श्रीलंका से सबक ले पाकिस्तान

श्रीलंका से सबक ले पाकिस्तान

डॉ.वेदप्रताप वैदिक

मुल्लैतिवू के पतन ने लिट्टे की कमर तोड़ दी है। प्रभाकरन के छापामार उसी तरह इतिहास के विषय बन जाएँगे, जैसे कि खालिस्तानी आतंकवादी बन गए हैं। श्रीलंका की वर्तमान स्थिति पर बाइबिल का वह कथन लागू हो रहा है कि जो तलवार से उपर चढ़े थे, वे तलवार से ही नीचे गिर गए हैं। तमिल छापामारों को श्रीलंका की सरकार ने ही नहीं, भारत और नॉर्वे ने भी मनाने की बहुत कोशिश की, कई बार छोटे-मोटे युद्ध विराम भी किए लेकिन लातों के भूत बातों से कब माननेवाले हैं। अब हालत यह है कि प्रभाकरन की फौजों का कब्जा मुश्किल से 30-40 वर्गमील में सिकुड़ गया है। लगभग तीन साल पहले प्रभाकरन का दावा था कि वे लगभग 6 हजार वर्गमील क्षेत्र पर अपनी समानांतर सरकार चला रहे हैं। उनकी तथाकथित सरकार बाकायदा फौज रखती थी, टैक्स उगाहती थी और दम भरती थी कि वह स्वतंत्र तमिल ईलम की स्थापना करके ही रहेगी। लेकिन श्रीलंकाई फौजों के हमलों ने तमिल छापामारों की हड्डियों में कॅंपकॅंपी दौड़ा दी है। पिछले कुछ हफ्‌तों में उन्होंने किलिनोच्चि, एलिफंटा पास, जाफना और अब मुल्लैतीवू जिस तरह खाली किया है, उससे प्रकट होता है कि तमिल फौजे सिर पर पाँव रखकर भाग रही हैं।

श्रीलंकाई सेनापति शरत्‌ फोनसेका ने ठीक ही कहा है कि वे 95 प्रतिशत युद्ध तो जीत ही चुके हैं। अब तो बस प्रभाकरन को गिरफ्‌तार करना बाकी रह गया है। प्रभाकरन के कभी दाएँ हाथ रहे कमांडर करूणा का कहना है कि वह घिर गया है। अब उसका भागना मुश्किल है। मलेशिया एकमात्र देश है, जहाँ वह छिप सकता है लेकिन वह देश पहले से ही सतर्क है। फोनसेका का कहना है कि लिट्टे से अब बात करने का सवाल ही नहीं उठता। अब तो पहले वे आत्म-समर्पण करें। जिन दो लाख तमिलों को उन्होंने अपना मानव-कवच बना रखा है, उन्हें वे पहले मुक्त करें। श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष कहते हैं कि अगर हमें उन बेकसूर तमिलों का ख्याल नहीं होता तो अब तक हमारी फौजें लिट्टे का समूलोच्छेद कर देती। युद्ध-क्षेत्र में फँसे तमिलों को रसद आदि पहुँचाने का काम श्रीलंका सरकार मुस्तैदी से कर रही है। भारत तथा अनेक पश्चिमी राष्ट्र भी मदद कर रहे हैं।


गहमागहमी के इस दौर में श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष ने जबर्दस्त कूटनीतिक दाँव दिया है। उन्होंने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करूणानिधि, प्रतिपक्ष की नेता जयललिता और अन्य सभी प्रमुख तमिल नेताओं को कोलंबो निमंत्रित किया है। उनका कहना है कि ये नेता कोलंबो पहुंचकर लिट्टे के छापामारों से आग्रह करें कि वे डेढ़-दो लाख तमिलों को अपने बंधन से मुक्त करें। इन बेकसूर तमिल नागरिकों को श्रीलंका सरकार पूर्ण सुरक्षा प्रदान करेगी और यदि छापामारों ने सच्चे दिल से आत्म-समर्पण कर दिया तो उन्हें लोकतांत्रिक मुख्यधारा में शामिल होने का मौका भी मिलेगा। राजपक्ष के इस आश्वासन पर अवश्य विश्वास किया जा सकता है, क्योंकि कमांडर करूणा, जो कल तक प्रभाकरन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे थे, आज श्रीलंका के पूर्वी प्रांत में लोकतांत्रिक सरकार में भागीदारी कर रहे हैं। राजपक्ष की इस पहल पर हमारे तमिल नेताओं की प्रतिक्रिया क्या होगी, इसका अनुमान हम पहले से ही लगा सकते हैं। वे इस पहल की भर्त्सना करेंगे। वे कहेंगे कि हम तमिलों के हत्यारों से हाथ कैसे मिलाएँ ?

वे सारे संसार में राजपक्ष के विरूद्ध शोर मचाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उनकी कोई नहीं सुन रहा है, भारत सरकार भी नहीं। केंद्र सरकार को कई बार धमकियाँ मिल चुकी हैं कि तमिल पार्टियाँ अपना समर्थन वापस ले लेंगी लेकिन भारत सरकार वही कर रही है, जो उसे भारत के हित में करना चाहिए। वह ब्लेकमेल के आगे घुटने नहीं टेक रही है। उसने अपने विदेश सचिव को कोलंबो भी भेज दिया लेकिन उसने वहाँ जाकर भारत की तमिल राजनीति को श्रीलंका पर थोपने की कोशिश नहीं की। श्रीलंका के सेनापति ने खुले-आम स्वीकार किया है कि भारत उन्हें सैन्य-प्रशिक्षण दे रहा है और हवाई निगरानी के उपकरण भी ! वास्तव में भारत-श्रीलंका को आक्रामक शस्त्रास्त्र नहीं दे रहा है लेकिन वह तहे-दिल से चाहता है कि लिट्टे का समूलोच्छेद हो जाए। लिट्टे ने राजीव गाँधी के खून से ही अपने हाथ नहीं रँगे हैं, उसने श्रीलंका के अनेक श्रेष्ठ तमिल और सिंहल नेताओं की हत्या भी की है। लिट्टे की हिंसा में 70 हजार से ज्यादा नागरिक मारे गए हैं और लाखों बेघर हुए हैं। ये उजड़े हुए तमिल भी लिट्टे का विनाश चाहते हैं। दुनिया के 30 से ज्यादा देशों ने लिट्टे पर प्रतिबंध लगा रखा है। श्रीलंका के साधारण तमिल लोगों की गुप्त सहानुभूति कभी लिट्टे के साथ रहा करती थी लेकिन अब वह भी समाप्त हो गई हैं, क्योंकि लिट्टे अब लगभग फाशीवाडी संगठन बन गया था और वह तमिलों पर भी अत्याचार करने लगा था। इसी तरह श्रीलंका और भारत के बाहर बसे लाखों तमिलों से मिलनेवाला राजनीतिक और वित्तीय समर्थन पर धीरे-धीरे सूखने लगा था। लिट्टे की अपनी अंदरूनी फूट ने तो उसे कमजारे किया ही, प्रभाकरन की बढ़ती हुई उम्र और थकान ने भी छापामारों का मनोबल गिरा दिया था। यदि लिट्टे को श्रीलंका के तमिलों का व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ होता तो वह बुलेट की बजाय बेलेट के सहारे अपनी सत्ता कायम करता !


लिट्टे के छापामारों ने अपनी काली करतूतों से हमारी तमिल जनता को भी अपने खिलाफ कर लिया है। लिट्टे की मौत पर आँसू बहानेवाले अब तमिलनाडु में उतने नहीं हैं, जितने 20 साल पहले थे। इसीलिए हमारे तमिल राजनेता भी मगर के आँसू बहाने के अलावा क्या कर सकते हैं। करुणानिधि की चिल्लपों को तमिलनाडु के अन्य नेता नौटंकी की संज्ञा दे रहे हैं। लिट्टे का औचित्य इतना रह गया है कि उसकी तुलना हमास से भी नहीं की जा सकती। जितने देशों ने युद्ध-विराम के लिए इस्राइल को दबाया, उसके मुकाबले लिट्टे के पक्ष में कौन बोला ? एक देश भी नहीं, क्योंकि लिट्टे श्रीलंका के तमिलों की रक्षा के लिए नहीं, खुद की रक्षा के लिए लड़ रहा था। लिट्टे बिल्कुल अकेला पड़ गया है और चारों तरफ से घिर गया है। लिट्टे का सफाया सिर्फ श्रीलंका के लिए ही नहीं, सारे
दक्षिण एशिया के लिए स्वागत योग्य घटना है।

क्या पाकिस्तान श्रीलंका से कोई सबक लेगा ? यदि श्रीलंका जैसा छोटा-सा देश, जिसके चारों तरफ के समुद्री दरवाजे खुले हुए हैं, एक नियमित सेना का विनाश कर सकता है तो पाकिस्तान अपने तालिबान और कट्टरपंथियों को ठिकाने क्यों नहीं लगा सकता ? श्रीलंका में सच्चा लोकतंत्र है और उसकी फौज नेताओं की छाती पर सवार नहीं है। वह आज्ञाकारी है। श्रीलंका के नेता और फौजी पाकिस्तानियों की तरह अरबों डॉलर डकार जाने में माहिर नहीं हैं। वे राष्ट्रभक्त हैं, इसीलिए आज वे खून के दरिया से तैर कर बाहर निकल आए हैं। पाकिस्तान को जितनी बेपनाह मदद पश्चिमी देशों ने दी है, यदि उतनी मदद श्रीलंका को मिली होती तो लिट्टे का सफाया अब से दस साल पहले ही हो जाता। यदि पाकिस्तान अब भी अपनी पुरानी लीक पर चलता रहा तो वह अपनी संप्रभुता तोखो ही देगा, रक्त-स्नान से भी मुक्त नहीं होगा।


3 टिप्‍पणियां:

  1. जब लिट्टे नेस्‍तनाबूद हो सकता है तो तालिबानी भी होंगे ही अगर पाकिस्‍तान सबक ले। डा0 वैदिक का विश्‍लेषण सटीक है।

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  2. लिट्टे,खालिस्तान,माआेवाद,तालिबान एक विचारधारा है। आसानी से इसे खत्म नही किया जा सकतां। किसी भी आंदोलन को तोड़ने का सरल उपाए है,उसे लंबा खींचों। उसमें अपराधी आ जाएगें । वे ही आंदोलन को खत्म कर देंगे। आंदोलनकारी युवाआेके दिलों में इस प्रकार का जहर भर देते है। कि उसके कारण युवा पढा़ई गई विचारधारा के गुलाम हो जातें है।

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  3. लिट्टॆ और तालिबान में अंतर यह है कि मज़हब आडे आता है। पर जब पाकिस्तान के सिर पर आतंकवाद का टपका पडेगा , तब उन्हें बात समझ में आएगी।

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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