भारत सावित्री : भूमि से माँ का रिश्ता



भारत सावित्री : भूमि से माँ का रिश्ता



सूर्यकांत बाली




जैसे ऋग्वेद का विभाजन मंडलों में है, वैसे ही अथर्ववेद काण्डों में बँटा है। अथर्ववेद के बारहवें काण्ड का पहला सूक्त है- भूमिसूक्त, जिसे विद्वान लोग कई बार पृथ्वीसूक्त भी कह दिया करते हैं। नाम से ही जाहिर है कि इसमें भूमि को लेकर कवि ने अपने उद्गार लिख दिए हैं। उद्गारों से परिचित हों इससे पहले दो बातें कह दी जाएँ। दोनों का रिश्ता इस सूक्त की मंत्र संख्या 12 से है, जिसमें एक वाक्य है – ‘माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:’ यानी यह भूमि मेरी माँ है और मैं इसका पुत्र हूँ । कैसे हमारी अपनी-अपनी धारणाएँ और व्याख्याएँ वैदिक मंत्रों का अर्थ करते वक्त हम पर हावी रहती हैं, इसी का नमूना है ये दो बातें। जैसे पश्चिमी विद्वानों ने इस देश के लोगों का मनोबल तोड़ने के लिए कई तरह की अफवाहें फैला दीं कि भारत कभी राष्ट्र रहा ही नहीं, इस देश के लोग भारत के थे ही नहीं, भारतवासियों का अपने देश के साथ राष्ट्रीयता के आधार पर कभी कोई नाता रहा ही नहीं, तो बजाए इसके कि दूसरी अफवाहों की तरह इन अफवाहों को भी एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देते, हमने पश्चिमी विद्वानों की कूटनीति का शिकार होकर अपना मनोबल टूटने दिया और पुराने साहित्य में उन अंशों को ढूँढने में लग गए कि जिससे हम पुराने भारत में भी वह राष्ट्रवाद दिखा सकें, जिस तरह का राजनीतिक राष्ट्रवाद आज की दुनिया की सोच का हिस्सा बन चुका है। इसके तहत हमने भूमिसूक्त के इस वाक्य (12.1.12) की भी राष्ट्रवादी व्याख्या कर दी कि यहाँ कवि ने भारत को अपनी माँ और खुद को उसका पुत्र कह दिया है और कि हमारे यहाँ भी आज का वैसा राष्ट्रवाद काफी पुराने समय से हो रहा है। दूसरी व्याख्या पश्चिमी विद्वानों ने की। भारत में शव को जला देने की प्रथा है और काफी पुराने समय से चलती आ रही है। पश्चिम में शव को गाड़ने की प्रथा है। हम लोग भारत के हैं ही नहीं, कहीं बाहर से इस देश में आए, इस गप्प को प्रतििष्ठत करने के घोर प्रयास में लगे पश्चिमी विद्वान यह साबित करने में लग गए कि भारत में पहले शव दफनाने की पश्चिम जैसी प्रथा थी और उसका प्रमाण है यह वाक्य- ‘माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या’ - जिसमें मृत व्यक्ति के शव को उसी तरह पृथ्वी में सहेज देने का संकेत है, जैसे कोई पुत्र अपने को माँ की गोद में लिटाकर निश्चिंत हो जाता है।


हम यह नहीं कहते कि पुराने भारत में राष्ट्रवाद जैसी भावना भारतीयों में नहीं थी। हम यह भी नहीं कहते कि शवों को पृथ्वी में गाड़ने की प्रथा नहीं रही होगी। पर निवेदन यह है कि अपनी-अपनी मूल धारणाओं की पुष्टि के लिए अत्यंत महनीय वैदिक काव्य से क्यों खिलवाड़ करना हुआ? मसलन इसी वाक्य को समेटने वाला पूरा मंत्र पढ़ें तो उसका अर्थ जानने के बाद कितना दुख होता है कि भूमि को माँ मानने वाले कवि की सहज भावनाओं को कैसे अपनी अवधारणाओं के दुराग्रह की चोट हमने पहुँचा दी है। मंत्र (12.1.12) है - जिसका अर्थ है- ‘हे पृथ्वी, यह जो तुम्हारा मध्यभाग है और जो उभरा हुआ ऊर्ध्वभाग है, ये जो तुम्हारे शरीर के विभिन्न अंग ऊर्जा से भरे हैं, हे पृथ्वी माँ, तुम मुझे अपने उसी शरीर में संजो लो और दुलारो कि मैं तो तुम्हारे पुत्र के जैसा हूँ , तुम मेरी माँ हो और पर्जन्य का हम पर पिता के जैसा साया बना रहे।’


इस तरह की संवदेना से उभरे उद्गारों को पढ़ते जाइए तो लगता है कि कवि को यह भूमि पहाड़ों और नदियों का मात्र कोई भौगोलिक पिंड नजर नहीं आ रही, बल्कि उसने पृथ्वी से अपना खून का रिश्ता जोड़ लिया है, क्योंकि भूमि ने उसे इतना कुछ दिया है, पाल-पोस कर बड़ा कर दिया है। एक मंत्र (12.1.16)में कवि पृथ्वी के प्रति इसलिए कृतज्ञता से भरा है, क्योंकि अपने भीतर समाए धन और अपनी छाती पर उगे धान्य से उसने कवि को समृद्ध कर दिया है, रईस बना दिया है- ‘पूरी दुनिया का भरण-पोषण करने वाली यह पृथ्वी वसु (धन) की खानें अपने में धारण किए है, इसकी छाती (वक्ष) सोने की है, सारा जगत उसमें समाया है, खेतों और खानों से मिलने वाली समृद्धि से अभिभूत कवि इस बात से भी चकाचौंध है कि कैसे इस भूमि पर दिन-रात पानी की प्रभूत धाराएँ बिना किसी प्रमाद के लगातार बहती रहकर उसे वर्चस्व से सम्पन्न कर रही हैं (12.1.19) ‘यस्यामाप: परिचरा समानी: अहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति, सा नो भूमिर्भूरिधारा पयोदुहा अथो उक्षतु वर्चसा।’ सूक्त में ऋषि ने सचमुच भूमि के साथ मां का नाता जोड़ लिया है और उससे वैसे ही दूध की कामना कर रहा है जैसे कोई शिशु अपनी मां से दूध की कामना करता है – ‘सा नो भूमिर्विसृजतां माता पुत्राय मे पय:’ (12.1.10), यानी यह भूमि मेरे लिए वैसे ही दूध (पय:) की धारा प्रवाहित करे, जैसे माँ अपने बेटे के लिए करती है। पर वह भूमि माँ है कैसी? कवि उसकी दिव्यता से अभिभूत है और कल्पना करता है। सूक्त में कम से कम तीन स्थानों पर सूक्तकार ने उस सत्य को खोजने का प्रयास किया है, जिसके दम पर भूमि टिकी है और जिस कारण वह इसमें माँ के दर्शन कर रहा है। सूक्त के पहले ही मंत्र (12.1.1) में वह कहता है कि सत्य, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ ने इस पृथ्वी को टिका रखा है। आठवें मंत्र में कवि फिर कहता है कि पृथ्वी का हृदय सत्य से आ॓तप्रोत है। सत्रहवें मंत्र में भी कवि कहता है कि इस पृथ्वी को धर्म ने धारण कर रखा है । तेजी से उपभोक्तावादी बनते हम इन मंत्रों से काफी कुछ सीख सकते हैं।



1 टिप्पणी:

  1. पाश्चात्य चश्में से अपनी वैदिक विरासत को जानने की कोशिश मैक्स मूलर के समय से ही हुई थी। इस विडम्बना को दयानन्द सरस्वती ने सुधारने की कोशिश की।

    हमें वेदों के अध्ययन से बहुत सी उपयोगी बातें पता चलेंगी जिन्हें हमें पश्चिम ने सिखाया है। इसे इसी तरह लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।

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