और जब रिक्शा वाला चक्रधर के पास पंहुचा तो उससे पूछा कि भाई रिक्शा कैसे चलाते हो॥रिक्शे वाला बोला; बाबूजी रिक्शा पैर से नहीं पेट से चलता है।..प्रमोद जी शायद मैं आपके मर्म के आसपास ही हूं...:
Pramod Kaunswal
हरिजी को मैंने लिखा- कुछ इस तरह भी समझें कि॥अस्तित्व का संकट है तो पैर या कंधे से क्या.. पेट से भी चलाता है...आपके आशावाद को सलाम। अशोक जी ने यह रचना तब लिखी थी जब मैं जामिया में पढ़ता था...। ..उस रचना ने अशोक चक्रधर को मानवीय सरोकारों वाला बड़ा कवि बनाया था..बाद में भी उनकी रचनाएं काफी गहरी -..कोई उनको कवि मंचीय या हंसोड़ कवि कहे इस पर किसी कवि के मूल रचनाकर्म पर क्या फर्क पड़ता है..। धन्यवाद
Surendra Verma
Pramod ji ,really I cudnt get u, sorry..iws in a light mood !
Pramod Kaunswal
-राकेश जी जल्द ही..बल्कि तुरंत..
- सरेंद्र भाई...आप क्यों शर्मिदा कर रहे हैं सर...हरिभाई के पेज पर बात आई गई हो गई...। मैं आपका बड़ा सम्मान करता हूं और यह बात- भले कहने वाली नहीं- लेकिन मैंने फिर भी वहां इस आदरभाव का साफ लिखा है... हर बार जरूरी नहीं सब एक जैसी मनस्थिति में हों॥सादर
- सरेंद्र भाई...आप क्यों शर्मिदा कर रहे हैं सर...हरिभाई के पेज पर बात आई गई हो गई...। मैं आपका बड़ा सम्मान करता हूं और यह बात- भले कहने वाली नहीं- लेकिन मैंने फिर भी वहां इस आदरभाव का साफ लिखा है... हर बार जरूरी नहीं सब एक जैसी मनस्थिति में हों॥सादर
Surendra Verma
........जिजीविषा अंतिम साँसों तक संघर्ष करती है प्रमोद जी ...इसलिए मेरा तो यही मानना है कि दांतों से छूट रही जीवन की डोर होठों से पकडी जा सकती है॥
Hari Joshi
कवि के शब्दों को तौलने से पहले उसके भाव को ग्रहण करना ही बेहतर होता है। कभी-कभी शब्द जाल बन जाते हैं। कभी शब्दों पर तर्क की दीवार मन-मस्तिष्क पर काला पर्दा भी चढ़ा देती है।
Hari Joshi
कुछ मित्रों ने कहा कि डोर तो हाथ में होनी चाहिए वह दांतों में कैसे पंहुच गई। हो सकता है कि मौत देने वाले ने हाथ बांध रखे हों या कुछ भी....दांतों में पंहुचने का अर्थ ही है कि विपरीत/कठिन परिस्थितियों में...ऐसे में जब बात और आगे बढ़ जाए तो फिर ओंठ भी कटार बन सकते हैं। यही जिजीविषा है। यही संघर्ष है। यही हौंसला भी और यही जंग जीतने की कशिश।
Pramod Kaunswal
हरिभाई- धन्यवाद।और इसलिए भी कि खासकर आपके पेज पर मेरी नजर थी तो जीवन के हरे घास के मैदान को मुश्किल बनाता यह एक तरह का मुहावरा मुझे सूझा था॥ या याद आया- मेरे पिताजी ने,जब छोटा था तो कहा था- कि बेटे इसे कभी भूलना नहीं..आज लगता है हम उम्र में बड़े हो गए लेकिन कुछ बातें पसोपेश में डाले रखती हैं..दोस्तों के साथ साझी कर लेनी चाहिए..आपकी पैनी निगाह पड़ जाए तो क्या कहने
Dr.Kavita Vachaknavee
मित्र लोग जीवन की डोर छूटना का अर्थ मात्र मृत्यु से ही जोड़ कर देखते प्रतीत होते हैं। जीवन स्वयं में आयु / जीवित रहने के अवधि मात्र ही नहीं है।वह मनुष्य के अस्तित्व और उपस्थिति के संयोग से बना उसका एक स्पेस भी है। जिसमें/ पर उसकी निजता और अन्यता तथा अन्यों की निजता व अन्यता में सन्तुलन का द्वन्द्व सदैव विद्यमान रहता है।
Dr.Kavita Vachaknavee
मेरे विचार से इन व ऐसे अनेक अर्थों में जीवन की डोर दाँतों से छूटना और होंठों से थामना एक ऐसी स्थिति का वाचक भी है (अधिक व्यंजनात्मक अर्थ में) कि जहाँ/जब मनुष्य को जीवन/जगत् या अन्यों के स्पेस पर से अपना नियन्त्रण और पकड़ कम होती
Dr.Kavita Vachaknavee
प्रतीत हो, अपनी किसी व्यवहारजन्य (विशेषत: वर्चस्वकामी व्यवहार के चलते) तब संबन्धों/दूसरों के स्पेस के अतिक्रमण व वर्चस्ववादी रवैये के बदले उसे व्यवहार की मृदुलता (होंठों से जीवन डोर थामना) का व्यवहार करना चाहिए।
Dr.Kavita Vachaknavee
सीधे शब्दों में कहें तो जब हमारी क्रूरता/ कुटिलता/ चालाकी या दूसरों से/के अधिकार या कुछ भी छीनने आदि की असीमित वाँछा.अधिकारभाव आदि के चलते सम्बन्ध छीजते प्रतीत हों
Dr.Kavita Vachaknavee
या अपनी नकार दीखे तो उसका एक ही उपाय है कि जीवन में समरसता, व्यवहार, कोमलता व सम्बन्धों में इसी प्रकार के अधिक मृदु उपादानों को अपना कर जीवन को जीने योग्य बनाएँ। दाँत व ओंठ के प्रतीक का मेरे तईं यही अधिक व्यंजनात्मक व विस्तृत अर्थ है।
कविता जी आपने प्रमोद जी बात फिर ब्लाग के माध्यम से थाम ली. अब डोर पर पकड मजबूत हो गई चाहे दांतो से थमी हो या फोर ओंठो से.
जवाब देंहटाएंशुभकामना.
प्रतिबिम्ब
आपने किस डोर की ओर इंगित किया है?
जवाब देंहटाएंविचार कुछ अधूरा सा है।
जब दाँत ही जवाब दे गये तो होंठो की क्या बिसात है?
डोर तो अब पकड़ में आने से रही।
कहते हैं कि डूबता तिनके का सहारा लेता है, जीवन की कठिनतम परिस्थिति में आदमी जो भी सहारा मिले, आशा से पकड़ लेता है, भले ही उसे अच्छी तरह मालूम हो कि यह सहारा नहीं केवल मृगतृष्णा है।
जवाब देंहटाएंमनोरंजक चर्चा.
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक भी.
फलसफा निराला रहा .....
जवाब देंहटाएंInteresting !!
प्रमोद जी का भी शुक्रिया यहाँ तक पहुँचाने का ..
Ria
mai aaj is site par apni phli comment de rha hu
जवाब देंहटाएं,vaise aap sabhi respected logo se chhota hu,kbhi kuchh bhool ho jaye to maaf kariyega,mujhe bhi thoda bhut likhne ka shauk hai,ahayad aap logo se inspire hokar kuchh jyada likhne lgu
yah aik bahut kutil niti bhi ho sakti hai... jaasosi ki duniyaa me ye aam baat bhi ho sakti hai ki jab dor haatho se chuti jaa rahi ho to hontho se.... yaha par maine is vakya ko alag dhang se pakda hai... yah bhi aik tareekaa hai dusman ko girane kaa.. yaa stithi ko sambhalne kaa...
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