(यात्रावृत्तांत )
करगिल, जो सिर्फ मुहावरा नहीं है
आलोक तोमर
करगिल सिर्फ एक शहर का नाम या छोटी सी संज्ञा नही है। वैसे भी और 1999 के भारत-पाक युद्ध, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पता नहीं क्या सोच कर झगड़ा कहा था, के बाद करगिल का नाम लेते ही बोफर्स तोपों, सैनिकों की लाशों, नवाज शरीफ, परवेज मुशर्रफ और ओपरेशन विजय का नाम याद आ जाता है।
लेकिन यह बाद में। दुनिया के सबसे ऊँचे और संभवतः सबसे छोटे हवाई अड्डे पर जब आपका जहाज उतरता है, उसके पहले ही थकी हुई परिचालिकाएँ आपको याद दिला देती हैं कि यहाँ ऒक्सीजन का स्तर बहुत कम है और धीमी गति से चलिए और जितनी लंबी साँस ले सकते हैं, उतनी लीजिए। जहाँ आप ठहरते हैं, वहाँ के शुभचिंतक पूरे आठ घंटे तक सोने की सलाह देते हैं ताकि देह संसार की छत कहे जाने वाले इस इलाके से अच्छी तरह परिचित और अभ्यस्त हो सके।
लेह से करगिल का रास्ता काफी दूरी तक सिंधू नदी के किनारे चलता है और एक तरफ पहाड़ हैं और नीचे बहुत नीचे नदी बह रही है, जिसकी गति इतनी तेज है कि आवाज आप तक पहुँचती है। रास्ते में ढाबों और तिब्बती स्थानीय व्यंजनों के होटलों वाला एक बाजार आता है और उसके बाद सिर्फ ऒक्सीजन की कमी ही आपको दुखी नहीं करती। एक बहुत सँकरी सड़क पर लगातार आप ऊपर बढ़ते जाते हैं। पहाड़ का शिखर दिखाई पड़ता है और जब तक आप यह सोचे कि यह कितना ऊँचा होगा, तब तक आप इस पर होते हैं। फिर नीचे का सर्पित इलाका आपको समतल लगने वाले लेकिन लगभग उतनी ही ऊँचाई पर मौजूद गाँवों से होते हुए रास्ते के स्तूपों और कभी कभार दिखाई पड़ जाने वाली मस्जिदों वाले इलाकों में ले जाता है। बीच-बीच में बर्फ से पिघल कर आ रहे बने झरने आपको एकदम ठंडे और असली मिनिरल वाटर का स्वाद देते हैं और आगे जा कर लामा यारू गोंपा नाम का बौद्ध तीर्थ है, जहाँ आज के जमाने में भी डबल बैड का एक कमरा खाने के साथ दो सौ रुपए में मिल जाता है। लद्दाख की लोकल बीयर यानी छाँग पीना चाहें तो पच्चीस रुपए में एक पूरा जग प्लास्टिक वाला भर कर मिलता है। ठंडा करने की जरूरत नहीं क्योंकि दिन में भी मौसम दो या तीन डिग्री के आसपास होता है और रात में तो जून के महीने में भी दो मोटे कंबल ओढ़ कर सोना पड़ता है। प्रंसगवश लद्दाख ऐसा इलाका है, जहाँ अगर आपका सिर छाया में हो और पाँव धूप में तो पाँव झुलस जाएँगे और सिर ठंड पकड़ लेगा।
आगे आपकी मर्जी है कि बटालिक से होते हुए जाएँ या सीधे करगिल का पहाड़ी रास्ता पकड़ें। बटालिक से होते हुए जाने में लाभ यह है कि आप वे पहाडियाँ देख सकते है, जहाँ करगिल झगड़े के दौरान सबसे पहले चरवाहों की शक्ल में पाकिस्तानी सेना के घुसपैठियों को भारतीय चरवाहों ने पकड़ा था और इसी छावनी में खबर दी थी। यहाँ सिंध नदी पार करनी पड़ती है और वह भी एक झूलते हुए पुल से और जब तक यह हिंडोला खत्म नहीं हो जाता, तब तक बड़े-बड़े बहादुरों की साँस हलक में अटकी रहती है। चाहें जिस तरफ से जाएँ, पहाड़ से करगिल शहर बिछा हुआ दिखता है। एक लगभग नामालूम सा देहाती कस्बा, सिंध नदी जिसके किनारे से बह रही है और जिसके पार पाकिस्तान है। 1971 के युद्ध में भारत ने नदी के पार वाला इलाका भी जीत लिया था लेकिन रोते हुए जुल्फिकार अली भुट्टो को देख कर शिमला में इंदिरा गांधी का मन पसीज गया और यह हिस्सा उन्होंने पाकिस्तान को वापस कर दिया। तर्क समझ में नहीं आता। जब वह भी विवादित कश्मीर है तो उसे वापस करने की ऐसी क्या जल्दी आ पड़ी थी? दिलचस्प बात यह है कि सिंध नदी के पार जो करगिल है, वहाँ के लोग यहाँ के लोगों के लगातार संपर्क में रहते हैं और उन्होंने नदी पार करने के लिए बाँस के पुल बना रखे हैं। सेना के लोग कई बार आ कर इन पुलों को तोड़ जाते हैं लेकिन पुल नए सिरे से बन जाते हैं।
करगिल शहर में या उसे कस्बा कहिए, सबसे बड़ी मुसीबत शाकाहारी होना है। सड़क पर सरेआम बकरे और भेड़ की आंतों से बना हुआ कबाब बिकता है और लोगों की भीड़ लगी रहती है। उत्तर प्रदेश के जिला फर्रूखाबाद के एक भूतपूर्व फौजी की मेहरबानी है कि वह करगिल का एकमात्र शाकाहारी ढाबा चलाता है। इसके अलावा शहर के सबसे बड़े होटल सियाचिन में मिलने को शाही पनीर मिल जाता है लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि उसके अंदर से हड्डियाँ नहीं निकलेंगी। करगिल में एक डिग्री कॊलेज है और सुना है कि लेह की तरह दिल्ली पब्लिक स्कूल की शाखा भी खुलने वाली है। मगर जो शहर शुरू होने से पहले खत्म हो जाता है और जहाँ आधुनिकता का प्रतीक दुकानों में बिकते हुए डीवीडी प्लेयर और एयरटेल तथा बीएसएनएल के सिम कार्ड हैं, वहाँ इतने अभिजात स्कूल में पढ़ने कौन आएगा?
करगिल से द्रास गए बगैर न पर्यटन और न ज्ञान दोनों के हिसाब से यह यात्रा संपन्न नहीं होगी। करगिल की असली लड़ाई तो द्रास के पहाड़ों और मैदानों में हुई थी और क्योंकि जिला करगिल पड़ता है इसीलिए इसे करगिल युद्ध की संज्ञा दी गई थी। द्रास में टाइगर हिल के ठीक नीचे और थ्री पीमपल्स यानी तीन मुहाँसे के नाम से चर्चित पहाड़ियों की श्रृंखला की तलहटी में एक स्मारक उन शहीदों का बनाया गया है, जो इस पागलपन के दौर में शहीद हुए। 26 जुलाई को हर साल यहाँ विजय दिवस मनाया जाता है। इस स्मारक में काले पत्थर पर सुनहरे अक्षरों से उन शहीदों के नाम भी लिखे हैं, जिन्होंने अपनी जान गँवाई और एक पत्थर युवा शहीद बिजयेंद्र थापर के पिता के हाथ का भी लगाया हुआ है। अटपटा सिर्फ यह लगता है कि स्मारक चिन्ह के नाम पर बीयर के मग मिलते हैं, जिनमें एक तरफ तोलोलिंग पहाड़ का चित्र है और दूसरी ओर टाइगर हिल का। शहीदों के नाम पर लोग उनकी अंतिम स्थली के चित्रों के साथ बीयर पीएँ, यह कुछ समझ में नहीं आता।
करगिल पहुँचाने के लिए लेह ही एकमात्र रास्ता नहीं है। एक रास्ता श्रीनगर से सोनमर्ग होते हुए, जो-जिला दर्रे में से जाता है और सोलह किलोमीटर का यह इलाका इतना भयानक है कि वहाँ पहुँचते ही आप भगवान को याद करने लगेंगे। नीचे बहुत गहरी खाई और वह भी इतनी गहरी कि वहाँ से गिरे तो आप सीधे अमरनाथ के रास्ते में आने वाले उस बालटाल में गिरेंगे, जहाँ से अमरनाथ का रास्ता जाता है। गिरे तो हड्डियाँ भी नहीं मिलेंगी। लेकिन यह रास्ता भी खूब चलता है। जम्मू कश्मीर राज्य परिवहन की बसों से ले कर पर्यटकों की गाडियाँ लदी-फदी करगिल की ओर जाती हैं। करगिल, जो हमारा सामरिक तीर्थ है। चलते-चलते करगिल की संस्कृति के बारे में एक दिलचस्प बात यह है कि वहाँ एक ही दुकान पर दलाई लामा और सद्दाम हुसैन दोनों के फोटो लगे मिल जाएँगे। यह बौद्ध और शिया पंथ को मानने वाले लोगों का इलाका है।
आपका यात्रा वृतांत पढ़कर कारगिल का चित्र ही मानस पटल पर उभर आया परन्तु वहां गए बगैर उसकी दुश्वारियों को महसूस कर पाना संभव नहीं.
जवाब देंहटाएंरोचक वृतांत है.........कृपया आगे जारी रखें.
बहिन वाचक्नवी जी।
जवाब देंहटाएंकरगिल के बारे में विस्तार से
जानकारी देने के लिए,
धन्यवाद।
कारगिल के नाम पर आम भारतीय के मानस पटल पर तो युद्ध और बर्फीली पहाडियों का चित्र ही उभरता है। आज अलोकजी ने वह पक्ष भी दिखा दिया जिसकी सुंदरता और मनोरम दृश्य देख किसी का भी मन वहां जाने को ललक उठेगा।
जवाब देंहटाएंआलोक तोमर मात्र पत्रकार नहीं ,कविहृदय संस्मरणकार हैं.
जवाब देंहटाएंसचमुच सुन्दर और पठनीय!!