राग दरबारी
जैसे मुन्नाभाई को गाँधी जी दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही मुझे कभी - कभी कार्ल मार्क्स दिख जाते हैं। जिस दिन बराक ओबामा जीते, उसकी शाम यह घटना हुई। मैं एक मित्र के बार-बार कहने पर टहल रहा था, तभी देखा, मार्क्स सामने से चले आ रहे हैं। बहुत परेशान दिखाई पड़ रहे थे। मैंने सोचा कि कॉमरेड से पूछूँ कि नया क्या हुआ है जो आपको तंग कर रहा है, तभी वे रुक गए और मेरी आँखों में आँख डाल कर बोले, 'क्या तुम भी मेरी वापसी से बहुत खुश हो?'
मैंने पहले मन ही मन उन्हें प्रणाम किया और फिर जवाब दिया, ''वापसी? क्या किसी चीज की वापसी होती है? आपने ही लिखा है कि कोई घटना दूसरी बार घटती है, तब वह कॉमेडी हो जाती है।'
मार्क्स के चेहरे पर थोड़ा-सा संतोष उभरा। फिर वे अपने मूड में आ गए, 'अमेरिका और ग्रेट ब्रिाटेन की सरकारों ने अपने कुछ पूंजीवादी संस्थानों को बचाने के लिए थोड़ा-सा सरकारी रुपया लगा दिया, तो तुम पत्रकारों ने लिखना शुरू कर दिया कि यह तो मार्क्स की वापसी है। तुमने शायद ऐसा नहीं लिखा है, पर जो पत्रकार तुमसे अधिक पढ़े जाते हैं, उनका तो यही कहना है! मैंने भी पत्रकारिता की है, अमेरिकी अखबार में की है। उन दिनों के पत्रकार तो इतने जाहिल नहीं हुआ करते थे। अब जैसे-जैसे साधन बढ़ रहे हैं, पत्रकारों को ज्यादा पैसा मिलने लगा है, वे सिर्फ साक्षर भर दिखाई देते हैं। मार्क्स की वापसी ! हुंह! क्या सिर्फ सरकारीकरण से ही समाजवाद की ओर बढ़ा जा सकता है? मैं कम्युनिस्ट हूँ, न कि सरकारवादी। मेरी नजर में तो जहाँ भी सरकार है, वहाँ विषमता और अन्याय है। मेरे रास्ते पर चले होते, तो अभी तक सभी सरकारें खत्म हो जातीं और समाज सक्रिय हो जाता। समाज को कमजोर कर जब सरकार मजबूत होती है, तो वह और बड़ी डायन हो जाती है।'
मैंने अपनी बात करना जरूरी समझा, 'कॉमरेड, मेरे लिए तो आपकी वापसी का कोई अर्थ ही नहीं है, क्योंकि मेरा मानना है कि आप तो पहली बार भी नहीं आए थे। जो आया था, वह मार्क्स नहीं, उसके नाम पर कोई बहुरुपिया था।'
मार्क्स ने अपनी दाढ़ी खुजलाई, 'तुम ठीक कहते हो। मैं जिन्दा होता, तो कम्युनिस्ट कहे जाने वाले सोवियत संघ और लाल चीन की धज्जियाँ उड़ा देता। याद नहीं आ रहा कि मैंने कहीं लिखा है या नहीं, पर तुम मेरे नाम से नोट कर सकते हो कि शिष्य लोग ही अपने गुरु का नाम डुबोने में आगे रहते हैं। तुम्हारे गाँधी के साथ क्या हुआ? मुझे उसके किसी ऐसे अनुयायी का नाम बता सकते हो जिसे देख कर उस विचित्र आदमी की याद आती हो? मेरे साथ भी यही हुआ। यही होना ही था। इसीलिए मैंने बहुत जोर दे कर कहा था, डाउट एव्रीथिंग (हर चीज पर शक करो)। मेरा नाम लेनेवालों ने यह तो किया नहीं, मेरे विचार को ही उलट दिया। उनका सिद्धांत यह था, डाउट एव्रीबॉडी (हर आदमी पर शक करो)। खाली शक करने से कहीं इतिहास आगे बढ़ता है?'
मैं चुप रहा। अब इतनी नम्रता तो आ ही गई है कि बड़ों के सामने ज्यादा मुँह नहीं खोलना चाहिए।मार्क्स भी कुछ क्षणों तक खामोश रहे। फिर धीमे से बोले, 'और यह ओबामा! पता नहीं सारी दुनिया इस पर क्यों फिदा है! ठीक है, एक अर्ध-काले को अमेरिका का राष्ट्रपति चुन लिया गया है। हाँ, उसे अर्ध-काला ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि उसकी माँ श्वेत थी। अगर उसके माँ-बाप दोनों ही काले होते, तो मुझे शक है कि वह चुना जाता। फिर वह ब्लैक राजनीति में भी कभी नहीं रहा। काला है, पर गोरों जैसी बातें करता है। कोई यह भी पूछना नहीं चाहता कि उसके विचार क्या हैं, वह अमेरिका को कैसे ठीक करेगा, अमेरिका को सभ्य राष्ट्र बनाने का उसका कार्यक्रम क्या है आदि-आदि। सब इसी बात से इतने खुश हैं कि ओबामा राष्ट्रपति बन गए। मैं निराशावादी तो नहीं हूँ , पर आशा के कारण भी दिखाई नहीं देते।'
मैं बोला, 'शायद आपने ही लिखा है कि पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार पूँजीवादियों की कार्य समिति होती है। इस लिहाज से रिपब्लिकन पार्टी को उसका उच्च सदन और डेेमोक्रेटिक पार्टी को निम्न सदन कहना चाहिए। काफी दिनों के बाद हेरफेर हुआ है, तो खुशी क्यों न मनाई जाए?'
मार्क्स की आँखें धीरे-धीरे लाल हो रही थीं। वे बोले, 'मैं मनहूस आदमी नहीं हूँ कि कोई खुशी मनाए तो मेरे पेट में दर्द शुरू हो जाए। जरूर खुशी मनाओ, पर जहाँ दस-बीस फुलझडियाँ ही काफी हों, वहाँ दिवाली मनाने का क्या तुक है? अनुपात का कुछ तो बोध होना चाहिए।'
तभी हमारे बगल में एक कार रुकी। उसके चालक की सीट से मेरे एक परिचित ने मुँह बार निकाला और पूछा, 'सर, अकेले-अकेले किससे बात कर रहे हैं?' परिचय कराने के लिए मैंने मार्क्स ओर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। मार्क्स हवा में विलीन हो चुके थे।
जैसे मुन्नाभाई को गाँधी जी दिखाई पड़ते हैं, वैसे ही मुझे कभी - कभी कार्ल मार्क्स दिख जाते हैं। जिस दिन बराक ओबामा जीते, उसकी शाम यह घटना हुई। मैं एक मित्र के बार-बार कहने पर टहल रहा था, तभी देखा, मार्क्स सामने से चले आ रहे हैं। बहुत परेशान दिखाई पड़ रहे थे। मैंने सोचा कि कॉमरेड से पूछूँ कि नया क्या हुआ है जो आपको तंग कर रहा है, तभी वे रुक गए और मेरी आँखों में आँख डाल कर बोले, 'क्या तुम भी मेरी वापसी से बहुत खुश हो?'
मैंने पहले मन ही मन उन्हें प्रणाम किया और फिर जवाब दिया, ''वापसी? क्या किसी चीज की वापसी होती है? आपने ही लिखा है कि कोई घटना दूसरी बार घटती है, तब वह कॉमेडी हो जाती है।'
मार्क्स के चेहरे पर थोड़ा-सा संतोष उभरा। फिर वे अपने मूड में आ गए, 'अमेरिका और ग्रेट ब्रिाटेन की सरकारों ने अपने कुछ पूंजीवादी संस्थानों को बचाने के लिए थोड़ा-सा सरकारी रुपया लगा दिया, तो तुम पत्रकारों ने लिखना शुरू कर दिया कि यह तो मार्क्स की वापसी है। तुमने शायद ऐसा नहीं लिखा है, पर जो पत्रकार तुमसे अधिक पढ़े जाते हैं, उनका तो यही कहना है! मैंने भी पत्रकारिता की है, अमेरिकी अखबार में की है। उन दिनों के पत्रकार तो इतने जाहिल नहीं हुआ करते थे। अब जैसे-जैसे साधन बढ़ रहे हैं, पत्रकारों को ज्यादा पैसा मिलने लगा है, वे सिर्फ साक्षर भर दिखाई देते हैं। मार्क्स की वापसी ! हुंह! क्या सिर्फ सरकारीकरण से ही समाजवाद की ओर बढ़ा जा सकता है? मैं कम्युनिस्ट हूँ, न कि सरकारवादी। मेरी नजर में तो जहाँ भी सरकार है, वहाँ विषमता और अन्याय है। मेरे रास्ते पर चले होते, तो अभी तक सभी सरकारें खत्म हो जातीं और समाज सक्रिय हो जाता। समाज को कमजोर कर जब सरकार मजबूत होती है, तो वह और बड़ी डायन हो जाती है।'
मैंने अपनी बात करना जरूरी समझा, 'कॉमरेड, मेरे लिए तो आपकी वापसी का कोई अर्थ ही नहीं है, क्योंकि मेरा मानना है कि आप तो पहली बार भी नहीं आए थे। जो आया था, वह मार्क्स नहीं, उसके नाम पर कोई बहुरुपिया था।'
मार्क्स ने अपनी दाढ़ी खुजलाई, 'तुम ठीक कहते हो। मैं जिन्दा होता, तो कम्युनिस्ट कहे जाने वाले सोवियत संघ और लाल चीन की धज्जियाँ उड़ा देता। याद नहीं आ रहा कि मैंने कहीं लिखा है या नहीं, पर तुम मेरे नाम से नोट कर सकते हो कि शिष्य लोग ही अपने गुरु का नाम डुबोने में आगे रहते हैं। तुम्हारे गाँधी के साथ क्या हुआ? मुझे उसके किसी ऐसे अनुयायी का नाम बता सकते हो जिसे देख कर उस विचित्र आदमी की याद आती हो? मेरे साथ भी यही हुआ। यही होना ही था। इसीलिए मैंने बहुत जोर दे कर कहा था, डाउट एव्रीथिंग (हर चीज पर शक करो)। मेरा नाम लेनेवालों ने यह तो किया नहीं, मेरे विचार को ही उलट दिया। उनका सिद्धांत यह था, डाउट एव्रीबॉडी (हर आदमी पर शक करो)। खाली शक करने से कहीं इतिहास आगे बढ़ता है?'
मैं चुप रहा। अब इतनी नम्रता तो आ ही गई है कि बड़ों के सामने ज्यादा मुँह नहीं खोलना चाहिए।मार्क्स भी कुछ क्षणों तक खामोश रहे। फिर धीमे से बोले, 'और यह ओबामा! पता नहीं सारी दुनिया इस पर क्यों फिदा है! ठीक है, एक अर्ध-काले को अमेरिका का राष्ट्रपति चुन लिया गया है। हाँ, उसे अर्ध-काला ही कहा जाना चाहिए, क्योंकि उसकी माँ श्वेत थी। अगर उसके माँ-बाप दोनों ही काले होते, तो मुझे शक है कि वह चुना जाता। फिर वह ब्लैक राजनीति में भी कभी नहीं रहा। काला है, पर गोरों जैसी बातें करता है। कोई यह भी पूछना नहीं चाहता कि उसके विचार क्या हैं, वह अमेरिका को कैसे ठीक करेगा, अमेरिका को सभ्य राष्ट्र बनाने का उसका कार्यक्रम क्या है आदि-आदि। सब इसी बात से इतने खुश हैं कि ओबामा राष्ट्रपति बन गए। मैं निराशावादी तो नहीं हूँ , पर आशा के कारण भी दिखाई नहीं देते।'
मैं बोला, 'शायद आपने ही लिखा है कि पूँजीवादी व्यवस्था में सरकार पूँजीवादियों की कार्य समिति होती है। इस लिहाज से रिपब्लिकन पार्टी को उसका उच्च सदन और डेेमोक्रेटिक पार्टी को निम्न सदन कहना चाहिए। काफी दिनों के बाद हेरफेर हुआ है, तो खुशी क्यों न मनाई जाए?'
मार्क्स की आँखें धीरे-धीरे लाल हो रही थीं। वे बोले, 'मैं मनहूस आदमी नहीं हूँ कि कोई खुशी मनाए तो मेरे पेट में दर्द शुरू हो जाए। जरूर खुशी मनाओ, पर जहाँ दस-बीस फुलझडियाँ ही काफी हों, वहाँ दिवाली मनाने का क्या तुक है? अनुपात का कुछ तो बोध होना चाहिए।'
तभी हमारे बगल में एक कार रुकी। उसके चालक की सीट से मेरे एक परिचित ने मुँह बार निकाला और पूछा, 'सर, अकेले-अकेले किससे बात कर रहे हैं?' परिचय कराने के लिए मैंने मार्क्स ओर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। मार्क्स हवा में विलीन हो चुके थे।
आज कल की स्थितियों का अनूठे रूप में विश्लेशण. आभरा.
जवाब देंहटाएंhttp://mallar.wordpress.com
बराक ओबामा की विश्वसनीयता पर शक करने के लिए धन्यवाद! वैसे भी यह ग़लतफहमी किसी को नहीं पालनी चाहिए कि अमेरिकी मतदाता पूंजीवाद की जगह साम्यवाद अपनाने के लिए ओबामा को चुन कर लाये हैं! मुन्ना भाई बनने के लिए धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने शिष्य ही गुरु का नाम डुबाने में आगे रहते हैं .
जवाब देंहटाएंअच्छा हुआ आपको मार्क्स की आत्मा मिल गई और हम सबको सचेत कर दिया वर्ना हम तो सही मे ही ओबामा को काला समझ बैठे थे !
जवाब देंहटाएंआपको मार्क्स साहब ने जो बताया उस हिसाब से तो अन्य अमेरिकी राष्त्रपतियों और ओबामा या ओमामा मे कुछ भी फ़र्क नही लग रहा है ! फ़िर अश्वेत करके इतना हल्ला क्यों ? क्या ये भी हमारी तरह अश्वेतों के वोट कबाडने की राजनीति थी ?
राम राम !
यह सही है कि हर युग में शिष्य ही गुरु का नाम लेकर उन्नति की सीढियां तो चढे पर गुरु के आदर्शों को ताक पर रखा - ये गुरु मार्क्स हो या गांधी, किंग हो या लिंकन!!
जवाब देंहटाएंआप ने सही परिप्रेक्ष्य में मार्क्स को पेश किया।
जवाब देंहटाएंProminent Hindi writer RAJKISHOR, editor& thinker has written a vary good satire on focusing KARL MARX. Idea of socialism & communism has been totally distorted in process of History. Stalinist bureaucracy subverted each attainment of communist revolution in SOVIET UNION. GORBACHEV ultimately destroyed even SOVIET UNION. GANDHI was also ditched in same manner as KARL MARX.
जवाब देंहटाएं