(१७)
मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में- डॉ. देवराज :
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अंग्रेज़ों की गुलामी बेडियां काटने में मणिपुरी रचनाकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी प्रेरणा से जनता में स्वतंत्रता की ज्वाला भड़की। उस काल के कवियों के उद्धरण देते हैं डॉ. देवराज जी:
"नवजागरण काल में मातृभूमि की पीडा़ जैसे फूट पडी़। उसने साहित्य जैसा समर्थ माध्यम पाकर जन-जन के पास पहूँचना चाहा। उसने प्रत्येक व्यक्ति को सूचित करना चाहा कि मणिपुर के गौरवशाली इतिहास की नदी पराधीनता और दुर्दिनों के झाड़-झंखाड से ढक गई है।
कारुणिक है चन्द्रनदी के समीप का दृश्य
जंगल में बदल गया है नदी तट भी
छा गई है घास भीतर भी
लेकिन प्रवहमान है धारा इतिहास की नीचे भूमि के।
तीव्रधारा उसकी एक समय
उखाड़ फेंकती थी तट के पेड़-पौधे
अब फाल्गु गंगा-सी
जलधारा को छोड़कर
गुप्त प्रदेश में हृदय के भीतर-ही-भीतर
प्रवहमान है दुख की धारा चुपचाप
[लमाबम कमल]
*******
दुख है कहकर / निरंतर
स्मरण करने से वृद्धि पाता है दुख
प्रेम का है शिवालय/ क्षेत्र है कर्म का
लगाओ ध्यान कर्म में / जीवन संग्राम में
भुजा उठा लेने पर / कटेगा दुख अवश्य
आलसी तुम / जीवित रहते
भार हो अपने पर हम पर
[ख्वाइराक्पम चाओबा]
कवि का यह धिक्कार लुहार के हथोडे़ की चोट की भाँति हरेक की पीठ पर पडा़, जिसने व्यापक स्तर पर सामाजिक बोध और वैचारिक क्रांति को सम्भव बनाया। एक प्रकार से कुछ शक्तिशाली व्यक्ति धर्म और धार्मिक संस्थाओं का दुरुपयोग अपने स्वार्थों को पूरा करने और अपने विरोधियों को दबाने में करते हैं। इसी कारण तत्कालीन समाज अनेक हानिकारक बेडि़यों में जकड़ गया था और व्यक्ति की स्वतंत्रातपूर्वक जीने, यहाँ तक कि प्रेम करने तक की स्वतन्त्रता छीन ली गई थी।"
मणिपुर के इतिहास के इस पन्ने को पढ़कर क्या यह नहीं लगता कि इतिहास दुहरा रहा है?
"नवजागरण काल में मातृभूमि की पीडा़ जैसे फूट पडी़। उसने साहित्य जैसा समर्थ माध्यम पाकर जन-जन के पास पहूँचना चाहा। उसने प्रत्येक व्यक्ति को सूचित करना चाहा कि मणिपुर के गौरवशाली इतिहास की नदी पराधीनता और दुर्दिनों के झाड़-झंखाड से ढक गई है।
कारुणिक है चन्द्रनदी के समीप का दृश्य
जंगल में बदल गया है नदी तट भी
छा गई है घास भीतर भी
लेकिन प्रवहमान है धारा इतिहास की नीचे भूमि के।
तीव्रधारा उसकी एक समय
उखाड़ फेंकती थी तट के पेड़-पौधे
अब फाल्गु गंगा-सी
जलधारा को छोड़कर
गुप्त प्रदेश में हृदय के भीतर-ही-भीतर
प्रवहमान है दुख की धारा चुपचाप
[लमाबम कमल]
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दुख है कहकर / निरंतर
स्मरण करने से वृद्धि पाता है दुख
प्रेम का है शिवालय/ क्षेत्र है कर्म का
लगाओ ध्यान कर्म में / जीवन संग्राम में
भुजा उठा लेने पर / कटेगा दुख अवश्य
आलसी तुम / जीवित रहते
भार हो अपने पर हम पर
[ख्वाइराक्पम चाओबा]
कवि का यह धिक्कार लुहार के हथोडे़ की चोट की भाँति हरेक की पीठ पर पडा़, जिसने व्यापक स्तर पर सामाजिक बोध और वैचारिक क्रांति को सम्भव बनाया। एक प्रकार से कुछ शक्तिशाली व्यक्ति धर्म और धार्मिक संस्थाओं का दुरुपयोग अपने स्वार्थों को पूरा करने और अपने विरोधियों को दबाने में करते हैं। इसी कारण तत्कालीन समाज अनेक हानिकारक बेडि़यों में जकड़ गया था और व्यक्ति की स्वतंत्रातपूर्वक जीने, यहाँ तक कि प्रेम करने तक की स्वतन्त्रता छीन ली गई थी।"
मणिपुर के इतिहास के इस पन्ने को पढ़कर क्या यह नहीं लगता कि इतिहास दुहरा रहा है?
...क्रमश:
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