जाना तो हर एक को एक दिन जहान से, जाते जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा।।










स्मरण
: ओमप्रकाशआदित्य


जाना तो हर एक को एक दिन जहान से
जाते जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा।।


आठ जून। खंड प्रलय घटित हो गई मानो। इसे खंड प्रलय न कहें तो क्या कहें? एक ओर तो रंगकर्मी हबीब तनवीर की चिर विदाई तथा दूसरी ओर हिंदी काव्यमंच की तीन प्रतिभाओं का आकस्मिक तिरोधान। लाड़सिंह गूजर और नीरज पुरी के साथ ओमप्रकाश ‘आदित्य’ सूर्योदय की वेला में अस्त हो गए।


समाचार पढ़कर वे दिन याद आ गए जब कवि सम्मेलनों में जाना शुरू ही किया था। बहुत आकर्षित किया था किशोर मन को उन दिनों डॉ। ब्रजेंद्र अवस्थी, देवराज दिनेश और ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की कविता प्रस्तुत करने की अपनी-अपनी भंगिमाओं ने। ब्रजेंद्र अवस्थी और देवराज दिनेश तो पहले ही चले गए अब ओमप्रकाश ‘आदित्य’ भी नहीं रहे। ‘स्वतंत्र वार्ता’ के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने ‘आदित्य’ जी पर लिखने को कहा तो ‘दिनकर’ (‘आदित्य’ और ‘दिनकर’ दोनों सूर्य के पर्याय हैं ) की पंक्ति याद आ गई - ‘‘गीतकार मर गया, चाँद रोने आया!’’


ओमप्रकाश ‘आदित्य’ ऐसे ही कवि थे जिनके निधन पर सचमुच प्रकृति को भी रोना आ रहा होगा। मृत्यु तो ध्रुव सत्य है, निश्चित है; लेकिन वह कैसे घटित होगी, यह अनिश्चित है। कैसी विड़ंबना है कि इस महान हास्य-व्यंग्यकार को अपने चाहनेवालों को शब्दों की उँगलियों से गुदगुदाकर हँसी में लोट-पोट करके लौटते हुए सड़क दुर्घटना में जाना था। जिसकी कविता के लिए लोग रात-रात भर नींद से लड़ते थे, शायद वाहन चालक पर उतरी नींद का नशा उसकी मृत्यु का कारण बना। दुर्घटना, विड़ंबना और मृत्यु जैसे शब्द ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की उस प्रसिद्ध कविता की याद दिलाते हैं जिसमें उन्होंने हिंदी के नए-पुराने कवियों को छज्जे पर खड़ी एक स्त्री के आत्महत्या के प्रयास की ‘सिचुएशन’ पर कविता लिखने को कहा है। आदित्य जी की यह कविता कुछ स्थायी छंदों के अतिरिक्त हर कवि सम्मेलन में नया आकार प्राप्त कर लेती थी। उन्हें विभिन्न कवियों की लेखन और वाचन शैली की इतनी अच्छी पकड़ थी कि हर कवि सम्मेलन में उपस्थित महत्वपूर्ण कवियों की पैराड़ी भी इस रचना में जुड़ती जाती थी। यदि ‘पृथ्वीराज रासो’ हिंदी का विकसनशील महाकाव्य है जिसमें समय-समय पर अन्य कवियों ने अपनी रचना जोड़ी तो ‘सिचुएशन’ ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की ऐसी विकसनशील कविता है जिसमें स्वयं उन्होंने समय-समय पर अन्य कवियों की शैली में अपनी रचना जोड़ी। उस पर कमाल यह कि प्रस्तुतीकरण भी वे हू-ब-हू उन्हीं रचनाकारों की तरह करते थे। ‘गोरी बैठी छत्त पर’ शीर्षक यह ‘सिचुएशन’ कविता मैथिलीशरण गुप्त की शैली में आरंभ होती -


‘‘अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी सी है अहो।
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो?
धीरज धरो संसार में किसके नहीं दुर्दिन फिरे,

हे राम, रक्षा कीजिए अबला न भूतल पर गिरे।’’

कविता सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, गोपाल प्रसाद व्यास, काका हाथरसी,, श्याम नारायण पांडेय और गोपाल प्रसाद नीरज जैसे दिग्गज कवियों के अलग-अलग स्टाइल में आगे बढ़ती जाती और श्रोता हास्य रस में सराबोर होते रहते। यह देखना अपने आप में एक चमत्कारपूर्ण अनुभव था कि दिनकर या श्याम नारायण पांडेय की वीररसपूर्ण शब्दावली किस प्रकार ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की कला का संस्पर्श पाकर हास्य उत्पन्न करने लगती थी। दिनकर की पैरोड़ी आज भी याद आती है -


‘‘दग्ध हृदय में धधक रही उत्तप्त प्रेम की ज्वाला।
हिमगिरि के उत्स निचोड, फोड़ पाताल बनो विकराला।
ले ध्वंसों के निर्माण प्राण से गोद भरो पृथ्वी की।
छत पर से मत गिरो गिरो अंबर से वज्र-सरीखी।’’

ओमप्रकाश ‘आदित्य’ के मित्रों और प्रशंसकों को वे दिन सुलाए नहीं भूल सकते जब रेडियो, दूरदर्शन और काव्यमंचों पर ओमप्रकाश ‘आदित्य’ अपने समकालीन दिग्गज हास्य कवियों के साथ हास्य रस को साहित्यिक और स्तरीय रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। तब तक हास्य कविता चुटकुले और फूहड़पन में नहीं ढली थी और सही अर्थों में रसानुभूति कराती थी। कार्यक्रम में उनकी उपस्थिति मात्र से उनके चाहनेवाले मुस्कराने लगते थे। धाराप्रवाह शैली में रचना प्रस्तुत करते समय वे इस तरह हास्य रस की फुलझड़ियाँ छोड़ते कि श्रोता सात्विक हास्य में बरबस ठहाके लगाने से खुद को रोक नहीं पाता था। उनके प्रशंसक कविता पढ़ने के उनके इस निराले अंदाज को कभी नहीं भूल पाएँगे कि ‘वे पहले एक साँस में गाते हुए कविता प्रस्तुत करते, फिर बड़े धीरे से फुसफुसाते हुए कविता की वह पंक्ति गुनगुनाते जो सारे माहौल में हँसी का स्फुरण कर देती।’ यह शैली उनके कवि स्वभाव का अंग थी, पहचान थी।


ओमप्रकाश ‘आदित्य’ अपने समकालीन सामाजिक और राजनैतिक परिवेश के प्रति अत्यंत जागरूक थे। इन दोनों ही क्षेत्रों की विसंगतियाँ इन्हें विचलित भी करती थीं और रुष्ट भी। ऐसी विसंगतियों को ही वे कविता का विषय बनाते थे। परंतु ध्यान देने की बात यह है कि वे इस कड़वे यथार्थ को इस तरह प्रस्तुत करते थे कि वह मीठी और गहरी मार करे, चुभे और बेचैन करे। असंतोष और आक्रोश को व्यक्त करनेवाली ऐसी व्यंग्यपूर्ण रचनाओं की एक बड़ी सीमा इनमें आक्रोश को नारे की तरह परोस देने में निहित होती है। ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की रचनाधर्मिता उनकी इस कलात्मकता में है कि उन्होंने अपने आक्रोश को नारा नहीं बनने दिया। कवित्व की क्षति करके मंच पर गला फाड़-फाड़कर चिल्लाना उनकी दृष्टि में कवि और काव्य की शालीनता के विरुद्ध था -

‘‘शेर से दहाड़ो मत,
हाथी से चिंधाड़ो मत,
ज्यादा गला फाड़ो मत,
श्रोता डर जाएँगे ,
घर के सताए हुए आए हैं बेचारे यहाँ
यहाँ भी सताओगे तो ये किधर जाएँगे?’’

उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति की एक विशेषता यह भी थी कि वे सहज हास्य के बीच करुणा को इस तरह पिरोते थे कि उसका त्रासद प्रभाव श्रोता के मन पर अंकित हो जाता था। जैसे अपनी एक प्रसिद्ध कविता को वे इस साधारण सी लगनेवाली उक्ति के साथ आरंभ करते हैं कि -

‘‘इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं,
जिधर देखता हूँ गधे ही गधे हैं।’’


श्रोता हँसना शुरू करता है कि तभी कवि अगली पंक्तियों में रुदन को सामने ले आता है -


‘‘गधे हँस रहे, आदमी रो रहा है,
हिंदुस्तान में यह क्या हो रहा है।’’


श्रोता इस हास्य और करुणा के द्वंद्व में कभी खिलखिलाता है तो कभी ‘च्च्च्च्’ करता है। कविता आगे बढ़ती है और श्रोता को पहले रोमांटिक बनाती है और बाद में राजनैतिक विड़ंबना की ऐसी पटकनी देनी है कि चेतना में सनसनी जाग उठे -

‘‘जवानी का आलम गधों के लिए है
ये रसिया, ये बालम गधों के लिए है।
ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिए है
ये संसार सालम गधों के लिए है।’’


आगे कवि ने इस विड़ंबना की ओर भी इशारा किया है कि योग्य व्यक्ति इस तथाकथित लोकतंत्र में उपेक्षित पड़े है तथा अयोग्य व्यक्ति सब पदों पर काबिज़ है। ऐसा लगता है कि छोड़े तो घास को तरस रहे हैं और गधे च्यवनप्राश खा रहे हैं। इसलिए कुछ न कर पानेवाला आम आदमी अंततः इस सबको भूल जाना चाहता है, पर भूलने से पहले कवि उसे बड़े व्यंजनापूर्ण परंतु सहज ढंग से असली गधे की पहचान करा देता है।


‘‘जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है
जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
जो माइक से चीखे वो असली गधा है।’’



अंत में मृत्यु के संदर्भ में ‘नीरज’ की शैली में रचित ओमप्रकाश ‘आदित्य’ की ये पंक्तियाँ ‘त्वदीमं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पये’ की तर्क पर दिवंगत ‘आदित्य’ को निवेदित हैं -

‘‘हो न उदास रूपसी, तू मुस्कुराती जा,
मौत में भी जिंदगी के फूल तू खिलाती जा।
जाना तो हर एक को एक दिन जहान से,
जाते-जाते मेरा एक गीत गुनगुनाती जा।’’



- ऋषभदेव शर्मा





5 टिप्‍पणियां:

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