मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में
-- डॉ. देवराज
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द्वितीय समरोत्तर मणिपुरी कविता: एक दृष्टि
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-- डॉ. देवराज
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द्वितीय समरोत्तर मणिपुरी कविता: एक दृष्टि
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स्वतंत्रता के बाद पहली बार जब भारत और चीन के सम्बंध बिगड़ने लगे तो देश के अन्य भागों के साथ-साथ मणिपुर के साहित्य में भी बदलाव देखे जा सकते हैं जो उस समय की भारतीय मानसिकता को दर्शाता है। इसी परिप्रेक्ष्य में मणिपुरी कविता के बारे में बताते हैं डॉ. देवराज : "सन १९६० के काल में मणिपुरी भाषा की कविता ने एकदम नए दौर में प्रवेश किया। इसमें कविता की यात्रा यथार्थ से अतियथार्थ की ओर प्रारम्भ हुई। इस बडे़ परिवर्तन का मुख्य श्रेय मोहभंग, धार्मिक प्रतिक्रिया और पाश्चात्य कविता के प्रभाव को है। चीन के साथ युद्ध ने ऐतिहासिक मोहभंग को जन्म दिया, फिर मणिपुरी भाषा ही इससे कैसे बच सकती थी! वस्तुतः चीन के हाथों भारत की पराजय हमारे सैनिक साहस की पराजय नहीं थी, बल्कि वह हमारे राजनीतिक दिवालियेपन की आमन्त्रित पराजय थी। "इन्हीं दिनों बेरोज़गारी, आर्थिक भ्रष्टाचार, नौकरी पाने के लिए विभिन्न रूपों में रिश्वत का प्रचलन तथा पूँजी का केन्द्रीकरण जैसी बातें भी सामने आने लगीं। सरकारी योजनाओं का पैसा बडी़ चालाकी से नेताओं, बडे़ ठेकेदारों और पूँजीपतियों की जेबों में जाने लगा। "सन १९६० के आसपास मणिपुर में एकाएक ब्राह्मणवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया तीव्र हो गई और ‘मैतै मरूप’ आन्दोलन भड़क उठा। वस्तुतः यह आंदोलन सन १९३० में कछार निवासी ‘नाओरिया फुलो’ द्वारा शुरू किया गया था, किन्तु परिस्थितियाँ अनुकूल न होने के कारण यह उस समय फल-फूल नहीं सका। इसका विकास आश्चर्यजनक रूप में अपने जन्म के तीस वर्ष पश्चात हुआ। ‘मैतै मरूप’ आन्दोलन के मूल में यह भावना थी कि वैष्णव परम्परा पर आधरित ब्राह्मणवाद मणिपुरी समाज की हज़ारों वर्ष पुरानी पहचान का विनाशक है, क्योंकि यह मूल मैतै संस्कृति के प्रतीकों, आख्यानों, कथाओं, धार्मिक रीतियों और इतिहास की इस प्रकार प्रतीकधर्मी व्याख्या करता है कि सम्पूर्ण मैतै संस्कृति, हिन्दू संस्कृति के महासमुद्र में विलीन हो जाती है। "इस प्रतिक्रियावाद के पीछे एक ठोस कारण मैतै इतिहास की हिन्दूवादी व्याख्या भी है। आधुनिक ऋषि कहे जाने वाले अतोमबाबू शर्मा मणिपुरी संस्कृति के सम्बन्ध में विचार और शोध करने वाले सबसे पहले व्यक्ति थे। उन्होंने अपने लेखन में मैतै संस्कृति के प्रत्येक पक्ष को हिन्दू संस्कृति की प्रतीकात्मक व्याख्या दी है और व्यक्तियों तथा स्थानों के नामों को संस्कृत मूल से जोडा़ है। ‘मैतै-मरूप’ आन्दोलन इसके पूर्ण विरुद्ध है। इसके संचालकों का मानना है कि ऐसा करके हिन्दू संस्कृति के रक्षक उन्हें उनके पूर्वजों और मूल इतिहास से काट रहे हैं।"
....क्रमशः
प्रस्तुति: चंद्र मौलेश्वर प्रसाद
मैतै संस्कृति की स्वतंत्र पहचान का सम्मान किया जाना लोकतंत्र , मानवाधिकार और भारतीयता की बहुलतावादी अवधारणा के अनुकूल है.सांस्कृतिक द्वंद्व की अपेक्षा उनका सामंजस्य ही वांछनीय है.
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