बैंकिंग उद्योग के लिए एक प्रस्ताव
राजकिशोर
राजकिशोर
बैंकिग और बीमा, ये दो उद्योग ऐसे हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि ये अपनी पूँजी से नहीं, अपने ग्राहकों की पूँजी से चलते हैं। जो कंपनी बीमा करती है, वह अपने पास से पैसा नहीं लौटाती। उसने जिनका बीमा किया हुआ है, उन्हीं के द्वारा जमा किए गए पैसे में से क्लेम निपटाती है। चूँकि हर साल जितने लोग क्लेम लेते हैं, उससे अधिक लोग बीमा करवाते हैं और किस्तें अदा करते हैं, इसलिए बीमा कंपनियों के पास अथाह पैसा जमा हो जाता है। बैंकों की अमीरी का रहस्य भी यही है। बैंक ऋण दे कर पैसा कमाते हैं। लेकिन यह ऋण वे अपनी जेब से नहीं देते। ग्राहकों द्वारा जमा किया गया पैसा उनकी पूँजी बन जाता है, जिससे उनमें ऋण देने की क्षमता आती है। इस तरह बैंक दूसरों के पैसे से अपना पैसा बनाते हैं। सीधे शब्दों में कहा जाए तो दोनों ही पाप करते हैं। यह निजी पूँजी नहीं है। सार्वजनिक पूँजी है, इसलिए इसका इस्तेमाल जन हित में ही होना चाहिए।
इस्लाम में सूद लेना हराम माना गया है। इसके लिए उसकी जितनी तारीफ की जाए, कम है। इसमें कोई शक नहीं कि पैसे से पैसा पैदा नहीं होता। अमरूद के पेड़ से अमरूद पैदा होता है, गाय के पेट से बछड़ा निकलता है और स्त्री बच्चा देती है। लेकिन लोहे से लोहा पैदा नहीं होता न लकड़ी से लकड़ी पैदा होती है। कागज का रुपया भी ऐसा ही एक निर्जीव पदार्थ है। उसमें वैसा ही कागज पैदा करने की क्षमता कहाँ ! फिर भी अगर सदियों से यह संभव होता रहा है, तो इसीलिए कि ऋण लेनेवाले की मजबूरी से फायदा उठाने की कोशिश की जाती रही है। उधार देना सहयोग करने की क्रिया होनी चाहिए न कि मुनाफा कमाने की।
जहाँ मुनाफा होता है वहीं नुकसान होने की संभावना होती है। यही कारण है कि बैंकों के डूबते रहने की घटना होती रहती है। आजादी के पहले हर साल कुछ बैंक डूबते थे और हजारों ग्राहकों का पैसा मारा जाता था। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने जब बैंकिंग उद्योग को रेगुलेट करना शुरू किया, तब बैंक डूबने की घटनाएँ बंद होने लगीं। अब यदा-कदा ही ऐसा होता है। उस स्थिति में रिजर्व बैंक आवश्यक कार्रवाई कर ग्राहकों के पैसे का इंतजाम कर देता है। लेकिन अमेरिका और कुछ अन्य देशों में ऐसा नहीं है। जहां बैंकों पर नियंत्रण नहीं होता, वे लालच में गलत सौदे करने लगते हैं और समय पर पैसे की वापसी नहीं होती, तो दिवालिया होने लगते हैं। बैंक ग्राहकों का पैसा डूब जाता है। इस बार अमेरिका में यही हुआ, जिससे वहाँ मंदी आ गई। अब अमेरिका की मंदी पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही है।
बड़ा सवाल यह नहीं है कि बैंकिंग उद्योग कैसे हमेशा फूलता-फलता रहे। मुनाफाखोरी के किसी धंधे में समाज की क्या रुचि हो सकती है। समाज का काम मुनाफाखोरी को रोकना है। बैंकिंग उद्योग अगर यह तय करे कि वह दस प्रतिशत सालाना से ज्यादा मुनाफा नहीं कमाएगा, तो यह उद्योग प्राइवेट हाथों में रह सकता है। अभी हालत यह है कि बैंक कई सौ गुना मुनाफा कमा रहे हैं। पैसा जमा करनेवालों को कम ब्याज देते हैं और ऋण लेनेवालों से ज्यादा ब्याज वसूल करते हैं। बीच का पैसा खा कर वे मोटाते जाते हैं। चूँकि ऋण देने के पीछे कोई सामाजिक लक्ष्य नहीं होता, इसलिए वे गरीबों को ऋण नहीं देते ताकि वे अपने जरूरी काम निपटा सकें, बल्कि अमीरों को (ताकि वे इस पैसे से और पैसा पैदा कर सकें) और मध्य वर्ग के लोगों को (क्योंकि इनके पास कुछ पैसा पहले से होता है) ऋण देते हैं। इस तरह बैंकिंग पैसे का खेल बन कर रह गई है, जिससे गरीबों का या वास्तविक जरूरतमंदों का कोई भला नहीं होता। गरीब भले ही ईमानदार हो और समय पर पैसा चुकाने की नीयत रखता हो, पर उसे ऋण नहीं मिलेगा, क्योंकि उसके पास जमानत देने के लिए कुछ नहीं होता।
इन सब बुराइयों का इलाज है। इलाज यह है कि पैसे पर सूद लेना और सूद देना, दोनों बंद कर दिए जाएँ। यह दलाली की कमाई है। दलाली की कमाई से कोई देश फूलता-फलता नहीं है। कायदे से होना यह चाहिए कि जो लोग बैंकों में पैसा जमा करते हैं, वे उसकी रखवाली के लिए एक निश्चित मात्रा में प्रबंधकीय शुल्क दें। यह बैंक की असली कमाई होगी। इस कमाई से जरूरतमंद लोगों को ऋण दिया जा सकता है। इस ऋण पर भी ब्याज न ले कर प्रशासनिक शुल्क लिया जाना चाहिए। इन दोनों शुल्कों की राशि से ही बैंकों को अपना कामकाज चलाना चाहिए। इस तरह बैंकिंग मुनाफे का उद्योग न रह कर जन सेवा का उपक्रम बन जाएगी। इसे जन बैंकिग कहा जा सकता है।
सवाल उठता है कि रुपया जमा करनेवालों के पैसे का क्या जाए। पैसे को अचल रखना ठीक नहीं है। उसका प्रवाह बने रहना चाहिए। नहीं तो अर्थव्यवस्था कुछ हद तक ठप हो जाएगी। लेकिन दूसरे के पैसे का इस्तेमाल बहुत सावधानी से होना चाहिए। इसलिए देश के अर्थशास्त्रियों को आपस में विचार करके इस विषय में अपना मत देना चाहिए। यह हो सकता है कि इस जमा राशि का एक हिस्सा छोटे उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने के लिए खर्च किया जाए और एक हिस्सा मध्य वर्ग तथा निर्धन लोगों को ऋण देने में खर्च किया जाए। इनसे किसी तरह की जमानत न ली जाए। जैसा कि उपर कहा गया है, ऋण की सभी रकमों पर सिर्फ प्रबंधकीय शुल्क लिया जाए। अमीर संस्थानों को ऋण देने की कोई जरूरत नहीं है। वे अपने शेयरहोल्डरों से जितना अधिक पैसा ले सकते हैं, लें और उसी से धंधा करें। जहाँ तक ऋण की अदायगी का सवाल है, यह जगजाहिर हो चुका है कि ज्यादातर बड़े ऋण प्राप्तकर्ता ही बैंकों को धोखा देते हैं और उनका पैसा डकार जाते हैं। जो छोटी रकमें लेते हैं, उनमें से ज्यादातर ऋण चुका देते हैं। नई व्यवस्था में जो लोग ऋण नहीं चुका पाते, उन्हें पुलिस, पंचायत आदि की सहायता से ऋण चुकाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। बदले में उन्हें दिवालिया घोषित कर (ताकि वे भविष्य में ऋण न ले सकें) उनसे विभिन्न कार्यक्रमों में मजदूरी भी कराई जा सकती है। यह भी हो सकता है कि उन्हें श्रम जेल में डाल दिया जाए और वहाँ काम करवाया जाए। जब उधार की पूरी रकम चुक जाए, तो उनकी दिवालिया वाली स्थिति खत्म की जा सकती है। फिर भी बैंकों को घाटा हो सकता है। चूंकि बैंक जन सेवा कर रहे हैं, इसलिए इस घाटे की पूर्ति सरकार को करनी चाहिए। सरकार को इसलिए कि वह मुनाफा कमाने के लिए नहीं, जनता का जीवन सुगम बनाने के लिए चुनी जाती है।
सीएनबीसी टीवी चैनल में काम करनेवाली और एक समय हमारे बगल में रहनेवाली एक लड़की को, जो बिजनेस समाचार देखती है, जब मैंने यह स्कीम सुनाई, तो उसने खट से कहा कि यह तो सोशलिस्टिक बैंकिंग है। वर्तमान बैंकिंग के लिए उसने कैपिटलिस्टिक बैंकिंग की संज्ञा का उपयोग किया। निश्चय ही वह एक क्षण में मेरी बात समझ गई। क्या मैं पाठक-पाठिकाओं से खूब सोच कर यह बताने का निवेदन कर सकता हूँ कि कौन-सी बैंकिंग समाज के ज्यादा हित में होगी - कैपिटलिस्टिक या सोशलिस्टिक?
(लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं)
आपके विचार अच्छे हैं लेकिन बाजार के हिसाब से नहीं हैं इसलिये चलने से रहे। :)
जवाब देंहटाएंकर्ज के रूप में दी जाने वाली राशिः को आप ब्याज कहें या कोई और कुछ, रहेगा तो वह बैंक के लिए एक आमदनी का जरिया. अन्य देशों की बैंकिंग व्यवस्था और भारतीय बैंकिंग में बहुत अन्तर है. हमारे यहाँ बैंकों के लिए आवश्यक है की वे कुल ऋण का लगभग ४०% प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों को सुलभ कराएँ वह भी सस्ते ब्याज की डर पर. किसी प्रकार की जमानत की मांग नहीं की जा सकती. इसके अतिरिक्त सरकार की विभिन्न गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में भी दिल खोल कर वित्त पोषण किया जाना होता है. इन सब के चलते अलाभकारी आस्तियों की मात्रा इतनी अधिक हो गई थी की कई बैंकों का बट्टा बैठ गया. सरकार ने उनकी मदद भी की. अतः आपका लेख पढने में तो पीगू के कल्याणकारी अर्थशास्त्र के अनुरूप बड़ा अच्छा लग रहा है. लेकिन स्पष्टतः भारतीय बैंकिंग के वर्त्तमान स्थिति से अनजान रह कर की जा रही बातें हैं.
जवाब देंहटाएंएक अर्थशास्त्री हुए हैं माथस जिन्होंने कहा था कि जनसंख्या ज्योमेट्रिक और साधन रिथ्मेटिक प्रोग्रेशन में बढते है और इसलिए हमें कमज़ोर की सहायता नहीं करना चाहिए -SURVIVAL OF THE FITTEST. यह एक नकारत्मक सोच ही समझी जाएगी। कमज़ोर की सहायता के लिए पैसा ज़रूरी है। और उसके लिए बीमा व बैंक कार्य कर रहे है जो आज के युग में अनिवार्य भी लगते हैं। इससे लाखों लोगों को रोज़गार भी मिल रहा है। इन्हीं बैंकों के माध्यम से लाखों बेरोज़गारों को वित्तीय सहायता भी मिल रही है जिससे वे अपने पैरों पर खडे हो सके। हां. यदि कोई बेईमानी करके लूट रहा है तो उसे कौन रोक सकता है - बैंक नहीं तो कोई और संस्था ही सही। उसे तो कोई नहीं रोक सकता- खास कर जब तंत्र ही भ्र्ष्ट हो।
जवाब देंहटाएंHelo,
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