षष्ठ `विश्वम्भरा' स्थापना दिवस समारोह संपन्न
हैदराबाद, 13 नवंबर 2008 .
भारतीय जीवन मूल्यों के अंतर्राष्ट्रीय प्रचार प्रसार के लिए समर्पित सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था "विश्वम्भरा" का छठा वार्षिकोत्सव और स्थापनादिवस व्याख्यान १२ नव. २००८, बुधवार को आन्ध्रप्रदेश हिन्दी अकादमी के गगनविहार, नामपल्ली, हैदराबाद स्थित सभागार में आयोजित किया गया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता दैनिक समाचारपत्र 'स्वतन्त्रवार्ता' के सम्पादक डॊ. राधेश्याम शुक्ल ने की तथा संस्था के मानद मुख्य संरक्षक ज्ञानपीठ पुरस्कार गृहीता प्रसिद्ध साहित्यकार पद्मभूषण डॊ. सी.नारायण रेड्डी विशेष रूप से उपस्थित रहे। ( उल्लेखनीय है कि इस अवसर पर प्रसिद्ध चित्रकार एवं कला समीक्षक पद्मश्री जगदीश मित्तल विशेष अतिथि के रूप में पधारने वाले थे, परन्तु भ्रमवश वे आन्ध्रप्रदेश हिन्दी अकादमी के बजाय दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा में पहुँच गए और प्रतीक्षा करते रहे; क्योंकि विगत वर्षों में यह आयोजन वहीं सम्पन्न होता आ रहा था)
" विश्वम्भरा : भारतीय जीवनमूल्यों की संकल्पना " के छठे वार्षिकोत्सव के अवसर पर अंग्रेजी व विदेशी भाषा विश्वविद्यालय (EFLU) के रूसी भाषा विभाग के आचार्य प्रोफ़ेसर जगदीश प्रसाद डिमरी ने "संस्कृति और संस्कृत" विषय पर "विश्वम्भरा स्थापनादिवस व्याख्यान" दिया।
उल्लेखनीय है कि डॊ. जगदीश प्रसाद डिमरी भारतीय व रूसी भाषाविज्ञान के मर्मज्ञ विद्वान हैं। उन्होंने १९७३ में मॊस्को से पीएच.डी. की तथा केन्द्रीय अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा संस्थान, हैदराबाद में विभिन्न शैक्षणिक एवं प्रशासनिक पदों पर नियुक्त रहे। प्रो. डिमरी इस समय भारत में रूसी के वरिष्ठतम प्रोफ़ेसर हैं तथा २००५ में केन्द्रीय अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा संस्थान, हैदराबाद के कुलपति भी रह चुके हैं। उन्हें पाणिनि के व्याकरण, पतंजलि के महाभाष्य,भारतीय काव्यशास्त्र और सौन्दर्यशास्त्र तथा सांस्कृतिक भाषा शिक्षण के पाठ्यक्रम आरम्भ करने का भी श्रेय प्राप्त है।
अतिथियों के मंचासीन होने के उपरान्त 'विश्वम्भरा' के वार्षिकोत्सव का श्रीगणेश दीप प्रज्वलन के साथ हुआ। प्रख्यात पर्यावरणविद् तथा उस्मानिया विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. किशोरी लाल व्यास ने मंगलाचरण किया तथा सुषमा बैद ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की।
संस्था की ओर से अतिथियों का चंदन, हल्दी और कुंकुम के तिलक, अक्षत, अंगवस्त्र औरश्रीफल द्वारा पारंपरिक ढंग से स्वागत किया गया।
संस्था की संस्थापक-महासचिव डॉ. कविता वाचक्नवी ने 'विश्वम्भरा' के उद्देश्यों व गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि २००२ में गठित यह संस्था जनसंचार के सभी पारम्परिक व आधुनिक माध्यमों का प्रयोग करके सम्पूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति द्वारा प्रतिष्ठित जीवनमूल्यों का प्रचार-प्रसार करने के लिए संकल्पबद्ध है। उन्होंने जानकारी दी कि विश्वम्भरा ने नई पीढ़ी को लक्षित करके प्राईवेट और पब्लिक स्कूलों में भारतीय जीवनमूल्यों और शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति से सम्बन्धित पाठ्यक्रमों, व्याख्यानों तथा कार्यशालाओं का आयोजन किया है । डॊ. वाचक्नवी ने यह भी बताया कि भाषा और संस्कृति के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध में विश्वास करने के कारण "विश्वम्भरा" हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार में भी संलग्न है तथा इसके लिए इंटरनेट के माध्यम का बखूबी उपयोग कर रही है।
तदनन्तर मुख्य वक्ता प्रो. जगदीश प्रसाद डिमरी ने सभा को "संस्कृति और संस्कृत"विषय पर सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि, ''संस्कृति समस्त मानवता को विशेषता और भूषण प्रदान करती है । वह जनसमुदाय के उन उच्च विचारों और आदर्शो का समन्वित रूप होती है जिनसे संपन्न होने पर किसी व्यक्ति अथवा समाज को सुसंस्कृत माना जाता है। सदाचार और सद्बुद्धि से लेकर समस्त प्रकार के आचार-व्यवहार और नैतिक विचार संस्कृति में समाविष्ट होते हैं।''
प्रो. डिमरी ने संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'संस्कृति' की व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए बल देकर कहा कि अंग्रेज़ी का 'कल्चर' शब्द इसका सटीक पर्याय नहीं है। उन्होंने भारतीय संस्कृति की परंपरा का उल्लेख करते हुए बताया कि वैदिक साहित्य के समान सर्वधर्मसमभाव से संपन्न साहित्य विश्व में अन्यत्र उपलब्ध होना दुर्लभ है।
प्रो.जगदीश प्रसाद डिमरी ने अपने व्याख्यान में संस्कृति की नित्यता का प्रतिपादन किया और कहा कि वह रूढ़िवादिता कदापि नहीं है। उन्होंने भारतीय संस्कृति में सहअस्तित्व के विचार को रेखांकित करते हुए कहा कि उसका स्वरूप बहुलतावादी है और अपनी 'अनेकता में एकता' एवं 'एकता में अनेकता' को साधने की शक्ति के कारण ही वह समग्र मनुष्य जाति के लिए ग्राह्य है। उन्होंने भारतीय संस्कृति को जातिवाद से जोड़ने के विचार का खंडन करते हुए आंध्रप्रदेश, उत्तराखंड और बंगाल में 'महाभारत' की मूल भावना को सुरक्षित रखने में सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी समझी जानेवाली जातियों के योगदान की ओर ध्यान दिलाया और कहा कि इन सब सांस्कृतिक धरोहरों को सुरक्षित बनाए रखना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है।
संस्कृति और साहित्य के संबंध की चर्चा करते हुए डॉ. डिमरी ने आगे कहा कि रीति-रिवाजों और साहित्य से संस्कृति का घनिष्ठ संबंध है। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी माना कि भारतीय परंपरा में पर्वत, वृक्ष और नदी आदि समस्त प्राकृतिक संपदा को सांस्कृतिक संपदा का स्थान प्राप्त है इसीलिए हिमालय को यहाँ 'देवतात्मा' तथा गंगा को 'देवनदी' कहा गया है। उन्होंने सांस्कृतिक अनेकता को भारत की प्रगति और सार्वभौमिकता का आधार बताते हुए कहा कि इसे स्वानुभूति और लोक व्यवहार द्वारा ग्रहीत और पुष्ट किया जा सकता है।
संस्कृति को मनुष्य का 'संस्कार' और 'परिमार्जन' करने वाली साधना का प्रतीक मानते हुए डॉ. जगदीश प्रसाद डिमरी ने कहा कि भाषा और साहित्य के विविध रूपों में हमारी यह संस्कृति लंबी कालयात्रा करके हम तक पहुँची है और हमारा दायित्व है कि हम इसे और भी पुष्ट रूप में अगली पीढ़ियों को सौंपें।
इस अवसर पर 'विश्वम्भरा' की ओर से स्थापनादिवस व्याख्यानदाता प्रो. डिमरी का सारस्वत अभिनंदन किया गया तथा उन्हें संस्था का रजत स्मृतिचिह्न भेंट किया गया।
संस्था के मानद मुख्य संरक्षक ज्ञानपीठ पुरस्कार ग्रहीता साहित्यकार पद्मभूषण डॉ. सी.नारायण रेड्डी ने 'विश्वम्भरा' की गतिविधियों पर प्रसन्नता प्रकट की और आशा व्यक्त की कि भविष्य में भारतीय संस्कृति और भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार में यह संस्था और भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। उन्होंने ध्यान दिलाया कि संस्कृति हमारे `होने' का पर्याय है तथा सभ्यता हमारी `भौतिक उपलब्धियों' का द्योतन कराती है। उनके अनुसार संस्कृति का क्षेत्र अत्यन्त विशाल है जिसके अन्तर्गत समस्त कलाओं से लेकर आचार-व्यवहार तक सब कुछ समा जाता है।
पर्यावरणविद् कथाकार एवं कवि प्रोफ़ेसर किशोरीलाल व्यास ने बलपूर्वक कहा कि भारतीय संस्कृति जिन अनेक कारणों से आज सारे विश्व के लिए प्रासंगिक है उनमें से एक हमारी पर्यावरण सम्बन्धी चेतना है क्योंकि हम प्रकृति से प्रतियोगिता नहीं मानते और न ही उसे जीतने में विश्वास रखते हैं, बल्कि हमारा विश्वास 'जियो और जीने दो' की नीति में है।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए 'स्वतंत्रवार्ता' के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने इस बात पर हर्ष व्यक्त किया कि विश्व सूचना के माध्यम इंटरनेट को अपना कर विगत वर्ष में 'विश्वम्भरा' ने भारतीय संस्कृति और हिंदी की सेवा के क्षेत्र में सराहनीय उपलब्धि दर्ज की है। उन्होंने संस्कृति की व्याख्या संस्कृत परम्परा के आधार पर करने की सराहना की और कहा कि विविध भारतीय भाषाओं में व्यक्त चिन्तन परम्परा मूलत: एक है। भिन्नता के बीच एकता को पहचानने पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि किसी भी देश के लिए सांस्कृतिक अहंकार से दूर रहना ही श्रेयस्कर होता है क्योंकि स्थानीय संस्कृतियाँ नहीं बल्कि मानव-संस्कृति सर्वोपरि है।
संस्था के उत्स से ही अपना मार्गदर्शन देते आ रहे "विश्वम्भरा" के संवीक्षक वरिष्ठ कवि-समीक्षक ( तेवरी काव्यान्दोलन के प्रणेता) दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय खंड ( स्नातकोत्तर और शोध संस्थान) के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर ऋषभदेव शर्मा ने अपनी अत्यंत चिन्तनधर्मी व सहज शैली में कार्यक्रम का संचालन करते हुए संस्था को उसके लक्ष्यों के प्रति सावधान व सचेत रहने की अपनी अपेक्षा दुहराई और उत्तरोत्तर नए संसाधनों के प्रयोग के प्रति जागरूक रह कर कार्यक्षेत्र का निरन्तर विस्तार करने को सराहते हुए नई योजनाओं की रूपरेखा के अनुपालन पर भी बल दिया।
'निर्दोष सोशल सर्विसेज़' के अध्यक्ष डॊ. रामकुमार तिवारी ने संस्था को शुभकामनाएँ देते हुए सभासदों व सहयोगियों का "विश्वम्भरा" की ओर से आभार व्यक्त किया।
षष्ठ 'विश्वम्भरा' स्थापना दिवस व्याख्यान संपन्न
हैदराबाद, 13 नवंबर 2008 .
भारतीय जीवन मूल्यों के अंतर्राष्ट्रीय प्रचार प्रसार के लिए समर्पित सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था "विश्वम्भरा" का छठा वार्षिकोत्सव और स्थापनादिवस व्याख्यान १२ नव. २००८, बुधवार को आन्ध्रप्रदेश हिन्दी अकादमी के गगनविहार, नामपल्ली, हैदराबाद स्थित सभागार में आयोजित किया गया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता दैनिक समाचारपत्र 'स्वतन्त्रवार्ता' के सम्पादक डॊ. राधेश्याम शुक्ल ने की तथा संस्था के मानद मुख्य संरक्षक ज्ञानपीठ पुरस्कार गृहीता प्रसिद्ध साहित्यकार पद्मभूषण डॊ. सी.नारायण रेड्डी विशेष रूप से उपस्थित रहे। ( उल्लेखनीय है कि इस अवसर पर प्रसिद्ध चित्रकार एवं कला समीक्षक पद्मश्री जगदीश मित्तल विशेष अतिथि के रूप में पधारने वाले थे, परन्तु भ्रमवश वे आन्ध्रप्रदेश हिन्दी अकादमी के बजाय दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा में पहुँच गए और प्रतीक्षा करते रहे; क्योंकि विगत वर्षों में यह आयोजन वहीं सम्पन्न होता आ रहा था)
" विश्वम्भरा : भारतीय जीवनमूल्यों की संकल्पना " के छठे वार्षिकोत्सव के अवसर पर अंग्रेजी व विदेशी भाषा विश्वविद्यालय (EFLU) के रूसी भाषा विभाग के आचार्य प्रोफ़ेसर जगदीश प्रसाद डिमरी ने "संस्कृति और संस्कृत" विषय पर "विश्वम्भरा स्थापनादिवस व्याख्यान" दिया।
उल्लेखनीय है कि डॊ. जगदीश प्रसाद डिमरी भारतीय व रूसी भाषाविज्ञान के मर्मज्ञ विद्वान हैं। उन्होंने १९७३ में मॊस्को से पीएच.डी. की तथा केन्द्रीय अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा संस्थान, हैदराबाद में विभिन्न शैक्षणिक एवं प्रशासनिक पदों पर नियुक्त रहे। प्रो. डिमरी इस समय भारत में रूसी के वरिष्ठतम प्रोफ़ेसर हैं तथा २००५ में केन्द्रीय अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा संस्थान, हैदराबाद के कुलपति भी रह चुके हैं। उन्हें पाणिनि के व्याकरण, पतंजलि के महाभाष्य,भारतीय काव्यशास्त्र और सौन्दर्यशास्त्र तथा सांस्कृतिक भाषा शिक्षण के पाठ्यक्रम आरम्भ करने का भी श्रेय प्राप्त है।
अतिथियों के मंचासीन होने के उपरान्त 'विश्वम्भरा' के वार्षिकोत्सव का श्रीगणेश दीप प्रज्वलन के साथ हुआ। प्रख्यात पर्यावरणविद् तथा उस्मानिया विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. किशोरी लाल व्यास ने मंगलाचरण किया तथा सुषमा बैद ने सरस्वती वंदना प्रस्तुत की।
संस्था की ओर से अतिथियों का चंदन, हल्दी और कुंकुम के तिलक, अक्षत, अंगवस्त्र औरश्रीफल द्वारा पारंपरिक ढंग से स्वागत किया गया।
संस्था की संस्थापक-महासचिव डॉ. कविता वाचक्नवी ने 'विश्वम्भरा' के उद्देश्यों व गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि २००२ में गठित यह संस्था जनसंचार के सभी पारम्परिक व आधुनिक माध्यमों का प्रयोग करके सम्पूर्ण विश्व में भारतीय संस्कृति द्वारा प्रतिष्ठित जीवनमूल्यों का प्रचार-प्रसार करने के लिए संकल्पबद्ध है। उन्होंने जानकारी दी कि विश्वम्भरा ने नई पीढ़ी को लक्षित करके प्राईवेट और पब्लिक स्कूलों में भारतीय जीवनमूल्यों और शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति से सम्बन्धित पाठ्यक्रमों, व्याख्यानों तथा कार्यशालाओं का आयोजन किया है । डॊ. वाचक्नवी ने यह भी बताया कि भाषा और संस्कृति के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध में विश्वास करने के कारण "विश्वम्भरा" हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार में भी संलग्न है तथा इसके लिए इंटरनेट के माध्यम का बखूबी उपयोग कर रही है।
तदनन्तर मुख्य वक्ता प्रो. जगदीश प्रसाद डिमरी ने सभा को "संस्कृति और संस्कृत"विषय पर सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि, ''संस्कृति समस्त मानवता को विशेषता और भूषण प्रदान करती है । वह जनसमुदाय के उन उच्च विचारों और आदर्शो का समन्वित रूप होती है जिनसे संपन्न होने पर किसी व्यक्ति अथवा समाज को सुसंस्कृत माना जाता है। सदाचार और सद्बुद्धि से लेकर समस्त प्रकार के आचार-व्यवहार और नैतिक विचार संस्कृति में समाविष्ट होते हैं।''
प्रो. डिमरी ने संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'संस्कृति' की व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए बल देकर कहा कि अंग्रेज़ी का 'कल्चर' शब्द इसका सटीक पर्याय नहीं है। उन्होंने भारतीय संस्कृति की परंपरा का उल्लेख करते हुए बताया कि वैदिक साहित्य के समान सर्वधर्मसमभाव से संपन्न साहित्य विश्व में अन्यत्र उपलब्ध होना दुर्लभ है।
प्रो.जगदीश प्रसाद डिमरी ने अपने व्याख्यान में संस्कृति की नित्यता का प्रतिपादन किया और कहा कि वह रूढ़िवादिता कदापि नहीं है। उन्होंने भारतीय संस्कृति में सहअस्तित्व के विचार को रेखांकित करते हुए कहा कि उसका स्वरूप बहुलतावादी है और अपनी 'अनेकता में एकता' एवं 'एकता में अनेकता' को साधने की शक्ति के कारण ही वह समग्र मनुष्य जाति के लिए ग्राह्य है। उन्होंने भारतीय संस्कृति को जातिवाद से जोड़ने के विचार का खंडन करते हुए आंध्रप्रदेश, उत्तराखंड और बंगाल में 'महाभारत' की मूल भावना को सुरक्षित रखने में सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी समझी जानेवाली जातियों के योगदान की ओर ध्यान दिलाया और कहा कि इन सब सांस्कृतिक धरोहरों को सुरक्षित बनाए रखना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है।
संस्कृति और साहित्य के संबंध की चर्चा करते हुए डॉ. डिमरी ने आगे कहा कि रीति-रिवाजों और साहित्य से संस्कृति का घनिष्ठ संबंध है। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी माना कि भारतीय परंपरा में पर्वत, वृक्ष और नदी आदि समस्त प्राकृतिक संपदा को सांस्कृतिक संपदा का स्थान प्राप्त है इसीलिए हिमालय को यहाँ 'देवतात्मा' तथा गंगा को 'देवनदी' कहा गया है। उन्होंने सांस्कृतिक अनेकता को भारत की प्रगति और सार्वभौमिकता का आधार बताते हुए कहा कि इसे स्वानुभूति और लोक व्यवहार द्वारा ग्रहीत और पुष्ट किया जा सकता है।
संस्कृति को मनुष्य का 'संस्कार' और 'परिमार्जन' करने वाली साधना का प्रतीक मानते हुए डॉ. जगदीश प्रसाद डिमरी ने कहा कि भाषा और साहित्य के विविध रूपों में हमारी यह संस्कृति लंबी कालयात्रा करके हम तक पहुँची है और हमारा दायित्व है कि हम इसे और भी पुष्ट रूप में अगली पीढ़ियों को सौंपें।
इस अवसर पर 'विश्वम्भरा' की ओर से स्थापनादिवस व्याख्यानदाता प्रो. डिमरी का सारस्वत अभिनंदन किया गया तथा उन्हें संस्था का रजत स्मृतिचिह्न भेंट किया गया।
संस्था के मानद मुख्य संरक्षक ज्ञानपीठ पुरस्कार ग्रहीता साहित्यकार पद्मभूषण डॉ. सी.नारायण रेड्डी ने 'विश्वम्भरा' की गतिविधियों पर प्रसन्नता प्रकट की और आशा व्यक्त की कि भविष्य में भारतीय संस्कृति और भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार में यह संस्था और भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। उन्होंने ध्यान दिलाया कि संस्कृति हमारे `होने' का पर्याय है तथा सभ्यता हमारी `भौतिक उपलब्धियों' का द्योतन कराती है। उनके अनुसार संस्कृति का क्षेत्र अत्यन्त विशाल है जिसके अन्तर्गत समस्त कलाओं से लेकर आचार-व्यवहार तक सब कुछ समा जाता है।
पर्यावरणविद् कथाकार एवं कवि प्रोफ़ेसर किशोरीलाल व्यास ने बलपूर्वक कहा कि भारतीय संस्कृति जिन अनेक कारणों से आज सारे विश्व के लिए प्रासंगिक है उनमें से एक हमारी पर्यावरण सम्बन्धी चेतना है क्योंकि हम प्रकृति से प्रतियोगिता नहीं मानते और न ही उसे जीतने में विश्वास रखते हैं, बल्कि हमारा विश्वास 'जियो और जीने दो' की नीति में है।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए 'स्वतंत्रवार्ता' के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने इस बात पर हर्ष व्यक्त किया कि विश्व सूचना के माध्यम इंटरनेट को अपना कर विगत वर्ष में 'विश्वम्भरा' ने भारतीय संस्कृति और हिंदी की सेवा के क्षेत्र में सराहनीय उपलब्धि दर्ज की है। उन्होंने संस्कृति की व्याख्या संस्कृत परम्परा के आधार पर करने की सराहना की और कहा कि विविध भारतीय भाषाओं में व्यक्त चिन्तन परम्परा मूलत: एक है। भिन्नता के बीच एकता को पहचानने पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि किसी भी देश के लिए सांस्कृतिक अहंकार से दूर रहना ही श्रेयस्कर होता है क्योंकि स्थानीय संस्कृतियाँ नहीं बल्कि मानव-संस्कृति सर्वोपरि है।
संस्था के उत्स से ही अपना मार्गदर्शन देते आ रहे "विश्वम्भरा" के संवीक्षक वरिष्ठ कवि-समीक्षक ( तेवरी काव्यान्दोलन के प्रणेता) दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय खंड ( स्नातकोत्तर और शोध संस्थान) के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर ऋषभदेव शर्मा ने अपनी अत्यंत चिन्तनधर्मी व सहज शैली में कार्यक्रम का संचालन करते हुए संस्था को उसके लक्ष्यों के प्रति सावधान व सचेत रहने की अपनी अपेक्षा दुहराई और उत्तरोत्तर नए संसाधनों के प्रयोग के प्रति जागरूक रह कर कार्यक्षेत्र का निरन्तर विस्तार करने को सराहते हुए नई योजनाओं की रूपरेखा के अनुपालन पर भी बल दिया।
'निर्दोष सोशल सर्विसेज़' के अध्यक्ष डॊ. रामकुमार तिवारी ने संस्था को शुभकामनाएँ देते हुए सभासदों व सहयोगियों का "विश्वम्भरा" की ओर से आभार व्यक्त किया।
इस अवसर पर चंद्रमौलेश्वर प्रसाद (कोषाध्यक्ष), द्वारका प्रसाद मायछ ( संरक्षक), गुरुदयाल अग्रवाल, श्रीनिवास सोमानी, वीरप्रकाश लाहोटी सावन, वेणुगोपाल भट्टड़ (ख्यातकवि), भँवरलाल उपाध्याय, रामजी सिंह उदयन( सम्पादक - डेली हिन्दी मिलाप), एफ।एम। सलीम (पत्रकार), के. प्रवीण, शिवकुमार राजौरिया, के. दास, कैलाशवती, आर. सुरेंद्र, श्रद्धा तिवारी, के. रवि, आनंद लालाजी, पी.आर. घनाते (सं.- मिलिन्द), पवित्रा अग्रवाल ( कथाकार), लक्ष्मीनारायण अग्रवाल ( कवि कथाकर), रूबी मिश्र, अभिषेक दाधीच, आशादेवी सोमानी(सम्पादक- अहिल्या), तुलजाप्रसाद विमल, जी. परमेश्वर, डॉ. अनुपमा, डॉ. बी. सत्यनारायण( अकादमी के शोध सहायक), डॉ. बी.बालाजी, डॉ.प्रभाकरत्रिपाठी (अध्यक्ष-हिन्दीविभाग, हि.महावि.), डॉ.रेखा शर्मा (अध्यक्ष, हिं. विभाग विवेकवर्धिनी ), डॉ. अहिल्या मिश्र, डॉ. टी. मोहन सिंह(पूर्व प्राचार्य व अध्यक्ष हि.वि. उस्मानिया वि.वि.), डॉ. जे.वी.कुलकर्णी, शेखर, रामकृष्णा आदि ने अपनी सक्रिय भागीदारी से चर्चा-परिचर्चा और समारोह को जीवंत बनाया।
- डॉ. कविता वाचक्नवी
महासचिव, "विश्वम्भरा"
महासचिव, "विश्वम्भरा"
विश्वम्भरा के बारे में इतने दीर्घ आलेख द्वारा जानकारी प्रदान करने के लिये आभार! ईश्वर करे कि विश्वम्भरा बहुत लोगों के नवजागरण का कारक बन जाये!!
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