पुस्तक चर्चा : आलूरि बैरागी चौधरी का कवि कर्म - 2



पुस्तक चर्चा : प्रो.ऋषभ देव शर्मा



आलूरि बैरागी चौधरी का कवि कर्म - २




आलूरि बैरागी चौधरी ने अपनी तीव्र संवेगात्मक प्रकृति के अनुरूप सटीक अभिव्यक्ति के लिए गीत विधा को सफलतापूर्वक साधा था। उनके एक सौ गीतों के संकलन ''प्रीत और गीत’’* (2007) में उनकी आत्मनिष्ठ तीव्र भावानुभूति के दर्शन किए जा सकते हैं। इसे उन्होंने कल्पना की सृजनात्मक शक्ति द्वारा मार्मिक अभिव्यंजना प्रदान की है। गीत विधा की सहज उद्रेक , नवोन्मेष, सद्यःस्फूर्ति, स्वच्छंदता और आडंबरहीनता जैसी सभी विषेषताएँ ए बी सी के गीतों में सहज उपलब्ध हैं। उनके गीत किसी न किसी तीव्र अनुभूति या भाव पर केंद्रित हैं, जिसका आरंभ प्रायः वे या तो किसी संबोधन के रूप में करते हैं या भावोत्तेजक स्थिति के संकेत से करते हैं अथवा उसके मूल में निहित विचार या स्मृति के कथन से। इसके अनंतर गीत के विभिन्न चरणों में वे इस भाव को क्रमिक रूप से विकसित करते है जो अंत में चरम सीमा पर पहुँचकर किसी स्थिर विचार, मानसिक दृष्टिकोण या संकल्प के रूप में साधारणीकृत हो जाता है। वस्तुतः आलूरि बैरागी चौधरी के गीतों में उपलब्ध यह स्वतःपूर्णता का गुण उन्हें विशेष प्रभविष्णुता प्रदान करता है। भावानुभूति और भाषाभिव्यंजना के इस सुगढ़ मेल के संबंध में प्रो। पी. आदेश्वर राव का यह मत सटीक है कि ‘‘उसमें व्यंजना और संकेत की प्रधानता रहती है। पूर्वापर प्रसंग-निरपेक्षता के कारण सांकेतिकता उसकी प्रमुख विशेषता होती है। वास्तव में गीत का आनंद उसके गाने से ही प्राप्त होता है, उसके द्वारा रस-चर्वण होता है और श्रोताओं में रस-संचार होता है। गीति काव्य की सभी विशेषताएँ बैरागी के गीतों में पूर्ण रूप में पाई जाती हैं।’’

विषय वैविध्य की दृष्टि से बैरागी का गीत संसार अत्यंत विशद और व्यापक है। मानव जीवन के सुख-दुःख, राग-द्वेष, आशा-निराशा और उत्कर्ष तथा पराभव सभी को इन गीतों में देखा जा सकता है। कवि की अभिलाषा है कि उसे सूरदास जैसी दिव्यदृष्टि मिल जाए ताकि वह अनंत सत्य का साक्षात्कार कर सके। उसका विश्वास है कि भौतिक चक्षुओं से न तो सुषमा का द्वार खुल सकता है, न ज्योतिष्पथ का पार मिल सकता है। इतना ही नहीं, कवि ऐसी ज्वाला की कामना करता है जो भले ही जीवन को जलाकर राख कर दे लेकिन सब कुछ को इस तरह मिटाए कि केवल प्यार बचे। तभी यह संभव होगा कि जो उड़ान अभी अर्थहीन प्रतीत होती है वह ज्योतित-नीड़ तक पहुँचकर सार्थकता प्राप्त करेगी। सूर के अंधत्व और पंछी की उड़ान के रूपक को कवि ने सुषमा, ज्योति और ज्वाला जैसी प्रकाशवाची संकल्पनाओं के सहारे रोमांचकारी परिपूर्णता प्रदान की है -

‘‘मुझे सूर की आँख चाहिए।
फूट गई जब आँख काँच की
खोली मन की आँख साँच की
हो उड़ान जिसकी अनंत उस मन-पंछी की पाँख चाहिए।
यंत्र-नयन , इनसे क्या होगा
कैसे सुषमा-द्वार खुलेगा ?
ज्योतिष्पथ का पार मिलेगा
जिस ज्वाला के शलभ-नयन में उसकी तिल भर राख चाहिए।
वह ज्वाला जिसका खुमार हो
जिसमें जीवन क्षार-क्षार हो
मिटे सभी जो बचे प्यार हो
अर्थ-हीन मेरी उड़ान को नीड ज्योति की शाख चाहिए।’’

बैरागी के इन गीतों में मानव और प्रकृति स्वतंत्र रूप में भी और परस्पर संबद्ध रूप में भी अनेक प्रकार से चित्रित हैं। कवि ने मानव के प्रकृतीकरण और प्रकृति के मानवीकरण दोनों ही में अचूक सफलता पाई है। प्रकृति उनके काव्य में आलंबन और उद्दीपन बनकर भी आई है तथा उसकी कोमलता और क्रूरता दोनों ही को कवि ने सुन्दरता और उदात्तता का आधार बनाकर चित्रित किया है। इन गीतों में कहीं काजल सा छाया हुआ अंधकार है, जिसमें उर के पागल खद्योत प्रकाश के क्षीण स्रोत बनकर भटक रहे हैं परंतु यह कज्जल-तम इतना सघन है कि उनकी सारी जलन भी निष्फल और असार सिद्ध हो रही है, तो अन्यत्र इस कालरात्रि पर विजय पाने का आश्वासन भी मुखर है। कवि को प्रतीक्षा है उस क्षण की जब किसी अपरिचित ज्योतिपथ में रश्मियों के रथ में इंद्रधनुष प्रकट होगा तथा जीवन के अभियान की सफलता के रूप में किरणें विजयहार पहनाएंगी -

‘‘क्या जाने किस ज्योतिष्पथ में
सुरचाप विलोल रश्मि -रथ में
जीवन अभियान सफल होगा पाकर किरणों का विजय-हार।’’

प्रेम की स्थितियाँ भी कुछ गीतों में मर्मस्पर्शी बन पड़ी हैं । कवियों की एक प्रिय स्थिति यह है कि रात बीत रही है और प्रेमीयुगल को न चाहते हुए भी एक दूसरे से अलग होना पड़ रहा है। ऐसी स्थिति में आलूरि बैरागी को प्रभात की प्रथम मधु किरण भी कृपाण सरीखी प्रतीत होती है तो इसमें कोई अस्वाभाविकता नहीं दीखती -

‘‘वह प्रभात की प्रथम मधु-किरण
रक्त-राग-रंजित कृपाण बन
मेरा मरण संदेश लिखेगी
कर देगी विक्षुब्ध हृदय तव।’’

मिलन और विछोह की एक अन्य स्थिति यह भी है कि कोई अचानक मिल जाता है - क्षण भर के लिए। और बिछुड जाता है। पर यह क्षणिक मिलन, क्षणिक दर्शन, क्षणिक चितवन, सदा के लिए अविस्मरणीय अनुभव बन जाता है, संपदा बन जाता है, जीवन का संबल बन जाता है। यह अनुभव तब एक भिन्न प्रकार की कसक से भर उठता है जब बिछोह का कारण वर्ग-वैषम्य हो। कवि को याद है कि

‘‘जीवन पथ के किसी मोड पर तू क्षण भर के लिए मिली थी।
तेरे जीवन का राज-यान
था लक्ष्य-हीन मेरा प्रयाण
क्षण भर तो सामने हुए थे, चितवन भर के लिए मिली थी।’’


और फिर सारा जीवन किसी की प्रतीक्षा में बीत जाता है। लेकिन राजयान से जाने वाले कभी वापस लौटते थोड़े ही हैं -

‘‘किसकी राह देखता पगले!
इधर नहीं कोई आएगा
खबर नहीं कोई लाएगा
संध्या की लज्जित लाली में
किसकी चाह देखता पगले!’’


इसके बावजूद कवि की जिजीविषा अदम्य है। वह महाकाल से भिडने और यम से ताल ठोंक कर लड़ने को तत्पर है। तलवार की धार पर भी दौड़ना पड़े तो परवाह नहीं। दोनों पंख घायल हों पर उड़ना पड़े तो परवाह नहीं। जाना-पहचाना सब त्याग कर स्वयं से भी बिछुड़ना पड़े तो परवाह नहीं। परवाह है तो बस इस बात की कि आकाश को छूना है और इससे पहले पीछे नहीं मुड़ना है। देह भले हारी हुई और लाचार हो। नियति और विधि भले ही विपरीत हो। सारी परिस्थितियाँ शत्रुता पर उतारूँ हों। तब भी हड्डियों में लोहे की आवाजों के साथ चरम द्वंद्व छिड़ जाए तो पीछे नहीं हटना है। तभी यह संभव होगा कि काल के वक्ष पर ज्वाल के शूल से मनुष्य अपनी मुद्रा अंकित कर सके -

‘‘ज्वलित गलित दारुण मारण-भय
क्षार-क्षार सब मृण्मय संशय
शेष स्वीय सत्ता का विस्मय
काल-वक्ष पर ज्वाल-शूल से चिर मुद्रा निज गढ़ना मीत !’’
आज इतना ही।
ए बी सी की तीसरी काव्य कृति ‘वसुधा का सुहाग’ पर चर्चा अगली बार
*प्रीत और गीत (गीत संकलन)/
आलूरि बैरागी/
मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद/
2007/
125 रुपये/
पृष्ठ 100/सजिल्द।




3 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन पेशकश...अच्छी जानकारी मिली शुक्रिया...

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  2. एक महान कवि के रचना संसार का गहन विश्लेषण देखकर ऐसा लगता है कि लेखक ने इसे एक शोध की गम्भीरता से तैयार किया है। ब्लॉग लेखन के पण्डितों को इसे पचाने में थोड़ी कठिनाई हो सकती है, लेकिन इस विषय में रुचि रखने वालों के लिए यह अमृत तुल्य है।

    लेखक को बधाई और कोटिशः धन्यवाद।

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आपकी सार्थक प्रतिक्रिया मूल्यवान् है। ऐसी सार्थक प्रतिक्रियाएँ लक्ष्य की पूर्णता में तो सहभागी होंगी ही,लेखकों को बल भी प्रदान करेंगी।। आभार!

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