संदर्भ : बढ़ता हुआ आतंकवाद
भाग -1
अब मुस्लिम समाज के कर्तव्य
- राजकिशोर
- राजकिशोर
जब भी कोई आतंकवादी घटना होती है, टीवी पर, रेडियो पर, अखबारों में कुछ मुस्लिम नाम आना शुरू हो जाते हैं। पहले पत्रकारिता का एक नियम होता था कि दो समुदायों के बीच हिंसा होने से किसी भी समुदाय का नाम नहीं छापा जाता था। इसके पीछे उद्देश्य यह होता था कि सामप्रदायिक हिंसा की आग अन्य क्षेत्रों में न फैले। अब भी इस नियम का पालन होता है। कभी-कभी नहीं भी होता। लेकिन जब बम विस्फोट जैसी घटना हो, जिसमें पंद्रह-बीस या इससे ज्यादा लोग मारे जाएं, और कुछ धरपकड़ भी हो, तो आज की सनसनी-प्रिय पत्रकारिता सारी मर्यादाओं को भूल जाती है और घटना के लिए जिम्मेदार संगठनों या व्यक्तियों के सिलसिले में जिनका भी नाम लिया जा सकता है, लेने लगती है। इसका कुछ श्रेय पुलिस विभाग को भी है। ये नाम अदबदा कर मुस्लिम नाम होते हैं और इन नामों को सुनते हुए गैर-मुस्लिम, खासकर हिन्दू चित्त में किस तरह की प्रतिक्रिया होती होगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। आतंकवाद के सिलसिले में मुस्लिम नाम लगातार सुनते-सुनते हिन्दू चित्त में मुस्लिम समुदाय के बारे में एक खास तसवीर बनने लगती है या बन चुकी है तो वह गाढ़ी होने लगती है। इसी प्रक्रिया में यह भयानक कहावत पैदा हुई है कि सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं होते, लेकिन सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं। इस कहावत में यह अंतर्निहित है कि अगर कोई व्यक्ति मुसलमान है, तो उसके आतंकवादी होने की संभावना सिद्धांत रूप से मौजूद है।
जाहिर है, यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है। भारत विभाजन के बाद से ही भारत में रह गए मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जाता रहा है। लेकिन तब शक का स्तर बहुत साधारण हुआ करता था। आतंकवाद के आविर्भाव के बाद से मामला बहुत गंभीर हो चुका है। यह गंभीरता इसलिए और बढ़ जाती है कि कुछ हिन्दूवादी सांप्रदायिक संगठन आतंकवादी हिंसा का फायदा उठा कर पूरे मुस्लिम समाज को राष्ट्र-विरोधी साबित करने पर तुले हुए हैं। ये संगठन शुरू से ही चाहते रहे हैं कि भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच गृह युद्ध हो। विभाजन के समय का वातावरण भी एक तरह से गृह युद्ध ही था। लेकिन उससे हमारे उपमहादेश की सांप्रदायिक समस्या हल नहीं हुई। हल होनी भी नहीं थी, क्योंकि भारत विभाजन का कोई तार्किक आधार नहीं था। वह तत्काल सत्ता पाने के लिए किया गया एक राजनीतिक समझौता था और समझौते का कोई भी पक्ष भारत की सामुदायिक एकता को बनाए रखने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं था। आज भी स्थिति लगभग वैसी ही है। देश भर में राष्ट्रीयता की ताकत कमजोर होती जा रही है तथा तरह-तरह के अलगाववादी स्वर सुनाई पड़ रहे हैं।
बाबरी मस्जिद की घटना के बाद सांप्रदायिक अलगाव की भावना और मजबूत हुई है तथा देश के शासक वर्ग ने निश्चय किया है कि सामप्रदायिकता पर प्रहार नहीं करना है। इस तरह कांग्रेस भाजपा के बने रहने की और भाजपा कांग्रेस के बने रहने की अनिवार्य शर्त बन चुकी है। अन्यथा 6 दिसंबर 1992 के बाद हिन्दू संप्रदायवादियों का राष्ट्रीय बहिष्कार होना चाहिए था और बाबरी मस्जिद की घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को जेल में होना चाहिए था। इसके विपरीत हुआ कि उनके नेतृत्व में केंद्र में तथा कई राज्यों में सरकार बनी। आतंकवाद, भारत-अमेरिका परमाणु करार, किसानों की आत्महत्या, मंहगाई, सेज, बेरोजगारी आदि विभिन्न मुद्दे जिस तरह घने होते जा रहे हैं, उसे देखते हुए उम्मीद बहुत कम है कि केंद्र में सत्तारूढ़ वर्तमान गठबंधन अगले आम चुनाव के बाद सत्ता में वापस आ सकेगा। असुरक्षा के घने होते हुए वातावरण का लाभ हिन्दूवादी सांप्रदायिक शक्तियों को मिल सकता है। यह एक बहुत बड़ी विडंबना होगी क्योंकि आतंकवाद की जो खूनी फसल आज लहलहा रही है, उसका बीज वपन बाबरी मस्जिद की घटना से ही हुआ था। 6 दिसंबर 1992 के पहले मुस्लिम आतंकवाद नाम की कोई चीज नहीं थी। पंजाब में आतंकवाद की आग शांत होने लगी थी, हालांकि उत्तर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी हिंसा बदस्तूर जारी थी। पर इस हिंसा का कोई अखिल भारतीय स्वरूप नहीं था। यह एक स्थानीय किस्म की हिंसा थी और है।
जाहिर है, यह बहुत ही खतरनाक स्थिति है। भारत विभाजन के बाद से ही भारत में रह गए मुसलमानों को शक की निगाह से देखा जाता रहा है। लेकिन तब शक का स्तर बहुत साधारण हुआ करता था। आतंकवाद के आविर्भाव के बाद से मामला बहुत गंभीर हो चुका है। यह गंभीरता इसलिए और बढ़ जाती है कि कुछ हिन्दूवादी सांप्रदायिक संगठन आतंकवादी हिंसा का फायदा उठा कर पूरे मुस्लिम समाज को राष्ट्र-विरोधी साबित करने पर तुले हुए हैं। ये संगठन शुरू से ही चाहते रहे हैं कि भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच गृह युद्ध हो। विभाजन के समय का वातावरण भी एक तरह से गृह युद्ध ही था। लेकिन उससे हमारे उपमहादेश की सांप्रदायिक समस्या हल नहीं हुई। हल होनी भी नहीं थी, क्योंकि भारत विभाजन का कोई तार्किक आधार नहीं था। वह तत्काल सत्ता पाने के लिए किया गया एक राजनीतिक समझौता था और समझौते का कोई भी पक्ष भारत की सामुदायिक एकता को बनाए रखने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं था। आज भी स्थिति लगभग वैसी ही है। देश भर में राष्ट्रीयता की ताकत कमजोर होती जा रही है तथा तरह-तरह के अलगाववादी स्वर सुनाई पड़ रहे हैं।
बाबरी मस्जिद की घटना के बाद सांप्रदायिक अलगाव की भावना और मजबूत हुई है तथा देश के शासक वर्ग ने निश्चय किया है कि सामप्रदायिकता पर प्रहार नहीं करना है। इस तरह कांग्रेस भाजपा के बने रहने की और भाजपा कांग्रेस के बने रहने की अनिवार्य शर्त बन चुकी है। अन्यथा 6 दिसंबर 1992 के बाद हिन्दू संप्रदायवादियों का राष्ट्रीय बहिष्कार होना चाहिए था और बाबरी मस्जिद की घटना के लिए जिम्मेदार लोगों को जेल में होना चाहिए था। इसके विपरीत हुआ कि उनके नेतृत्व में केंद्र में तथा कई राज्यों में सरकार बनी। आतंकवाद, भारत-अमेरिका परमाणु करार, किसानों की आत्महत्या, मंहगाई, सेज, बेरोजगारी आदि विभिन्न मुद्दे जिस तरह घने होते जा रहे हैं, उसे देखते हुए उम्मीद बहुत कम है कि केंद्र में सत्तारूढ़ वर्तमान गठबंधन अगले आम चुनाव के बाद सत्ता में वापस आ सकेगा। असुरक्षा के घने होते हुए वातावरण का लाभ हिन्दूवादी सांप्रदायिक शक्तियों को मिल सकता है। यह एक बहुत बड़ी विडंबना होगी क्योंकि आतंकवाद की जो खूनी फसल आज लहलहा रही है, उसका बीज वपन बाबरी मस्जिद की घटना से ही हुआ था। 6 दिसंबर 1992 के पहले मुस्लिम आतंकवाद नाम की कोई चीज नहीं थी। पंजाब में आतंकवाद की आग शांत होने लगी थी, हालांकि उत्तर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी हिंसा बदस्तूर जारी थी। पर इस हिंसा का कोई अखिल भारतीय स्वरूप नहीं था। यह एक स्थानीय किस्म की हिंसा थी और है।
क्रमश: >>>>
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राज किशोर जी आपने अपनी बात को बहुत ही जोरदार तरीके से कही है इस लेख में । अच्छा प्रस्तुतिकरण
जवाब देंहटाएंबेहतरीन तहरीर है...इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि आतंकवाद के नाम पर पूरे मुस्लिम समाज को कटघरे में न खड़ा किया जाए...हर कोई चैन और अमन से जीना चाहता है...लेकिन कुछ मुट्ठी भर लोग जिनके पास मुसलमानों के विरोध के अलावा और कोई चुनावी मुद्दा नहीं है...वो समाज को नफ़रत की आग में झोंक रहे हैं...इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि हिन्दू-मुस्लिम दोनों मिलकर आतंक का हल तलाशें...आज देश में जो कुछ हो रहा है...वह किसी से छुपा नहीं है...सब जानते हैं कि यह आतंक कौन और किसके इशारे पर फैलाया जा रहा है...
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