अब तो भारत धनुष उठाओ
राजकिशोर
राजकिशोर
अगर भारत को स्यापा करनेवालों का देश नहीं बने रहना है और उसमें थोड़ा भी पौरुष बचा हुआ है, तो 26 नवंबर के बाद उसे एक नए और शक्तिशाली संकल्प के साथ उठ खड़ा होना होगा। शांतिप्रिय होने के नाम पर हम अपना लुंजपुंजपन बहुत दिखा चुके। सहनशील होने के कारण हम जरूरत से ज्यादा बर्दाश्त कर चुके। व्यवस्था के नाम पर योजनापूर्वक चलाई जाती रही अव्यवस्था का जितना शिकार हो सकते थे, हो चुके। 26 नवंबर 2008 का महत्व भारत पर चीन के हमले की तरह है। उसके बाद देश अपनी प्रतिरक्षा के प्रति सजग हो गया था। हालांकि हम अभी तक अन्य देशों के हाथ में चली गई भारतीय जमीन वापस लेने की दिशा में एक कदम भी नहीं उठा पाए हैं, पर आश्वस्त हैं कि हमारी वर्तमान सीमाएँ सुरक्षित हैं। लेकिन असली देश सीमाओं पर नहीं, सीमाओं के भीतर होता है। यहाँ हम उतने ही लाचार और अप्रस्तुत हैं जितने नादिरशाह या अब्दाली के जमाने में थे। दस-बारह आदमियों का हथियारबंद गिरोह हमारे एक बड़े और संपन्न शहर में घुस आए और कत्लेआम करने लगे, इसे सिर्फ 'कायराना और बर्बरतापूर्ण हमला' कह कर टाल देना भारत को एक नपुंसक देश बना कर रखने का आत्म-क्रूर मंत्र है। अब हम बयान नहीं सुनना चाहते, कर्मठता देखना चाहते हैं।
बेशक हमें 9/11 के बाद के संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की तरह तानाशाह और गुंडा देश नहीं बनना है। हम व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर अव्यवस्था फैलाना नहीं चाहते। जो यह कहता है कि अब हमें पाकिस्तान पर हमला कर देना चाहिए, वह युद्ध-पिपासु है। दोनों देशों के पास नाभिकीय हथियार होने से यह उतना आसान भी नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। यह विशुद्ध कायरता होगी। हमें पाकिस्तान के शासकों से बहुत साफ लफ्जों में कहना होगा कि वे अपने यहाँ से आतंकवाद के संपूर्ण तंत्र को तुरंत नष्ट करें, नहीं तो संभव हुआ तो यह काम कई देशों के साथ मिल कर और ऐसा न हो सका, तो भारत अकेले करेगा। यह सिर्फ भारत का कर्तव्य नहीं है कि वह आतंकवादियों को अपनी सीमा के भीतर आने न दे। यह पाकिस्तान का भी फर्ज है कि वह आतंकवादियों को अपनी सीमा पार न करने दे। कई वर्षों से जो रहा है, वह रुक-रुक कर किया जा रहा युद्ध नहीं तो और क्या है? यह युद्ध पाकिस्तान के हुक्मरान स्वयं और सीधे न कर रहे हों, तब भी इसके लिए पाकिस्तान की जमीन का इस्तेमाल तो हो ही रहा है। इस इस्तेमाल को रोकने की गारंटी पाकिस्तान नहीं दे सकता, तो भारत और बाकी दुनिया को इसे अंजाम देना होगा। पाकिस्तान में अब लोकतंत्र वापस आ गया है। उसे यह समझाना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि यह उसके अपने भी हित में है।
बेशक हमें 9/11 के बाद के संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की तरह तानाशाह और गुंडा देश नहीं बनना है। हम व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर अव्यवस्था फैलाना नहीं चाहते। जो यह कहता है कि अब हमें पाकिस्तान पर हमला कर देना चाहिए, वह युद्ध-पिपासु है। दोनों देशों के पास नाभिकीय हथियार होने से यह उतना आसान भी नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। यह विशुद्ध कायरता होगी। हमें पाकिस्तान के शासकों से बहुत साफ लफ्जों में कहना होगा कि वे अपने यहाँ से आतंकवाद के संपूर्ण तंत्र को तुरंत नष्ट करें, नहीं तो संभव हुआ तो यह काम कई देशों के साथ मिल कर और ऐसा न हो सका, तो भारत अकेले करेगा। यह सिर्फ भारत का कर्तव्य नहीं है कि वह आतंकवादियों को अपनी सीमा के भीतर आने न दे। यह पाकिस्तान का भी फर्ज है कि वह आतंकवादियों को अपनी सीमा पार न करने दे। कई वर्षों से जो रहा है, वह रुक-रुक कर किया जा रहा युद्ध नहीं तो और क्या है? यह युद्ध पाकिस्तान के हुक्मरान स्वयं और सीधे न कर रहे हों, तब भी इसके लिए पाकिस्तान की जमीन का इस्तेमाल तो हो ही रहा है। इस इस्तेमाल को रोकने की गारंटी पाकिस्तान नहीं दे सकता, तो भारत और बाकी दुनिया को इसे अंजाम देना होगा। पाकिस्तान में अब लोकतंत्र वापस आ गया है। उसे यह समझाना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि यह उसके अपने भी हित में है।
हमें सभी दिशाओं में सक्रिय होना चाहिए। एक, सबसे पहले मामले को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में ले जाना होगा। वहाँ भारतीय उपमहादेश में बढ़ते हुए आतंकवाद को महत्वपूर्ण मुद्दा बनाना होगा। सुरक्षा परिषद को कायल करना होगा कि वह आतंकवाद के खिलाफ एक सुविचारित नीति और कार्यक्रम बनाए। दो, हमें आतंकवाद की समस्या पर तुरंत दो अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करना चाहिए। एक सम्मेलन सरकारों के स्तर पर हो तथा दूसरा सम्मेलन बुद्धिजीवियों और चिंतकों के स्तर पर। इससे आतंकवाद के खिलाफ व्यापक माहौल बनाने में मदद मिलेगी। तीन, हमें जल्द से जल्द एक बहुराष्ट्रीय सैनिक सहयोग दल बनाना चाहिए जो आतंकवाद के निर्यात को रोकने के लिए सक्षम कार्रवाई कर सके। इस सहयोग दल में जितने अधिक देशों का प्रतिनिधित्व हो सके, उतना ही अच्छा है। ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस, श्रीलंका, चीन -- जिसका भी सहयोग मिल सके, लेने से हिचकना नहीं चाहिए। कुल मिला कर, इरादा यह साबित कर देने का होना चाहिए कि भारत अब 'शून्य आतंकवाद' की स्थिति पैदा करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ और पूरी तरह तैयार है।
चार, असली तैयारी यह होगी कि हम भारत के चप्पे-चप्पे को 'प्रतिबंधित' और 'सुरक्षित' क्षेत्र बना दें। रेड अलर्ट और हाई अलर्ट सुनते-सुनते हमारे कान पक गए हैं। यह नागरिक सुरक्षा की नौकरशाही की स्थायी शायरी है। बीच-बीच में अलर्ट हो जाना क्रमिक आत्महत्या की तैयारी है। अब तक की घटनाओं की सीख यही है कि हमें प्रतिक्षण अलर्ट रहना होगा -- इसके लिए कोई भी कीमत कम है। भारत के एक भी नागरिक की जान जाती है, तो यह पूरे मुल्क के लिए शर्म और धिक्कार की बात है। यह हमारा सौभाग्य है कि भारत अभी भी गांवों का देश है, जहाँ आतंकवाद की घटना हो ही नहीं सकती। बच गए तटीय इलाके, शहर और कस्बे, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन और बस अड्डे, तो उनकी संख्या बड़ी जरूर है, पर इतनी बड़ी भी नहीं है कि उन्हें पल-प्रतिपल निगरानी में रखना असंभव हो। भारत के पास बहुत बड़ी सेना है। उसका एक हिस्सा इस काम में लगा देना चाहिए। साथ ही, राष्ट्रीय सुरक्षा दल के नाम से लाखों नौजवानों की एक विशाल फौज संगठित की जाना चाहिए, जिसके सदस्य सभी प्रमुख स्थलों की निगरानी करेंगे। इसके लिए इमरजेंसी घोषित करनी पड़े, तो संकोच नहीं करना चाहिए। देश के पास पैसे की कमी नहीं है। और जरूरत हो तो नागरिक आर्थिक सहयोग देने के लिए बड़े उत्साह से आगे आएँगे। जान है तो जहान है। कम से कम दस वर्षों तक बहुत बड़े पैमाने पर इस तरह की स्व-निगरानी का कार्यक्रम चलाया जाए, तो न केवल हम एक सुरक्षित राष्ट्र बन सकेंगे, बल्कि हमारे नागरिक जीवन में भी चुस्ती आ सकेगी। विदेशी आतंकवाद के साथ-साथ देशी आतंकवाद को भी कुचला जा सकेगा।
यह सब पढ़ कर ऐसा लग सकता है कि यह भारत को एक सैनिक देश बनाने का प्रस्ताव है। ऐसा कतई नहीं है। यह इस समय की एक अति सामान्य जरूरत है। जब हमारे घर में चोर या डाकू घुस आते हैं, तब क्या घर का हर सदस्य, यहाँ तक कि छोटे बच्चे भी, सैनिक नहीं बन जाते? जब किसी गाँव पर हमला होता है -- पशुओं का या आदमियों का, तो क्या गाँव के सभी लोग -- यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी -- बल्लम, लाठी, डंडा, छड़ी जो भी तुरंत मिल जाए, उसे ले कर गाँव की रक्षा करने के लिए घर से निकल नहीं पड़ते? आज देश ऐसा ही संकटग्रस्त घर या गाँव है। यह हमारे लिए हिफाजत और इज्जत, दोनों का मामला है। सिर्फ सीमा पर गश्त लगा कर हम क्या करेंगे, अगर सीमाओं के भीतर हमारे भाई, बहन, बुजुर्ग, बच्चे, विदेशी अतिथि इसी तरह एक-एक कर आतंकवादी हमलों का शिकार होते रहें? आज हममें से हर कोई बारी-बारी से असुरक्षित है। विकल्प दो ही हैं -- या तो कोई भी आदमी घर से न निकले या सभी लोग घरों से निकलें और एक राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र तैयार करें। जब तक हम राष्ट्रीय स्तर पर शोर नहीं मचाएँगे, भेड़िए नहीं भागेंगे। वे ताक में रहेंगे और जहां-तहां हमला करते रहेंगे। हम कब तक नौकरशाहों द्वारा तैयार बयान जारी करते रहेंगे? हमारे मंत्री और नेता कब तक मृतकों और घायलों को देखने अस्पताल जाते रहेंगे?
चार, असली तैयारी यह होगी कि हम भारत के चप्पे-चप्पे को 'प्रतिबंधित' और 'सुरक्षित' क्षेत्र बना दें। रेड अलर्ट और हाई अलर्ट सुनते-सुनते हमारे कान पक गए हैं। यह नागरिक सुरक्षा की नौकरशाही की स्थायी शायरी है। बीच-बीच में अलर्ट हो जाना क्रमिक आत्महत्या की तैयारी है। अब तक की घटनाओं की सीख यही है कि हमें प्रतिक्षण अलर्ट रहना होगा -- इसके लिए कोई भी कीमत कम है। भारत के एक भी नागरिक की जान जाती है, तो यह पूरे मुल्क के लिए शर्म और धिक्कार की बात है। यह हमारा सौभाग्य है कि भारत अभी भी गांवों का देश है, जहाँ आतंकवाद की घटना हो ही नहीं सकती। बच गए तटीय इलाके, शहर और कस्बे, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन और बस अड्डे, तो उनकी संख्या बड़ी जरूर है, पर इतनी बड़ी भी नहीं है कि उन्हें पल-प्रतिपल निगरानी में रखना असंभव हो। भारत के पास बहुत बड़ी सेना है। उसका एक हिस्सा इस काम में लगा देना चाहिए। साथ ही, राष्ट्रीय सुरक्षा दल के नाम से लाखों नौजवानों की एक विशाल फौज संगठित की जाना चाहिए, जिसके सदस्य सभी प्रमुख स्थलों की निगरानी करेंगे। इसके लिए इमरजेंसी घोषित करनी पड़े, तो संकोच नहीं करना चाहिए। देश के पास पैसे की कमी नहीं है। और जरूरत हो तो नागरिक आर्थिक सहयोग देने के लिए बड़े उत्साह से आगे आएँगे। जान है तो जहान है। कम से कम दस वर्षों तक बहुत बड़े पैमाने पर इस तरह की स्व-निगरानी का कार्यक्रम चलाया जाए, तो न केवल हम एक सुरक्षित राष्ट्र बन सकेंगे, बल्कि हमारे नागरिक जीवन में भी चुस्ती आ सकेगी। विदेशी आतंकवाद के साथ-साथ देशी आतंकवाद को भी कुचला जा सकेगा।
यह सब पढ़ कर ऐसा लग सकता है कि यह भारत को एक सैनिक देश बनाने का प्रस्ताव है। ऐसा कतई नहीं है। यह इस समय की एक अति सामान्य जरूरत है। जब हमारे घर में चोर या डाकू घुस आते हैं, तब क्या घर का हर सदस्य, यहाँ तक कि छोटे बच्चे भी, सैनिक नहीं बन जाते? जब किसी गाँव पर हमला होता है -- पशुओं का या आदमियों का, तो क्या गाँव के सभी लोग -- यहाँ तक कि स्त्रियाँ भी -- बल्लम, लाठी, डंडा, छड़ी जो भी तुरंत मिल जाए, उसे ले कर गाँव की रक्षा करने के लिए घर से निकल नहीं पड़ते? आज देश ऐसा ही संकटग्रस्त घर या गाँव है। यह हमारे लिए हिफाजत और इज्जत, दोनों का मामला है। सिर्फ सीमा पर गश्त लगा कर हम क्या करेंगे, अगर सीमाओं के भीतर हमारे भाई, बहन, बुजुर्ग, बच्चे, विदेशी अतिथि इसी तरह एक-एक कर आतंकवादी हमलों का शिकार होते रहें? आज हममें से हर कोई बारी-बारी से असुरक्षित है। विकल्प दो ही हैं -- या तो कोई भी आदमी घर से न निकले या सभी लोग घरों से निकलें और एक राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र तैयार करें। जब तक हम राष्ट्रीय स्तर पर शोर नहीं मचाएँगे, भेड़िए नहीं भागेंगे। वे ताक में रहेंगे और जहां-तहां हमला करते रहेंगे। हम कब तक नौकरशाहों द्वारा तैयार बयान जारी करते रहेंगे? हमारे मंत्री और नेता कब तक मृतकों और घायलों को देखने अस्पताल जाते रहेंगे?
लेकिन (और यह बहुत ही महत्वपूर्ण लेकिन है) आतंकवाद से संघर्ष सिर्फ सैनिक मामला नहीं है। यह एक नागरिक मामला भी है। इसका संबंध सिर्फ सुरक्षा तंत्र से नहीं है, सरकार और समाज की नीतियों से भी है। हमें तुरंत ऐसे कदम उठाने होंगे जिनसे अल्पसंख्यकों के लगे कि यह देश उतना ही उनका भी है जितना बहुसंख्यकों का है। सोलह साल हो गए, पर बाबरी मस्जिद ध्वंस का न्याय अभी तक नहीं हो सका है। यह मजाक नहीं तो क्या है? इस कांड का न्यायिक निर्णय तुरंत सामने आना चाहिए -- इसके लिए अदालतों को भले ही लगातार रात-दिन काम करना पड़े। जिस व्यक्ति या संगठन ने एक भी सांप्रदायिक बयान दिया हो या सांप्रदायिक काम किया हो, उस व्यक्ति और उस संगठन के सभी प्रतिनिधियों को तुरंत गिरफ्तार कर उनके खिलाफ मुकदमा शुरू कर देना चाहिए। इस तरह के वे तमाम काम तुरंत करने चाहिए जिनसे देश में सांप्रदायिकता का विष कम होता हो और सामुदायिक सौहार्द तथा शांति स्थापित होती हो। पर जो भी हो, शालीनता से हो और नागरिक अधिकारों का सम्मान करते हुए हो, ताकि हम कुछ अधिक सभ्य बन सकें, न कि और ज्यादा असभ्य हो जाएँ।
यही समय आर्थिक क्षेत्र में वास्तविक सुधार करने का भी हो सकता है। देश इस समय अभूतपूर्व मंदी से गुजर रहा है। छंटनी का सिलसिला शुरू हो गया है। नई नौकरियां नहीं पैदा हो रही हैं। प्रगति मैदान में इस बार के व्यापार मेले में बड़ी-बड़ी कंपनियों की अनुपस्थिति बता रही है कि वे अपने खर्च कम करने में लगी हुई हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र तैयार करने से धन का बड़े पैमाने पर पुनर्वितरण होगा, तो बाजार में नई माँग पैदा होगी। तरह-तरह की ऐयाशियों को रोक कर उस पैसे का निवेश उत्पादन बढ़ाने में कैसे किया जाए, इस पर विचार किया जाना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त और अनिवार्य बनाने का कार्यक्रम स्वीकार किया जा चुका है। इसे ठीक ढंग से कार्यान्वित करने और बच्चों को उत्तम शिक्षा देने के लिए लाखों शिक्षकों की जरूरत होगी। इस तरह के तमाम कार्यक्रमों पर विचार करना चाहिए जिससे देश का पुनर्निर्माण हो सकें। संसद की बैठक बुला कर एक राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाना आवश्यक है।
हाँ, यह ऐसा मौका है जिसका लाभ उठा कर देश भर में रचनात्मक सनसनी पैदा की जा सकती है। करगिल संघर्ष का समय भी एक ऐसा ही मौका था। उन दिनों देश भर में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की लहर दौड़ गई थी। चीनी हमले के बाद राष्ट्रव्यापी स्तर पर देशप्रेम का जो तूफानी जज्बा पैदा हुआ था, उसी का एक संक्षिप्त संस्करण था यह। लेकिन वाजपेयी सरकार ने उस मौके का कोई बड़ा उपयोग नहीं किया। उसका लक्ष्य महज चुनाव जीतना था। चुनाव जीतने के बाद वह और निष्क्रिय हो गई। इस बार ऐसा नहीं होना चाहिए।
सवाल यह है कि क्या इस ऐतिहासिक मौके का यह रचनात्मक इस्तेमाल हो सकेगा। क्या ऐसा प्रतिभाशाली, बुद्धिमान और साहसी नेतृत्व हमारे पास है? जाहिर है कि नहीं है। कह तो सभी यह रहे हैं कि यह मुंबई पर नहीं, भारत पर हमला है। लेकिन हमले के वक्त देश की हर शिरा में जो सनसनी महसूस की जानी चाहिए, वह वास्तविक जीवन में दिखाई नहीं पड़ती। हम रगों में दौड़ते रहने के कायल नहीं हैं। लहू है तो उसे आँख से टपकना चाहिए। लोग दुखी और चिंतित जरूर हैं, पर सकपकाए हुए भी हैं। वे जानते हैं कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व में कोई जान नहीं है। जान होती, तो हम बहुत पहले ही चेत गए होते। ऐसी स्थिति में देश भर के, सभी भाषाओं और समाजों के बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों और शिक्षकों का यह राष्ट्रीय कर्तव्य हो जाता है कि वे जितना शोर मचा सकते हैं, शोर मचाएँ और भारत के शासन तंत्र की शिराओं में जमे हुए सर्द खून में रवानगी ले आएँ। नहीं तो हर चौथे-पाँचवें दिन या दूसरे-तीसरे महीने हम अपना-सा मुँह बना कर एक-दूसरे से चुपचाप पूछते रहेंगे, क्या भारत एकदम मुरदा देश है?
सार्थक और विचारणीय लेख!आज इसी सार्थक पहल की जरुरत है!
जवाब देंहटाएं"कुल मिलकर, इरादा यह साबित कर देने का होना चाहिए की भारत अब शून्य आतंकवाद की स्थिति पैदा करने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ और पूरी तरह तैयार है. "
जवाब देंहटाएंकाश ऐसा ही हो. हमारे नेतृत्व का अब तो ह्रदय परिवर्तन हो .
अच्छा लेख है!
जवाब देंहटाएंकन्धार के माफीनामा, और राजीनामा का है अंजाम मुम्बई का कोहराम ।
जवाब देंहटाएंभून दिया होता कन्धार में तो मुम्बई न आ पाते जालिम ।
हमने ही छोड़े थे ये खुंख्वार उस दिन, आज मुम्बई में कहर ढाने के लिये ।।
इतिहास में दो शर्मनाक घटनायें हैं, पहली पूर्व केन्द्रीय मंत्री मुफ्ती मोहमद सईद के मंत्री कार्यकाल के दौरान उनकी बेटी डॉं रूबिया सईद की रिहाई के लिये आतंकवादीयों के सामने घुटने टेक कर खतरनाक आतंकवादीयों को रिहा करना, जिसके बाद एच.एम.टी. के जनरल मैनेजर खेड़ा की हत्या कर दी गयी । और दूसरी कन्धार विमान अपहरण काण्ड में आतंकवादीयों के सामने घुटने टेक कर रिरियाना और अति खुख्वार आतंकवादीयों को रिहा कर देना । उसी का अंजाम सामने है । तमाशा यह कि जिन्होंने इतिहास में शर्मनाक कृत्य किये वे ही आज बहादुरी का दावा कर रहे हैं, अफसोस ऐसे शर्मसार इतिहास रचने वाले नेताओं की राजनीति पर । थू है उनके कुल और खानदान पर ।
आपके विचार और विश्लेषण से पूरी सहमति -पर तत्काल कुछ किया जान चाहिए .हम अवसर गँवा रहे हैं -कृपया यहाँ भी विचार व्यक्त करें ! http://mishraarvind.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंआतंकवाद सब से अधिक जनता को प्रभावित करता है। इस लिए आतंकवाद विरोधी युद्ध में जनता को शामिल करने का साहस नेताओं को दिखाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंबहुत सारगर्भित लेख ! आज हमें नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है ! हमारी ढुल मुल नीतिया अब बदलनी होंगी !
जवाब देंहटाएंरामराम !
अनिवार्य सैन्य शिक्षा से ज़्यादा अनिवार्य यौन शिक्षा ज़्यादा ज़रूरी है.
जवाब देंहटाएंbahut achha likha hai aur ekdum sahi likha hai.
जवाब देंहटाएंबहुत ही महत्वपूर्ण एवं विचारणीय लेख.
जवाब देंहटाएंकहते है की इतिहास हमेशा अपने आप को दोहराता है.जब मोहम्मद गौरी/महमूद गजनबी जैसे आक्रमणकारियों का ये देश कुछ नहीं बिगाड पाया, जो कि सत्रह-सत्रह बार इस देश को मलियामेट करके चलते बने, तो ये लोग अब क्या उखाड लेंगे.
वैसे भी ये बापू का देश है(भगत सिहं का नाम किसी साले की जुबान पे नहीं आयेगा).
अहिंसा परमो धर्म:
अब और क्या कहें, सरकार चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की हो या मनमोहन सिंह की, आतंकवाद हमारी नियति है। ये तो केवल भूमिका बन रही है, हम पर और बड़ी विपत्तियां आने वाली हैं।क्यूं कि 2020 तक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे इस देश की हुकूमत चंद कायर और सत्तालोलुप नपुंसक कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री महोदय ” भारत इस तरह के हमलों से विचलित नहीं होगा और इस हमले में शामिल लोगों-संगठनों का मुकाबला पूरी ताकत से करेगा।”
अजी छोडिये इन बूढी हड्डियों मे अब वो बात कहां, आप ‘सोना-चांदी च्यवनप्राश’ क्यों नही ट्राई करते. शायद बासी कढी मे उबाल आ ही जाये