भारत को छावनी बना दो

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भारत को छावनी बना दो
राजकिशोर



मुंबई आतंक काण्ड के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जो राजनीतिक पहल की, उसके फेल हो जाने के बाद कहा जा सकता है कि भारत के राजनीतिक नेतृत्व में कोई बड़ा कदम उठाने की क्षमता नहीं है। अगर पाकिस्तानी आईएसआई के प्रमुख दिल्ली आ भी जाते, तो समझ में आना मुश्किल है कि इससे कौन-सा उद्देश्य सिद्ध होता। अगर मुंबई पर आतंकवादी हमला आईएसआई या पाकिस्तान सरकार की किसी एजेंसी द्वारा प्रायोजित था, तो इन एजेंसियों के प्रतिनिधियों से भारत सरकार क्या बातचीत कर सकती है! पाकिस्तान सरकार पर दबाव डालने के तरीके दूसरे हैं और भारत सरकार के सोचने के पैटर्न से ऐसा दिखाई नहीं देता कि वह इन तरीकों का इस्तेमाल करेगी। ऐसा लगता है कि भारत की राजनीति पूरी तरह से दिवालिया हो चुकी है। वह विदेशी आतंकवाद से भारत के लोगों की रक्षा करने में असमर्थ है। हम यह सुझाव नहीं दे रहे हैं कि 9/11 के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार जिस तरह वहशी हो गई थी और उसने पहले अफगानिस्तान पर और बाद में इराक पर हमला कर दिया था, हम भी वैसा ही करें। लेकिन और भी कई तरह की प्रभावशाली पहलें की जा सकती हैं, जिनके बारे में राजनीतिक स्तर पर सोचा तक नहीं जा रहा है। क्या इसलिए कि आतंकवाद का मुख्य संबंध मुस्लिम जमात से हैं? इस तरह का सेकुलरवाद भारत की जनता के लिए बहुत मँहगा पड़ेगा।


ऐसी स्थिति में जिस न्यूनतम कर्तव्य की अपेक्षा की जा सकती है, वह है देश के भीतर अपनी सुरक्षा प्रणाली को मजबूत करना। मुंबई में हमारे सुरक्षा दस्तों ने जो काम किया, वह दमकल की कार्रवाई जैसा था। जब कहीं आग लगती है, तो दमकल कर्मचारी वहाँ पहुँच कर आग बुझा देते हैं और फिर अगले अग्निकांड की प्रतीक्षा करने लगते हैं। मुंबई में तो आग बुझाने का मौका मिल गया। लेकिन हर आतंकवादी घटना ऐसी नहीं होती। ज्यादातर मामलों में आतंकवादी कत्लेआम का अपना इरादा पूरा करने में सफल हो जाते हैं और पकड़े भी नहीं जाते। दिल्ली के सरोजिनी नगर और जयपुर की घटनाओं को याद कीजिए। यहाँ हम रोते-बिलखते और हाथ मलते रह जाते हैं। भविष्य में ऐसा न हो, इसका प्रबंध तो किया ही जा सकता है। आतंकवादी आक्रमण की पिछली घटनाओं की उपेक्षा कर दी गई, तभी मुंबई जैसी बड़ी घटना हो सकी। अब मुंबई से सबक लेना चाहिए और आंतरिक सुरक्षा प्रणाली को अभेद्य बनाने के लिए एक राष्ट्रीय सुरक्षा प्रणाली के गठन के बारे में सोचना चाहिए।


हमारी खुशकिस्मती है कि भारत अभी भी गाँवों में रहता है। गाँवों की जीवन प्रणाली ऐसी है कि वहाँ आतंकवादी हमला हो ही नहीं सकता। ये हमले वहाँ होते हैं जहाँ लोगों का केंद्रीकरण हो, जैसे रेलवे स्टेशन, सिनेमा हॉल, बाजार, मेले, बड़े होटल, बस अड्डे, कारखाने, मॉल आदि। भारत एक बड़ा देश है। ऐसे केंद्रों की संख्या बहुत अधिक है। लेकिन इतनी अधिक भी नहीं है कि उनमें से प्रत्येक को सुरक्षा घेरे में न लाया जा सके। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर योजना बनानी चाहिए और सुरक्षा प्रणाली में लाखों लोगों को नियुक्त करना चाहिए। भारत में इतने बड़े पैमाने पर शिक्षित और अशिक्षित बेरोजगारी है कि इस निष्क्रिय पड़ी मानव शक्ति को सुरक्षा के काम में लगाना एक रचनात्मक प्रयत्न भी हो सकता है।


जहाँ तक निजी संपत्तियों का सवाल है, जैसे सिनेमा हॉल, मॉल, होटल, उनके मालिकों के लिए यह कानूनन अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वे उनकी सुरक्षा व्यवस्था को पर्याप्त मजबूत करें। रेलवे, बस अड्डों, हवाई अड्डों आदि की सुरक्षा की जिम्मेदारी इन संस्थाओं के संचालक मंडलों की होनी चाहिए। यही नियम स्कूलों, अस्पतालों आदि पर लागू होगा। अन्य सार्वजनिक स्थान, जैसे बाजार, चौक, मेला स्थल आदि राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र की जिम्मेदारी में होने चाहिए। नि:संदेह इस तंत्र का एक काम समन्वय और निगरानी का भी होगा। ताज और ओबेरॉय होटलों की सुरक्षा व्यवस्था में जिस तरह की गंभीर कमी पाई गई, जिसके कारण आतंकवादी वहाँ महीनों से कार्यरत रहे, उसे देखते हुए यह जरूरी है कि तटस्थ एजेंसियों द्वारा प्रत्येक निगरानी व्यवस्था की समय-समय पर जाँच की जाती रहे। हमारे सुरक्षा विशेषज्ञों का कर्तव्य है कि वे इस तरह के राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र का विस्तृत खाका बना कर सरकार को पेश करें। इसके बिना हम आतंकवादी हमलों की आशंका से मुक्त नहीं रह सकते। हो सकता है तब भी आतंकवादी कुछ स्थानों पर सफल हो जाएँ। पर ये छिटपुट और इक्का-दुक्का घटनाएँ ही होंगी। किसी बड़ी घटना के लिए गुंजाइश नहीं रह जाएगी।


यह कहने से काम नहीं चलेगा कि आतंकवाद एक ऐसी परिघटना है जिससे बचा नहीं जा सकता, उसके खिलाफ चाहे जितनी तैयारी कर लो। पहले तैयारी करके तो दिखाइए। इस बात की पूरी संभावना है कि प्रारंभिक सफलता के बाद यह सुरक्षा तंत्र धीरे-धीरे आलसी और निष्क्रिय हो जाए, जैसा इमरजेंसी के आखिरी दिनों में देखा गया था। अगर भारत को अपनी हिफाजत और इज्जत प्यारी है, तो कम से कम अगले दस वर्षों तक आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर एक जैसी चुस्ती दिखानी होगी। सतत निगरानी के बिना स्वाधीनता को बचाया नहीं जा सकता। मुंबई ने साबित कर दिया है कि छिटपुट आतंकवादी घटनाएँ अब खंड युद्ध का रूप ले चुकी हैं। यह एक तरह की गुरिल्ला लड़ाई थी। भविष्य में यह पैटर्न और बड़े पैमाने पर अपनाया जा सकता है। इसलिए हमारे पास इंतजार करने के लिए थोड़ा भी वक्त नहीं है।


यह जरूर है कि सिर्फ सुरक्षा व्यवस्था को चुस्त और व्यापक बनाना काफी नहीं है। मुस्लिम आतंकवाद के पीछे एक बड़ा कारण भारत के मुस्लिम मानस का आहत होना है। किसी भी वर्ग का तुष्टीकरण नहीं होना चाहिए, पर ऐसी नीतियाँ बनानी ही होंगी जिससे भारत के मुसलमानों को लगे कि उनके साथ न्याय हो रहा है। सुरक्षा के मोर्चे पर कोई रियायत नहीं, पर नीति के स्तर पर पूरी उदारता और लचीलापन, इस तरह का न्यायपूर्ण द्विपक्षीय रुख अपना कर ही हम देश और समाज में शांति लौटा सकते हैं। सबसे पहले तो हमें अर्जेंसी का भाव दिखाना होगा। अगर सरकार इस मामले में चेतने को तैयार नहीं है, तो यह देश के सभी जागरूक वर्गों का कर्तव्य है कि वे इतना तगड़ा जनमत बनाएँ कि सरकार को बाध्य हो कर जरूरी कदम उठाने पड़ें। इस दिशा में अखबार, रेडियो, टीवी जैसे जनसंचार माध्यमों की भूमिका निर्णायक होगी।

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3 टिप्‍पणियां:

  1. आज के भारत की सबसे बड़ी जरुरत यही है ना ! हर एक को सैनिक और देश को छावनी ही बनाना पड़ेगा |
    धन्यवाद |

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  2. सटीक आलेख. आभार इसे प्रस्तुत करने का.

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  3. बहुत बेहतरीन रचना ! शायद इसी की जरुरत है !
    रामराम !

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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