भारत अब बदले अपना इतिहास
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केन्द्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल और महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर.आर. पाटिल के इस्तीफे लगभग निरर्थक है। इस इस्तीफे से सरकार या सत्तारूढ़ दल के प्रति जनता में जरा भी सहानुभूति पैदा नहीं हुई है। मुंबई के आतंक ने सरकार का ग्राफ इतना नीचे गिरा दिया है कि पूरी सरकार भी इस्तीफा दे देती तो लोगों का गुस्सा कम नहीं होता। यह भी सच है कि वर्तमान सरकार की जगह यदि विरोधियों की सरकार होती तो उसका भी यही हाल होता। पिछले आठ-दस साल में जितनी भी सरकारें आईं, उन सबका रवैया आतंकवाद के प्रति एक-जैसा ही रहा है। ढुल-मुल, घिसा-पिटा, रोऊ-धोऊ और केवल तात्कालिक ! उन्होंने आतंकवाद को अलग-अलग घटनाओं की तरह देखा है। एक सिलसिले की तरह नहीं ! आकस्मिक दुर्घटनाओं का मुकाबला प्रायः जैसे किया जाता है, वैसे ही हमारी सरकारें करती रही हैं। उन्होंने आज तक यह समझा ही नहीं कि आतंकवाद भारत के विरूद्ध अघोषित युद्ध है। युद्ध के दौरान जैसी मुस्तैदी और बहादुरी की ज+रूरत होती है, क्या वह हम में है ? हमारी सरकार में है ? हमारी फौज और पुलिस में है ? गुप्तचर सेवा में है ?
नहीं है। इसीलिए हर आतंकवादी हादसे के दो-चार दिन बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है। लोग यह भी भूल जाते हैं कि कौनसी घटना कहाँ घटी थी। वे यह मानकर चलते हैं कि जो हो गया सो हो गया। अब आगे कुछ नहीं होनेवाला ! आतंकवाद केवल उन्हीं के लिए भयंकर स्मृतियाँ छोड़ जाता है, जिनके आत्मीय लोग मारे जाते हैं या घायल होते हैं। ऐसे समय में हम राष्ट्र की तरह नहीं, व्यक्ति की तरह, परिवार की तरह सोचते हैं। हम भारत की तरह नहीं सोचतें। हमें भारत कहीं दिखाई नहीं पड़ता। बस व्यक्ति और परिवार दिखाई पड़ता है। इसीलिए हम युद्ध को दुर्घटना की तरह देखते हैं। यह भारत-भाव का भंग होना है। मुंबई ने इस बार इस भारत-भाव को जगाया है। तीन-चार दिन और रात पूरा भारत यों महसूस कर रहा था, जैसे उसके सीने को छलनी किया जा रहा है। ऐसा तीव्र भागवेग पिछले पाँच युद्धों के दौरान भी नहीं देखा गया और संसद, अक्षरधाम और कंधार-कांड के समय भी नहीं देखा गया। भावावेग की इस तीव्र वेला में क्या भारत अपनी कमर कस सकता है और क्या वह आतंकवाद को जड़ से उखाड़ सकता है ?
क्यों नहीं उखाड़ सकता ? यह कहना गलत है कि भारत वह नहीं कर सकता, जो अमेरिका और ब्रिटेन ने कर दिखाया है। यह ठीक है कि इन देशों में आतंकवाद ने दुबारा सिर नहीं उठाया लेकिन हम यह न भूलें कि ये दोनों देश बड़े खुशकिस्मत हैं कि पाकिस्तान इनका पड़ौसी नहीं है। यदि पाकिस्तान-जैसा कोई अराजक देश इनका पड़ौसी होता तो इनकी हालत शायद भारत से कहीं बदतर होती। जाहिर है कि भारत अपना भूगोल नहीं बदल सकता। लेकिन अब मौका है कि वह अपना इतिहास बदले।
क्या भारत की जनता अपना इतिहास बदलने की क़ीमत चुकाने को तैयार है ? यदि है तो वह माँग करे कि भारत के प्रत्येक नौजवान के लिए कम से कम एक साल का विधिवत सैन्य-प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाए और प्रत्येक नागरिक को अल्पकालिक प्रारंभिक सैन्य प्रशिक्षण दिया जाए। यदि ताज और ओबेराय में घिरे लोगों में फौजी दक्षता होती तो क्या वे थोक में मारे जाते ? उनमें से एक आदमी भी झपटकर आतंकवादी की बंदूक छीन लेता तो उन सब आतंकवादियों के हौसले पस्त हो जाते। 500 लोगों में से एक भी जवान क्यों नहीं कूदा ? इसलिए नहीं कि वे बहादुर नहीं थे। इसलिए कि उन्हें कोई सैन्य-प्रशिक्षण नहीं मिला था। वे बरसती गोलियों के आगे हक्के-बक्के रह गए थे। देश की रक्षा का भार फौजियों पर छोड़कर हम निश्चिंत हो जाते हैं। राष्ट्रीय लापरवाही का यह सिलसिला भारत में हजारों साल से चला आ रहा है। अब उसे तोड़ने का वक्त आ गया है। भारत के सिर पर रखा इतिहास का यह कूड़ेदान हम कब तक ढोते रहेंगे ? अपने भुजदंडों को अब हमें मुक्त करना ही होगा, क्योंकि हम लोग अब एक अनवरत युद्ध के भाग बन गए हैं। लगातार चलनेवाले इस युद्ध में लगातार सतर्कता परम आवश्यक है। ईरान, इस्राइल, वियतनाम, क्यूबा और अफगानिस्तान-जैसे देशों में सैन्य-प्रशिक्षण इसलिए अनिवार्य रहा है कि वे किसी भी भावी आक्रमण के प्रति सदा सतर्क रहना चाहते हैं।
जो भी आतंकवादी हमला करते हैं, वे पूरी तरह से एकजुट हो जाते है। आतंकवादियों को विदेशी फौज, पुलिस, गुप्तचर सेवा, स्थानीय दलालों और विदेशी नेताओं का समर्थन एक साथ मिलता है। जबकि आतंकवादियों का मुकाबला करनेवाले हमारे लोग केंद्र और राज्य, फौज और पुलिस, रॉ और आईबी तथा पता नहीं किन-किन खाँचों में बँटे होते हैं। इन सब तत्वों को एक सूत्र में पिरोकर अब संघीय ढाँचा खड़ा करने का संकल्प साफ दिखाई दे रहा है लेकिन वह काफी नहीं है। जब तक हमलों का सुराग पहले से न मिले, वह संघीय कमान क्या कर पाएंगी ? क्या यह संभव है कि सवा अरब लोगों पर गुप्तचर सेवा के 20-25 हजार लोग पूरी तरह नजर रख पाएँ ? यह तभी संभव है कि जब प्रत्येक भारतीय को सतर्क किया जाए। प्रत्येक भारतीय पूर्व-सूचना का स्त्रोत बनने की कोषिष करे। यह कैसे होगा ? यह प्रवचनों से नहीं होगा। इसके लिए जरूरी यह है कि सूचना नहीं देनेवालों पर सख्ती बरती जाए। जो भी आतंकवादी पकड़ा जाए, उसके माता-पिता, रिष्तेदारों, दोस्तों, अड़ौसी-पड़ोसियों, सहकर्मियों, दतरों और बैंकों को भी पूछताछ और जाँच के सख्त दायरे में लाया जाए। प्रत्येक भावी आतंकवादी को यह मालूम पड़ जाना चाहिए कि उसकी करनी का खामियाजा किस-किसको भुगतना पड़ेगा। आतंक की दहलीज पर कदम रखनेवालों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ना बहुत जरूरी हैं। आतंक का मुकाबला आतंक से ही किया जा सकता है। जैसे आतंकवादी किसी कानून-कायदे और मर्यादा को नहीं मानते, राज्य को भी उतना ही निर्मम होना होगा। उसे आतंकियों की जड़ें उखाड़ने में किसी तरह का कोई संकोच नहीं करना चाहिए। कानून कठोर है या नरम, यह बहस बाद में होती रहने दें। फौज और पुलिस पहले यह देखे कि आतंकियों का काम तमाम कैसे हो ? आतंकियों का मुकाबला करने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर हो, उनकी उदासीनता और अकर्मण्यता के लिए उन्हें तुरंत दंडित करने की व्यवस्था भी हो। यदि आतंक का सुराग छिपाना दंडनीय अपराध हो तो सुराग मिलने पर भी अकर्मण्यता दिखाना तो अक्षम्य अपराध होना चाहिए। इन कठोर प्रावधानों पर तथाकथित लोकतंत्रवादियों को आपत्ति हो सकती हैं लेकिन कोई उनसे पूछे कि यदि यह देश ही नहीं रहा तो वे लोकतंत्र कहाँ स्थापित करेंगे। आतंकवाद तो लोक और तंत्र, दोनों को ध्वस्त करता हैं। आतंकवाद को ध्वस्त किए बिना न भारत की रक्षा हो सकती है और न ही लोकतंत्र की। क्या हमारे नेता इतिहास द्वारा दिए गए इस अपूर्व दायित्व को संभालने लायक है ?
नहीं है। इसीलिए हर आतंकवादी हादसे के दो-चार दिन बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है। लोग यह भी भूल जाते हैं कि कौनसी घटना कहाँ घटी थी। वे यह मानकर चलते हैं कि जो हो गया सो हो गया। अब आगे कुछ नहीं होनेवाला ! आतंकवाद केवल उन्हीं के लिए भयंकर स्मृतियाँ छोड़ जाता है, जिनके आत्मीय लोग मारे जाते हैं या घायल होते हैं। ऐसे समय में हम राष्ट्र की तरह नहीं, व्यक्ति की तरह, परिवार की तरह सोचते हैं। हम भारत की तरह नहीं सोचतें। हमें भारत कहीं दिखाई नहीं पड़ता। बस व्यक्ति और परिवार दिखाई पड़ता है। इसीलिए हम युद्ध को दुर्घटना की तरह देखते हैं। यह भारत-भाव का भंग होना है। मुंबई ने इस बार इस भारत-भाव को जगाया है। तीन-चार दिन और रात पूरा भारत यों महसूस कर रहा था, जैसे उसके सीने को छलनी किया जा रहा है। ऐसा तीव्र भागवेग पिछले पाँच युद्धों के दौरान भी नहीं देखा गया और संसद, अक्षरधाम और कंधार-कांड के समय भी नहीं देखा गया। भावावेग की इस तीव्र वेला में क्या भारत अपनी कमर कस सकता है और क्या वह आतंकवाद को जड़ से उखाड़ सकता है ?
क्यों नहीं उखाड़ सकता ? यह कहना गलत है कि भारत वह नहीं कर सकता, जो अमेरिका और ब्रिटेन ने कर दिखाया है। यह ठीक है कि इन देशों में आतंकवाद ने दुबारा सिर नहीं उठाया लेकिन हम यह न भूलें कि ये दोनों देश बड़े खुशकिस्मत हैं कि पाकिस्तान इनका पड़ौसी नहीं है। यदि पाकिस्तान-जैसा कोई अराजक देश इनका पड़ौसी होता तो इनकी हालत शायद भारत से कहीं बदतर होती। जाहिर है कि भारत अपना भूगोल नहीं बदल सकता। लेकिन अब मौका है कि वह अपना इतिहास बदले।
क्या भारत की जनता अपना इतिहास बदलने की क़ीमत चुकाने को तैयार है ? यदि है तो वह माँग करे कि भारत के प्रत्येक नौजवान के लिए कम से कम एक साल का विधिवत सैन्य-प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाए और प्रत्येक नागरिक को अल्पकालिक प्रारंभिक सैन्य प्रशिक्षण दिया जाए। यदि ताज और ओबेराय में घिरे लोगों में फौजी दक्षता होती तो क्या वे थोक में मारे जाते ? उनमें से एक आदमी भी झपटकर आतंकवादी की बंदूक छीन लेता तो उन सब आतंकवादियों के हौसले पस्त हो जाते। 500 लोगों में से एक भी जवान क्यों नहीं कूदा ? इसलिए नहीं कि वे बहादुर नहीं थे। इसलिए कि उन्हें कोई सैन्य-प्रशिक्षण नहीं मिला था। वे बरसती गोलियों के आगे हक्के-बक्के रह गए थे। देश की रक्षा का भार फौजियों पर छोड़कर हम निश्चिंत हो जाते हैं। राष्ट्रीय लापरवाही का यह सिलसिला भारत में हजारों साल से चला आ रहा है। अब उसे तोड़ने का वक्त आ गया है। भारत के सिर पर रखा इतिहास का यह कूड़ेदान हम कब तक ढोते रहेंगे ? अपने भुजदंडों को अब हमें मुक्त करना ही होगा, क्योंकि हम लोग अब एक अनवरत युद्ध के भाग बन गए हैं। लगातार चलनेवाले इस युद्ध में लगातार सतर्कता परम आवश्यक है। ईरान, इस्राइल, वियतनाम, क्यूबा और अफगानिस्तान-जैसे देशों में सैन्य-प्रशिक्षण इसलिए अनिवार्य रहा है कि वे किसी भी भावी आक्रमण के प्रति सदा सतर्क रहना चाहते हैं।
जो भी आतंकवादी हमला करते हैं, वे पूरी तरह से एकजुट हो जाते है। आतंकवादियों को विदेशी फौज, पुलिस, गुप्तचर सेवा, स्थानीय दलालों और विदेशी नेताओं का समर्थन एक साथ मिलता है। जबकि आतंकवादियों का मुकाबला करनेवाले हमारे लोग केंद्र और राज्य, फौज और पुलिस, रॉ और आईबी तथा पता नहीं किन-किन खाँचों में बँटे होते हैं। इन सब तत्वों को एक सूत्र में पिरोकर अब संघीय ढाँचा खड़ा करने का संकल्प साफ दिखाई दे रहा है लेकिन वह काफी नहीं है। जब तक हमलों का सुराग पहले से न मिले, वह संघीय कमान क्या कर पाएंगी ? क्या यह संभव है कि सवा अरब लोगों पर गुप्तचर सेवा के 20-25 हजार लोग पूरी तरह नजर रख पाएँ ? यह तभी संभव है कि जब प्रत्येक भारतीय को सतर्क किया जाए। प्रत्येक भारतीय पूर्व-सूचना का स्त्रोत बनने की कोषिष करे। यह कैसे होगा ? यह प्रवचनों से नहीं होगा। इसके लिए जरूरी यह है कि सूचना नहीं देनेवालों पर सख्ती बरती जाए। जो भी आतंकवादी पकड़ा जाए, उसके माता-पिता, रिष्तेदारों, दोस्तों, अड़ौसी-पड़ोसियों, सहकर्मियों, दतरों और बैंकों को भी पूछताछ और जाँच के सख्त दायरे में लाया जाए। प्रत्येक भावी आतंकवादी को यह मालूम पड़ जाना चाहिए कि उसकी करनी का खामियाजा किस-किसको भुगतना पड़ेगा। आतंक की दहलीज पर कदम रखनेवालों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ना बहुत जरूरी हैं। आतंक का मुकाबला आतंक से ही किया जा सकता है। जैसे आतंकवादी किसी कानून-कायदे और मर्यादा को नहीं मानते, राज्य को भी उतना ही निर्मम होना होगा। उसे आतंकियों की जड़ें उखाड़ने में किसी तरह का कोई संकोच नहीं करना चाहिए। कानून कठोर है या नरम, यह बहस बाद में होती रहने दें। फौज और पुलिस पहले यह देखे कि आतंकियों का काम तमाम कैसे हो ? आतंकियों का मुकाबला करने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर हो, उनकी उदासीनता और अकर्मण्यता के लिए उन्हें तुरंत दंडित करने की व्यवस्था भी हो। यदि आतंक का सुराग छिपाना दंडनीय अपराध हो तो सुराग मिलने पर भी अकर्मण्यता दिखाना तो अक्षम्य अपराध होना चाहिए। इन कठोर प्रावधानों पर तथाकथित लोकतंत्रवादियों को आपत्ति हो सकती हैं लेकिन कोई उनसे पूछे कि यदि यह देश ही नहीं रहा तो वे लोकतंत्र कहाँ स्थापित करेंगे। आतंकवाद तो लोक और तंत्र, दोनों को ध्वस्त करता हैं। आतंकवाद को ध्वस्त किए बिना न भारत की रक्षा हो सकती है और न ही लोकतंत्र की। क्या हमारे नेता इतिहास द्वारा दिए गए इस अपूर्व दायित्व को संभालने लायक है ?
पूर्णत: सही एवं सटीक कथन
जवाब देंहटाएंकविता जी आपका लेखन सशक्त है, आज पहली बार पढ़ा... आपकी कलम और कलम की धार को शत-शत नमन हमेशा ऎसे ही लिखते रहें...
जवाब देंहटाएंआपका कथन सही है की जहाँ तक इनके स्थिफे का सवाल है इसमे कोई ख़ास भरपाई नही होती ! दुसरे आपने जो सैन्य प्रशिक्षण की बात कही वो अत्यन्त जरुरी है ! और ये १९७१ तक तो प्रशिक्षण क्या जवान लड़को को जबरदस्ती फोज में भर्ती करते थे ! पर बाद में शिथिलता आगई ! और घोर उपेक्षा यहाँ तक की आजकल फौज में भर्ती के नाम पर रिश्वत का भी सुनने में आया है ! अगर पढ़े लिखो के लिए शोर्ट सर्विस कमीशन ..जैसा कुछ कर दिया जाए या किसी भी तरह की सैन्य ट्रेनिंग किसी भी लेवल पर शरू करना बहुत जरुरी है ! आपने बहुत बढिया सुझाव दिया है !
जवाब देंहटाएंऔर ये बात तो बिल्कुल सही है की एक मुर्ख ( बददिमाग) पड़ोसी आपका जीवन नर्क बना सकता है ! और वो ही भारत के साथ हुआ है ! बहुत शानदार और उपयोगी विचार हैं अगर काम में लिए जाए तो !
बेहद ठोस विचारों पर आधारित आलेख। सभी बातें अनुकरणीय हैं। वैदिक जी को राजनीतिक रसूख वाले अपने तमाम मित्रों को यह पाठ जरूर पढ़ाना चाहिए। सत्ता के ऊँचे गलियारे में वैदिक जी की बात जरूर सुनी जाती है, ऐसा मेरा विश्वास है। हम तो पिछले २०-२५ सालों से इन्हें पढ़ सुन रहे हैं।
जवाब देंहटाएंपूर्ण सहमति!
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है --
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