सचाई के साथ फ्लर्ट करता मीडिया
- प्रभु जोशी
- प्रभु जोशी
आज हम गाहे-ब-गाहे सुनते रहते हैं और अख़बारों के पन्नों पर भी हमें बार-बार यह याद दिलाया जाता है कि ‘सूचना भी एक सत्ता है।’ लेकिन, इसमें संशोधन करते हुए यह कहा जाना उचित होगा कि ‘अब तो केवल ‘सूचना’ ही सत्ता है।’ कहना न होगा, कि जब से सूचना के इतने ‘सत्तावान’ होने का अहसास हमारे मीडिया को हुआ है, तभी से उसने स्वयं को लगभग ‘सर्वसत्ता’ के रूप में बिना किसी संकोच के निर्विघ्न रूप से स्थापित कर लिया है। कदाचित् यही कारण है कि ‘मीडिया’ का पूरा चरित्र अब ’सत्ता’ के चरित्र से भिन्न नहीं रह गया है।
दरअसल, किसी भी क़िस्म की ‘सत्ता’ को जो हक़ीकतन ‘सत्ता’ बनाती है; वह घटक है स्वयं ‘राज्य‘ का प्रतिरूप बन जाना। राज्य की विशेषता यही होती है कि उसी में ’दमन’ है और उसी में ’मुक्ति’ भी समाहित है। ‘दमन’ और ‘मुक्ति’, राज्य को उपलब्ध दो ‘अमोघ अस्त्र’ हैं, जिन्हें ‘श्राप और वरदान’ की तरह कहना ज़्यादा उचित होगा। राज्य को उपलब्ध इन्हीं दो आयुधों के कारण, ‘व्यक्ति’ और ‘समाज’ उससे निकटता बनाये रखने में जुटे रहते हैं। और, यह आकस्मिक नहीं कि ये दोनों ही चीजें अब ‘मीडिया’ के अधिकार में है। अर्थात् वह अब किसी ‘वामन’ को ‘अभयदान’ देकर विराट बना सकता है, तो किसी ’विराट’ पर कुपित होकर उसे वामन बना सकता है। यह खेल खेलता हुआ वह अपनी लीला में ‘राज्य’ का ही तो स्वांग रचाता है। इसमें ध्यान देने की बात यह है कि मीडिया के इस खेल में बाज़ार सबसे बड़ी भूमिका में आ चुका है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि आज हर शख्स ’बाज़ार के बीच’ है और इन दिनों ज्ञान के इलाके में खुला सबसे बड़ा बाज़ार ‘सूचना’ का है, जिसमें वह कबिरा की तरह निरबंक अकेला खड़ा । कबिरा के पास तो लकुटिया हाथ में थी, ये तो लगभग खाली हाथ ही है । हालांकि मुझे अचरज तो इस बात पर आज भी होता है कि तब बाज़ार में कबिरा लकुटिया के साथ कैसे खड़ा रह पाया होगा ? फिर लकुटिया के सहारे उसने क्या खरीद लिया होगा ? एक दफा ख़रीदने की बात भी छोड़िए, हाथ में लकुटिया लेकर उसने किसी का क्या ही बिगाड़ लिया होगा ? आज हाथ में लकड़ी लेकर पुलिस वाला तक बाज़ार में कुछ नहीं कर पाता तो फिर कबिरा की हैसियत तो पुलिस जैसी भी नहीं रही थी । बाज़ार का ’सच’ यह है कि वहाँ लकुटिया नहीं, सिर्फ बटुए के सहारे ही खड़ा रहा जा सकता है । बिना बटुए के आप बाज़ार से बाहर हकाल दिए जाएंगे । हो सकता हो, कबीर युग में ‘हाट-बाज़ार‘ में बटुए के बजाए, ’शब्द’ का मोल होता हो और लोग उस पर भरोसा करते हों । मगर, ये एक ऐसा ‘नया बाज़ार‘ है, जहाँ ‘शब्द‘ का तो मूल्य ही नहीं रह गया है । या फिर, शब्द के इतने-इतने और ढेर सारे मूल्य हो गए हैं कि समझ में नहीं आ पा रहा है कि कहाँ क्या ‘गफ़लत‘ हो गई । कहीं ऐसा तो नहीं कि अब ‘गफ़लत‘ ही मुख्य है और सारा बाज़ार, बस उसके सहारे ही चल रहा है । ‘इल्म के इलाके‘ में ‘गफ़लत‘ इतना बड़ा व्यापार करेगी, यह बात इस बाजारू हुए और निरन्तर होते जा रहे समय में ही समझ आ रही है। बल्कि, कहा जाए कि ‘गफ़लत‘ ही उसकी समझ बन गई है।
बहरहाल, इस धोखादेह वक्त में हम ढेरों ऐसी गफ़लतों से घिरे हुए हैं, जो ’सूचना‘ और ’सच‘ के मनोहारी मुखौटे लगाए हुए हैं । ऐसा नहीं है कि सामान्यजन पहले ’गफलतों‘ से घिरा हुआ नहीं था और अब हो गया है । वास्तव में गफलतें तब भी थीं और बेशक आदमी उससे घिरा भी हुआ करता था, मगर बावजूद इसके वहाँ ’सच‘ भी हुआ करता था । लेकिन, अब वहाँ ’सच‘ नहीं होता, बस ’सच के होने की अफवाह‘ भर होती है - या कहें कि वहाँ सिर्फ ’सच संबंधी सूचना‘ और उसकी निर्मिति भर होती है, जिसमें ’सच‘ को बहुत किफायत के साथ इस्तेमाल किया जाता है । इस तरह ’सच‘ को किफायत के साथ इस्तेमाल करने की सबकी अपनी-अपनी अलग और अचूक शैलियाँ हैं । मान लीजिए कि यदि एक आदमी को ’सच‘ जानना है तो वह पाता है कि उसके चारों तरफ दस-बीस-तीस या चालीस ’सच’ हैं ? वह घर के ड्राइंग रूप में बैठकर रिमोट हाथ में लेकर ’सच‘ के पाठ बदलता रहता है- वह पाता है कि एक जगह जिस ’सच‘ को वह ‘विराट‘ की तरह देख रहा था, दूसरी जगह वहाँ ’सच’ बिल्कुल ‘वामन‘ है । एक जगह जो ’सच’ खम ठोंक ’बोलता‘ हुआ बरामद होता है, रिमोट का बटन दबते ही दूसरी जगह वह एक निहायत ही थरथराते गिड़गिड़ाते ’सच’ के रूप में दिखाई पड़ता है। अंत में रिमोट एक ओर फेंककर एक ही ’सच’ के इतने सारे नमूनों और संस्करणों के बीच से गुज़रकर वह सोचता है कि दरअसल उसने इस कालावधि में ’सच‘ की ’पहचान‘ और ’प्रतिमान‘ ही खो दिये हैं । परख की जो ‘कसौटियाँ‘ उसके पास थीं, वे सब बेकार हो हो गई है । और तो और वह जो देख रहा था, वह ’सच‘ नहीं, बल्कि ’सूचना के बाज़ार‘ में डटे निर्माताओं के आकर्षण ’ब्राण्ड‘ हैं । अतः अब सबसे बड़ी सचाई यही है कि ’ब्राण्ड‘ ही ’सच‘ है और हर निर्माता उसे अपने-अपने पैकेजिंग के साथ बेच रहा है । नतीज़तन, ’सच का बाज़ार‘ और ’बाज़ार का सच‘, एक दूसरे में इतना गड्डमड्ड हो गया है कि उसमें दोनों के दरमियान इम्तियाज़ की सामान्य कूबत ही नहीं बची है ।
ऐसे में मुझे एक बहुप्रचारित शीतलपेय की पुड़िया की याद आती है । एक पुड़िया और बारह गिलास । कितना किफायती ’सच‘। छोटा सा माल और इतना इतना विपुल उत्पाद। थोड़े से कच्चे माल से समूचे बाज़ार को पाटने की कारगर तकनीक बारह हाथ की कांकड़ी में तेरह हाथ का बीज। ’माल‘ थोड़ा और ’पूर्ति‘ बड़ी । इस तरह अब ’सच‘ एक प्राॅडक्ट है, इसलिए उसकी निर्मिति (मेन्युफेक्चरिंग) उनकी ज़रूरत। वही तो उनकी आर.टी.पी. बनाता और निरन्तर बढ़ाता है।
कदाचित् आज़ादी के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है कि हमारा सूचा ‘समाज‘ ’सच‘ को इतना संकटग्रस्त देख रहा है । ’सच को बेचने‘ के ‘धंधे में धुत्त‘ लोग आम आदमी की चूख को चुप्पी में बदलकर उसे एक नए किस्म का गूंगापन भेंट कर रहे हैं । ताजमहल जैसी राष्ट्रीय धरोहर को आश्चर्यों की सूची में दर्ज़ करवाने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर रहे हैं, जबकि भाषा जैसी धरोहर की ईंट-ईंट को चुन-चुन कर तोड़ने की उन्होंने सुपारी ले रखी है, जो धरोहर को धराशायी करने का सबसे विराट राष्ट्रद्रोह है । यह परम्परा के प्रेम का कैसा ’सच’ है ? माथे के सिंदूर बेचने की दूकान में चकलाघर चलाने के आयटम मिलने लगते हैं। पतिव्रता की पोशाक पहन कर, छिनाले का सौदा पटाया जा रहा है। लोग चीख कर पूछना चाहते हैं कि आख़िरकार ये क्या हो रहा है ?
लेकिन, किससे पूछे ? चूँकि, उत्तर दे सकने वाले लोग भूमिगत हैं । वे मिट्टी के नीचे दबे पड़े हैं और अब वहाँ क्रांकीटीकरण हो गया है। क्रांकीटीकरण वाले ही उत्तर देने वालों की जगह बैठ गए हैं। उन्होंने एक निर्लज्ज अनसुनी को अपना कवच बना लिया है। वे प्रश्नबिद्ध होने से बचे हुए हैं। कितने ही तीखे सवाल दाग दिए जाएँ। उन्हें आहत नहीं किया जा सकता है क्योंकि उनके कवच अभेद्य हैं। उनके पास हर तीखे प्रश्न का रेडीमेड उत्तर है। फिर काफी इफरात है, रेडीमेड की। जब इतने उत्तर रेडीमेड हों तो बाज़ार में लगे हाथ लेन-देन हो जाता है। अब रेडीमेड में विश्वास बढ़ा है । तैयार उत्तर का स्टाक हो तो ’सच‘ को खोजने के खटकरम से बच जाने की तसल्ली बनी रहती है। आपके भीतर अधिकतम लोगों की अधिकतम पूर्ति का प्रबंध हो जाता है। इसलिए मीडिया और माफिया दोनों ही ’सर्वज्ञ‘ के अहम् से बोलते है । कर लो क्या क्या करते हो ? यही उनका सबसे बड़ा उत्तर है । ये उनके द्वारा दिया जा रहा ’सच’ है। इसलिए सत्य पर मीडिया विचार ही नहीं करता-क्योंकि उसे तो सच का सरलीकरण करना है। सरलीकरण स्वयं ‘विचार‘ की संभावनाओं पर पानी फेर देता है । इसलिए लोग ’सच के विचार‘ में नहीं ’सच की ग्राहकी‘ में फंसे रहते हैं, यही उनका अंतिम उद्देश्य और अंतिम अभीष्ट भी है । उन्हें मालूम है कि ‘विचार’ समय लेता है और उनके पास ’समय‘ नहीं है । समय उनके लिए केवल एक ‘स्लाॅट‘ है । एक चंक है और उस चंक या स्लाॅट में हुए, ‘दर्शक की व्यग्रता का ग्राफ‘ ऊँचा उठाना है । इसलिए, वे हर क्षण उतावली में रहते हैं । उतावली में ‘ब्रेक‘ मदद करता है । उनके यहाँ ‘विचार‘ की जगह ‘फंडे‘ ने ले ली है । वहाँ फंडा लगाकर ’सच’ की खोज की जाती है । ‘विचार‘ एक निहायत बोगस और बासी शैली है, जो अब अख़बारों से भी निकाल फेंक दी गई है।
वास्तव में विचार गुज़रे और गुज़िश्ता लोगों की सनक थी, जो अपने देश और समाज को बनाने के संकल्प से भरे थे । वे एक नव स्वतंत्र राष्ट्र का भविष्य गढ़ने के लिए एक नया और ईमानदार नागरिक गढ़ना चाहते थे । अब सूचना के व्यापार में देश और समाज को बनाने की बात, एक सिरे से ‘अनप्रोफेशनल‘ है । प्रबंधन का प्रशिक्षण लेने वाले सम्पादक के नाम सम्पादक के नाम पर पैकेज की दाड़की पर काम करने वाले आदमी को बिठा दिया जाता है और उसे बताया जाता है कि उसे ‘जनता‘ नहीं, ‘ग्राहक‘ का निर्माण करना है। अब ‘जनता‘ कहीं नहीं है, बल्कि वह केवल एक उपभोक्ता समूह है, जिसे आपको अपना प्राडॅक्ट मत्थे भेड़ना है। वे आपके द्वारा बनाए दे रहे ’सच’ के उपभोगी भर बने रहें, बस इतना ही आपका दायित्व है। कहीं वे चेतना ‘सम्पन्न पाठक या नागरिक‘ न बन जाएँ और वे आपसे ’चैबीस-कैरेट सच’ की मांग करने लगें। याद रखे, ’सच की मांग’ से ‘सत्ताएँ‘ बनती हैं, लेकिन ’सच को अमल’ में लाने से ‘सत्ताएँ‘ ढहती हैं। इसलिए ’सच’ को ’सच’ नहीं, ‘सनसनी और स्वाद‘ में बदलो। सत्य को कटु नहीं, जायकेदार बनाओ। अब विचार एक किस्म का बौद्धिक दिवालियापन है। असल में अब ‘फन‘ और ‘एक्सटैसी‘ ही सबसे बड़ा ’सच’ है। इसी से माल का ‘उठाव‘ बना रहता है। ‘बाज़ार की रुचि‘ और ‘रुचि का बाज़ार‘ बनाना अख़बार ही नहीं पूरे मीडिया का काम है। वह वस्तुओं को चुनने की सुविधा को स्वतंत्रता का पर्याय मान बैठे। यह धंधे की सफलता का अब सर्वोपरि ध्येय है।
हमारे प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया को बाज़ार ने अपने कच्छे की तरह पहन लिया है। बाज़ार की नंगई ढांपने की भूमिका में उतर कर मीडिया मुग्ध है। उधर इंटरनेट पर ब्रिटनी स्पीयर्स अपने जननांग के चित्र जारी करती है, इधर हमारे मीडिया के कच्छे गीले होने लगते हैं। यही हमारा ‘मीडिया विज़्डम‘ बन गया है। प्रिंस वाली घटना के बाद से ‘करुणा का कारोबार‘ बंद कर दिया गया। अब उत्तेजना का कारोबार चल रहा है। इसलिए, रिक्शा चालक के बेटे का आईएएस में चयन हो जाना समाचार में उतनी जगह नहीं घेरता, जितनी राखी सावंत की बाइट। और अब तो सरकार खुद एक्सटैसी के इंतजाम में लग गई है। उन्होंने भरपूर यौनरंजन के लिए तृप्तिदायक खिलौने खोज आविष्कृत कर दिये हैं। ‘फक्ड‘ की फीलिंग, भूख से बड़ी है। हमारे समाज और सरकार के लिए, ब्रेड का कोई नया कारखाना खोलने के बजाए यौनरंजन के लिए उत्पाद और कंडोम का कारखाना खोलने में लगी सरकार की प्राथमिकताएँ बताती हैं कि बाज़ार की ताकत कितनी बड़ी है।
सरकारें बाज़ार के लिए च्यूइंग गम से ऊपर नहीं है, बल्कि, बाज़ार ने हमारे ‘समग्र‘ को च्यूइंग गम बना लिया है। अब कौन और कहाँ करे किसी का गम ? अब गम नहीं सिर्फ जश्न भर की जगह शेष है। उत्सव है-आंदोलन नहीं। एक नया आनंदबाज़ार बन रहा है। हमारा देश और समाज में, जिसमें वर्जनाओं के कच्छे उतारकर एक अरब लोगों को शामिल करने का एजेंडा बन चुका है। यही नंगा ’सच’ है, हमारे देश का। क्योंकि हमें संपट नहीं बैठ रही है कि कहाँ से मीडिया शुरू होता है और कहाँ से माफिया। हम तो राजा के समय के प्रजाबोध से मुक्त नहीं हुए हैं और यही हमारे राजा हैं। यही हमारे बादशाह है। यही हमारे मुग़ल हैं। हम तो हैं केवल इनकी रियाया। अब इन्हीं के मत्थे सारी जिम्मेदारी छोड़कर, छककर सो जाना चाहते हैं, पांच नहीं, पचास साल के लिए। हमें फटी धोती और सड़ी हुई लाठी टेककर चलने वाले गांधी नहीं, इस सबको उखाड़ फेंकने वाली भूमण्डलीकरण की आंधी की ज़रूरत है। उम्मीद है, मीडिया ही इसमें मदद कर सकेगा । कहना न होगा कि मीडिया मुग़ल आ चुके हैं और वे बहुत ज़ल्दी वह सब कर दिखायेंगे, जिसकी ज़रूरत हिंदुस्तान के हर ‘आम‘ और ‘ख़ास‘ को है। गांधीजी ने एक लंगोटी लपेटकर गांव-गांव घूमते हुए, उपवास करते हुए, जेलों में रात-दिन काटते हुए जो हमें दिलाया था, वह तो बिना ढाल और बिना तलवार के था, .....और, वह सब एक सड़ी सी स्टिक (जिसे हिंदी जैसी भदेस भाषा में लाठी कहते हैं) के सहारे दिलाया था, लेकिन मीडिया अब ज्वाॅय-स्टिक के सहारे हमें उपलब्ध करवा देगा। यह नई और रेडीमेड सचाई है। इसके के साथ फ्लर्ट करने का आनंद है।
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दरअसल, किसी भी क़िस्म की ‘सत्ता’ को जो हक़ीकतन ‘सत्ता’ बनाती है; वह घटक है स्वयं ‘राज्य‘ का प्रतिरूप बन जाना। राज्य की विशेषता यही होती है कि उसी में ’दमन’ है और उसी में ’मुक्ति’ भी समाहित है। ‘दमन’ और ‘मुक्ति’, राज्य को उपलब्ध दो ‘अमोघ अस्त्र’ हैं, जिन्हें ‘श्राप और वरदान’ की तरह कहना ज़्यादा उचित होगा। राज्य को उपलब्ध इन्हीं दो आयुधों के कारण, ‘व्यक्ति’ और ‘समाज’ उससे निकटता बनाये रखने में जुटे रहते हैं। और, यह आकस्मिक नहीं कि ये दोनों ही चीजें अब ‘मीडिया’ के अधिकार में है। अर्थात् वह अब किसी ‘वामन’ को ‘अभयदान’ देकर विराट बना सकता है, तो किसी ’विराट’ पर कुपित होकर उसे वामन बना सकता है। यह खेल खेलता हुआ वह अपनी लीला में ‘राज्य’ का ही तो स्वांग रचाता है। इसमें ध्यान देने की बात यह है कि मीडिया के इस खेल में बाज़ार सबसे बड़ी भूमिका में आ चुका है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि आज हर शख्स ’बाज़ार के बीच’ है और इन दिनों ज्ञान के इलाके में खुला सबसे बड़ा बाज़ार ‘सूचना’ का है, जिसमें वह कबिरा की तरह निरबंक अकेला खड़ा । कबिरा के पास तो लकुटिया हाथ में थी, ये तो लगभग खाली हाथ ही है । हालांकि मुझे अचरज तो इस बात पर आज भी होता है कि तब बाज़ार में कबिरा लकुटिया के साथ कैसे खड़ा रह पाया होगा ? फिर लकुटिया के सहारे उसने क्या खरीद लिया होगा ? एक दफा ख़रीदने की बात भी छोड़िए, हाथ में लकुटिया लेकर उसने किसी का क्या ही बिगाड़ लिया होगा ? आज हाथ में लकड़ी लेकर पुलिस वाला तक बाज़ार में कुछ नहीं कर पाता तो फिर कबिरा की हैसियत तो पुलिस जैसी भी नहीं रही थी । बाज़ार का ’सच’ यह है कि वहाँ लकुटिया नहीं, सिर्फ बटुए के सहारे ही खड़ा रहा जा सकता है । बिना बटुए के आप बाज़ार से बाहर हकाल दिए जाएंगे । हो सकता हो, कबीर युग में ‘हाट-बाज़ार‘ में बटुए के बजाए, ’शब्द’ का मोल होता हो और लोग उस पर भरोसा करते हों । मगर, ये एक ऐसा ‘नया बाज़ार‘ है, जहाँ ‘शब्द‘ का तो मूल्य ही नहीं रह गया है । या फिर, शब्द के इतने-इतने और ढेर सारे मूल्य हो गए हैं कि समझ में नहीं आ पा रहा है कि कहाँ क्या ‘गफ़लत‘ हो गई । कहीं ऐसा तो नहीं कि अब ‘गफ़लत‘ ही मुख्य है और सारा बाज़ार, बस उसके सहारे ही चल रहा है । ‘इल्म के इलाके‘ में ‘गफ़लत‘ इतना बड़ा व्यापार करेगी, यह बात इस बाजारू हुए और निरन्तर होते जा रहे समय में ही समझ आ रही है। बल्कि, कहा जाए कि ‘गफ़लत‘ ही उसकी समझ बन गई है।
बहरहाल, इस धोखादेह वक्त में हम ढेरों ऐसी गफ़लतों से घिरे हुए हैं, जो ’सूचना‘ और ’सच‘ के मनोहारी मुखौटे लगाए हुए हैं । ऐसा नहीं है कि सामान्यजन पहले ’गफलतों‘ से घिरा हुआ नहीं था और अब हो गया है । वास्तव में गफलतें तब भी थीं और बेशक आदमी उससे घिरा भी हुआ करता था, मगर बावजूद इसके वहाँ ’सच‘ भी हुआ करता था । लेकिन, अब वहाँ ’सच‘ नहीं होता, बस ’सच के होने की अफवाह‘ भर होती है - या कहें कि वहाँ सिर्फ ’सच संबंधी सूचना‘ और उसकी निर्मिति भर होती है, जिसमें ’सच‘ को बहुत किफायत के साथ इस्तेमाल किया जाता है । इस तरह ’सच‘ को किफायत के साथ इस्तेमाल करने की सबकी अपनी-अपनी अलग और अचूक शैलियाँ हैं । मान लीजिए कि यदि एक आदमी को ’सच‘ जानना है तो वह पाता है कि उसके चारों तरफ दस-बीस-तीस या चालीस ’सच’ हैं ? वह घर के ड्राइंग रूप में बैठकर रिमोट हाथ में लेकर ’सच‘ के पाठ बदलता रहता है- वह पाता है कि एक जगह जिस ’सच‘ को वह ‘विराट‘ की तरह देख रहा था, दूसरी जगह वहाँ ’सच’ बिल्कुल ‘वामन‘ है । एक जगह जो ’सच’ खम ठोंक ’बोलता‘ हुआ बरामद होता है, रिमोट का बटन दबते ही दूसरी जगह वह एक निहायत ही थरथराते गिड़गिड़ाते ’सच’ के रूप में दिखाई पड़ता है। अंत में रिमोट एक ओर फेंककर एक ही ’सच’ के इतने सारे नमूनों और संस्करणों के बीच से गुज़रकर वह सोचता है कि दरअसल उसने इस कालावधि में ’सच‘ की ’पहचान‘ और ’प्रतिमान‘ ही खो दिये हैं । परख की जो ‘कसौटियाँ‘ उसके पास थीं, वे सब बेकार हो हो गई है । और तो और वह जो देख रहा था, वह ’सच‘ नहीं, बल्कि ’सूचना के बाज़ार‘ में डटे निर्माताओं के आकर्षण ’ब्राण्ड‘ हैं । अतः अब सबसे बड़ी सचाई यही है कि ’ब्राण्ड‘ ही ’सच‘ है और हर निर्माता उसे अपने-अपने पैकेजिंग के साथ बेच रहा है । नतीज़तन, ’सच का बाज़ार‘ और ’बाज़ार का सच‘, एक दूसरे में इतना गड्डमड्ड हो गया है कि उसमें दोनों के दरमियान इम्तियाज़ की सामान्य कूबत ही नहीं बची है ।
ऐसे में मुझे एक बहुप्रचारित शीतलपेय की पुड़िया की याद आती है । एक पुड़िया और बारह गिलास । कितना किफायती ’सच‘। छोटा सा माल और इतना इतना विपुल उत्पाद। थोड़े से कच्चे माल से समूचे बाज़ार को पाटने की कारगर तकनीक बारह हाथ की कांकड़ी में तेरह हाथ का बीज। ’माल‘ थोड़ा और ’पूर्ति‘ बड़ी । इस तरह अब ’सच‘ एक प्राॅडक्ट है, इसलिए उसकी निर्मिति (मेन्युफेक्चरिंग) उनकी ज़रूरत। वही तो उनकी आर.टी.पी. बनाता और निरन्तर बढ़ाता है।
कदाचित् आज़ादी के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है कि हमारा सूचा ‘समाज‘ ’सच‘ को इतना संकटग्रस्त देख रहा है । ’सच को बेचने‘ के ‘धंधे में धुत्त‘ लोग आम आदमी की चूख को चुप्पी में बदलकर उसे एक नए किस्म का गूंगापन भेंट कर रहे हैं । ताजमहल जैसी राष्ट्रीय धरोहर को आश्चर्यों की सूची में दर्ज़ करवाने के लिए ज़मीन-आसमान एक कर रहे हैं, जबकि भाषा जैसी धरोहर की ईंट-ईंट को चुन-चुन कर तोड़ने की उन्होंने सुपारी ले रखी है, जो धरोहर को धराशायी करने का सबसे विराट राष्ट्रद्रोह है । यह परम्परा के प्रेम का कैसा ’सच’ है ? माथे के सिंदूर बेचने की दूकान में चकलाघर चलाने के आयटम मिलने लगते हैं। पतिव्रता की पोशाक पहन कर, छिनाले का सौदा पटाया जा रहा है। लोग चीख कर पूछना चाहते हैं कि आख़िरकार ये क्या हो रहा है ?
लेकिन, किससे पूछे ? चूँकि, उत्तर दे सकने वाले लोग भूमिगत हैं । वे मिट्टी के नीचे दबे पड़े हैं और अब वहाँ क्रांकीटीकरण हो गया है। क्रांकीटीकरण वाले ही उत्तर देने वालों की जगह बैठ गए हैं। उन्होंने एक निर्लज्ज अनसुनी को अपना कवच बना लिया है। वे प्रश्नबिद्ध होने से बचे हुए हैं। कितने ही तीखे सवाल दाग दिए जाएँ। उन्हें आहत नहीं किया जा सकता है क्योंकि उनके कवच अभेद्य हैं। उनके पास हर तीखे प्रश्न का रेडीमेड उत्तर है। फिर काफी इफरात है, रेडीमेड की। जब इतने उत्तर रेडीमेड हों तो बाज़ार में लगे हाथ लेन-देन हो जाता है। अब रेडीमेड में विश्वास बढ़ा है । तैयार उत्तर का स्टाक हो तो ’सच‘ को खोजने के खटकरम से बच जाने की तसल्ली बनी रहती है। आपके भीतर अधिकतम लोगों की अधिकतम पूर्ति का प्रबंध हो जाता है। इसलिए मीडिया और माफिया दोनों ही ’सर्वज्ञ‘ के अहम् से बोलते है । कर लो क्या क्या करते हो ? यही उनका सबसे बड़ा उत्तर है । ये उनके द्वारा दिया जा रहा ’सच’ है। इसलिए सत्य पर मीडिया विचार ही नहीं करता-क्योंकि उसे तो सच का सरलीकरण करना है। सरलीकरण स्वयं ‘विचार‘ की संभावनाओं पर पानी फेर देता है । इसलिए लोग ’सच के विचार‘ में नहीं ’सच की ग्राहकी‘ में फंसे रहते हैं, यही उनका अंतिम उद्देश्य और अंतिम अभीष्ट भी है । उन्हें मालूम है कि ‘विचार’ समय लेता है और उनके पास ’समय‘ नहीं है । समय उनके लिए केवल एक ‘स्लाॅट‘ है । एक चंक है और उस चंक या स्लाॅट में हुए, ‘दर्शक की व्यग्रता का ग्राफ‘ ऊँचा उठाना है । इसलिए, वे हर क्षण उतावली में रहते हैं । उतावली में ‘ब्रेक‘ मदद करता है । उनके यहाँ ‘विचार‘ की जगह ‘फंडे‘ ने ले ली है । वहाँ फंडा लगाकर ’सच’ की खोज की जाती है । ‘विचार‘ एक निहायत बोगस और बासी शैली है, जो अब अख़बारों से भी निकाल फेंक दी गई है।
वास्तव में विचार गुज़रे और गुज़िश्ता लोगों की सनक थी, जो अपने देश और समाज को बनाने के संकल्प से भरे थे । वे एक नव स्वतंत्र राष्ट्र का भविष्य गढ़ने के लिए एक नया और ईमानदार नागरिक गढ़ना चाहते थे । अब सूचना के व्यापार में देश और समाज को बनाने की बात, एक सिरे से ‘अनप्रोफेशनल‘ है । प्रबंधन का प्रशिक्षण लेने वाले सम्पादक के नाम सम्पादक के नाम पर पैकेज की दाड़की पर काम करने वाले आदमी को बिठा दिया जाता है और उसे बताया जाता है कि उसे ‘जनता‘ नहीं, ‘ग्राहक‘ का निर्माण करना है। अब ‘जनता‘ कहीं नहीं है, बल्कि वह केवल एक उपभोक्ता समूह है, जिसे आपको अपना प्राडॅक्ट मत्थे भेड़ना है। वे आपके द्वारा बनाए दे रहे ’सच’ के उपभोगी भर बने रहें, बस इतना ही आपका दायित्व है। कहीं वे चेतना ‘सम्पन्न पाठक या नागरिक‘ न बन जाएँ और वे आपसे ’चैबीस-कैरेट सच’ की मांग करने लगें। याद रखे, ’सच की मांग’ से ‘सत्ताएँ‘ बनती हैं, लेकिन ’सच को अमल’ में लाने से ‘सत्ताएँ‘ ढहती हैं। इसलिए ’सच’ को ’सच’ नहीं, ‘सनसनी और स्वाद‘ में बदलो। सत्य को कटु नहीं, जायकेदार बनाओ। अब विचार एक किस्म का बौद्धिक दिवालियापन है। असल में अब ‘फन‘ और ‘एक्सटैसी‘ ही सबसे बड़ा ’सच’ है। इसी से माल का ‘उठाव‘ बना रहता है। ‘बाज़ार की रुचि‘ और ‘रुचि का बाज़ार‘ बनाना अख़बार ही नहीं पूरे मीडिया का काम है। वह वस्तुओं को चुनने की सुविधा को स्वतंत्रता का पर्याय मान बैठे। यह धंधे की सफलता का अब सर्वोपरि ध्येय है।
हमारे प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया को बाज़ार ने अपने कच्छे की तरह पहन लिया है। बाज़ार की नंगई ढांपने की भूमिका में उतर कर मीडिया मुग्ध है। उधर इंटरनेट पर ब्रिटनी स्पीयर्स अपने जननांग के चित्र जारी करती है, इधर हमारे मीडिया के कच्छे गीले होने लगते हैं। यही हमारा ‘मीडिया विज़्डम‘ बन गया है। प्रिंस वाली घटना के बाद से ‘करुणा का कारोबार‘ बंद कर दिया गया। अब उत्तेजना का कारोबार चल रहा है। इसलिए, रिक्शा चालक के बेटे का आईएएस में चयन हो जाना समाचार में उतनी जगह नहीं घेरता, जितनी राखी सावंत की बाइट। और अब तो सरकार खुद एक्सटैसी के इंतजाम में लग गई है। उन्होंने भरपूर यौनरंजन के लिए तृप्तिदायक खिलौने खोज आविष्कृत कर दिये हैं। ‘फक्ड‘ की फीलिंग, भूख से बड़ी है। हमारे समाज और सरकार के लिए, ब्रेड का कोई नया कारखाना खोलने के बजाए यौनरंजन के लिए उत्पाद और कंडोम का कारखाना खोलने में लगी सरकार की प्राथमिकताएँ बताती हैं कि बाज़ार की ताकत कितनी बड़ी है।
सरकारें बाज़ार के लिए च्यूइंग गम से ऊपर नहीं है, बल्कि, बाज़ार ने हमारे ‘समग्र‘ को च्यूइंग गम बना लिया है। अब कौन और कहाँ करे किसी का गम ? अब गम नहीं सिर्फ जश्न भर की जगह शेष है। उत्सव है-आंदोलन नहीं। एक नया आनंदबाज़ार बन रहा है। हमारा देश और समाज में, जिसमें वर्जनाओं के कच्छे उतारकर एक अरब लोगों को शामिल करने का एजेंडा बन चुका है। यही नंगा ’सच’ है, हमारे देश का। क्योंकि हमें संपट नहीं बैठ रही है कि कहाँ से मीडिया शुरू होता है और कहाँ से माफिया। हम तो राजा के समय के प्रजाबोध से मुक्त नहीं हुए हैं और यही हमारे राजा हैं। यही हमारे बादशाह है। यही हमारे मुग़ल हैं। हम तो हैं केवल इनकी रियाया। अब इन्हीं के मत्थे सारी जिम्मेदारी छोड़कर, छककर सो जाना चाहते हैं, पांच नहीं, पचास साल के लिए। हमें फटी धोती और सड़ी हुई लाठी टेककर चलने वाले गांधी नहीं, इस सबको उखाड़ फेंकने वाली भूमण्डलीकरण की आंधी की ज़रूरत है। उम्मीद है, मीडिया ही इसमें मदद कर सकेगा । कहना न होगा कि मीडिया मुग़ल आ चुके हैं और वे बहुत ज़ल्दी वह सब कर दिखायेंगे, जिसकी ज़रूरत हिंदुस्तान के हर ‘आम‘ और ‘ख़ास‘ को है। गांधीजी ने एक लंगोटी लपेटकर गांव-गांव घूमते हुए, उपवास करते हुए, जेलों में रात-दिन काटते हुए जो हमें दिलाया था, वह तो बिना ढाल और बिना तलवार के था, .....और, वह सब एक सड़ी सी स्टिक (जिसे हिंदी जैसी भदेस भाषा में लाठी कहते हैं) के सहारे दिलाया था, लेकिन मीडिया अब ज्वाॅय-स्टिक के सहारे हमें उपलब्ध करवा देगा। यह नई और रेडीमेड सचाई है। इसके के साथ फ्लर्ट करने का आनंद है।
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जवाब देंहटाएंऎसी कोई संहिता ही नहीं है, जो इस छिनलपन पर लगाम दे सके !
पैसा दो, और बंद कैप्सूलों में मर्दानगी बेच लो !
एक सार्थक लेख दिया, प्रभु ने !