वीरता और आतंक की मुठभेड़ : २ स्लाईड शो
दैनिक भास्कर, 29 नवंबर २००८
यह तो सीधे-सीधे भारत पर हमला है
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह हमला मुंबई पर नहीं, भारत पर है। भारत पर हजार साल से हो रहे हमलों की काली किताब का यह एक नया अध्याय है। न्यूयार्क के ट्रेड टावर पर आसमान से हमला हुआ था, मुंबई पर समुद्र से हुआ है। आसमानी हमले के मुकाबले यह सामुद्रिक हमला अधिक योजनाबद्ध और अधिक दुस्साहसिक है। जाहिर है कि यह जाल हैदराबाद या दिल्ली या मुंबई का बुना हुआ नहीं है। इसके तार कोलंबो, कराची और काबुल से जुड़े होने की पूरी संभावनाएँ हैं। एक साथ दर्जन भर ठिकानों पर तब तक हल्ला नहीं बोला जा सकता, जब तक कि हमलावरों के सिर पर तजुर्बेकार षड़यंत्रकारियों का हाथ न हो, महीनों लंबी तैयारी न हो, बार-बार का पूर्वाभ्यास न हो, लाखों-करोड़ों के खर्च का इंतजाम न हो। इतना ही नहीं, भारत राज्य के एक अरब नागरिकों में से किसी को उसका सुराग भी न हो। यह असंभव नहीं कि यह साजिश भारत के बाहर किसी विदेशी कोख में पलती रही हो। यदि यह साजिश भारत में रची गई होती तो इसमें न तो इतने ज्यादा खलनायक होते और न ही एक साथ इतने ठिकाने चुने जाते।
अमेरिका और ब्रिटिश विश्लेषकों की राय है कि आतंकवादियों ने ताज और ओबेरॉय जैसे ठिकाने इसीलिए चुने कि उन्हें ट्रेड टावर के अधूरे अध्याय को पूरा करना था। इन पाँच सितारा होटलों में रहनेवाले अमेरिकी और ब्रिटिश नागरिकों को उन्होंने अपना निशाना बनाकर यह बता दिया कि वे शेर को उसकी माँद में घुसकर नहीं मार सकते तो उसे अब वे उसकी सैरगाह में मारेंगे। मुंबई के यहूदी परिवार पर हुए हमले ने पश्चिमी समाज की उक्त धारणा को अधिक बद्धमूल किया है। अमेरिका जैसे देशों ने अपने यहाँ आतंकवाद की जड़े उखाड़ दी हैं लेकिन ये जड़े भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे पिलपिले देशों में लहलहा रही हैं। भारत पर हुए हमले को अमेरिका यदि खुद पर हुआ हमला मान रहा है तो यह उसका अपना सोच है।
भारत का सोच कुछ अलग है। इस तरह के हमलों को काश, वह भारत पर हुआ हमला मानता ! कंधार-कांड हो, संसद हो, अक्षरधाम हो, दिल्ली हो, मालेगाँव हो - वह इन हमलों को सिर्फ उन पर हुआ मानता है, जो मरे हों या घायल हुए हों। हताहतों को मुआवज़ा, शोक-संवेदनाओं के बयान, चैनलों पर थोड़ी-बहुत सनसनी, अखबारों में संपादकीय और फिर चक्का सड़क पर जस का तस चलने लगता है। भारत की जनता कितनी धैर्यशाली है, कितनी सहनशील है, कितनी दूरंदेश है, कितनी बहादुर है, आदि वाक्यावलियों का अंबार लग जाता है। नेता एक-दूसरे को कोसते हैं। आतंकवादियों को लेकर राजनीति करते हैं। उस पर मज़हब का रंग चढ़ाते हैं लेकिन दावा करते हैं कि आतंकवादियों का कोई मज़हब नहीं होता। हमारा गुंडा गुंडा नहीं, साधु है और तुम्हारा साधु साधु नहीं, गुंडा है - यह सिद्धांत नेताओं से फिसलता हुआ आम जनता की जुबान पर चढ़ जाता है। यही भारत का अ-भारत होना है। राष्ट्र का विफल होना है। भारत-भाव का भंग होना है। किसी मुद्दे पर फैसला करते समय जब लोग उसके शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित और नैतिक-अनैतिक होने का ध्यान न करें और उसे मज़हब, जात या वोट के चश्मे से देखें तो मान लीजिए कि भारत भारत न रहा, धृतराष्ट्र हो गया। उसकी जवानी और आँखें, दोनों चली गई। क्या बूढ़ा और अंधा भारत जवान और गुमराह आतंकवादियों का मुकाबला कर पाएगा ?
आतंक का जवाब आतंक ही हैं। गुमराहों के आतंक के मुकाबले राज्य का आतंक ! काँटे को काँटे से ही निकाला जा सकता है। जैसे आतंकवादी किसी कानून-कायदे और नफे-नुकसान की परवाह नहीं करते, ठीक वैसे ही राज्य को उनके प्रति घोर निर्मम और नृशंस होना होगा। यदि उनकी जड़ बाहर है तो भारत को अपनी खोल से बाहर निकलना होगा। उन जड़ों को मट्ठा पिलाना होगा। वह महाशक्ति भी क्या महाशक्ति है, जो अपनी बगल में भिनभिना रहे मच्छरों को भी न मार सके ? भारत रौद्र रूप तो धारण करे। आतंक के अड्डे अपने आप बिखर जाएँगे। आतंकवादियों को जिस दिन समझ में आ गया कि उनके माता-पिता, भाई-बहनों, रिश्तेदारों, दोस्तों और सहकर्मियों को भी उनके कुकर्म की चक्की में पिसना होगा, कोई भी कदम उठाने के पहले उनकी हड्डियों में कँपकँपी दौड़ जाएगी। सारा समाज भी चैकन्ना हो जाएगा। हमारी लंगड़ी गुप्तचर सेवा अपने आप मजबूत हो जाएगी। साधारण लोग सूचना के असाधारण स्त्रोत बन जाएँगे। उन्हें पहले से पता होगा कि सूचना नहीं देना या चैकन्ना नहीं रहना भी अपराध ही माना जाएगा। यदि हमें राज्य को विफल होने से बचाना है तो समाज को सबल बनाना होगा। आतंकवादियों के ब्लेकमेल के आगे भारत ने कई बार घुटने टेके हैं, क्योंकि हमारा समाज बहादुरी की कीमत चुकाना नहीं जानता। हमारा समाज जिस दिन बहादुरी की कीमत चुकाना सीख लेगा, उसी दिन हमारे मुर्दार नेता भी महाबलियों की तरह पेश आने लगेंगे।
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक हैं)
अमेरिका और ब्रिटिश विश्लेषकों की राय है कि आतंकवादियों ने ताज और ओबेरॉय जैसे ठिकाने इसीलिए चुने कि उन्हें ट्रेड टावर के अधूरे अध्याय को पूरा करना था। इन पाँच सितारा होटलों में रहनेवाले अमेरिकी और ब्रिटिश नागरिकों को उन्होंने अपना निशाना बनाकर यह बता दिया कि वे शेर को उसकी माँद में घुसकर नहीं मार सकते तो उसे अब वे उसकी सैरगाह में मारेंगे। मुंबई के यहूदी परिवार पर हुए हमले ने पश्चिमी समाज की उक्त धारणा को अधिक बद्धमूल किया है। अमेरिका जैसे देशों ने अपने यहाँ आतंकवाद की जड़े उखाड़ दी हैं लेकिन ये जड़े भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे पिलपिले देशों में लहलहा रही हैं। भारत पर हुए हमले को अमेरिका यदि खुद पर हुआ हमला मान रहा है तो यह उसका अपना सोच है।
भारत का सोच कुछ अलग है। इस तरह के हमलों को काश, वह भारत पर हुआ हमला मानता ! कंधार-कांड हो, संसद हो, अक्षरधाम हो, दिल्ली हो, मालेगाँव हो - वह इन हमलों को सिर्फ उन पर हुआ मानता है, जो मरे हों या घायल हुए हों। हताहतों को मुआवज़ा, शोक-संवेदनाओं के बयान, चैनलों पर थोड़ी-बहुत सनसनी, अखबारों में संपादकीय और फिर चक्का सड़क पर जस का तस चलने लगता है। भारत की जनता कितनी धैर्यशाली है, कितनी सहनशील है, कितनी दूरंदेश है, कितनी बहादुर है, आदि वाक्यावलियों का अंबार लग जाता है। नेता एक-दूसरे को कोसते हैं। आतंकवादियों को लेकर राजनीति करते हैं। उस पर मज़हब का रंग चढ़ाते हैं लेकिन दावा करते हैं कि आतंकवादियों का कोई मज़हब नहीं होता। हमारा गुंडा गुंडा नहीं, साधु है और तुम्हारा साधु साधु नहीं, गुंडा है - यह सिद्धांत नेताओं से फिसलता हुआ आम जनता की जुबान पर चढ़ जाता है। यही भारत का अ-भारत होना है। राष्ट्र का विफल होना है। भारत-भाव का भंग होना है। किसी मुद्दे पर फैसला करते समय जब लोग उसके शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित और नैतिक-अनैतिक होने का ध्यान न करें और उसे मज़हब, जात या वोट के चश्मे से देखें तो मान लीजिए कि भारत भारत न रहा, धृतराष्ट्र हो गया। उसकी जवानी और आँखें, दोनों चली गई। क्या बूढ़ा और अंधा भारत जवान और गुमराह आतंकवादियों का मुकाबला कर पाएगा ?
आतंक का जवाब आतंक ही हैं। गुमराहों के आतंक के मुकाबले राज्य का आतंक ! काँटे को काँटे से ही निकाला जा सकता है। जैसे आतंकवादी किसी कानून-कायदे और नफे-नुकसान की परवाह नहीं करते, ठीक वैसे ही राज्य को उनके प्रति घोर निर्मम और नृशंस होना होगा। यदि उनकी जड़ बाहर है तो भारत को अपनी खोल से बाहर निकलना होगा। उन जड़ों को मट्ठा पिलाना होगा। वह महाशक्ति भी क्या महाशक्ति है, जो अपनी बगल में भिनभिना रहे मच्छरों को भी न मार सके ? भारत रौद्र रूप तो धारण करे। आतंक के अड्डे अपने आप बिखर जाएँगे। आतंकवादियों को जिस दिन समझ में आ गया कि उनके माता-पिता, भाई-बहनों, रिश्तेदारों, दोस्तों और सहकर्मियों को भी उनके कुकर्म की चक्की में पिसना होगा, कोई भी कदम उठाने के पहले उनकी हड्डियों में कँपकँपी दौड़ जाएगी। सारा समाज भी चैकन्ना हो जाएगा। हमारी लंगड़ी गुप्तचर सेवा अपने आप मजबूत हो जाएगी। साधारण लोग सूचना के असाधारण स्त्रोत बन जाएँगे। उन्हें पहले से पता होगा कि सूचना नहीं देना या चैकन्ना नहीं रहना भी अपराध ही माना जाएगा। यदि हमें राज्य को विफल होने से बचाना है तो समाज को सबल बनाना होगा। आतंकवादियों के ब्लेकमेल के आगे भारत ने कई बार घुटने टेके हैं, क्योंकि हमारा समाज बहादुरी की कीमत चुकाना नहीं जानता। हमारा समाज जिस दिन बहादुरी की कीमत चुकाना सीख लेगा, उसी दिन हमारे मुर्दार नेता भी महाबलियों की तरह पेश आने लगेंगे।
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक हैं)
aap bahut achchha likhate hai. aapko padta hu.
जवाब देंहटाएंnarayan narayan
इस के लिए जनता में से ही आरंभ करना होगा। नेता गलत हैं तो उन्हें भी जनता ही ठीक कर सकती है।
जवाब देंहटाएंवैदिक भाईसाहब प्रणाम ! आज मैंने तो पहली बार आपको ब्लॉग पर देखा ! आपसे मिले भी काफी समय हो चला ! अखबारों में ही आपके लेख पढ़ते रहते हैं ! आपका लेखन तो हम जैसो के लिए रोशनी है ! टिपणी करने की तो मेरी किसी भी तरह की हैसियत नही है ! इंदौर से दो लोग इन हमलो में मारे गए ! एक तो बिल्कुल अपने मोहल्ले मनोरमागंज का गौरव जैन ही २३ साल का लड़का था! शायद इन जैन साहब को आप भी जानते होंगे ! मन बहुत खराब है ! क्या कुछ होगा ? या हम यूँ ही मरते रहेंगे ?
जवाब देंहटाएंआपका इंदौर कब आना होगा ! मैं मुन्ना भैया से पूछ लूंगा ! मैं आपकी इन्तजार करूंगा !
सवा सौ करोड़ का देश और लंगडी गुप्तचर सेवा यह है भारी विडंबना
जवाब देंहटाएंफिर कैसे चलेगा फिर देश
अपनी आंखों को रखो पुश्त की जानिब अपनी
जो करे वार उसी वक़्त दबोचा जाए
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क
जी वैदिक जी बड़ी गहरी खोज है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय वैदिकजी का यह सारगर्भित लेख प्रस्तुत करने के लिए डॉ. कविता वाचक्नवी जी को धन्यवाद। वैसे, वे ऐसे मोती चुन-चुन कर हमें परोसती रही है। डॉ. वैदिक जी ठीक ही कहते हैं कि हमारा तंत्र एक अरब लोगों के प्राणों से खिलवाड कर रहा है। अब किस-किस को दोष दें - विदेशियों को, देश में छुपे जयचंदों को, निकृष्ठ होते नेताओं को, अक्षम अधिकारियों को ..... शायद हाथ पर हाथ धरे रहना ही जनता की विवशता है
जवाब देंहटाएंआदरणीय वैदिक जी।
जवाब देंहटाएंआपका लेख बहुत प्रभावशाली है। आप कहते हैं कि आंतकवादियों को सीख देने के लिए उनके रिशतेदारों भाई, बहिन, माता,पिता दोसतो के विरूद्ध कार्रवाई होनी चाहिए।
जो बात आप कह रहे है सरकार के एेसा करने पर आप जैसे दिग्गज पत्रकार एवं मानवाधिकार समर्थक सबसे जयादा शोर मचाकर मानवाधिकारों के उल्लधंन की दुहाई देंगे। अप के चेली चपाटे ये पत्रकार खूब हो हल्ला करेंगे। मंबई में ताज से कोई आंतकवादी यदि जिंदा पकडा जाता एंव एसटीएफ उसके चार डंडे मार देती तो मीडिया इसी को बार बार दिखाता। पर उपदेशा कुशाल बहुतेरे ही ठीक है।