कहाँ हो हमारे बुद्धिजीवी
मामला यह भी है कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से अँग्रेजी में विचार-विमर्श की परंपरा लगभग अक्षत बनी हुई है, पर भारतीय भाषाओं में यह परंपरा छिन्न-भिन्न हो गई है। एक समय मराठी में महात्मा फुले थे, बांग्ला में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर थे और हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र और दयानंद सरस्वती थे, पर आज उनके बौद्धिक उत्तराधिकारी कहीं दिखाई नहीं देते। इसका एक बड़ा कारण यह है कि अंग्रेजी से होनेवाले अनगिनत लाभों के कारण भारत की उत्कृष्ट प्रतिभाएँ अंग्रेजी में पर्यवसित होती गईं, जिससे भारतीय भाषाओं में बौद्धिक विकास को आघात पहुँचा। दूसरा बड़ा कारण यह है कि हिन्दी क्षेत्र में पुनर्जागरण की कोई बड़ी घटना नहीं हुई है।
पहली बात तो यह है कि भारत में जन बुद्धिजीवी हिन्दी में नहीं हैं और अँग्रेजी में हैं, यह बात ही सिरे से ही खारिज करने लायक है। अँग्रेजी के बुद्धिजीवियों का भारतीय जन से क्या रिश्ता है? कोई रिश्ता है भी या नहीं? बताते हैं कि अंग्रेजी समझनेवालों की संख्या भारत में तीन प्रतिशत के आसपास है। इन तीन प्रतिशत लोगों का प्रतिनिधित्व करनेवाले बुद्धिजीवी देश के 97 प्रतिशत लोगों से कैसे संवाद कर सकते हैं? आशीष नंदी या रामचंद्र गुहा या अमर्त्य सेन को भारत का जन बुद्धिजीवी किस तर्क से कहा जा सकता है? ये मुख्यतः या सिर्फ अँग्रेजी जाननेवाले वर्ग के लिए लिखते या बोलते हैं। निश्चय ही, इनके सरोकारों का संबंध भारत की स्थितियों से होता है, लेकिन विदेशों में रहनेवाले ऐसे दर्जनों विद्वान हैं जो अँग्रेजी में या अपनी-अपनी भाषाओं में भारत के बारे में लिखते रहते हैं।क्या इन विदेशी विद्वानों को भारत का जन बुद्धिजीवी माना जा सकता है? इन विद्वानों में और भारत में रहनेवाले भारतीय विद्वानों में मूलभूत फर्क क्या है? दोनों एक ही पाठक वर्ग के लिए लिखते हैं। दोनों एक ही तरह के परिसंवादों में भाग लेते हैं। उनकी पुस्तकें प्राय: एक ही वर्ग के प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित की जाती हैं। जैसे सिर्फ भारतीय मूल का होने से कोई विद्वान भारतीय नहीं हो जाता, वैसे ही जनता से दूर रहनेवाला बुद्धिजीवी किसी भी हाल में भारत का जन बुद्धिजीवी नहीं कहला सकता। इसलिए हमें इस जाल में पड़ना ही नहीं चाहिए कि कोई विदेशी पत्रिका किन्हें भारत के शीर्ष जन बुद्धिजीवियों में गिनती है और किन्हें नहीं। वास्तव में यह अंग्रेजी भाषा की नट लीला है, जिसकी ओर ध्यान देने से हम अपनी बौद्धिक समस्याओं का निदान नहीं निकाल सकते।
इस ट्रेजेडी के साथ एक बृहत्तर ट्रेजेडी भी जुड़ी हुई है। ऐसा नहीं है कि जन बुद्धिजीवी न होने के कारण भारत के अंग्रेजी बुद्धिजीवियों का योगदान कुछ कम महत्व का है। महत्व है, इसीलिए अफसोस होता है कि ये विद्वान अंग्रेजी में क्यों लिखते हैं जिसका भारत के आम पढ़े-लिखे वर्ग से कोई संबंध नहीं है। इसमें क्या संदेह है कि पिछले साठ वर्षों में ज्ञान और विद्वत्ता के क्षेत्र में जो ज्यादातर काम हुआ है, वह अंग्रेजी में ही हुआ है। उदाहरण के लिए, जाति, गरीबी, भूमंडलीकरण, धर्मनिरपेक्षता, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि में जितना महत्वपूर्ण काम हमारे देश में हुआ है, उसकी भाषा अँग्रेजी ही है। इसी से इसका फायदा अंग्रेजीवालों के बीच ही सीमित रहता है। अन्य भाषाओं के जिज्ञासु भी इन्हें पढ़ते हैं, पर इनकी संख्या ज्यादा नहीं है और इन बुद्धिजीवियों का व्यक्तित्व या कार्य शैली ऐसी नहीं है कि ये भारत के जन मानस को प्रभावित कर सकें। इस तरह, अंग्रेजी में उत्पादित और संग्रहीत ज्ञान भंडार भारत के अधिसंख्य लोगों के लिए किसी काम का नहीं होता। रामचंद्र गुहा या अरुंधति रॉय होंगे बहुत बड़े बुद्धिजीवी, पर उनके मुहल्ले के लोग भी नहीं जानते कि यहाँ हमारे समय का एक बड़ा बुद्धिजीवी रहता है। भारत का अँग्रेजी बुद्धिजीवी लंदन, पेरिस, हेडेलबर्ग की सैर करता होगा, अंतरराष्ट्रीय परिसंवादों में भाग लेता होगा, हर साल उसकी एक नई किताब प्रकाशित होती होगी, पर असल भारतीय समाज से वह उतना ही दूर है जितना इंग्लैंड या अमेरिका भारत से दूर हैं। इसलिए इनका ज्ञान भारतीय लोगों के उपयोग में नहीं आ पाता। ये इंटेलेक्चुअल हैं, पर पब्लिक इंटेलेक्चुअल नहीं।
फिर इन्हें भारत का जन बुद्धिजीवी क्यों मान लिया जाता है? क्योंकि एक छोटा-सा वर्ग ऐसा है, जो अपने को असली भारत माने बैठा है। इस छोटे-से वर्ग के सदस्य एक-दूसरे को संबोधित करते हैं और एक-दूसरे की बात का खंडन-मंडन करते रहते हैं। यह वर्ग जो लिखता है, उसे यही वर्ग पढ़ता है। इस वर्ग का अंग्रेजी के विदेशी बुद्धिजीवियों से भी संपर्क रहता है। यही कारण है कि संयुक्त राज्य अमेरिका की कोई पत्रिका जब भारत के जन बुद्धिजीवियों की सूची बनाने बैठती है, तो उसकी नजर मेधा पाटकर या अरुणा रॉय या नामवर सिंह या राजेंद्र यादव पर नहीं पड़ती। ये लोग उस मंडली से बाहर हैं जिसे भारत का बौद्धिक क्रीमी लेयर कहा जा सकता है। राजेंद्र यादव की टिप्पणियों को पढ़नेवालों की संख्या रामचंद्र गुहा के पाठकों से कई गुना ज्यादा होगी, पर यादव अमेरिकी पत्रिकाओं की नजर में पब्लिक बुद्धिजीवी नहीं हैं और रामचंद्र गुहा हैं। यह यथार्थ को सिर के बल खड़ा करना नहीं है, तो और क्या है?
नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, सच्चिदानंद सिन्हा, अशोक वाजपेयी की भी सीमाएँ हैं। ये काम तो कर रहे हैं जन बुद्धिजीवी का, पर जन के बीच इनकी कोई खास मान्यता होने की बात को तो छोड़िए, आम हिन्दी भाषी इन्हें जानता तक नहीं है। जिस तरह अंग्रेजी बोलने और लिखनेवालों का एक छोटा-सा परिमंडल बना हुआ है, उसी तरह इन लेखकों और वक्ताओं का भी एक सीमित परिमंडल है। अंग्रेजी के बुद्धिजीवियों की तुलना में इनकी स्थिति ज्यादा ट्रेजिक कही जा सकती है, क्योंकि ये अपनी मातृभाषा में काम करते हैं, उसे समर्थ और सक्षम बनाते हैं, उसके जरिए तरह-तरह की बहसें छेड़ते हैं, पर इसकी आँच या महक अपने ही लोगों के बीच दूर तक नहीं जा पाती। अंग्रेजी के लेखक नदी के द्वीप हैं, तो ये लेखक छोटी-छोटी नदियाँ है, जिन्हें उस व्यापक जन क्षेत्र की प्रतीक्षा है, जहाँ ये वेग के साथ बह सकें।
मामला यह भी है कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से अँग्रेजी में विचार-विमर्श की परंपरा लगभग अक्षत बनी हुई है, पर भारतीय भाषाओं में यह परंपरा छिन्न-भिन्न हो गई है। एक समय मराठी में महात्मा फुले थे, बांग्ला में ईश्वर चन्द्र विद्यासागर थे और हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र और दयानंद सरस्वती थे, पर आज उनके बौद्धिक उत्तराधिकारी कहीं दिखाई नहीं देते। इसका एक बड़ा कारण यह है कि अंग्रेजी से होनेवाले अनगिनत लाभों के कारण भारत की उत्कृष्ट प्रतिभाएँ अंग्रेजी में पर्यवसित होती गईं, जिससे भारतीय भाषाओं में बौद्धिक विकास को आघात पहुँचा। दूसरा बड़ा कारण यह है कि हिन्दी क्षेत्र में पुनर्जागरण की कोई बड़ी घटना नहीं हुई है। छिटपुट प्रयत्न जरूर हुए हैं, पर वे तृणमूल स्तर पर जन जीवन को प्रभावित नहीं कर सके। इसलिए तर्क-वितर्क का माहौल क्षीण हुआ है। साहित्य को ही प्रमुख बौद्धिक गतिविधि मान लिया गया। फिर भी, महात्मा गाँधी के बाद राममनोहर लोहिया, रामवृक्ष बेनीपुरी, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, किशन पटनायक, माहे·ार (आइपीएफ) आदि ने अपने-अपने समय में सार्वजनिक बहसें चलाईं और बहुत बड़ी संख्या में लोगों की बौद्धिक चेतना में खलबलाहट पैदा की। यह क्रम भी अब टूटता नजर आता है। अंग्रेजी का प्रभुत्व भारत की हर अच्छी चीज को नष्ट कर रहा है। इसलिए हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में जन बुद्धिजीवियों का आविर्भाव हो और उनका प्रभाव क्षेत्र फैले, इसके लिए आवश्यक है कि भारत के सार्वजनिक जीवन से अँग्रेजी को तुरंत विदा किया जाए।
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- राजकिशोर
तथाकथित जन-बुद्धिजीवियों का चरित्र वस्तुतः जन-विरोधी है ....यह अब किसी से छिपा नहीं रह गया है.
जवाब देंहटाएंबुद्धिजीवी अर्थात जिनकी बुद्धि केवल आजीविका के लिए है, इसलिए हमारे यहाँ एक और शब्द है प्रबुद्ध। अब जो आजीविका के लिए ही बुद्धि का प्रयोग करते हैं वे प्रबन्धन में भी माहिर होते हैं। सदियों से ही बुद्धिजीवियों ने अपनी पृथक भाषा रखी है, कभी वे संस्कृत को अपनी भाषा बनाते हैं तो कभी फारसी को और आज अंग्रेजी को। ये लोग दो या तीन प्रतिशत ही होते हैं लेकिन दुनिया से निराले दिखते हैं।
जवाब देंहटाएंएक बार मैं एक जनजातीय क्षेत्र में गयी थी। वहाँ भजन मण्डली का कार्यक्रम था। उनकी धर्म और परमात्मा के बारे में ज्ञान और व्याख्या अदभुत थी। लेकिन वे आम व्यक्ति थे अत: उनका ज्ञान भी आम ही कहलाता है। लेकिन जब कोई भी तुलसीदास पैदा होता है और सर्वसामान्य की भाषा में रामचरित मानस लिखता है तब सारी दुनिया पर राज्य करता है। कठिनाई तो यह है कि हम सब भी इन्हीं दो प्रतिशत लोगों को महान मान लेते हैं और उन्हें प्राथमिकता देने लगते हैं। यदि हम भी अपने आसपास के प्रबुद्ध लोगों को खोजें तो ज्यादा श्रेष्ठ होगा।
बुद्धि का किसी भाषा से कोई लेना देना नहीं होता। यदि अंग्रेजी जानने से ही बुद्धि का मापदण्ड होता तो फिर यूरोप में तो सारे ही बुद्धिमान होते। बुद्धिजीवी का अर्थ है कि अपनी बुद्धि को आजीविका का साधन बनाए इसलिए हमारे यहाँ प्रबुद्ध व्याक्ति को सम्मान मिलता है। जो अपनी बुद्धि से समाज का कल्याण करे। बुद्धिजीवी प्रारम्भ से ही स्वयं को विशेष की श्रेणी में रखते आए हैं इसलिए उनकी भाषा सर्वजन से हटकर होती है। लेकिन आमजन में अपनी पैठ बनाने के लिए तुलसीदास जैसी रामचरितमानस की आवश्यकता होती है। वर्तमान से सारे ही बुद्धिजीवी अपने ही खोल में खुश है कभी वे बाहर की दुनिया में आएं तो उन्हें विदित होगा कि भारत के दूरस्थ गाँवों में भी ज्ञान के भण्डार भरे हैं। कभी जनजातीय समाज की भजन मण्डली को ही सुनकर देखें, अच्छे से अच्छे विद्वानों को वे मात देते हैं।
जवाब देंहटाएंनितांत ही पूर्ण सार्थक और सटीक विवेचना है ..... बहुत कुछ जोड़ने की आवश्यकता नहीं इसमें.....स्थिति का बड़ा ही सटीक आकलन किया है आपने...
जवाब देंहटाएंसिर्फ एक बात कही जा सकती है कि ...बचपन में एक कथा पढी थी कि दो रेखाओं में से छोटी रेखा को बड़ी और महत्वपूर्ण करना हो तो बड़ी रेखा को मिटाए बिना छोटी रेखा को विस्तार दे ही बड़े को छोटा किया जा सकता है...
हिन्दी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए शक्ति प्रबुद्ध वर्ग द्वारा हिंदी को समृद्ध करने से ही हो जायेगा...अंग्रेजी प्रभुत्व को छोटा करने में शक्ति क्षय करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.
अंग्रेजी बुद्धिजीवियों के बारे में आपने लिखा है;
जवाब देंहटाएं"इस छोटे-से वर्ग के सदस्य एक-दूसरे को संबोधित करते हैं और एक-दूसरे की बात का खंडन-मंडन करते रहते हैं."
हिंदी बुद्धिजीवियों के बारे में आपने लिखा है;
"ये काम तो कर रहे हैं जनबुद्धिजीवी का, पर जन के बीच इनकी कोई ख़ास मान्यता होने की बात छोडिए, आम हिंदी भाषी इन्हें जानता तक नहीं."
कहा जा सकता है कि "दोनों वर्गों का क्षेत्रफल शून्य है." (गणितज्ञ की टिप्पणी)
ये बुद्धिजीवी आम जन से दूर नहीं है. असल बात यह है कि आम जन ही इन बुद्धिजीवियों से दूर है. (समाजशास्त्री की टिप्पणी)
आपने अपनी पोस्ट में जो कुछ भी लिखा है, उससे एक नई बहस छिड़ सकती है. इस बहस को आगे बढाया जाना चाहिए. (बुद्धिजीवी जी की टिप्पणी.)
शानदार पोस्ट है. (मेरी निजी टिप्पणी.)
इस बात को बुद्धिजीवी ही नहीं आम आदमी भी कह रहा है कि हिंदी में [राष्ट्राभाषा में] और अन्य राजभाषाओं में देश का कार्य होना चाहिए और अंग्रेज़ी जैसी विदेशी भाषा को आम जीवन से निकाल फेंकना चाहिए। विडम्बना यह है कि हमारे आई ए एस अधिकारी और नेता जनता से जुडी भाषाओं को दूर रखकर विदेशी भाषा से ही धौंस जमाना चाहते है। अब बेचारी जनता लाख सिर पटक ले.....????
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