निरंकुशा: हि कवयः
- ऋषभदेव शर्मा
कवियों की खीझ युगों पुरानी है. कवि जब अपने पाठक या श्रोता से असंतुष्ट होता है तो अपनी और कविता की स्वायत्तता के नारे लगाने लगता है..मुझे न मंच चाहिए, न प्रपंच , न सरपंच - इससे कवि के आत्म दर्प का पता चलता है. इसके बावजूद इस तथ्य को नहीं नकारा जा सकता कि कविता मूलतः संप्रेषण व्यापार तथा भाषिक कला है. संप्रेषण व्यापार के रूप में उसे गृहीता की आवश्यकता होती है तथा शाब्दिक कला के रूप में उसका लक्ष्य सौन्दर्य विधान है. इसलिए और कोई हो न हो , पाठक कविता का सरपंच है. सहृदय के बिना साधारणीकरण की प्रक्रिया सम्भव नहीं और साधारणीकरण के बिना रस विमर्श अधूरा है.यों,पाठक रूपी सरपंच की उपेक्षा करके एकालाप तो किया जा सकता है, काव्य सृजन जैसी सामाजिक गतिविधि सम्भव नहीं। शायद इसीलिये कविगण समानधर्मा , तत्वाभिनिवेशी और सहृदय पाठक के लिए युगों प्रतीक्षा करने को तैयार रहते हैं और अरसिक पाठक के समक्ष काव्य पाठ को नारकीय यातना मानते हैं........अरसिकेषु कवित्त निवेदनं, शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख!
गेयता या संगीत कविता की अतिरिक्त विशेषताएँ हैं, अनिवार्यता नहीं. बल्कि कवि की भाषिक कला की कसौटी यह है कि वह अपने अभिप्रेत विषय, विचार या भाव को किस प्रकार एक सौन्दर्यात्मक कृतित्व का रूप प्रदान करता है..सटीक और सोद्देश्य शब्द चयन तथा उसकी आकर्षक प्रस्तुति की प्रविधि की भिन्नता ही किसी कवि के वैशिष्ट्य की परिचायक होती है. यही कारण है कि भारतीय काव्य चिंतन के ६ में से ४ सम्प्रदाय भाषा पर अधिक बल देते हैं और ध्वनि काव्य को सर्व श्रेष्ठ काव्य माना जाता है. कवि शब्द शिल्पी है, इसलिए उसे जागरूकता पूर्वक कृति का शिल्पायन करना ही चाहिए।
सत्य वचन: सौन्दर्य तो क्षण क्षण नवीनता से ही उपजता है.
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख.