सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के कवि दिनकर : डॉ. मधुसूदन साहा

सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के कवि दिनकर

डॉ. मधुसूदन साहा


राष्ट्रीयता एक आन्तरिक भाव-बोध है। इसलिए वस्तु से अधिक भाव-सत्य कहना उचित होगा। भावना भीतर की चीज होती है और यह सत्य के साथ शिवम् से सुन्दरम् तक की यात्रा करती है। सद्प्रवृत्ति और सद्भाव मनुष्य को सत्कार्य से जोडकर रखने की कोशिश करता है। जब मनुष्य के अन्दर सत्कर्म करने की प्रवृत्ति जागृत होती है तो वह राष्ट्र हित का चिन्तन करने लगता है। यही आन्तरिक राष्ट्रीय चेतना है। आर्थिक सम्पन्नता भले ही मनुष्य के जीवन-स्तर को उन्नत कर दे, उनके लिए सुख-सुविधाओं के साधन उपलब्ध करा दे, किन्तु राष्ट्रीय मानस को जाग्रत करने के लिए आन्तरिक भावबोध को नहीं जगा सकती। इसके लिए अन्दर की अच्छाइयों के बिरवे को सद्वृत्तियों के जल से सिंचित करने की आवश्यकता होती है। जिसके हृदय के बिरवे जितने होनहार होते हैं उसका मानस देश, समाज और मानव की सेवा में उतना ही निष्ठावान होता है। हमारे देश के ऋषि-मुनियों ने आदिकाल से राष्ट्रीय मानस के निर्माण के लिए निरन्तर तरह-तरह की साधना की, वेद-पुराण और नीति ग्रंथों का सृजन किया तथा प्रत्येक हृदय में भूमि के प्रति मातृत्व भाव जाग्रत करने का प्रयास किया।

यह सच है कि आधुनिक जीवन में साधन-सम्पन्नता को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है। लोग आर्थिक सम्पन्नता को हासिल करने की होड में इस कदर लिप्त हो गये हैं कि उनके लिए देश, समाज, धर्म, सम्प्रदाय, मानव कल्याण आदि का कोई मायने नहीं रह गया है। शिक्षा का अर्थ हो गया है धन-संचय। आज की नयी पीढी मानसिक विकास, चारित्रिक उन्नयन और ज्ञान-विज्ञान के विविध आयामों में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने के लिए अध्ययन नहीं करती, बल्कि उस विद्या को अर्जित करना चाहती है जो बडी सहजता और त्वरित गति से अधिक से अधिक अर्थोपार्जन में काम आ सके। उन्हें यह नहीं ज्ञात है कि साधन-सम्पन्नता, भौतिक सुख, वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिक उपलब्धि, राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय संबंधों से राष्ट्र के बाह्य स्वरूप सँवरते हैं, अन्तः चेतना विकसित नहीं होती। आन्तरिकता को परिनिष्ठित करने के लिए प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, राग एवं विराग, शिक्षा एवं संस्कृति, अध्यात्म एवं विज्ञान, परम्परा एवं आधुनिक बोध और संस्कार एवं सामयिकता में सामंजस्य की अनिवार्यता होती है। इसी से सांस्कृतिक राष्ट्रीयता सम्पुष्ट होती है और राष्ट्र वैश्विक स्तर पर समादृत होता है।

वस्तुतः संस्कृति राष्ट्र की आत्मा होती है। राष्ट्र की समस्त उपलब्धियों की धडकन इसी में सुनाई पडती है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में अपनी अलग पहचान रखती है। वैदिक युग से लेकर आज तक हमारी सांस्कृतिक अस्मिता सर्वमान्य है। जिन भारतीय मनीषियों, चिन्तकों, विचारकों, महापुरुषों और सुधी साहित्य साधकों ने हमारी इस सांस्कृतिक पहचान को सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाने की प्राणपण से प्रचेष्टा की है उनमें ऋषि-मुनियों के अलावा दयानन्द सरस्वती, राधाकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, रामतीर्थ, अरविन्द जैसे चिन्तकों, तिलक और गाँधी जैसे राजनीतिज्ञों तथा जयशंकर प्रसाद, निराला, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ’नवीन‘, सुभद्रा कुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह ’दिनकर‘ जैसे साहित्य शिल्पी एवं राष्ट्र प्रेमी प्रतिभाओं का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

इन महान् विभूतियों ने अपने सत्प्रयासों से जन-जन के मानस में अथर्ववेद की उस सूक्ति को बैठाने की सदैव चेष्टा की जिसमें कहा गया है -’’माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्या‘‘ अर्थात् मेरी माता भूमि है और मैं इस मातृभूमि का पुत्र हूँ। यह सर्वमान्य सत्य है कि माता और पुत्र का संबंध सारे मानवीय संबंधों में सर्वश्रेष्ठ है। जिसके अन्तर्मन में अपनी भूमि के लिए मातृभाव जाग्रत हो गया हो, वह उसकी मर्यादा की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने में कभी पीछे नहीं हटता। अपनी भूमि के प्रति यह मातृभाव ही सबसे बडी राष्ट्रीयता है। अक्षर पुरुष रामधारी सिंह ’दिनकर‘ के सम्पूर्ण काव्य में इसी प्रकार की राष्ट्रीयता की झलक मिलती है। वे कहते हैं -

भारत एक स्वप्न, भू को ऊपर ले जाने वाला,
भारत एक विचार, स्वर्ग को भू पर लाने वाला,
भारत एक भाव, जिसको पाकर मनुष्य जगता है,
भारत एक जलज, जिस पर जल का न दाग लगता है,
भारत है भावना, दाह जग-जीवन का हरने की,
भारत है कल्पना, मनुज को रोग-मुक्त करने की,
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में खडा वहाँ भारत जीवित भास्वर है।

उपर्युक्त पंक्तियों में भारतीय संस्कृति स्वयं परिभाषित हो जाती है। ऐसी पंक्तियाँ राष्ट्र प्रेम से लबालब हृदय से ही निकलती हैं। अपनी मातृभूमि की भास्वरता के प्रति यह नैष्ठिक आस्था ही दिनकर की ओजस्विता है।
दिनकर-साहित्य के समीक्षकों का कहना है कि वे ओज और ऊर्जा के कवि थे। उनकी वाणी में तेजस्विता और तारुण्य था। वे व्यक्ति के अन्दर की आग और ऊर्जा के उपासक थे। किन्तु उनके काव्य-चिन्तन की गहराई में उतरने पर यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि विवेकानन्द की मानवीय चेतना उनके कवि-कर्म को सदैव प्रभावित करती रही है। स्वामी विवेकानन्द मानव सेवा को ईश्वरोपासना से श्रेष्ठ मानते थे। उनका कहना था कि ’’जब पडोसी भूखा मरता हो, तब मंदिर में भोग चढाना पुण्य नहीं, पाप है।‘‘, ’’सर्वे भवन्तु सुखिनः‘‘ की यही चेतना भावनात्मक एकता का द्वार उन्मुक्त करती है, हृदय में समष्टि-भाव का बीज बोती है और जन-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। विवेकानन्द की सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की इसी भावभूमि पर दिनकर की निम्न पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं -

रोटी दो, मत उसे गीत दो, जिसको भूख लगी है,
भूखों में दर्शन उभारना, छल है, दगा, ठगी है।
रोटी और वसन, ये जीवन के सोपान प्रथम हैं,
नवयुग के चिन्तको ! तुम्हें इसमें भी कोई भ्रम है ?

दिनकर की सम्पूर्ण काव्य-यात्रा मानव प्रेम, सांस्कृतिक एकता, भाषायी सौहार्द और शक्ति उपासना के मार्ग पर गतिमान है। राष्ट्रीयता उनकी रगों में प्रवाहित होती रहती थी, इसलिए वे राष्ट्र हित में आडे आने वाले किसी को भी कभी क्षमादान देने के पक्ष में नहीं थे। वे शूर धर्म को शान्ति धर्म से श्रेष्ठ मानते थे, क्योंकि क्षमा शूरों को ही शोभा देती है। उनका मानना था कि -

शूर धर्म कहते हैं छाती तान तीर खाने को,
शूर धर्म कहते हँसकर हलाहल पी जाने को।
आग हथेली पर सुलगाकर सिर का हविष चढाना,
शूर धर्म है जग को अनुपम बलि का पाठ पढाना।

राष्ट्र और राष्ट्रीयता की रक्षा के लिए प्राणों का हविष चढाना भी उन्हें सहज स्वीकार्य था। ’परशुराम की प्रतीक्षा‘ में माँ भारती की मर्यादा की रक्षा के लिए उन्होंने राष्ट्रधर्म को जाग्रत करने की भरपूर चेष्टा की है। वे कहते हैं- " पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता है। शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।"

वस्तुतः हमारा देश सामाजिक संस्कृतियों का देश है। भाषा, लिपि, आचार-विचार, जाति-प्रजाति, रीति-रिवाज, धर्म-सम्प्रदाय आदि में विविधताओं के बावजूद पारस्परिक प्रेम, निष्ठा, श्रद्धा, समर्पण, आस्था और विश्वास की दृष्टि से हम एक हैं। दिनकर जी प्रान्तीयता और क्षेत्रीयता को राष्ट्रीय एकता का बाधक मानते थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि- ’’भारतीय एकता की बाधा प्रकृति या भूगोल नहीं है, बल्कि भाषा और प्रान्तीयता का मोह है।‘‘ जब तक भारतीय मानस भाषा की इस भावनात्मक एकता को नहीं समझेगा, दूसरों की भाषा की उन्नति में अपनी भाषा की उन्नति का अहसास नहीं करेगा, तब तक भारत की सांस्कृतिक राष्ट्रीयता मजबूत नहीं होगी। इसलिए उन्होंने समस्त भारतवासियों से अनुरोध किया था-

देख सकें सबमें अपने को
महामनुजता के सपने को

क्योंकि महामनुजता की भावना व्यष्टि में नहीं बल्कि समष्टिगत भावों में व्याप्त रहती है। अक्षर पुरुष दिनकर जी ने अपनी साहित्य-साधना के छियासठ वर्षों में अनेक काव्य ग्रंथों का सृजन किया जिनमें महामनुजता के विविध आयाम उजागर हुए हैं। उनके इन काव्य ग्रंथों में `रेणुका', `रसवंती', `हुँकार', `द्वन्द्वगीत', `कुरुक्षेत्र', `बापू', `इतिहास के आँसू', `धूप और धुआँ',
`मिर्च का मजा', `रश्मिरथी', `दिल्ली ', `नीम के पत्ते ', `नील कुसुम', `सूरज का ब्याज', `चक्रवाल', `कविश्री', `सीपी और शंख', `नए सुभाषित', `उर्वशी', `परशुराम की प्रतीक्षा ', `कोयला और कवित्त', `मृत्त तिलक', `आत्मा की आँखें', `हारे को हरिनाम', तथा `अर्धनारीश्वर काव्य की भूमिका', `पंत, प्रसाद और निराला' व `शुद्ध कविता की खोज' जैसे समीक्षा ग्रंथों में इसी महामनुजता और उसके मानस की पडताल की गई है। उनके गद्य ग्रंथों में `चित्तौड का साका', `हमारी सांस्कृतिक एकता', `भारत की सांस्कृतिक कहानी', `संस्कृति के चार अध्याय', `राष्ट्र भाषा और राष्ट्र एकता', `धर्म, नैतिकता और विद्वान्', एवं `राष्ट्रभाषा आन्दोलन' तथा `गाँधी जी में भी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता' की विविधपक्षीय चर्चा हुई है। इस दृष्टि से `संस्कृति के चार अध्याय' नामक ग्रंथ की प्रशंसा सभी विद्वानों द्वारा की गई है। कुल पाँच दशकों के लेखनकाल में उन्होंने पाँच दर्जन से अधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का सृजन कर अपनी लेखकीय ऊर्जा का भरपूर परिचय दिया है।

दिनकर को युग धर्म का कवि कहा जाता है। देश को जब जैसी कविता की जरूरत हुई उन्होंने वैसी ही कविताएँ लिखीं। उनकी कविताएँ कभी हुँकारती हैं तो कभी ललकारती हैं, कभी लोगों के दिलों में राष्ट्र प्रेम के बीज बोती हैं तो कभी धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर पाखण्ड फैलाने वालों को सही मार्ग दिखलाते हुए कहती है -

आरती लिए तू किसे ढूँढता है मूरख
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में
देवता कहीं सडकों पर मिट्टी तोड रहे,
देवता मिलेंगे खेतो में, खलिहानों में।

मानवता के प्रबल पक्षधर और सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के सक्षम समर्थक अक्षर पुरुष रामधारी सिंह ’दिनकर’ की काव्य-साधना भले ही विविध आयामी हो किन्तु उनका मूल स्वर सदैव अपने राष्ट्र की गरिमा का गायक रहा है। युद्ध की विभीषिका फैलाने वाले सिरफिरों एवं बमों के विस्फोट को अपने उत्कर्ष का पर्याय समझने वाले शासकों को दिनकर जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था-


जय हो लोहित भानु, विश्व यदि सर्वत्र अनल है
तो ले आओ अभी यहाँ बाकी गंगा का जल है,
यह जल, यह पीयूष, दाह जन-जन का हरने वाला,
ज्वालामुखी कंठ में कोकिल का स्वर भरने वाला।
छिडको इसे फणी के फण पर उठती ज्वालाओं पर
ज्ञान ग्रीव में पडी आण्विक बम की मालाओं पर।


विध्वंस एवं विनाश के विरुद्ध हमेशा तनकर खडा होने की हिम्मत रखने वाले दिनकर ने यदि गाँधी के सिद्धान्तों को स्वीकारा तो कार्लमाक्र्स के विचारों को भी कभी खारिज नहीं किया। दरअसल राष्ट्र के जन मानस को उद्वेलित करने वाली कोई भी घटना उनकी कलम से नहीं छूटी। वे एक अत्यन्त जागरूक कलमकार थे। उन्हने अपनी इस सजगता को सदैव सार्थक करने का प्रयास किया। वे खुद भी मानते थे कि ’’जो वक्त की आँधी से खबरदार नहीं है /कुछ और ही होंगे वे कलमकार नहीं हैं।"

साहित्य के प्रति अनन्य प्रतिबद्धता के कारण ही उन्हने `संस्कृति के चार अध्याय' जैसे महान् ग्रंथ की रचना की, जिसकी भूमिका स्वयं पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखी। इस ग्रंथ में दिनकर ने एक जगह लिखा है कि "संस्कृति जिन्दगी जीने का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से संचित होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं।’’ वस्तुतः संस्कृति हमारी परम्परा है, अपने अन्तर में झाँकने की स्वतः स्फूर्त प्रेरणा है और राग-द्वेष को परिमार्जित करने की पुण्यस्पर्शी कला है। दिनकर के काव्य में यह सांस्कृतिक चेतना उनके काव्य की राष्ट्रीय अस्मिता को सजीवित करती है। डॉ. अमरेन्द्र इसे काव्य की प्राणवायु मानते हैं। उनका कहना है कि ’’राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर आधुनिक भारत के ऐसे अक्षर पुरुष हैं जिन्हें कविता के छंदों से अधिक अपने समय की वैचारिक संस्कृतियों का ज्ञान था और उन्होनें उन्हीं संस्कृतियों की प्राणवायु से अपने काव्य की शिराओं को स्पन्दनशील और मृत्युंजयी बनाया है।"

अतः यह स्पष्टतः कहा जा सकता है कि राष्ट्रीयता एक विराट् भावधारा है जो व्यक्ति के अन्तर में निरन्तर प्रवाहित होती रहती है। इस भावधारा से आप्लावित व्यक्ति राष्ट्र के सर्वांगीण विकास की परिकल्पना ही नहीं करता बल्कि उसे कार्यान्वित करने की सतत चेष्टा भी करता है। वस्तुतः राष्ट्रीयता लोक कल्याण की पोषिका और "सर्वे सन्तु निरामयाः " की उद्घोषिका है। यह व्यष्टि-चेतना की संकीर्ण सरणी को छोडकर समष्टि-चेतना के जनपथ पर चलने की प्रबुद्ध प्रचेष्टा है, क्योंकि राष्ट्र केवल उस भौगोलिक सीमा को नहीं कहा जाता जिससे वह घिरा होता है, बल्कि यह तो किसी निश्चित भूभाग के समस्त जन-समुदाय की सांस्कृतिक चेतना और पारम्परिक मान्यता का द्योतक है। जब किसी समष्टिगत भूखण्ड की संचेतना का विराट् व्योम वैशिष्ट्य के वितान से सम्पूर्णतः आच्छादित हो जाता है और वहाँ के जन-मानस में अपनी भूमि, भाषा,संस्कृति के प्रति एकान्त निष्ठा जाग्रत हो जाती है तो राष्ट्र के सही स्वरूप का निर्धारण होता है। ऐसे राष्ट्र में रंग, जाति, धर्म और सम्प्रदाय-भेद की कलुषता नहीं होती वरन् सर्वत्र "सर्वे भद्राणि पश्यन्तु" का परिदृश्य परिलक्षित होता है। राष्ट्रीय चेतना देश के निवर्तमान, वर्तमान और आवर्तमान तीनों कालों से सम्बद्ध होती है। इसलिए सफल राष्ट्रकवि वही होता है जो अतीत का गौरव गायन करता है, वर्तमान का सूक्ष्म द्रष्टा होता है और भविष्य का पारदर्शी होता है।

हमारे पराधीन भारत में जन-जागरण का प्रथम बिगुल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने बजाया था -

आवहु सब मिलिके रोवहुँ भारत भाई,
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।

देश की दुर्दशा देखकर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की आँखों में भी आँसू आ गये थे -

हम कौन थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी,
आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्याएँ सभी।


ऐसे में दिनकर की लेखनी कैसे चुप रह जाती ? भूखे हिन्दुस्तान को देखकर उनकी लेखनी भी दहाड उठी -

कुंकुम लेपूँ किसे ? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तडप रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।

विपन्न राष्ट्र की अवस्था को देखकर उनका मन बचपन से ही क्रंदन कर उठता था। उन्होंने अपनी पहली कविता चौदह वर्ष की उम्र में लिखी थी जो जबलपुर से प्रकाशित मासिक पत्रिका `छात्र सहोदर' में छपी थी। उक्त कविता में भी राष्ट्रीय चेतना की झलक स्पष्ट दिखलाई पडती है। यद्यपि ’चक्रवाल‘ की भूमिका में उन्होंने स्वयं लिखा है कि `राष्ट्रीयता मेरे भीतर से नहीं जन्मी, उसने बाहर से आकर मुझे आक्रान्त किया है' फिर भी, उनके सम्पूर्ण साहित्य के अध्ययन से यही ज्ञात होता है कि राष्ट्रीयता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन गई थी और इसी वजह से उन्होंने जीवन पर्यन्त उदात्त सामाजिक सजगता का परिचय दिया। डॉ. नगेन्द्र ने दिनकर के काव्य का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि "दिनकर के काव्य का मूल स्वर राष्ट्रीय-सांस्कृतिक है। कवि की राष्ट्रीय भावना पर तत्कालीन उग्र राजनीति का प्रभाव अत्यन्त स्पष्ट है। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन की आकांक्षा से उन्होंने क्रांन्ति का आह्वान अत्यन्त ओजस्वी भाषा में किया।" ओजस्विता उनकी भाषा का स्वभाव है। दरअसल दिनकर जी पौरुष और पराक्रम के कवि हैं, इसलिए उनकी अधिकांश रचनाओं में पुरुषार्थ की धधकती हुई आग मिलती है।

अक्षर पुरुष दिनकर की राष्ट्रीयता एक व्यापक फलक पर आधारित है। जिसमें एक ओर राष्ट्रीय गीतों की समृद्ध परम्परा है तो दूसरी ओर अतीत का गौरव गान, एक और वर्तमान का यथार्थवाद है तो दूसरी ओर भविष्य के मोहक चित्रों का आकलन। वे सौन्दर्य-चेतना और राष्ट्र-चेतना के समन्वयवादी कवि थे। यही कारण है कि यदि उन्होंने `सामधेनी' और `उर्वशी' का सृजन किया तो `कुरुक्षेत्र' , `रश्मिरथी‘ और `परशुराम की प्रतीक्षा' की भी रचना की।

यद्यपि दिनकर का प्रथम प्रकाशित काव्य संकलन ’प्रण-भंग‘ है किन्तु ओजस्वी राष्ट्र कवि के रूप में उनकी पहली पहचान ’रेणुका‘ के प्रकाशन से हुई। वैसे तो इस संकलन की अधिकांश कविताओं में भारत के अतीत का दर्शन और वर्तमान की व्यथा-कथा का चित्रण है लेकिन ’हिमालय‘ शीर्षक कविता में राष्ट्रीय चेतना का अत्यन्त व्यापक परिदृश्य उजागर हुआ है। इस एक कविता में कवि ने भारत के सांस्कृतिक वैभव, राष्ट्रीयता की संवेदनात्मक गहराई तथा तत्कालीन सामाजिक दुर्व्यवस्था का ऐसा जीवन्त चित्र प्रस्तुत किया है कि यह रचना उत्कृष्टता की दृष्टि से अप्रतिम बन गई है। हिमालय भारत के सक्षम प्रहरी समर्थ पौरुष और सांस्कृतिक गरिमा की प्रखर दीप्ति का प्रतीक है। इस संदर्भ में ’कविताश्री‘ के संपादक नलिनीकान्त का कहना है कि ’’दिनकर को प्रतिष्ठित करने में सर्वाधिक अवदान है उनकी अप्रतिम प्रखर प्रदीप्त छविमय छन्दवन्दित कविता ’हिमालय‘ का। हिमालय वस्तुतः जितना ऊँचा है उससे बढकर ऊँचाई दिनकर ने अपनी कविता से उसे दी है। हिमालय अब सिर्फ दिनकर की न होकर पूरे राष्ट्र, पूरे साहित्य, पूरे युग की अभिव्यक्ति है। इस कविता की पंक्तियाँ उत्तरोत्तर व्यष्टि से समष्टि की ओर बडी तीव्रता एवं प्रच्छन्नता से अग्रसर होती है -

मेरे नगपति! मेरे विशाल!
साकार, दिव्य, गौरव विराट्,
पौरुष के पुंजीभूत ज्वाला
मेरी जननी के हिम-किरीट
मेरे भारत के दिव्य भाल।
ये पंक्तियाँ कवि के कंठ से नहीं, हृदय से पहाडी झरने की तरह त्वरित निःसृत होती प्रतीत होती हैं। यह कविता दिनकर की हिन्दी साहित्य को अमर देन है। इसमें ’पौरुष का पुंजीभूत ज्वाला‘ भी है और ’मेरे भारत का दिव्य भाल‘ भी। मेरे विचार से कवि की सबसे श्रेष्ठ साहित्यिक पूँजी ’हिमालय‘ कविता ही है। भले ही जीवन के उत्तर काल में कवि को उनके ’उर्वशी‘ महाकाव्य पर ज्ञानपीठ जैसा सर्वोत्तम पुरस्कार प्राप्त हुआ हो, परन्तु अखिल भारतीय राष्ट्रीय स्वर (राष्ट्रकवि) के रूप में उन्हें ’हिमालय‘ जैसी कविता ने ही सम्मान प्रदान किया।

दिनकर की इसी राष्ट्रीय चेतना को रेखंाकित करते हुए एक संगोष्ठी में हिन्दी के चर्चित कवि अरुण कमल ने कहा कि "चूँकि दिनकर ने आरंभिक समय में राष्ट्र के जीवन, राष्ट्र की संवेदना तथा तत्कालीन राजनीतिक-चेतना में आ रहे परिवर्तनों को सजगता के साथ रूपायित किया है, इसलिए दिनकर सच्चे अर्थों में राष्ट्रकवि हैं।"

आज जब देश की साहित्यिक नब्ज को टटोलता हूँ तो यही अहसास होता है कि सच्चे अर्थों में राष्ट्रकवि माने जाने वाले अक्षर पुरुष दिनकर के इस शताब्दी वर्ष का स्मरण राष्ट्र को जिस स्तर पर करना चाहिए, वैसी हलचल कहीं दिखलाई नहीं पड रही है। यद्यपि साम्प्रतिक परिप्रेक्ष्य में दिनकर की स्मृति राष्ट्र की प्रत्येक धडकन में सुनाई पडनी चाहिए, हरेक हृदय में उनकी संस्मृति का स्पन्दन होना चाहिए और हिन्दी के भक्तों के अन्तर्मन में आराधना के दीप जलने चाहिए, किन्तु न जाने क्यों बिहार से लेकर दिल्ली तक एक अजीब सन्नाटा छाया हुआ है। सभी अपने निहित स्वार्थ की पगडंडी पर चुपचाप अपनी मंजिल की तलाश में आगे बढते जा रहे हैं, न किसी को अपने आस-पास झाँकने की जरूरत महसूस होती है और न अपनी संस्कृति अथवा सांस्कृतिक विरासत को स्मरण करने की अभिलाषा। आज के मानव समुदाय की यह निस्संगता संभवतः सामयिक बाजार संस्कृति की एक अद्भुत देन है। एक-दूसरे से आगे निकलने की दौड में हम अपने अतीत को भूलते जा रहे हैं, संस्कार और संस्कृति को विस्मृत करते जा रहे हैं और सामाजिक एवं मानवीय सरोकार को संकुचित करने में ही अपने जीवन की सार्थकता महसूस करने लगे हैं, जबकि यह सर्वविदित है कि दिनकर को स्मरण करना तथा भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीय गरिमा को स्मरण करना। दरअसल दिनकर केवल ’अपने समय के सूर्य‘ नहीं थे, बल्कि वे तो हमारी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के शाश्वत सूर्य हैं जिसके दिव्य प्रकाश से हिन्दी काव्य जगत् सदैव प्रकाशमान रहेगा।


`मधुमती' से साभार


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