जरा खुल कर जय हो
हम उत्सवधर्मा हैं, पर हमें खुशी मनाने में मुश्किल होती है। खुशी के पलों में अचानक हम पहले गंभीर हो जाते है, फिर आलोचक और फिर थोड़े उदास, थोड़े कुंठित। हम सोचने लगते हैं कि हम बेवजह खु्श हो रहे हैं, जबकि कायदे से तो यह गंभीर विमर्श का मौका है। सोचते-सोचते फिर हमारा मन बोझिल हो जाता है और हम गहरी उदासी में उतरने लगते हैं। हमारे साथ कुछ ऐसा ही हुआ हाल में। हमें ऒस्कर मिल गया। अंग्रेजी के एक हिंदुस्तानी लेखक और राजनयिक विकास स्वरूप ने एक उपन्यास लिखा। किसी अंग्रेज निदेशक को उसका कथानक जमा। एक पटकथा लिखी गयी। फिर एक जटिल फिल्म बनी, जिसमें गंदगी और गरीबी के माहौल में भी एक फंतासी रची गयी। कहानी के एक मोड़ पर भाग्य के पट खुले और एक नाकुछ करोड़पति बन गया। उस पर शक भी किया गया-मानो जो गरीब और वंचित है वह ज्ञान के सहारे आगे नहीं बढ़ सकता। कुछ ऐसे सरलीकरण और कुछ अद्भुत फिल्मीकरण, कुछ फार्मूले और कुछ नए अंदाज -इन सबको एक फिल्म का स्वरूप मिला। इसमें कोई एक बंबइया अनिल कपूर तथा लंदन में होने के बावजूद एक औसत स्कूल विटमोर हैरो का एक साधारण युवक देव पटेल आमने सामने बैठ कर ’’कौन बनेगा करोड़पति’’ खेलने लगे। इन दोनों में से कोई भी अभिनय की दुनिया के दिलीप कुमार नहीं है।
जैसा कि सब जानते हैं फिल्म वैसे भी एक संश्लिष्ट, दुरूह एवं बहुविधात्मक कला माध्यम है- उसमें तकनीक भी है और कला भी, ग्लैमर भी है और संवेदना भी, चाक्षुष भी है और श्रव्य भी, शब्द भी हैं और सुर भी, और अभिनय तो है ही। अब ’स्लमडॊग मिलियेनेयर’ में भी यह सब ब्रिटिश और भारतीय कलाकारों तथा कामकारों के संयुक्त संयोजन मे हुआ है। रेसूल पुकुट्टी का स्वर संयोजन तकनीक और कला का एक उत्कृष्ट बिंदु है, वरना अनुराग कश्यप की आधुनिक फिल्म ’नो स्मोकिंग’ में अर्थमय गानों और प्रभावी संगीत होने के बावजूद साउंड ट्रैक में कुछ रुखड़ा-सा फॅंसा-फॅंसा सा लगता है। वहाँ भी गुलजार ने कई अनोखे प्रयोग किए थे -’’लंबे धागे धुएँ के, साँस सिलने लगे हैं, प्यास उधड़ी हुई है, ओठ छिलने लगे हैं’’ या फिर ऐश-ट्रे में ’’बहुत से आधे बुझे हुए दिन पड़े हैं इसमें, बहुत सी आधी जली हुई रातें गिर पड़ी है।’’ और भी जैसे ’’धुआँ लिपटता है बाजीगर की तरह हवा से, वो बल पे बल खा के उठ रहा है, तमाम करतब दिखा रहा है, ये ऐश-ट्रे भरती जा रही है।’’ इतने खूबसूरत कविता-तत्व फिल्म की सफलता-असफलता के धुएँ में धुंधले हो गए और उन गीतों का वह असर न हो सका, जो होना चाहिए था।
स्लमडॊग में इन्हीं गुलजार ने ’’रत्ती-रत्ती सच्ची मैंने जान गॅंवाई है, नच-नच कोयलों पे रात बिताई है, अखियों की नींद मैंने फॅंकों से उड़ा दी, गिन-गिन तारे मैंने उँगली जलाई है’’ जैसे बिम्ब जरीवाले नीले आसमान के तले बिखेरे है और पूरी दुनिया में इसका जादू सर चढ़ कर बोल रहा है।
यह कोई नहीं कहता कि ’’स्लमडॊग’’ गुलजार का सर्वश्रेष्ठ है, पर यह भी उनकी रचनात्मक का एक ऐसा योगदान है जिसने रहमान के संगीत में हिंदुस्तानी लफ्ज दिए जिसकी वजह से एकेडमी अवार्ड के मंच पे सबने एक स्वर में कहा- जय हो! रहमान के सरगम की उमगती चढ़ाई पर गुलजार की कविता ने कुछ ठोस पड़ाव दिए और इस अदभुत समां को अंतर्राष्टीªय मंच पर उद्घोष मिला-जय हो! हमारे मंदिरों, चैपालों, गोष्ठियों से उठ कर एक रोजमर्रा की अभिव्यक्ति गूँज उठी - जय हो!
तो मुद्दा यह नहीं कि ’लगान’, ’ब्लैक’, या ’तारे जमीं पर’ को ऒस्कर क्यों नहीं मिला? मिलना चाहिए था। यदि लगान को मिल जाता तो भाई लोग उसमें भी गुगली फेंकते कि कबड्डी और गुल्ली-डंडा खेलने वालों के बीच क्रिकेट का बुखार फैले, इसलिए लगान को ऒस्कर मिला। न मिलने पर कहने वाले कहते कि अमेरिका का ऒस्कर बेसबॊल या फुटभॊल पर आधारित कहानी पर मिल सकता था, क्रिकेट तो वहाँ का पॊपुलर खेल है नहीं। ’’ब्लैक’’ या ’’तारे जमीं पर’’ भी उम्मीद की लौ जलाने वाली फिल्मे हैं, फिर क्यों स्लमडॊग की उम्मीद को ही ऒस्कर से नवाजा गया? मुद्दा इन सवालों का नहीं हैं, दरअसल मुद्दा यह है कि ऒस्कर मिलने पर हम खुशी क्यों न मनाएँ? पप्पू के पास होने पर चॊकलेट खाएँ या लड्डू, कुछ मीठा तो होना चाहिए न। हो सकता है कि इसे ऒस्कर नहीं मिलता तो फिर भी हम रहमान के सुर में सुर मिलाकर ’जय हो’ तो गाते ही, क्योंकि यह खूबसूरत रचना बन पड़ी है। या फिर जैसा मैंने शुरुआत में कहा कि हम उदास हो कर एक बोझिल विमर्श करने लगते कि फिल्मों में किस थीम पर लिखा जाना चाहिए और किस पर नहीं। दरअसल फिल्में बनाते समय कोई इतना दूरदर््शी नहीं हो पाता होगा कि वह ऒस्कर की जीत को दिमाग में रख कर फिल्म बनाए। फिल्म बनने के बाद जरूर अपेक्षित श्रेणी में नामांकन की कोशिश होती होगी और जीतने की ख्वाहिश। ’स्लमडोग’ को ऒस्कर मिला तो क्यों मिला, और भी बेहतर फिल्में बनती हैं? न मिला तो क्यों न मिला, इतनी अच्छी फिल्म थी- यह रोना निदा फाजली के खयाल को पुख्ता करना है-’’दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’’ तो दोस्तो, हर वक्त का रोना भी बेकार का रोना है।
यह मौका पॊपुलर बनाम गंभीर के विवाद का भी नहीं। जिस तरह पॊपुलर होना हमेषा श्रेष्ठ होने का पर्याय नहीं, उसी तरह सिर्फ गंभीर होना हमेशा रचनात्मकता का पर्याय भी नहीं। फिर सिनेमा जैसे माध्यम में कौन चाहेगा कि वह पॊपुलर और सफल न हो। वैसे भी रहमान रोजा के जमाने से और गुलजार बंदिनी या काबुलीवाला के जमाने से जो कुछ लगातार रच रहे हैं, वह सिर्फ पॊपुलर होना नहीं है। पुकुट्टी ने भी जो ध्वनि संयोजन किया है, वह जाहिर है कि पूना इंस्टीट्यूट के दिनों से उनकी सतत साधना का ही परिणाम है। यह अलबत्ता संयोग है कि एकेडमी अवार्ड के मापदंडों पर बनी और अमेरिका में प्रदर्शित एक अंग्रेजी फिल्म में होने की वजह से इन सबको ऒस्कर मिला, वरना हिंदुस्तानी संदर्भ में सब मानेंगे कि रहमान या गुलजार की पहचान पुरस्कारों की मोहताज नहीं।
तो आइए, जो हुआ उसका जश्न मनाएँ और जो होना चाहिए उसके लिए आगे कोशिश करें। किसने रोका है इससे बेहतर लिखने से, इससे बेहतर संगीत की रचना करने से, और इससे बेहतर फिल्म बनाने से। न तो ऒस्कर का यह आखिरी साल है, न ही ऒस्कर इकलौता सम्मान है और न ही जिंदा शामियाने के तले लफ्जों, धुनों, इंसानी हुनर और दानिशमंदी की महफिल अभी खत्म हुई है। फिलहाल दबे मन से नहीं, सुखविंदर की तरह खुले गले से रहमान, गुलजार, रेसूल पुकुट्टी, लवलीन टंडन, राज आचार्य, रूबीना, इस्माइल, आयुष, तनय, तन्वी, इरफान खान, अनिल कपूर तथा डेनी ब्वायल के लिए कोरस में बोलने का वक्त है- जय हो!
- विनोद खेतान
429, हवा सिंह ब्लॊक, खेल गाँव,
नई दिल्ली-110049.
429, हवा सिंह ब्लॊक, खेल गाँव,
नई दिल्ली-110049.
आस्कर को लेकर लिखा गया आलेख हमारे गीतकारों
जवाब देंहटाएं,संगीतकारों और कलाकारों की विस्तृत जानकारी देता
हुआ यथार्थ को भी उजागर कर रहा है,
भविष्य में भी आशाओं और प्रयासों की
ओर संकेत अच्छा लगा
- विजय
जय हो!!
जवाब देंहटाएंभये, रिज़र्वेशन का ज़माना है:) खुल कर दाद देने पर भी रिज़र्वेशन है। जय हो:)
जवाब देंहटाएंbahut achcha lekh hai .manav ko hamesha sakartmak soch rakhani chahiye.jo mil gaya uski khushi ko jo nahi mila ke rone ki nadi mai dubo nahi dena chhiye.
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